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श्रोसवाल जाति का इतिहास
इस तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल जैनधर्म का कट्टर विरोधी शैवधर्मो-पासक हुभा। उसके हाथ में राजसंत्र के आते ही जैमियों पर भयंकर अत्याचार होने लगे। जिसके परिणाम स्वरूप जैनी लोगों को देश छोड़कर काट गुजरात की ओर भगना पड़ा, इन भगनेवालों में उपकेश जाति के व्यापारी भी थे। लाट गुजरात में जो आजकल उपकेश जाति निवास करती है; वह विक्रम की छठवीं शताब्दी में मारवाड़ से गई हुई है। अतएव इससे भी पता चलता है कि उस समय उपकेश जाति मौजूद थी। ..
उपरोक्त प्रमाणों से पता चलता है कि विक्रम की छठवीं शताब्दी तक तो इस जाति की उत्पत्ति की खोज में किसी प्रकार खींचातानी से पहुँचा भी जा सकता है मगर उसके पूर्व तो कोई भी प्रमाण हमें नहीं मिलता जिसमें ओसवाल जाति, उपकेश जाति, या उकेश जाति का नाम आता हो । उसके पहले का इस जाति का इतिहास ऐसा अंधकार में है कि उस पर कुछ भी छान बीन नहीं की जा सकती। दूसरे उस समय इस जाति के न होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि ओसवाल जाति के मूल १८ गौत्रों की उत्पत्ति क्षत्रियों की जिन अठारह शाखाओं से होना जैनाचार्यों ने लिखा है, उन शाखाओं का अस्तित्व भी उस समय में न था । जब उन शाखाओं का अस्तित्व ही न था तब कोई भी जिम्मेदार इतिहासकार उन शाखाओं से १८ गौत्रों की उत्पत्ति किस प्रकार मान सकता है। इसके अतिरिक मूल 16 गौत्रों के पश्चात् अन्य गौत्रों की उत्पत्ति के विषय में जो किम्बदंतियाँ और कथाएँ यतियों और जैनाचार्यों के दफ्तरों में मिलती हैं, उनमें भी संवत ७०० के पहले की कोई किम्बदंति हमें नहीं मिली । यदि विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व इस जाति की स्थापना हो चुकी थी तो उसी समय के पश्चात् से समय २ पर आचार्यों के द्वारा नवीन गौत्रों की स्थापनो को पता लगना चाहिये था। संवत् ९०० से संवत १४०० तक लगातार जैनाचार्यों के द्वारा औसवाल गौत्रों की स्थापना का वर्णन हमें मिलता चला जाता है। ऐसी स्थिति में विक्रम के ४०० वर्ष पूर्व से लेकर विक्रम की सातवीं शताब्दी तक अर्थात् लगातार १०० वर्षों में इस जाति के सम्बन्ध में किसी भी प्रमाणिक विवेचन का न मिलना इसके अस्तित्व के सम्बन्ध में शंका उत्पन्न कर सकता है।
इन सब कारणों की रूप रेखाओं को मिलाकर अगर हम किसी महत्वपूर्ण तथ्य पर पहुँचने की कोशिश करें तो हमें यही पता लगेगा कि विक्रम संवत् ५०० के पश्चात् और विक्रम संवत् ९०० के पूर्व इस जाति की उत्पत्ति हुई होगी । बाबू पूरणचन्दजी नाहर लिखते हैं कि “जहाँ तक मैं समझता हूँ (मेरा विचार भ्रमपूर्ण होना भी असंभव नहीं ) प्रथम राजपूतों से जैनी बनानेवाले श्री पार्श्वनाथ संतानीय श्री रखप्रभसूरि जैनाचार्य थे। उक्त घटना के प्रथम श्री पार्श्वनाथ स्वामी की इस परम्परा का नाम उपकेश गच्छ भी न था। क्योंकि श्री वीर निर्वाण के ९८० वर्ष के पश्चात् श्री देवर्द्धिगणि क्षमासमण ने जिस समय जैनागमों को पुस्तकारूद किये थे उस समय के जैन सिद्धान्तों में और श्री कल्पसूत्र की स्थविरावलि आदि