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ओसवाल जाति का इतिहास
"वादि कुअर केशरी" की उपाधि से विभूषित किया। इसके बाद आचार्य महोदय ने शैवमत के वाक्पति नामक योगी को जैन बनाया । आम राजा पर इन आचार्य महोदय का अप्रिहत धार्मिक प्रभाव पड़ा था। इससे संवत् ८२५ में इन्होंने कनोज, मथुरा, मनहिल्लपुर पट्टण, सतारक मगर, मोढेरा आदि नगरों में जिनालय बनवाये, उसने शचुंजय तथा गिरनार की तीर्थ यात्रा की। उस समय गिरनार तीर्थ के अधिकार के सम्बन्ध में दिगम्बर तथा श्वेतांबर समुदाय में झगड़ा पड़ गया था। श्री बप्पमसूरि के प्रभाव से उक तीर्थ स्थान श्वेताम्बर तीर्थ माना गया। श्री बपभट्टसूरि के शिष्य नबसूरि तथा गोविंदसूरि के उपदेश से, भाम राजा के पौत्र भोज राजा ने आम राजा से भी अधिक जैन धर्म की प्रभावना की। इस भोजदेव का दूसरा नाम मिहिर तथा आदि बरहा था। वह संवत् ९०० से लगाकर ९३८ तक गद्दी पर रहा । किसी २ इतिहास वेत्ता
के मतानुसार संवत् ९५० तक उसने राज्य किया । * * शिलाचार्य
आप निवृत्ति गच्छ के मानदेवसूरि के शिष्य थे । संवत् ९२५ में आपने दस हजार प्राकृत श्लोकों में “महापुरुषचयं” नामक एक गद्यात्मक ग्रन्थ रचा, जिसमें ५४ महापुरुषों का चरित्र है। उसकी छाया लेकर सुप्रख्यात् जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि ने 'त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' संस्कृत में रचा। इन्हीं आचार्य देव ने ( शिलाचार्य या शिलांगाचार्य) संवत् ९३३ में आचारांग सूत्र और सूयगडांग सूत्र पर संस्कृत में वृत्ति रची। उन्होंने इन दो सूत्रों के सहित ग्यारह अंगों पर भी टीका रची। .. हाल में उनकी रची हुई भाचारांग सूत्र तथा सूयगदांग सूत्र नामक दो अंगों की टीकाएँ उपलब्ध हैं। उन टीकाओं के अवलोकन से यह प्रतीत होता है कि इनके पहले भीगंधहस्तिसूरिनी ने इन सूत्रों की टीका की थी। शीलाचार्य को इन टीकाओं के करने में श्री बाहरी गणी से बडी सहायता मिली थी। इस बात को वे अपनी टीकाओं में स्वीकार करते हैं।
• आम राजा तथा भोजदेव के लिये श्रीमान् मोझाजी कृत राजपूताने के इतिहास के प्रथम खए के पृष्ठ १६१ तथा १६२ देखिये। उक्त पैरेग्राफ में लक्षणावती नामक नगर का वर्णन आया है, उसका आधुनिक नाम लखनऊ है। गौड़ाधिपति धमराज बंगाल के इतिहास में धर्मपाल के नाम से प्रसिद्ध है। वह पाल वंश का प्रतिष्ठाता था और संवत् ७६५ से ८३४ संवत् तक उसने राज्य किया।
नजैन साहित्य नो इतिहास पृष्ठ १८१..