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पार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
था। वह जाति का श्रीमाली था। यह भी ज्ञात होता है कि सम्राट अकबर के वजीर टोडरमल मे पहले इसके ताबे में और भी गांव दिये थे।
इसी इन्द्रराज ने इस मन्दिर को बनवाया और इसका नाम महोदयप्रासाद या इन्द्रबिहार रक्खा । इस मन्दिर की एक शिला पर चालीस पंक्ति का एक लेख है जिसकी भाषा गद्यात्मक संस्कृत है। इस लेख में सम्राट अकबर की बड़ी प्रशंसा की गई है। इसमें हीरविजयसूरि और सम्राट की मुलाकात का तथा सम्राट के जीव रक्षा सम्बन्धी फरमानों का उल्लेख भी किया गया है।
इसके आगे चल कर वैगट नगर के तत्कालीन अधिकारी इन्द्रराज तथा उसके कुटुम्ब का व इसके द्वारा बनाये गये मन्दिर का उल्लेख किया गया है।
हीरविजयसूरि के जीवन सम्बन्धी लिखे हुए प्रत्येक ग्रन्थ में इन्द्रराज तथा उसके द्वारा किये गये प्रतिष्ठा महोत्सव का उल्लेख किया गया है।
पंडित देवविमल गणि रचित हरिसौभाग्य महाकाव्य के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उक्त आचार्यचर्य अकबर बादशाह की मुलाकात लेने के बाद जब आगरा से वापस गुजरात जा रहे थे तब संवत् १६४३ में उन्होंने नागोर में चातुर्मास किया था। चातुर्मास समास होने पर वे बिहार करके पीपाड़ नामक गांव में आये। वहाँ वैराट नगर से इन्द्रराज के प्रधान पुरुष आपके स्वागत के लिए उपस्थित हुए। तथा आपसे. इन्द्रराज द्वारा बनाये गये वैराट नगर के जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा करने की प्रार्थना की । इस पर खास सूरिजी महाराज ने तो वहाँ जाने से इंकार किया पर उन्होंने अपने प्रभावशाली शिष्य महोपाध्याय कल्याणविजयजी को वैराट जाने की आज्ञा दी। कहना न होगा कि उक्त कल्याणविजयजी अपने शिष्य परिवार सहित पीपाड़ से बिहार कर वैराट पधारे और उन्होंने इन्द्रराज के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। यह प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े धूमधाम के साथ हुआ। हाथी, घोड़ा आदि का बड़ा भारी लवाजमा इस उत्सव में मौजूद था। इस समय इन्द्रराज ने गरीबों को बहुत दान दिया और लगभग ४०.००) चालीस हजार रुपया इस महोत्सव में खर्च किया।
हरिविजयसूरि के पट्टधर आचार्य विजयसेन के परमभक्त खम्भात निवासी कवि ऋषभदास ने भी 'हरिविजयसूरी रास' नामक ग्रन्थ में इस प्रतिष्ठा महोत्सव का उल्लेख किया है।
___महोपाध्याय कल्याणविजयजी के शिष्य जयविजयजी ने संवत् १६५५ में 'कल्याणविजय राख' नामक ग्रन्थ रचा था। उसमें भी उन्होंने उक्त प्रतिष्ठा महोत्सव का सविस्तार वर्णन किया है।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्टतः प्रगट होता है कि वैराट् का उक्त मन्दिर दिगम्बर नहीं वरन् श्वेताम्बर है, तथा किसी प्रभाव विशेष से वह दिगम्बरियों के अधिकार में चला गया है।