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धार्मिक क्षेत्र में श्रोसवाल जाति
का उल्लेख है। चौथा लेख संवत् १४९६ की जेठ सुदी १० बुधवार का है जिसमें श्रीमाल जाति के सेठ करमसी तथा उनकी भार्या मटकू के पुत्र द्वारा अपने कुल के श्रेय के लिए श्री कुथुनाथ का बिम्ब प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है। पाँचवा लेख संवत् १५५३ की वैशाख सुदी १ शुक्रवार का है इसमें ओसवाल वंशीय साः पनरवद और उनकी भार्थ्या मानू के पुत्र साः वदा के पुत्र कुंवरपाल, सोनपाल के द्वारा श्री वासु पूज्य बिम्ब प्रस्थापित किये जाने का उल्लेख है। प्रतिष्ठाचार्य खरतर गच्छ नायक श्री जिनसमुद्र सूरि थे। छठा लेख संवत् १५७० की माघ वदी १३ वुधवार का है। इसमें लिखा है कि ओसवाल वंशीय सुराणा गौत्र के साः केशव के पौत्र पृथ्वी मल ने महाराज करमसी धरमसी के सहयोग में श्री अजितनाथ भगवान के बिम्ब को बनवाकर माता पिता के पुण्य के अर्थ प्रतिष्ठित करवाया। इसके प्रतिष्ठा-चार्य श्री धर्मघोष गच्छ के भट्टारक श्री नंदवद्धन सूरि थे। यहाँ की चौबीसी पर भी कुछ लेख खुदे हैं, जिनमें पहिला लेख संवत् १२२० तथा दूसरा लेख संवत् १५०७ का है। श्री आदिनाथ की धातु प्रतिमा
यह प्राचीन मूर्ति भारत के वायव्य प्रांत से बाधू पूरणचन्द्रजी नाहर को प्राप्त हुई है। यह मूर्ति पद्मासन लमा कर बैठी हुई है और इसके आस पास की मूर्तियां कायोत्सर्ग के रूप में खड़ी हैं। सिंहासन के नीचे नवग्रहों के चित्र और वृषभ युगल हैं । इससे यह मूर्ति बड़ी सुन्दर और मनोज्ञ हो गई है। अभी तक|जो सब से अधिक प्राचीन जैन मूर्तियां मिली हैं उनमें से यह एक है। इस मूर्ति के पीछे जो लेख खुदा हुआ है वह इस प्रकार है।
‘पजक सुत अम्बदेवेन ॥ सं० १०७७ ॥' इससे यह मालूम होता है कि यह मूर्ति संवत् १०७७ के साल की है। आठवीं सदी की जैन मूर्ति
उदयपुर के पास के एक गांव से बाबू पूरणचन्द को एक जैन मूर्ति मिली थी। वह मूर्ति अभी तक उनके पास है। इस मूर्ति के ऊपर कर्नाटकी लिपि में एक लेख खुदा हुआ है। वह इस प्रकार है।
'श्री जिनवलभन सजन भजीय वय मडिसिदं प्रतीमः, श्री जिन बल्लभन सज्जन चेटिय भय मडिसिद प्रति में
इस मूर्ति के नीचे नवग्रहों के चित्र हैं और सिर पर तीन छत्र और शासन देव तथा देवी है।