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________________ ओसवाल जाति का इतिहास संवत् १६४६ में खम्बात् में जाकर सोनी सेजपाल के बनाए हुए भव्य मन्दिर की प्रतिष्ठा सूरिजी ने को । इसके बाद संवत् १६४८ में सम्राट अकबर ने शत्रुजय पर लगे हुए कर को बंद करने का और उसके दान का फरमान भेजा और आचार्य विजयसेन सूरि (हीर विजय सूरि के शिष्य) के दर्शनों की इच्छा प्रकर की तब श्री विजयसेन सूरि लाहौर की ओर गये और जेठ सुदी १२ को लाहौर शहर में प्रवेश किया । यहाँ पर बादशाह ने इन्हें खुशफहम ( सुमति ) का विरुद प्रदान किया। इसके पश्चात् सूरिजी के उपदेश से सम्राट ने गाय, बैल, भैंस, और पाड़े की हिंसा न करना, मृतक व्यक्ति ( लावारिसी) के द्रव्य को सरकार में न लेना इत्यादि ६ फरमान और जारी किये । विजयसेनसूरि ने अकबर की राजसभा में ३६६ ब्राह्मणवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कियेजिससे खुश होकर सम्राट ने इन्हें 'सवाई' विजयसेन सूरि का विरुद दिया। इस प्रकार राजा और प्रजा, हिन्दू और मुसलमान सबकोजैन शासन की पवित्र लाईन पर लगानेवाले और जैन शासन का विश्वव्यापी प्रचार करने वाले इन आचार्य श्री का स्वर्गवास संवत् १६५२ में हो गया। कहना न होगा कि सम्राट अकबर पर जो जैनधर्म की छाप पड़ी थी, वह आचार्य श्री ही की कृपा का फल था। अन्य प्राचार्य इसी प्रकार संवत् ११३२ में श्रीजिनराजसुरि और संवत् १४७८ में श्रीभद्रसूरि हुए जिन्होंने भण्डारी गोत्र की स्थापना की । संवत् १५७५ में श्रीजिनभद्रसूरि ने शावक, शामक और संबढ़ गौत्र की और संवत् १५५२ में श्री जिनहँससूरि ने गेहलड़ा गौत्र की स्थापना की । इसी प्रकार श्री (रविप्रभ-सूरि ने लोढा, मानदेवसूरि ने नाहर, और जयप्रभुसूरि ने छजलानी और घोड़ावत गौत्रों की स्थापना की। उपरोक्त सारे कथन से इस बात का पता सहज ही लग जाता है कि संवत् १००० से लेकर संवत् १६०० के पहले तक श्रोसवाल जाति का सितारा बहुत तेजी पर था। इसके अन्दर जितने भी भाचार्य हुए उन्हों ने इस बात की हरचंद कोशिश को कि अन्य धर्मियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर ओसवाल जाति के कलेवर को स्मृद्ध किया जाय । कहना न होगा कि इन आचार्यों की दिव्य प्रतिभा और अलौकिक तेज के भागे बड़े २ राजा, महाराजा और सम्राट तक नत-मस्तक हुए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि ओसवाल जाति के अन्दर जो २ व्यक्ति सम्मिलित हुए वेप्रायः सभी उच्च घरानों के प्रतिभाशाली और हर तरह की जोखिम को उठाने वाले साहसी पुरुष थे । यही कारण है कि एक ओर तो आचार्य लोग इस जाति के क्लेवर को पुष्ट कर ही रहे थे कि दूसरी ओर इसके अन्दर प्रविष्ट होने वाले महापुरषों ने अपनी प्रतिभा के बल से क्या राजनैतिक क्या धार्मिक क्या व्यापारिक और क्या साहित्यिक इत्यादि सभी प्रकार की लाईनों में घुसकर अपने तथा अपनी जाति के नाम को अमर कर दिया। ३८
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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