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भारतवर्ष के इतिहास की सामग्री इतने अन्धकार में है कि पुरातत्ववेत्ताओं की सैकड़ों वर्षों
| से लगातार खोज जारी रहने पर भी अभीतक उसका बहुत सा भाग तिमिराच्छन है और बहुत-सी महत्वपूर्ण बातों के अभाव से उसके कई अङ्ग अधूरे पड़े हुए हैं। इस देश में एक तो वैसे ही लोगों की रुचि अपने वैज्ञानिक इतिहास का निर्माण करने की ओर बहुत कम रही, दूसरे जिन लोगों ने इस विषय पर कुछ लिखा भी तो समय के भीषण प्रहारों से, बार-बार होने वाले राज्यपरिवर्तनों और राज्यक्रान्तियों से वह सामग्री भी रक्षित न रह सकी। फिर भी आधुनिक अन्वेषणाओं से और पुरातत्ववेत्ताओं के सतत प्रयत्नों से जो कुछ भी टूटे फूटे शिलालेख, ताम्रपत्र, प्रशस्तियाँ वगैरह प्राप्त हुई हैं उनसे भारतवर्ष के राजनैतिक इतिहास और राजपरिवर्तनों पर काफ़ी प्रकाश पड़ने लगा है। मगर जातियों का अलग अलग इतिहास तो अभी भी वैसा ही अन्धकार के गर्क में लीन है।
ओसवाल जाति के इतिहास के सम्बन्ध में भी यही बात सोलह आना सच उतरती है। इस महान् जाति के द्वारा किये गये उज्ज्वल और महान कार्यों से राजपूताने का मध्यकालीन इतिहास दैदीप्यमान हो रहा है और इसके अन्दर पैदा होने वाले महापुरुषों का नाम उस समय के इतिहास के अन्दर स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर होता है। इतने पर भी यदि आज पूछा जाय कि राजपूताने के रणांगण में भांति-भांति के खेल दिखानेवाली इस जाति की उत्पत्ति कब, कैसे और कहाँ से हुई तो इतिहासवेत्ता चुप हो जाते हैं। पुरातत्ववेत्ता आँखें बन्द कर लेते हैं और इतिहास अपनी असमर्थता को प्रकट कर देता है। कोई मज़बूत आधार नहीं, कोई सन्तोषजनक प्रमाण नहीं. कोई विश्वासनीय लेख नहीं जिसके बल पर इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई निर्विवाद बात बतलाई जासके ।
प्राचीन यतियों के शास्त्र भण्डारों में, भाटों की वंशावलियों में, और जैनाचार्यों के जैन ग्रन्थों में ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय में अनेक दंतकथाएँ, अनेक किम्बदंतियाँ और अनेक कान्य प्राप्त होते हैं। मगर उन सबके ऊपर विचार करने पर इस बात का पता चलता है कि कुछ लोगों ने तो इस जाति