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इसी प्रकार दूसरा परवाना इसी आशय का दिया कि -
श्रीरामजी
सिंघवी
सिंघवी जीतमल सूँ माहारो जुहार बांचजो तथा मां दीसा यूँ किणी बात रो विसवास मती राखजे थां सूँ मैं कोई बात छानी राखसां के मरजी सिवाय जाब करसां तो परमेश्वर सूँ बेमुख हुसां जोधपुर सूँ उजला मांय सूँ यूँ लेने आया नहीं तो काका बाबा में हुई सूँ मां ही होती हूँ थां सूँ कीणी वातरो अंतर असल हुसी तो ना राखसी मांसू थारा इंसा अवसान है यूँ आदी रोटी खावण नुं देवे तोही धांसूँ और तरें न जाणू सूँ अठे तो सारी बात मौजूद है काले ही थोड़ीसी बेमरजादिक बात हुवण में आयगई सूँ रात की इसी उदासी लाग रही है सूँ परमेश्वर जाणे छे एकर सूँ श्रठे श्रायने मिल जावे तो ठीक है संवत् १८५४ जेठ बद २ वार बुध
सिंघवी शिंभूमलजी ये अपने अन्य बन्धुओं के साथ विखे विपत्ति के समय महाराजा मानसिंहजी की सेवा में तन मन धन से लगे थे। महाराजा मानसिंहजी इम पर बहुत विश्वास करते थे तथा उनसे इनका घरेलू पत्र व्यवहार होता था । मानसिंहजी ने एक बार इनके लिये कहा है “जोरावर सुत पाँच शंभू तामे घणो सपूत ।” जब जालोर घेरे में अवधन की कमी हुई उस समय शम्भूमलजी खुफ़िया तौर से जालोर के किले में रसद व समाचार भेजते रहे थे। संवत् १८५८ में शम्भूमलजी के भाई जीतमलजी ने हिन्दू मलजी पुत्र बख्तावरमलजी को जालोरगढ़ में रखा। साथ ही उन्होंने महाराजा भीमसिंहजी की ओर से घेरा देनेवाले सरदार मुत्सुहियों को समझाने की कोशिश की ।
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जब संवत् १८६० में मानसिंहजी जोधपुरकी गद्दी पर बैठे तब जीतमलजी को पाछी और नागोर की हाकिमी और फतेहमलजी को घाणेराव देसूरी और सोजत का हाकिम बनाया। इसी तरह संवत् १८६३ में जब जोधपुर पर बड़ी भारी फौज चढ़ आई थी उस समय भी इन बन्धुओं ने दरबार की अच्छी सेवा बजाई थी जिसके लिये दरबार ने इन्हें रुक्के आदि देकर
सम्मानित किया था ।
सिंघवी गम्भीरमली और इन्द्रमलजी - सिंघवी फतेहमलजी के पुत्र गम्भीरमलजी और जीतमलजी के पुत्र इन्द्रमलजी और नींवमलजी हुए। संवत् १८८८ में सिंघवी गम्भीरमलजी को और १८८२ में इन्द्रमलजी को जोधपुर राज्य के दीवान का सम्माननीय पद दिया गया । इस समय भी इन बन्धुओं ने दरबार की काफी सेवाएं कीं। संवत् १८९२, १८९५ और १९०० में सिंघवी गम्भीरमलजी पुनः २ दीवान बनाये गये जो संवत् १९०३ तक रहे। संवत् १८९७ में इन्द्रमलजी को भी पुनः दीवान का सम्मान प्राप्त हुआ इन बन्धुओं को महाराजा मानसिंहजी ने ताजीम कुरब कायदा और जागीर देकर सम्मानित किया।
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