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लुणावत
लूणावत गौत्र की उत्पत्ति
ऐसा कहा जाता है कि सिंध देश के भाटी राजपूत राव गोशल को विक्रम संवत १९ ग. भग उपकेश गच्छीय जैनाचार्य कक्कसूरि ने प्रतिबोध देकर जैनी बनाया और आपरिया गौत्र की स्थापना की। इसी बंध में भागे चलकर कूणा साहस नामक एक भाग्यशाली. एवम् प्रतिष्ठित पुरुष हुए । सिंध देश में मारवाड़ के गुढा नामक स्थान में आकर रहने लगे। वहाँ इन्होंने एक मन्दिर भी बनवाया। खुणा साह को फिर से आचार्य देवगुप्त सूरि ने प्रतिबोध देकर जैनी बनाया। इन्हीं लूणासाह के वंशज खूणावत के नाम से मशहूर हुए। *
सेठ घुधमलजी विरदीचन्दजी लूणावत का खानदान
इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान मान्द ( अजमेर) का है। आप सुप्रसिद्ध लूणावत वंश के हैं।
करीब १०० वर्ष पूर्व आपके पूर्व पुरुष सेठ सुधमलजी साहब धामक में आये। भापही ने यहाँ पर भाकर दुकान स्थापित की और सबसे पहले कपास और जमीदारी का काम प्रारम्भ किया। उस समप भापका प्रभाव इतना बढ़ गया था कि सारा धामक गांव, बुधमलजी का धामक इस नाम से प्रसिद्ध हो गया था। उस समय रेलवे न होने की वजह से धामक कपास के व्यापार का प्रधान सेण्टर हो रहा था। निमाम स्टेट और नागपुर के बीचवाली सड़क की यह प्रधान मण्डी था। इस अवसर से फायदा उठा कर मापने कपास के व्यापार में बहुत द्रव्य उपार्जन किया आपका स्वर्गवास संवत् १९२५
• महाजन वंश मुक्तावली में इस किम्वदंति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सिंध देश के भाटी राजपूत रावा अभयसिंह को संवत् ११६५ में श्री जिनदत्त सूरि ने प्रतिबोध देकर जैनी बनाया । और भापरिया गौत्र की स्थापना की। इन्ही अभयसिंह की १७ पीढ़ी में लूणा साह हुए। इनकी संतानें पूणावत कहलाई। इन्होंने राजय का एक संघ भी निकाला था।
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