SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ओसवाल जाति का इतिहास स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है; उनकी राष्ट्रीयता भंग हो सकती है; उनका आत्मसम्मान भी चला जाता है मगर यदि उनके अन्दर नैतिकता का कोई अंश शेष रह जाता है तो वह उस नैतिकता के बल से इन सब खोई हुई चीजों को एक जोरदार धक्के के साथ पुनः प्राप्त कर लेती हैं। मगर जो जाति अपनी नैतिकता को खो चुकती है उसके भविष्य के अन्दर प्रकाश की एक रेखा भी बाकी नहीं रह जाती; उसका सर्वस्व चला जाता है । भारतीय जातियों का भी ठीक यही हाल था। वे अपनी नैतिकता को खो बैठी थीं। सारे देश में कोई भी ऐसी बलवान शक्ति का अस्तित्व शेष न था, जो देश के वातावरण को एकाधिपत्य में रख सके। देश की शान्ति स्वप्नवत हो गई थी; राजा लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे औरंगजेब के मरते ही मुगल साम्राज्य के तख्त के पाये जीर्ण हो गये, जिसका लाभ उठा कर दक्षिण में मरहठा लोग शिवाजी के महान आदर्श को भूल कर अपनी २ स्वार्थं लिप्सा को चरितार्थ करने के लिये लूटमार मचा रहे थे; दूसरी ओर होलकर और सिंधिया अपने २ राज्य विस्तार की चिन्ता में यत्र-तत्र आक्रमण कर रहे थे । तीसरी भोर राजपूताने के राजा अपनी सारी संगठन शक्ति को खोकर प्रतिहिंसा की आग में बावले हो रहे थे; चौथी ओर पिण्डारी दल अपनी भयंकर लूटमार से जनता के अमन आमान को खतरे में डाले हुए था और इन सब से ऊपर इन सब लोगों की कमजोरी और पारस्परिक फूट व वैमनस्यता का फ़ायदा उठा कर बुद्विमान अंग्रेज़ अपनी राज्य-सत्ता का विस्तार करने में लगे हुए थे 1 हुए । ऐसी भीषण परिस्थिति के अन्तर्गत ई० सन् १७६२ में महाराणा अरिसिंहनी सिहांसनारूढ़ आपका मिजाज बहुत तेज होने के की वजह से आपके विरोधियों की संख्या शीघ्र बढ़ गई। सलू म्बर, बीजौलिया, आमेर तथा बदनोर को छोड़ कर प्रायः मेवाड़ के सारे सरदार इनके खिलाफ हो गये और इन सरदारों में महाराणा के खिलाफ सिंधिया को निमन्त्रित किया। एक बार तो अरिसिंहजी की सेना ने सिंधिया की सेना को परास्त कर दिया मगर दूसरी बार फिर सिंधिया ने आक्रमण किया और इस बार मेवाड़ की सेना पराजित हुई । अरिसिंहजी ने ६४ लाख रुपया सिंधिया को देने का इकरार करके अपना पिंड छुड़ाया। इस रकम में से ३३ लाख रुपय़ा तो किसी प्रकार महाराणा ने नकद दे दिया और शेष के लिये जावद, जीरण, नीमच आदि परगने सिंधिया के यहाँ पर गिरने रख दिये। इसी समय होकर मे भी निम्बाहेड़े का परगना ले लिया । इस प्रकार मेवाड़ का बहुत उपजाऊ और कीमती हिस्सा मेवाड़ से निकल गया । ऐसे विकट समय में मेहता अगरचन्दजी को महाराणा अरिसिंहजी ने अपना दीवान बनाया और एक बहुत बड़ी जागीर के द्वारा उनका सम्मान किया। मेहता अगरचन्दजी बड़े स्वामिभक्त और कर्त्तव्य परायण व्यक्ति थे। जिस प्रकार मिलिटरी लाइन में वे अपनी बहादुरी व सैनिक शक्ति की वजह से प्रसिद्ध हुए उसी प्रकार राजनीति और शासन कुशलता के अन्दर उन्होंने अपने गम्भीर मस्तिष्क 06
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy