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ओसवाल जाति का इतिहास
उच्च वक्ता हैं। आपकी युक्तियाँ अकाव्य रहती हैं। ज्योतिष, वैद्यक आदि विषयों के भी आप ज्ञाता है। भापके पाटवी शिष्य आचार्य उदयसूरिजी एवं आचार्य विजयदर्शनसूरिजो धर्मशास्त्र, म्याकरण, दर्शन न्याय के प्रखर विद्वान है। आप महानुभावों ने भी अनेकों प्रन्थों की रचनाएँ की है। आचार्य उदयसूरिजी के शिष्य आचार्यविजयनंदन सूरिजी भी प्रखर विद्वान है। आपने भी अनेकों प्रन्थों की रचनाएँ की हैं।
श्री आचार्य विजयशन्ति सूरिश्वरजी-अपने प्रखर तेज, योगाभ्यास एवं अपूर्व शांति के कारण आप वर्तमान समय में न केवल भारत के जैन समाज में प्रत्युत ईसाई, वैष्णव आदि अन्य धर्मावलम्बियों में परम पूजनीय आचार्य माने जाते हैं। आपका जन्म भणादर गांव में संवत् १९४५ की माघ सुदी ५ को हुआ। मापने मुनि धर्मविजयजी तथा तीर्थविजयजी से शिक्षा ग्रहण कर संवत् १९६१ की माघ सुदी २ को मुनि तीर्थविजयजी से दीक्षा ग्रहण की। सोलह वर्षों तक मालवा आदि प्रान्तों में भ्रमण कर संवत् १९७७ में आप भाबू पधारे। संवत् १९९० की वैशाख वदी" पर बामनवाइजी में पोरवाल सम्मेलन के समय १५ हजार जैन जनता ने आपको "जीवदया प्रतिपाल योग लब्धि सम्पन्न राजराजेश्वर" पदवी अर्पण कर अपनी भक्ति प्रगट की। यह पद अत्यंत कठिनता पूर्वक जनता के सत्यागृह करने पर आपने स्वीकार किया। इसके कुछ ही समय बाद “वीर-वाटिका" में आपको जैत जनता ने “जगत गुरु" पदसे अलंकृत किया। इसी साल मगसर महीने में आप "भाचायं सूरि सम्राट" बनाये गये। हालाँ कि उपरोक्त सब पदविएँ आपके तेज व प्रताप के सम्मुख नगण्य हैं, लेकिन श्रद्धालु जनता के पास इससे बढ़कर और कोई वस्तु नहीं थी, जो आपके सम्मान स्वरूप अर्पित की जाती। आपने लाखों मनुष्यों को अहिंसा का उपदेश देकर मांस व शराब का त्याग करवाया। भालू में पशुओं के लिए “शान्ति पशु औषधालय" की स्थापना कराई। यह औषधालय लीबड़ी नरेश तथा मिसेज ओगिल्वी की संरक्षता में चलता रहा है। अभी कुछ ही दिन पूर्व आपको उदयपुर में नेपाल राजवंशीय डेपुटेशन ने अपनी गवर्नमेंट की ओर से “नेपाल राज गुरु" की पदवी से अलंकृत किया। कई उच्च अंग्रेज व भारत के अनेकों राजा महाराजा भापके अनन्य भक्त हैं। आपके प्रभाव से लगभग सौ राजाओं और जागीरदारों ने अपने राज्य में पशु बलिदान की कर प्रथा बन्द की है। आप अधिकतर आब पर विराजते हैं।
श्री प्राचार्य विजयवल्लभसूरिजी-आपका शुभ जन्म विक्रमी संवत् १९२७ की कार्तिक सुदी २ को वीशा श्रीमाली जाति में बड़ोदा निवासी शाह दीपचंद भाई के गृह में हुआ, एवं आपका जन्म नाम छगनलाल रक्खा गया । बाल्यकाल से भाप बड़ी प्रखर बुद्धि के थे। आपने संवत् १९४३ में श्रीमान भास्मारामजी महाराज से राधनपुर में दीक्षा ग्रहण की और श्री हर्षविजयजी के आप शिष्य बनाये गये, तथा आपका नाम मुनि श्री विजयवल्लभजी रक्खा गया। आपने संस्कृत, प्राकृत, मागधी का ज्ञान प्राप्त कर न्याय ज्योतिष, दर्शन और आगम शास्त्रों का अध्ययन किया। आपकी प्रखर बुद्धि एवं गंभीर विचारशक्ति पर आत्मारामजी जैसे प्रकांड विद्वान भी मोहित थे। अनेकों स्थानों में आपने शालार्थ करके विजय प्राप्त की है। सम्वत् १९८१ में लाहौर में भारत के जैन संघ ने भापको मगसर सुदी५के दिन “आचार्य" पद से सुशोभित किया। आपने अपने प्रभावशाली उपदेशों से कई गुरुकुल एवं जैन शिक्षा संस्थाएँ, लायबेरियाँ, ज्ञान भण्डार वगैरा स्थापित करवाये, जिनमें श्री मात्मानंद जैन गुरुकुल गुजरानवाला, श्री आत्मानन्द जैन