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ओसवाल आति और प्राचार्य
की प्रेरणा से क्रियाहीन चैत्यवासियों को हराकर गच्छ से बाहर किये। ये महान् विद्वान् और प्रभावशाली थे। उन्होंने पंच प्रमाणिका, तथा जिन-चैत्य-वंदन विधि आदि बहुत से ग्रन्थ रचे । संवत् १५४ में आपका देहान्त हुआ। देवभद्रसूरिजी
आप संवत् ।।६८ में विद्यमान थे। भाग्ने अनेक ग्रंथ रचे जिनमें पार्श्वनाथ चरित्र, संवेग रंगशाला, वीरचरित्र तथा कथा रत्न कोष आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जिस वक्त मापने भदौच में श्री पार्श्वनाथ चरित्र रचा था उस समय वहाँ मुनि सुव्रतस्वामी का स्वर्ग गुम्मज वाला जैम मन्दिर विद्यमान था ।
श्री हेमचन्द्राचार्यजी
जैन साहित्याकाश में श्री हेमचन्द्राचाय्य का नाम शरद पौर्णिमा के पूर्ण चन्द्र की तरह आलो. कित हो रहा है। संसार के अत्यन्त प्रकाशमान विद्वानों, कवियों और तस्वज्ञों में हेमचन्द्राचार्य का मासन बहुत ऊँचा है। श्री हेमचन्द्राचार्य की विद्वत्ता अलौकिक और अगाध थी। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। उन्होंने विविध विषयों पर महान् ग्रन्थ रचे जो आज भी संस्कृत साहित्य के लिये बड़े गौरव की वस्तु हैं।
इन महाप्रतिभाशाली आचार्यदेव का जन्म संवत् १४५ की कार्तिक पौर्णिमा के दिन हुआ। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" वाली कहावत इनपर पूर्ण रूप से लागू होने लगी। थोड़ी ही अवस्था में आपने देवचन्द्र सूरि से जैनधर्म की दीक्षा ली। आप पूर्व जन्म के सुसंस्कार से कहिये तथा आपकी तीन स्मरण शक्ति वा धारणा शक्ति से कहिये, आपने जैन शास्त्रों का गंभीर ज्ञान प्राप्त कर लिया । उत्कट आत्म संयम, इन्द्रिय दमन, वैराग्य वृत्ति से आजन्म तक आपने नैष्टिक ब्रह्मचर्य व्रत सेवन किया । पहिले आपका नाम सोमचन्द्र था, पर संवत् ११६२ में आप के गुरू ने मारवाद के नागोर नगर में आपको आचार्य पद से विभूषित किया और आप का नाम सोमचन्द्र से बदल कर हेमचन्द्र रक्सा । धीरे २ भाप की विद्वत्ता का प्रकाश बढ़ती हुई चन्द्रकला की तरह चमकने लगा। आप विविध ग्रामों में घूमते हुए गुज. रात की तत्कालीन राजधानी अगहिलपुरपाटण में पधारे। उस समय वहाँ महाराज सिद्धराज जयसिंह राज्य करते थे। ये बड़े पराक्रमी, प्रजाप्रिय और विद्वानों का बड़ा सत्कार करनेवाले थे। हेमचन्द्राचार्य की कीर्ति शीघ्र ही सारे नगर से फैल गई। राजा ने आप को अपनी सभा में निमन्त्रित किया । आचार्य्यवर के भलौकिक व्यक्तित्व से सारी सभा में संस्कृति का प्रकाश चमकने लगा। श्री हेमचन्द्राचार्य के अगाध.