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ओसवान जाति का इतिहास
तो इससे उन भाचार्य श्री की सागरवत् गंभीरता और उनके हृदय की विशालता का असर मनुष्य के ऊपर बीस गुना ज्यादा पड़ता है। वे हमको उन दिव्य महात्माभों के अंदर दृष्टिगोचर होते हैं जो जाति, वर्ण, और प्रान्तीयता की भावनाओं से उंचे उठकर मनुष्य मात्र को एक समान और निस्पृह रष्टि से देखते हैं। इस प्रकार यदि यह किम्बदन्ती सत्य हो तो भोसवाल जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त और भी अधिक ऊँचाई पर पहुंच जाता है।
भी रखप्रभसूरि के पश्चात् भौर भी भनेक भाचार्यों ने इस जाति की उन्नति के लिये बहुत ही प्रभाव शाली चेष्टा की। उन्होंने स्थान २ पर मनुष्य जाति को प्रतिबोध देदे कर नये नये गौत्रों के नाम से इस जाति में मिलाना शुरू किया। ऐसा कहा जाता है कि इन आचार्यों के परिश्रम से भोसवाल जाति के अन्दर चौदह सौ से भी अधिक गौत्रों और उपगौत्रों की सृष्टि हुई। इन गौत्रों के नामकरण कहीं पर स्थान के नाम से, कहीं पर प्रभाव शाली पूर्वजों के नाम से, कहीं पर भादि वंश के नाम से, कहीं म्यापारिक कार्य को संश से और कहीं पर अपने प्रशंसनीय कार्य कुशलता के उपलक्ष्य में हुए पाये जाते हैं। इससे पता लगता है कि उन भाचार्यों का हृदय अत्यन्त विशाल था, जाति और धर्म की वृद्धि ही उनका प्रधान लक्ष्य था । इसके सम्बन्ध में वे किसी भी प्रकार की रूदिया हठ पर भरे हुए नथे । अस्तु ।
जैनाचार्यों पर चमत्कारवाद का असर
इस सम्बन्ध में इस सारे इतिहास के वातावरण में हमें एक ऐसे भाव का असर भी दिखलाई देता है जो किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के हृदय में खटके बिना नहीं रह सकता। जो शायद जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के भी खिलाफ है। इतिहासकार के कठोर कर्तव्य के माते इस भाव पर प्रकाश डालने के लिए भी हमें मजबूर होना पड़ रहा है। ओसवाल जाति के गौत्रों की उत्पत्ति के इतिहास को जब हम बारीकी की निगाह से देखते हैं तो हमें मालूम होता है कि उन आचार्यों ने मनुष्यों को धार्मिक प्रभाव से प्रभावित करके नहीं, प्रत्युत अपने चमस्कारों के प्रभाव से अपने वश कर इस जाति में मिलाया था। कहीं पर किसी सांप के काटे को अच्छा कर; कहीं पर किसी को भनन्त द्रव्य की प्राप्ति करवाकर, कहीं किसी को पुत्ररत प्रदान कर, कहीं किसी को जलोदर, कुटि भादि भयंकर रोग से मुक्त कर इत्यादि और भी कई प्रकार से उने अपने वश में कर इस जाति के कलेवर को बढ़ाया था।
यह प्रवृत्ति जैनधर्म के समान उदार धर्म के साधुओं के लिए प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, मगर ऐसा मालूम होतो है कि उस समय की जनता की मनोवृत्तियाँ चमत्कारों के पीछे पागल हो रही थी। वा युग शांति और सुव्यवस्था का युग नहीं था। कई प्रकार के प्रभाव उस समय की जनता की मनो