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.. ओसवाल जाति और आचार्य
आचार्य अभयदेवसरिजी
आप बड़े प्रभावशाली जैन आचार्य थे। सुप्रसिद्ध गुर्जराधिपति राजा सिद्धराज जयसिंह ने आप को "मल्लधारी" की उपाधि से विभूषित किया था। सौगष्ट्र के राजा वंगार ने भी आपका बड़ा सम्मान किया था। आपने एक हजार से अधिक ब्राह्मणों को जैन धर्म में परिवर्तित किया। आपके उपदेश से भुवनपाल राजा ने जैन मन्दिर में पूजा करने वालों पर लगने वाला कर माफ़ किया था। शांकभरी (सांभर ) के राजा पृथ्वीराज ने आपके उपदेश से रणथंभोर नगर में जैन मन्दिर बनवा कर उस पर स्वर्ण कलश चढ़वाया । आपके प्रतिबोध से सिद्धगज ने अपने राज में पयूषण पर्व पर हिंसा करने की मनाही कर दी थी। विक्रम संवत् ११४१ की माघ सुदी ५ को अंतरीक्ष पार्श्वनाथ की मूर्ति को आपने प्रतिष्ठा को। उक्त अंतरीक्ष पार्श्वनाथ का तीर्थ आज दिन भी प्रसिद्ध है। श्री भावविजय गणीजीने अपने अंतरीक्ष महात्म्य में आपकी इस प्रतिष्ठा का सविस्तृत उल्लेख किया है। . आपने अपने जीवन के अन्तिम काल में अनशनवृत धारण किया और इसीसे आप अजमेर नगर में स्वर्गधाम पधारे। आपका अग्निसंस्कार बड़े धूमधाम के साथ हुआ। रणथंभोर के जैन मन्दिर के एक शिलालेख में लिखा है कि "अजमेर के तत्कालीन राजा जयसिंहराज अपने मन्त्रियों सहित आपकी रथी के साथ श्मशान तक गये थे"। इतना ही नहीं प्रति घर एक एक आदमी को छोड़ कर अजमेर नगर को सारी की सारी जनता आपके अनि संस्कार के समय उपस्थित थी।
आचार्य जिनदत्तसरिजी.
__आप आचार्य जिनवल्लभपूरिजी के पट्टधर शिष्य थे। आपने हजारों राजपूतों को प्रतिबोध देकर उन्हें जैन श्रावक अर्थात् ओसवाल बनाया था। आप बड़े प्रभावशाली और विद्वान् आचार्य थे और आज यद्यपि आपका शरीर इस संसार में नहीं है पर आज भी आप सारे जैन संसार में दादा नाम से विख्यात् हैं । संवत् ११७९ में आपको सूरिपद प्राप्त हुआ। संवत् १२१1 में अजमेर में आपका स्वर्गवास हुआ, जहाँ आपका स्मारक अभी तक विद्यमान है जो दादा वाड़ी के नाम से विख्यात है। आपने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें निम्नलिखित ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। (१) गणधर सार्थशतक प्राकृत गाथा (२) संदेह दोलावली ( ३ ) गणधर सप्तती (४) सव धिष्ठायि स्तोत्र (५) सुगुरु पारतंत्र्य (६) विघ्न विनाशो स्तोत्र (७) अवस्था अझक (८) चैत्य वंदन कुलक, आदि आदि। .
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