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ओसवाल जाति का इतिहास
रीयांवाले सेठों का खानदान अजमेर
राजा धूहड़जी के पश्चात् क्रमशः रायपालजी, मोहणजी, महेशजी, छेवटजी, पहेलजी, कोजाजी, जयमलजी और ढोलाजी हुए। ढोलाजी की सन्तानें ढोलावत मुणोत कहलाई । इनके पश्चात् होलाजी, तेजसिंहजी, सिंहमलजी और जीवनदासजी हुए।
नगर सेठ जीवनदासजी — मुहणोत जीवनदासजी कई पीढ़ियों से रीयां ( पीपाड़ के पास ) में निवास करते थे । सेठ जीवनदासजी अथवा इनके पिताजी रीयां से दक्षिण प्रांत में गये और वहां पेशबाभों के खजांची मुकर्रर हुए तथा पूने में इन्होंने दुकान स्थापित कर काफी सम्पत्ति और स्थाई जायदाद उपार्जित की। आपके समय से ही यह खानदान प्रसिद्धि में आया। कहते हैं कि एक बार जोधपुर महाराजा मानसिंहजी से किसी अंग्रेज ने पूछा कि मारवाड़ में कितने घर हैं, तो दरबार ने कहा कि "ढाई घर हैं, एक घर रीयां के सेठों का, दूसरा बीड़लाड़े के दीवानों का और आधे में सारा मारवाड़ है ।"
कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय यह परिवार ऐसी समृद्धि पूर्ण अवस्था में था । जोधपुर दरबार महाराजा विजयसिंहजी ने संवत् १८२९ में सेठ जीवनदासजी को नगर सेठ की उपाधि तथा १ मास सक क़ैद में रखने का अधिकार बख्शा था । रीयां में इनकी उत्तम छत्री बनी हुई है। मारवाड़ में यह किम्वदन्ती प्रसिद्ध है, कि एक बार जोधपुर दरबार को द्रव्य की विशेष आवश्यकता हुई और दरबार सांडनी पर सवार होकर रीयां गये, उस समय यहां के सेठों ने एक ही सिक्के के रुपयों के ऊँटो की रीयां से जोधपुर तक कतार लगवा दीं। इससे रीयां गांव, सेठों की रीयां के नाम से विख्यात हुआ । इस प्रकार की कई बातें सेठ जीवनदासजी के सम्बन्ध में प्रचलित हैं । जोधपुर राज्य की ख्याति के अलावा पेशवा राज्य में भी इनका काफी दबदबा था । उस समय ये करोड़पति श्रीमंत माने जाते थे । ना तथा पेशवाई हद्द में इनकी कई दुकानें थीं, इसके अलावा अजमेर में भी उन्होंने अपनी एक ब्रांच खोली थी । इनके गोवर्द्धनदासजी रघुनाथदासजी तथा हरजीमलजी नामक तीन पुत्र हुए। मुहणोत गोवर्द्धनदासजी के खींवराजजी तथा हरचन्ददासजी, रघुनाथदासजी के शिवदासजी और हरजीमलजी के लक्ष्मनदासजी नामक पुत्र हुए। इनकी दुकानें दक्षिण तथा राजपूताने के अनेकों स्थानों में थीं। शिवदासजी के पुत्र रामदासजी हुए ।
मुहणोत रामदासजी तथा लक्षमणदासजी - आप पर जोधपुर महाराजा मानसिंहजी की बड़ी कृपा थी । दरबार ने इन दोनों सज्जनों को समय-समय पर पालकी, सिरोपाव, कड़ा कंठी, कीनखाव, मोती वगैरा इनायत किये थे। महाराज मानसिंहजी और उदयपुर दरवार से इन्हें कई परवाने मिले थे । संवत् १८९९ में मुणोत लछमणदासजी का देहान्त हुआ । इस समय इनका परिवार कुचामण में बसता है। जिसमें पन्नालालजी, तेजमलजी, सुजानमलजी वगैरा इस समय विद्यमान हैं।
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