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धार्मिक क्षेत्र में श्रीसवाल जाति
उक्त लेख में मेवाड़ के जिस अघाट स्थल का नाम आया है उसका वर्तमान नाम आहड़ नगर है जो उदयपुर की नई स्टेशन से बहुत थोड़ी दूरी पर है । ग्यारहवें काव्य में धवलराज द्वारा महेन्द्र नामक राजा को दुर्लभ राज के पराजय से बचाये जाने का उल्लेख है । प्रोफेसर किलहार्न इस दुर्लभराज को चौहान राजा विग्रह राज का भाई बतलाते हैं । बिजौलिया और किमसरी के लेखों में भी आपका वर्णन आया है । महेन्द्रराज उक्त प्रोफेसर किलहोर्न के मतानुसार नाडौल के चौहानों के लेख में वर्णित लक्ष्मण का पौत्र और विग्रहपाल का पुत्र था। बारहवें काव्य में कहा गया है कि जब मूलराज ने धरणीवराह पर चढ़ाई कर उसके राज्य का नाश किया था तब अनाश्रित धरणीवराह को धवल ने आश्रय देकर उसकी रक्षा की थी । उक्त लेख में वर्णित मूल राज निःसन्देह रूप से चौलुक्य वंश का मूलरःज ही है । पर यह धरणीवराह कौन था, इस बात का निश्चित रूप से अभी तक कोई पता नहीं लगा है । परमार वंश का या दंतकथानुसार नौकोटि - मारवाड़ का राजा होगा । तेरह से अट्ठारह तक के श्लोकों में धवल के गुणों की प्रशंसा की गई है। उन्नीसवे श्लोक में वृद्धावस्था के कारण धवल राज द्वारा उनके पुत्र बालप्रसाद को राज्य भार सौंपने का उल्लेख है। बीसवें और इक्कीसवें श्लोक भी प्रशंसा के रूप में लिखे गये हैं । बाइसवें श्लोक से सत्ताइसवें श्लोक तक इस राजा की राजधानी हस्तिकुण्डी का वर्णन और उसकी अलंकारिक भाषा में प्रशंसा की गई है।
शायद यह
अट्ठाइसवें श्लोक में लिखा है कि समृद्धिशाली और प्रसिद्ध हस्तिकुण्डी नगर में शांति भद्र नामक एक प्रभावशाली आचार्य रहते थे जिनका बड़े २ नृपति गौरव करते थे । २९ वें श्लोक में इन्हीं सूरिजी की प्रशंसा की गई है। तीसवें काव्य में शांति भद्र सूरि को वासुदेवसूरि द्वारा आचार्य्यं पदवी दिये जाने का उल्लेख है । ये वासुदेव उक्त छठे काव्य में वर्णित विग्रहराज के गुरु थे । ३१ वें तथा ३२ वें काव्य में शांतिभद्रसूरि की प्रशंसा की गई है । तोंसवें श्लोक में उक्त सूरि महोदय के उपदेश से गोठी संघ वालों द्वारा तीर्थंकर ऋषभदेव के मन्दिर का पुनरुद्धार किये जाने का उल्लेख है । इसके बाद दो श्लोकों में उक्त मन्दिर का अलंकारिक वर्णन है । छत्तीसवें और सेंतींसवें काव्य में कहा गया है कि उक्त मन्दिर पहले विदग्ध राजा ने बनवाया था। इसके जीर्ण हो जाने से इसका पुनरुद्धार किया गया । जब मन्दिर बन कर फिर तैयार हो गया तब संवत् १०५३ की माघ सुदी १३ को श्री शांति सूरिजी ने उसमें प्रथम तीर्थंकर की सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठित की।
अड़तीसर्वे पद्य में विदग्धराज द्वारा स्वर्णदान किये जाने का उल्लेख है । ३९ वें पद्य में उक्त मन्दिर के लिये जब तक चन्द्रमा और सूरज रहे तब तक उसके स्थिर रहने की प्रार्थना की गई है। आखिरी के ४० वें काव्य में प्रशस्ति-कर्त्ता सूर्य्याचार्य्यंजी की प्रशंसा की गई है ।
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