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स्थानकवासी प्राचार्य
जी तथा लवजी ऋषि के सम्प्रदायों से पूर्ण संतुष्ट न हुए और अपना एक अलग सम्प्रदाय स्थापित किया। मापने स्थानकवासी सम्प्रदाय के विषम त मादिको उचित नीति व ढंग से लिखा जिनमें से प्रायः बहुत से आज तक पूर्ववत् ही पाले जाते हैं। भाप कुल ९९ भिव्य हुए जिनसे आगे जाकर मारवाड़, मेवाड़, पंजाब, लींबढ़ी, बोटाद, सायला, धागो, पुगकच्छ, मॉडक भादि संघ बने। इनके अतिरिक्त आपके शिष्य श्री रघुनाथजी के शिष्य श्री मिक्खनजी ने वर्चमान भारत प्रसिद्ध श्री तेरापन्थी धर्म की भी स्थापना की जिसका पूर्ण इतिहास अन्यत्र दिया जा रहा है। श्री धर्मदासजी के प्रधान शिष्य मूलचंदजी जो गुजरात में ही रहे, के श्री गुलाबचन्दजी, पाणी, बनाजी, इन्दरजी, बनारसीजी तथा इच्छाजी नामक शिष्यों से निम्न लिखित संघ स्थापित हुए।
श्री पचाणजी शिष्य श्रीरसनजी तथा श्रीरंगरसीजी स्वामी गोंडल गये तब से आपका गोंडल संघ स्थापित हआ। आपके अनुयाची गॉडल संघाड़ा नाम से प्रसिद्ध हैं। श्री बनाजी के शिष्य श्री कहानजी स्वामी बरवाले गये बसे भापके संच का माम बरवाळ संघ पड़ा। श्री इन्दरजी के शिष्य श्रीकृष्णस्वामी ने कच्छ में माठ कोठी समुदाय का प्रचार किया मतः मापके संघ वाले कच्छ आठ कोठी समुदाय वाले प्रसिद्ध हैं। श्री बनारसीजी के सिप भी जवसिंहजी तथा श्री उदयसिंहजी स्वामी चुढ़ा गये सब से आपका समुदाय चुग समुदाय के नाम से प्रसिद। इसी प्रकार श्री हाजी स्वामी ने संवत् १८१५ में कीम्बदी में कीम्बदी समुदाय की गही स्थापित की। तब से भापका समुदाय कीम्बड़ी समुदाय के नाम से मशहूर है। आपके शिष्य श्री रामजी ऋषि कीम्बड़ी से उदयपुर भाये और आपने उदयपुर में उदयपुर समुदाय स्थापित किया।
आचार्य श्री अजरामरजी-श्री मूलचन्दजीके ज्येष्ठ शिष्य श्री गुलाबचन्दजी के क्रमशः श्रीबालजी, श्री हीराजी स्वामी तथा श्री कहानजी नामक शिष्य हुए। इन कहानजी के शिष्य श्री अजराअमरजी हुए। भापका जन्म संवत् १००९ में हुमा था। आप जामनगर जिले के पडाणा नामक गाँव के बीसा ओसवाल सजन थे। आप बड़े विद्वान तथा जैन सूत्रों के ज्ञाता थे। आपने संवत् १८१९ में जैन धर्म में दीक्षा ग्रहण की और संवत् १८४५ में भाचार्य पदवी से विभूषित किये गये। मापने लीम्बड़ी समुदाय को खूब प्रसिद्ध किया। आपका स्वर्गवास सम्बत् १८७० में हुआ। आपके पश्चात् आपके शिष्य देवराजजी ने सम्बत् १८४७ में कच्छ में विहार किया तथा वहाँ पर छः कोठी के समुदाय का प्रचार किया। आप विद्वान थे। मतः आपके इस समुदाय का बहुत प्रचार हुआ। भाप सम्वत् 16.९ में स्वर्गवासी हुए। भापके पश्चात् श्री भाणस्वामी गहो पर विराजे। आपने सम्बत् १८५५ में दीक्षा , की तथा सम्वत् १८८३ में निर्वाण पद को पास हुए। फिर देवजी स्वामी गद्दी पर विराजे । मापने सं. १८६० में दीक्षा ग्रहण की व सम्वत् १८८९ में गद्दी पर विराजे। श्री दीपचन्दजी बड़े विद्वान और शांतस्वभावी हो गये हैं। आपने सम्बत् १९०१ में लीम्बड़ी सम्प्रदाय में दीक्षा ली तथा संवत् १९३७ में आचार्य पद पाया। आप भी जैन धर्म की सेवा कर स्वर्गवासी हो गये।
। आचार्य श्री अमरसिंहजी-श्रीलोकाशाहजी द्वारा जिन सज्जनों को साधु होने की आज्ञा दी गई थी उन व्यक्तियों में से श्रीभानुलणाजी की १५वीं पीढ़ी में भी अमरसिंहजी पंजाबी हुए भाप अमृतसर निवासी