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बरमेचा
१९४७ में ओसवाल हितकारिणी सभा नाशिक के मंत्री थे। संवत् १९५८ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके शिवरामदासजी तथा चांदमलजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें सेठ शिवरामदासजी संवत् १९५४ में स्वर्गवासी हुए।
सेठ चांदमलजी-आपका जन्म संवत १९४५ में हुआ। आप नाशिक के.ओसवाल समाज में गण्यमान्य व्यक्ति हैं। धार्मिक कामों में आप विशेष भाग लेते हैं। आप ओसवाल बोर्डिङ्ग तथा नाशिक जिला ओसवाल सभा के खजांची हैं। तथा जातीय सुधार के कामों में भाग लेते रहते हैं। आप नाशिक जिला ओसवाल अधिवेशन की स्वागत कारिणी समिति के सभापति थे । इस समय आपके यहाँ "साहबराम बरदीचन्द" के नाम से बैकिंग, हुंडीचिट्ठी तथा किराने का व्यापार होता है।
सेठ सुगनचन्द माणिकचंद बरमेचा, किशनगढ़ यह परिवार मूल निवासी मेदते का है। वहाँ से यह परिवार किशनगढ़ आया । यहाँ इस परिवार के पूर्वज सेठ कजोड़ीमलजी साधारण लेन-देन करते थे । इनके पुत्र कस्तूरचन्दजी का जन्म संवत् १९०३ में हुआ। आप संवत् १९३० में व्यापार के लिये दिनजापुर (बंगाल) गये, तथा वहाँ “कस्तूरचन्द फतेचन्द" के नाम से कपड़े का म्यापार चालू किया। आपने इस धंधे में काफी तरकी और इजत पाई । धार्मिक कामों में बापकी अच्छी रुचि थी संवत् १९५६ में आप स्वर्गवासी हुए। भापके फतेचन्दजी, सुगनचन्दजी, माणकचन्दजी, किशनचन्दजी तथा विशनचन्दजी नामक पाँच पुत्र हुए। इन भाइयों में सेठ फतेचन्दजी १९८५ में किशनचंदजी १९६६ में तथा विशमचंदजी १९८४ में स्वर्गवासी हुए । बरमेचा फतेचंदजी ने व्यापार में अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की । सेठ सुगनचन्दजी का जन्म संवत् १९३७ में हुआ। आपके पुत्र दीपचन्दजी पढ़ते हैं।
___सेठ माणकचन्दजी बरमेचा-आपका जन्म संवत् १९४० में हुआ। आप किशनगढ़ के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। धार्मिक कामों में आप अच्छा सहयोग लेते हैं। स्थानीय ज्ञानसागर पाठशाला के आप प्रारम्भ से ही सेक्रेटरी हैं। आप साधु सम्मेलन अजमेर के समय अथितियों को भोजन व्यवस्था कमेटी के मेम्बर थे। आपके यहाँ दिनाजपुर (बंगाल) में “कस्तूरचन्द फतेचन्द" के नाम से पाट, कपड़ा तथा ब्याज का काम होता है। आपके पुत्र अमरचन्दजी ने इण्टर तक अध्ययन किया है, इनसे छोटे भँवरलालजी हैं। इसी तरह विशनचन्दजी के पुत्र हुलाशचन्दजी तथा श्रीचन्दजी पढ़ते हैं।
गोठी गोत्र की उत्पत्ति-कहा जाता है कि संवत् ११५२ में मेघा नामक एक व्यक्ति ने भणहिणपुर पट्टन के यवन राजा से पांच सौ मुहर देकर एक जैन प्रतिमा खरीदी, तथा गोड़वाड़ प्रदेश में सुंदर मंदिर निर्माण करवाकर दादा जिनदत्तसूरिजी से उसकी प्रतिष्ठा कराई। और श्रावक व्रत धारण किया। इनके गौड़ी नामक एक पुत्र हुए। गुजरात के श्रावकों ने गोदी को पार्श्वनाथ प्रतिमा पूजक समझ "गोठी" कहना शुरू किया। यह शब्द गोष्टी का अपभ्रंश है। आज भी गुजरात देश में देव पुजारियों को कही २ "मोठी" कहते हैं। भागे चल कर गौदीजी की संताने गोठी नाम से सम्बोधित हुई।