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________________ ओसवाल जाति का इतिहास रास्ते में आगरा ठहरे । वहीं खड्गसिंहजी से आपका परिचय हुआ। जगत सेठ जो खड्गसिंहजी के स्वजातीय और सहधर्मीय थे, उनसे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए तथा मुर्शिदाबाद में जैनियों की कमी को अनुभव कर उन्होंने खड्गसिंहजी को बंगाल आने के लिये आमन्त्रित किया। उनके आमन्त्रण से खड्गसिंहजी सं० १८२३ में बंगाल आये और अजीमगंज में बस गये। कुछ समय बाद जगत सेठजी के आग्रह से आपने दिनाजपुर में कोठी खोली और वहाँ अपना कारबार शुरू किया। कारबार में क्रमशः वृद्धि होने पर कलकत्ते में भी आपने एक शाखा खोली। यह वह समय था जब कि उनका भाग्य उनके ऊपर मुसकरा रहा था और उनका कारबार तीव्र गति से उन्नति की ओर प्रवाहित हो रहा था। ___ सं० १८४६ में आपके एक पुत्र हुए जिनका नाम उत्तमचंदजी था। उत्तमचंदजी के पैदा होने के पूर्व ही उन्होंने मोतीचंदजी नामक एक युवक का पालन-पोषण पुत्रवत् किया था। कहना न होगा कि पुत्र-रत्न की प्राप्ति हो जाने पर भी मोतीचंदजी के ऊपर आपका स्नेह पूर्ववत् ही रहा । इसका एकमात्र कारण. यही था कि आप बड़े उदार हृदय और उच्च प्रकृति के मनुष्य थे। आपको अपने धर्म पर अटल श्रद्धा थी। इसी के परिणाम स्वरूप आपने दिनाजपुर में आठवें तीर्थकर श्रीचन्द्रप्रभु स्वामी का एक सुन्दर मन्दिर और धर्मशाला बनवाये । सं० १८५९ में खड्गसिंहजी की मृत्यु के पश्चात् उत्तमचंदजी और मोतीचंदजी जायदाद के उत्तरा. धिकारी हुए। उत्तमचन्दजी की नाबालिगी के कारण जायदाद का सारा प्रबन्ध मोतीचन्दजी ने अपने हाथ में लिया। इन दोनों भाइयों में गहरा प्रेम था। परन्तु दुर्भाग्यवश उत्तमचंदजी का केवल १७ वर्ष की उम्र में स्वर्गवास हो गया। ___ कुछ ही समय पश्चात् सं० १८६५ में बाबू मोतीचन्दजी का भी स्वर्गवास हो गया। अब केवल उत्तमचन्दजी की विधवा पनी बीवी माया कुमारी ही बच रहीं। इन्होंने अपने पिता बाबू मेघराजजी चोरड़िया की देख-रेख में जायदाद का काम सम्हाला। कुछ समय पश्चात् इन्होंने गुलालचन्दजी को दत्तक लिया । बीबी मायाकुमारी ने अजीमगंज में सं० १९१३ में पाँचवें तीर्थकर श्री सुमतिनाथजी का मन्दिर बनवाया और उसी वर्ष जैनियों के प्रसिद्ध तीर्थ शत्रुञ्जय पर मूल टोंक में श्री आदीश्वर भगवान के मन्दिर के उपरिभाष में प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई पश्चात् सं० १९९६ में इनका परलोकवास हुआ । बाबू गुलालचन्दजी--बाबू गुलालचन्दजी ने उत्तराधिकारी होने के पश्चात् जायदाद की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया। इन्होंने अपने इलाके में कुछ ऐसे नियम प्रचलित किये जिससे प्रजा को कई सुविधायें मिलीं और वे लोग इनसे विशेष प्रसन्न रहने लगे। फलस्वरूप अब इनकी बायदाद में अच्छा लाभ होता रहा और राजकीय कर्मचारी भी इन पर बड़ी श्रद्धा रखने लगे। .
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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