Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पुष्प नं० १०१
जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
चतुर्थ भाग (बोल संरह नं० ११ से १३ तक) (चोल संख्या नं० ७७० से २१ तक
888
संयोजक भैरोदान सेठिया
" प्रकाशक श्री अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
बीकानेर
विक्रम संवत् २००४] न्योछावर रु० । नगर
थापाढ़ शुक्ला तृतीया | ज्ञान खाते मे लगेगा)।। । धीर संवत् २४७६ | डाक महमूल अलग । १००० * गोपाल मिटिंग स, बीकानेर में मुद्रित ना० १८-६-५०%
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
B
पृष्ठ
२
१४
૪
१६
१६
१६
१६
* *
ε
१६
२०
२१
२२
२३
२३
२६
२७
२७
દ
L
૯
૨૬
૨૯
३०
३१
૩૨
३६
३७
×
पक्ति
१०
२६
५.
६
૨૩
२५
ခု
१३
६
२६
૨૪
२५.
१६
१८
દ
२०
१६
२२
२१
Is ag
८
२०
२ क
शुद्धिपत्र
अशुद्ध
का
भगवान
चल
बाबू
हैं
प्रायश्चित
हे
पौषधीपवाग
चतुदर्शी
कड़े
नियमो
(क्षुर मे )
समावाय
उसके
और नीचे
विरुद्ध
विरुद्ध
ग्रहण
३
हे
जीव
श्रजीव
the othe
है
का म
यदु श्रन्तिके
हैं
गुणी विज्ञेय
मिट्टी
शुद्ध
को
भगवन् !
चली
वायु
हे
प्रायश्चित्त
हैं
पौषधोपवास
चतुर्दशी
·
क
नियमां
(तुर) से
समवाय
उनके
नींच
विरुद्ध
विरुद्ध
ग्रहण
श्राकाश कुमुम
श्रजीव
श्रजीव
हे
यदन्तिके
गुणी के
विज्ञेयः
मिट्टी
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुट
अशुद्ध
शुद्ध
३७
बह
B८
इकही
३
दीर्घतत्व
रकट्टी
दीर्घत्व अाकाश कुसुम
उत्पन्न
आकश कुसुम उत्पत्र
पुरुषोभु
पुरुषो
मवाश्मत
४०
कमो
मेवाश्रुते कों स्वमेव म मे
स्वयमेव
मन में
४6
होने
P
दी
का
M
१०६
१२१
. पर 'विपयभोग विषयभोग औदन
योदन २३ और २४ २४ और २५
टो दो
काय नियम
निगम बाले
वाले अग्रमहिविया अयमहिपिया योजन
योजन है। माराज प्रभज्जन
प्रभजन कुन्थु- कुन्युनाग भगवान् के
समय ८७ सौ मन. पर्यय
जानी थे। भगवतीआधोमाग अवोभाग वैतावृत्य
वैगानृत्य कन्युनाय
कुन्थुनाथ समूल
मृसल प्रकृति
मास
१३०
१३१
new
me m
१३२
,प्रतिया
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
३८५
३८६
३६०
४००
४२६
૪૨૨
४२६
૪૩૦
૩૭
४३७
४४१
૪૪૩
૪૪૪
४४४
४४६
४४६
४४६
४४५
*
૨
૪૬
४६६
४७१
४७२
४७७
४८१
४८२
૪૩
४८४
४८८
पक्ति
१
४
११
१
१२
E
२३
१
७
5
१३
१०.
२२
२३
७
१८
१३
*
२
१२
१८
२२
१६
६
२६
१०
E
२ घ
ऋशुद्ध
अराधना
स्वमणा
एकन्द्रिय
कया
वृन्तान्त
सामन
लित
ग्रहवित्र
शौच
रक्ष
पुते
जाहि
सत्थवाहव्य
पात्र, यादि
कर
भगवान्
भगवान् !
तियंड
उनका
भगवान् !
परिक्षा
भूमी
परिक्षा
कुका
गुरू
बंध
बारह
गया
शुद्ध
आराधना
था.
खमण
एकेन्द्रिय
क्या
वृत्तान्त
समान
लिए
अपवित्र
शौच
रक्षा
हे
पु
चाहिए
सत्यवाहव्व
पात्र श्रादि
का
भगवन् !
भगवन् !
तियंट्
उसका
भगवन् ।
परीक्षा
भूमि
परीक्षा
चुका
गुरु
बन्द
बाहर
गये
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
The Mono Radh
भैरोदान सेठिया
(जन्म - विजयादशमी सम्वत् १६२३ )
संस्थापक
श्री सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर
poo
බන්ධනය ව
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री हंसराज बच्छराज नाहटा सरदारशहर निवासी
द्वारा जैन विश्व भारती, लाडनू
को सप्रेम भेट -
श्री सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर
पुस्तक प्रकाशन समिति
१ अध्यक्ष-श्री दानवीर सेठ भैरोदानजी सेठिया। २मन्त्री-श्री जेठमलजी सेठिया। उपमन्त्री-श्री माणकचन्दजी सेठिया।
'साहित्य भूषण'
लेखक मण्डल ४ श्री इन्द्रचन्द्र शास्त्री M. A., शास्त्राचार्य,न्यायतीर्थ,
चेदान्तवारिधि। ५ श्री रोशनलाल चपलोत B. A. LL B., न्यायतीर्थ,
काव्यतीर्थ, सिद्धान्ततीर्थ, विशारद । ६ श्री श्यामलाल जैन M. A (Hindi & English)
न्यायतीर्थ, विशारद । ७ श्री घेवरचन्द्र वाँठिया 'वीरपुत्र' सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ, व्याकरणतीर्थ हिन्दी संकेत लिपिविशारद
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, तीसरे भाग
सम्मतियाँ श्रीसौधर्म बृहत्तपागच्छीय भट्टारक श्रीमज्जैनाचार्य व्याख्यान वाचस्पति विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहेब, ता० २-१-४२।
सर्वप्ररूपित जैनागम सूत्र सागर में श्राम हितकारक बोल-रलों का संग्रह अगाध है, उनका पार पाना शक्ति से परे है। सेठियानी ने उन में से चुन कर कुछ उपयुक्त बोलों का संग्रह 'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह' नाम से खण्डशःप्रकाशित करना श्रारम्भ किया है। उसका तीसरा माग हमारे सामने है, जो प्रथम, द्वितीय भाग से कुछ अधिक बड़ा है। इसमें पाठ, नव और दस बोलों का संग्रह है। यह विशेष रुचिकर है। सरलता एवं अपनी सन धन में यह अद्वितीय है। सेठियानी का यह प्रयत्न सराहनीय है। भविष्य में साहित्यक दृष्टि से सर्व साधारण को विशेष लामकारक होगा।
अनेकान्त, सरसावा, अक्टूबर १९४२ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह-प्रथम भाग, द्वितीय भाग, सग्रहकर्ता-मेरोदाननी सेठिया बीकानेर । प्रकाशक-सेठिया पारमार्थिक संस्था, बीकानेर | पृष्ठ संख्या प्रथम माग ५१२, द्वितीय भाग ४७५ ।
इस अन्य में श्रागमादि ग्रन्थों पर से सुन्दर वाक्यों का संग्रह हिन्दी भाषा में किया हुआ है। दोनों भागों के बोलो (वाक्यों) का संग्रह ५५ है। ये बोल सग्रह श्वेताम्बर साहित्य के अभ्यासियों तथा विद्यार्थियों के लिए बड़े काम की चीन है। अन्य उपयोगी और संग्रह करने योग्य है।
सेठिया भैरोदानबी बीकानेर ने अपनी स्थावर सम्पत्ति का ट्रस्ट बालपाठशाला, विद्यालय, नाइटकालेन, कन्यापाठशाला, प्रन्यालय और मुद्रणालय, इन छ:सस्थाओं के नाम कर दिया है। उसी फंड से प्रस्तुत दोनों भागों का प्रकाशन हुआ है आपकी यह उदार वृत्ति और लोकोपयोगी कामों में दान की श्राम रुचि सराहनीय तथा अन्य धनिक श्रीमानों के लिए अनुकरणीय है।
परमानन्द जैन शाबी
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन प्रकाश वम्बई, तारीख १७ जनवरी १९४२ शनिवार।
जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग १, २, ३। प्रथम भाग पृ० सं० ५३० द्वितीय भाग पृ० स० ४७५, तृतीय भाग पृ० स०४८८, संग्रहकर्ता-श्री मैरोदाननीसेठिया,प्रकाशक अगरचंदमैरोदानसेठियानपारमार्थिकसंस्थाबीकानेर।
जैन समान श्रीयुत् सेठियानी के नाम से भलीभाति परिचित है। इस समय वे वयोवृद्ध है। घर का मार पुत्रों को सौप कर वे सदा धर्मकार्यों में रत रहते हैं। यह अन्य उनके लम्बे समय के साधु समागम और शास्त्राभ्यास का परिणाम है। प्राचीन काल में अन्य रचना की एक विशिष्ट पद्धति थी जिसके अनुसारसंख्याक्रम से तत्त्वों का संग्रह किया जाता था। ठाणाग सूत्र आदि इसके नमूने हैं। बोल संग्रह की रचना भी इसी पद्धति पर हुई है। पहिले भाग में पाच संख्यातक के ४२३ तत्त्वों का, दूसरे माग में और सख्या पाले १४० तत्वों का और तीसरे भाग में २०६ । कुल मिलाकर तीनों भागोंमे ७६८ तत्वों का समावेश है। अन्य की सामग्री भागमों से लीगई है मगर भी सेठिया नी ने तत्वों की विशद व्याख्याएं की हैं। इस प्रकार ये अन्य तत्वों की Directory के रूप में बन जाने से जिज्ञासुत्रों के लिए बड़े सहायक सिद्धोंगे। अन्य माग भी शीघ्र प्रकाशित होने वाले हैं। __ इन ग्रन्थों के कद और उपयोगिता को देखते हुए मूल्य बहुत ही कम रखा गया है।यह प्रशसनीय वस्तु है, इसका कारण सेठियानी की धर्मवृत्ति के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। वे तत्त्वामिलापीऔर जिज्ञासु है उसीप्रकार अन्य जिशासु बन्धुनों की निशासा तृति के भी उत्सुक हैं। यही कारण है कि उनकी आर्थिक सहायता से बीकानेर में कई पारमार्थिक संस्थाएं पों से चल रही है। उसी के द्वारा यह प्रकाशन कार्यमी होरहा है। इन सभी धर्म प्रवृत्तियों के लिए न समान श्री सेठियानी का ऋणी है और रहेगा। सभी लायबेरियों, सस्थाओं और तत्त्वचिन्तकों के पास ऐसे उपयोगी अन्यों का होना अनिवार्य है। __ स्थानकवासी जैन, अहमदाबाद ता० २२-१-४२
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, तृतीय भाग । संग्रहका- भैरोदाननी शेठिया । प्रकाशक-श्री शेटियाजन पारमार्थिक संस्था बीकानेर। पाकु पुङ, पृष्ठ संख्या ४६० |
शेठिया जैन ग्रंथमालानु या १०० मुंपुष्प छे तेथी नणाय छेके श्रीशेठियाजीने जैन साहित्यनीवृद्धिमापोतानोश्रमर फालो श्राप्योछेने हजुभापता रहे अमापणे इच्छीतेश्रोन श्रेक श्रेक पुषजैन साहित्यनगीचामासुवासरेटे श्रेमकहनुमोइत्री
श्रीठाणागसूत्रना बोल संग्रह नु वीज पुस्तक प्राप्या बादटुक समय मा ना त्रीचं पुस्तक जैन समावनेनोवामले श्रेयानदनोविषय छाननी मोघवारी पुस्तकमा
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
जणाव्या प्रमाणे पड़तर करता ओछी कीमत राखी के बेतेनी विशिष्टता छ। ___ प्रथम ना बे भाग मा १ थी ७ बोलोनु विवरण श्रापवामा श्राव्यु हतु ।श्रा ग्रंथमा ८-६-अने १० श्रेम त्रण वधु चोलोनु विवरण प्राप्यु छ।ग्रामासाधु समाचारीसाथे सबंध धरावती सख्या बंध बाबतो आवेली छे। साथे साये मनुष्य भवना दश हटातो, विस्तृत पाठ कर्मावली (शंका समाधान साथे), दश श्रावको नु वर्णन वगेरे मुमुत्तुमाटे वैराग्य प्रेरक छ।श्रा उपरान्त रत्नावली आदि विविध तपो कोठामोद्वारा समजाववामा श्राव्या छे। छपाई काम, कागल अने गेटअप स्वच्छ अने आकर्षक छ। प्रयास अति श्रावकारपात्र छ । बीना मागो शीघ्र प्रगटे एम इच्छीए।। प्रमाण के लिये उद्धृत ग्रन्थों की सूची ग्रन्थ नाम पता प्रकाशक एवं प्रामि स्थान अनुयोग द्वार मलधारी हेमचन्द्रसरि अागमोदय समिति गोपीपुरा, सूरत अभिधान चिन्तामणि हेमचन्द्राचार्य आगमसार (हस्तलिखित) देवचन्दजी कृत आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि सूरि श्रागमोदय समिति सूरत। उत्तराध्ययन शातिसूरि कृत बहवृत्ति देवचन्द्र लालभाई जैन
पुस्तकोद्धार सस्था बम्बई । श्रोपपातिक अभयदेव सूरि टीका आगमोदय समिति सूरत । कर्मग्रन्थ पाचवा भाग देवेन्द्र सूरि रचित मलयगिरि
सरि विवरण सहित आत्मानन्द जेन सभा भावनगर । चार शिक्षाबत पूज्य श्री जवाहिरलाली महारान। हितेच्छु श्रावक मंडल रतलाम । बीवाभिगम मलयगिरि टीका देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार सस्था जनविद्या डा. बनारसीदास
लाहोर। शाताधर्म कथाग अभयदेव सरि टीका
श्रागमोदय समिति । जाताधर्म कथाग शास्त्री जेठालाल हरिभाईकृत । जैनधर्म प्रसारक सभा गुजराती अनुवाद
भावनगर। शानार्णव शुभचन्द्राचार्य कृत रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला बम्बई। गणाग अभयदेव सूरि टीका
आगमोदयसमिति,। तत्वाधिगम भाष्य श्रीउमास्वाति कृत मोतीलाल लाधानी पूना दशवैकालिक मलयगिरि टीका श्रागमोदय समिति सूरत दशाश्रु तस्कन्ध उपाध्याय श्री आत्मारामजी जैन शास्त्रमाला कार्यालय
महाराज कृत हिन्दी अनुवाद सैटमिक्षा लाहोर ।
रायचा
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मबिन्दु प्रकरण हरिभद्राचार्य कृत मुनिचन्द्राचार्य
विहित वृत्ति युक्त श्रागमोदय समिति सूरत। नन्दी सूत्र मलयगिरि टीका आगमोदय समिति सूरत। नवपद प्रकरण उपाध्याय यशोदेव विरचित देवचन्द्र लालमाई बैन
वृहदवृत्ति युक्त पुस्तकोदार संस्था बम्बई निशीथ चूर्णि पत्रवण
मलयगिरि टीका भागमोदय समिति सूरत । पन्नवया ५० भगवानदास हर्षचन्द्र कृत जैन सोसाइटी अहमदाबाद
गुजराती अनुवाद। प्रवचन सारोदार नेमिचन्द्र सूरि कृत, सिद्धसेनशेखर दे० ला जैन पुस्तको
रचित वृत्ति सहित। बार संस्था, बम्बई। प्रश्न व्याकरण अभयदेव सरि टीका आगमोदय समिति सूरत । बृहत्यल्प भाष्य मलयगिरि और प्राचार्य क्षेमकीर्ति आत्मानन्द जैन समा नियुक्ति सहित कृत वृत्ति सहित
भावनगर । मगवती सूत्र श्रमयदेव सूरि टीका आगमोदय समिति सूरत । मावना शतक शतावधानी मुनि श्रीरलचन्द्रजी महाराज व्यवहार सूत्र माणेकमुनि द्वारा सम्पादित आविधि प्रकरण रत्नशेखर सरि कृत श्रावक हीरालाल हंसरान जामनगर । गान्त सुधारस उपाध्याय श्रीविनय विनयजी बनधर्म प्रसारक समा
भावनगर। अभयदेव सूरि टीका आगमोदय समिति सूरत सम्बोध सत्तरी
हरिभद्रसूरि कृत सूर्यप्रति अमोलक ऋपिजी कृत राजा बहादुर लाला सुखदेव
हिन्दी अनुवाद सहाय ज्वालाप्रसाद, महेन्द्रगढ़ हरिभद्रीयावश्यक भद्रबाहु हरिमन सरि टीका आगमोदय समिति सूरत । नियुक्ति तथा भाष्य युक्त विषष्टि शलाकापुरुष चरित्र' हेमचन्द्राचार्य कृत जैनधर्म प्रसारक समा भावनगर।
समवायाग
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
दो शब्द श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह के चौथे भाग की द्वितीयावृत्ति पाठकों के सामने प्रस्तुत है। इसकी प्रथमावृत्ति सवत् १६६६ में प्रकाशित हुई थी। पाठकों को यह बहुत पसन्द आई । इसलिए थोडे ही समय मे इसकी सारी प्रतिया समाप्त हो गई। इस ग्रन्थ की उपयोगिता के कारण इसके प्रति जनता की रुचि इतनी बढी कि हमारे पास इसकी माग बराबर श्राने लगी । जनता की माग को देख कर हमारी भी यह इच्छा हुई कि इसकी द्वितीयावृत्ति शीघ्र ही छपाई जाय किन्तु प्रेस की असुविधा के कारण इसके प्रकाशन मे विलम्ब हुआ है। फिर भी हमारा प्रयत्न चालू था । अाज हम अपने प्रयत्न में सफल हुए है । अतः इसकी द्वितीयावृत्ति पाठको के सामने रखते हुए हमें अानन्द होता है।
'पुस्तक शुद्ध छपे इस बात पर पूरा व्यान रखा गया है फिर भी दृष्टिटोप से तथा प्रेस कर्मचारियों की असावधानी से छपते समय कुछ अशुद्धिया रह गई है इसके लिए पुस्तक में शुद्धिपत्र लगा दिया गया है । अत. पहले उसके अनुसार पुस्तक सुधार कर फिर पढे । इनके सिवाय यदि कोई अशुद्धि आपके व्यान मे आवे तो हम सूचित करने की कृपा करें ताकि ग्रागामी आवृत्ति में सुधार कर दिया जाय।
वर्तमान समय मे कागज, छपाई और अन्य सारा सामान महगा होने के कारण इस द्वितीयावृत्ति की कीमत बढानी पड़ी है। फिर भी ज्ञान प्रचार की दृष्टि से इसकी कीमत लागत मात्र ही रखी गई है। इस कारण से कमीशन आदि नहीं दिया जा सकता है । इससे प्रास रकम फिर मी साहित्य प्रकाशन आदि ज्ञान के काया मे ही लगाई जाती है।
पुस्तक प्रकाशक समिति श्री अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
बीकानेर
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
mm cm
-
विषय सूची चित्र ( दानवीर सेठ भैरोदानजी | बोल नं० सेठिया) शुद्धिपत्र क सं घ तक
(अङ्ग और उपाङ्गों के नाम पुस्तक प्रकाशन समिति
अकाराद्यनुक्रमणिका में हैं) सम्मतियाँ
७७८ सूत्र के बारह भेद २३५ प्रमाण के लिए उद्धृत
७७६ भाषा के बारह भेद २३८ मन्थों की सूची
७८० अननुयोग के दृष्टान्त २३८ दो शब्द
४८१ जैन साधु के लिए मार्ग विषय सूची
प्रदर्शक बारह गाथाएँ २५५ अकारायनुक्रमणिका
७.२ अरिहन्त के गुण २६० आभार प्रदर्शन
७८३ चक्रवर्ती पारह २६० सस्था का छत्तीसवा
७४ आगामी उत्सर्पिणी वार्षिक विवरण
के चक्रवर्ती बारह २६५
७८५ आर्य के बारह भेद २६६ घोल नं.
७८६ उपयोग बारह २६७
७८७ अवगह के बारह भेद २६६ मगलाचरण ग्यारहवाँ बोल सगह ३
७८ असत्यामृषा (व्यवहार) ७७० भगवान महावीर के नाम ३
भाषा के बारह भेद २७२ ७७१ श्रामण्य पूर्विका अध्ययन
७EL काया के बारह दोष २७३ की ग्यारह गाथाएँ ७६० मान के बारह नाम २७५ ७७२ दुर्लभ ग्यारह १०/७१ अप्रशस्त मन विनय के ७७३ श्रारम्भ, परिग्रह को छोडे बारह भेद
२७५ बिना ग्यारह बातों की | E२ कम्मियाबुद्धि के
प्राप्ति नही हो सकती १७ बारह दृष्टान्त २६ ७७४ उपासकपडिमाएँ ग्यारह १८७३ आजीवक के बारह ७७५ गणघर ग्यारह
२३ श्रमणोपासक २७६ ७७६ ग्यारह अग
६] E? निश्श्रय और व्यवहार से पारहवॉ पोल संगह २१५ श्रावक के भाव व्रत २८० ७७७ वारणा
२१५ / ७६५ भिक्खु पडिमा बारह २८५
Brmr m
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
बोल न०
७६६ सम्भोग बारह
७६७ ग्लानप्रतिचारी बारह
८०५ श्रमण को उपमा ऍ ८०६ सापेक्ष यति धर्म के बारह विशेषण
८०७ कायोत्सर्ग के आगार
- ( १० )
७६८ बालमरण के भेद ७६६ चन्द्र और सूर्यो की संख्या
८०० पूर्णिमा बारह
८०१ अमावास्या बारह
८०० मास बारह ८०३ बारह महीनों में पोरिसी
का परिमाण ८०४ धर्म के बारह विशेषण ३०६
३.६
बारह ८ कल्पोपन्न देव बारह ८०१ कर्म प्रकृतियों के द्वार ८१० ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के
बारह नाम ८११ जीवादि नव तत्त्वों के
पृष्ठ | बोल न
२६२ ८१२ बारह भावना
२६७
( अनुप्रेक्षा )
३५५
२६८ | ८१२ बारह भावना के दोहे ३७६
८१२ बारह भावना भाने वाले
३००
३०२
३०३
३०३
३१४
३१६
३१५
३३६
३०४८१६ कायक्लेश के भेद ८१७ आहारक और अनाहा
३५२
ज्ञान से बारह बोलों की परपरा प्राप्ति
३५२
महापुरुषों के नाम ३७८
तेरहवां वोल संग्रह
३६१
८.३ विनय के तेरह भेद
३६१
८१४ कियास्थान तेरह ८१५ प्रतिसंलीनता के भेद
शुध
३६२
३६५
३६७
८१६ असस्कृत अध्ययन की तेरह गाथाएँ
८२० भगवान् श्रपमदेव के
तेरह भव
रक के तेरह द्वार ३६८ १८ क्रोध आदि की शान्ति के लिये उपाय
४०२
४०६
પ્રુશ્વ
८२१ सम्यक्त्व के लिए
तेरह दृष्टान्त श्रावक के वारह
व्रतों की सक्षिप्त टोप ४६३
बारह भावना
मगलरा यकृत
४२२
५१७
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
अकाराधनुक्रमणिका
बोलन०
. | मोल नं० .५ अपित स्वामी ५२ । ७७२ अप्राप्य पाते ग्यारह १७ ७७५ अग्निभूवि गणघर ३१८०१ अमावास्था बारह ३०३ ८०६ अपाती प्रकृतियों ३५० / ७८२ अरिहन्त के गुण २६० ७७६ अङ्ग ग्यारह ६६ / ७७६ अजुन माती १६६ ७७५ अचल भाता ५४ ! ८१२ अर्जुन माली (निर्जरा ८०८ अच्युत्त देवलोक ३२३ | भावना) १८६ ७७६ अणुचरोयवाई २०२७८३ अवगाहनाचक्रवर्तियों की२६३ ८०६ अध्रुवबन्धिनीप्रकृतियाँ ३३७ / ८०८ अवगाहना देवों की ३२९ ८०६ अधु षसत्ताक प्रकृतियॉ३४३ / ४८० अषगह के बारह भेद २६९ ८०६ अध्रु बोदया प्रकृतियाँ ३४१
८०८ अवधिज्ञान देषों में ३३० ७८० अननुयोग के दृष्टान्त २३८
१२ अशरण भावना ३५ ८१२ अनाथी मुनि (अशरण
१२ अशुचि भावना ३६५ भावना) ३७३/१६ असंखय अध्ययन की ८०६ अनादि अनन्तप्रकृतिया ३३८ तेरह गाथाएँ ४०६ ८०६ अनादि सान्त प्रकृविया २३८/८ असरयामषा भाषा के । ८१२ अनित्य भावना ३५६ बारह भद २७२ ७७६ अनुत्तरोपपातिक २०२ १२ अनुप्रेक्षा बारह १५/
|७४ आगामी उत्सर्पिणी के ८०८ अनुभाव देवों में ३३६
चक्रवर्ती बारह २६५ ७७६ अन्तकदशांग १६५१८०७ भागार कासग के ३१६ ७७६ अन्तगडदसांग १६५/०६ आचारांग
६७ ८०८ अन्तरकाल देवों में ३३३७६३ आजीवक के उपासक २७६ ७७० अन्त्य काश्यप ८०८ आणत देवलोक ३२३ ८१२ अन्यत्व भावना ३६४ | ०८ पारण देवलोक ३२३ ८०६ अपरावर्तमान प्रकृतियाँ ३५१ / ७७३ श्रारंम और परिमह को ७६१ अप्रशस्त मन विनय छोड़े विना ग्यारह बातों की
के पारह भेद २७ प्राप्ति नहीं हो सकती १७
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
बोल नं० ७८५ आर्य के बारह भेद ८२६ आर्याषाढ का दृष्टान्त
८१२ आश्रव भावना ८१७ श्राधारक अनाहारक
के तेरह द्वार
इ
७७५ इन्द्रभूति गणधर ८०८ इन्द्र सामानिक आदि
ई
८० ईशान देवलोक ८१० ईषत्प्राग्भारा के नाम
उ
७७६ उपासक दशाङ्ग ७७४ उपासक पडिमाऍ
७७७ उषबाई सूत्र
७७६ उवासँग दसाओ
( -१२ - १२
冠
८०८ ऋद्धि देवों मे
पृष्ठ | बोल न०
२६६ | ८१२ ऋषभदेव के पुत्र (बोधि दुर्लभ भावना )
१४६६
३६७ | ८२० ऋषभदेव भगवान् के तेरह भव
३६८
२४ ३३३
७८१ उत्तराध्ययन इक्कीसवें
अध्ययन की गाथाएं २५५ ८१६ उत्तराभ्ययन चौथे अध्ययन की तेरह गाथाएं
८०५ उत्तरोत्तर घटने वाली चार बातें देवों में ८०८ उद्वर्तना विरह देवों में ० उपपात विरह देवों में ८०५ उपमाऍ साधु की ७८६ उपयोग बारह
)
ए
८१२ एकत्व भावना
७८३ एकेन्द्रिय रत्न चक्रबर्तियां के
३२० ३५२ ७७७ औपपतिक सून
क
७७७ कप्पवर्डिसिया सूत्र ७८० कमलामेला का
पृष्ठ
૬૩
७७६ एवन्ता कुमार की कथा १६८ भौ
७८६ काया के बारह दाष १८८१६ कायक्लेश के भेद २१५ | ८०७ कायोत्सर्ग के आगार
१६० | ८१४ क्रियास्थान तेरह
३८५
७८० कुब्जा का उदाहरण
३३१ | ८२१ कुशध्वज का दृष्टान्त
४०६
३६२
२१५
उदाहरण
२५०
४०६ | ७६२ कम्मियाबुद्धि के दृष्टान्त २७६ ८० कर्म प्रकृतियों के द्वार ३२६ ३३५ | ८०८ कल्पोपपन्न देव बारह ३१८ ३३२ | ८०७ काउसमा के आगार ३३२ | ७८३ काकिणी रत्न ३०६ ० कामभोग देवों में ८०८ काम वासना देवों मे २६७
३१६
२६१
३३२
३३३
१६०
२७३
३६७
११६
२३३
३६२
२३६
४५५
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १३ )
बोलन.
पृष्ठ | चोल नं0 ७८० कोकण दारक का | ७८३ चक्रवर्तियों का हार २६३
उदाहरण २४ ७८३ चक्र० की अवगाहना २६३ ८१८ क्रोधादि को शान्ति ७८३ चक्रवर्तियों को गति २६१ के उपाय
४०२ ७८३ चक्रवर्तियों की प्रव्रज्या २६५ ८०८ तुघा, पिपासा देवों में ३३१ ७.३ चक्रवतियों की सन्तान २६४
७८३ चक्रवतियों की स्थिति २६३ ७७६ गजसुकुमाल की कथा १६३ ७३ चक्र के एकेन्द्रिय रत्न २६३ ७७५ गणधर ग्यारह २३ ७८३ चक्रवर्तियों के ग्राम २६२ ७७५ गणधरों की शङ्काएँ २३ |७३ चक्र के जन्मस्थान २६२ ८०८ गतागत देवों की ३९८ ७८३ चक्र० के पचेन्द्रिय रत्न २६३ ८८ गतागत देवभव में ३३२ ७८३ चक्रवतियों के पिता २६२ ७८३ गति चक्रवर्तियों की २६१ / ७८३ चक्रववियों के खारत्न ६६४ ८१६ गाथाएँ तेरह उन्तरा- ७८४ चक्रवती आने वाला
ध्ययन सूत्र की ४.६ उत्सापणा के २६५ ७८० गाय और बछड़े का ७५३ चक्र ० का काकिणीरत्न २६१
उदाहरण २३६ | ७८३ चक्रवती बारह २६० ७८२ गुण वारह अरिहन्त के २६० ७५७ चन्दपरणात ७७६ गुणरत्न संवत्सर तप २०० ७६L चन्द्र, सूर्या की सख्या ३०० ८०८ गृहलिङ्गी का उपपात ३३६ | ७७७ चन्द्र प्रज्ञान २२८ ७७६ ग्यारह अङ्ग ६६ २१ चिलातापुत्र का दृष्टान्त ४३४ ७EE ग्रहों की संख्या ३.० ७७५ चौबीस तीर्थडरों क ७५३ ग्राम चक्रवतियों के २६२ गणधरों की संख्या २३ ७८० ग्रामेयक का उदाहरण २४२ ७६७ ग्लान प्रतिचारी बारह २१७७५३ जन्मस्थान चक्रवतियों के २६२
७७७ जवूद्वीप परणति २२५ ७८३ चक्रवतियों का बल २६२ ७७७ जबूद्वीप प्रज्ञप्ति २२५ ७३ चक्रवर्तियों का भोजन २६१/११ जावादि नव चत्वों के शान से ७८३ चक्रवर्तियों का वर्ण २६३ बारह बोलों की प्राप्ति ३५२
२२६
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोलन
पृष्ठ बोल नं. २२० जीवानन्द वैध (ऋषभदेव २१ दृष्टान्त नन्दमणिकारका ४४४
का नवां भष) ४१३/२१ दृष्टान्त मयूराण्ड का ४५३ ७७७ जीवाभिगम २१६ | २१ दृष्टान्त वजस्वामी का ४८१ ७८१ जैन साधु के लिये मार्ग ८२१ दृष्टान्त वणिक् का ४५६
प्रदर्शक बारह माथाएँ २५५ / २२१ दृष्टान्त विष्णुकुमार का ४५ ८०८ ज्ञान देषों में ३३० २१ दृष्टान्त श्रेणिक का ४६५ ७७६ ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र १८५ / २१ दृष्टान्त श्रेयांसकुमार का ४२३ L ज्योतिषियों को संख्या ३०० २१ दृष्टान्त सयडाल का ४६१
८०८ दृष्टि देवों की ३३० ७७६ ठाणा सूत्र
100८ देवलोकों की ऊँचाई ३१८
| ८०८ देवलोक बारह ३१८ ७७० णाय चाणायपुत्त ४८०८ देवलोकों में परिषदाएँ ३२५ ७७६ णायाधम्मकहा १५ | ८८८ देवलोकों में स्थिति ३२४ । ७०० देवार्य
१० L तारों की संख्या ३००८०८ देवों का अवधिज्ञान ३३० तेरहवाँ बोल संग्रह ३६१/८०८ देवों का आहार फाल ३३५
८०८ देवों का उच्छवास ३२६ ७७१ दशवकालिक की गाथाएँ ११८०८ देवों का उच्छवास काल ३३५ ८२१ दुर्गन्धा का दृष्टान्त ४५८८०८ देवों का वर्ण ३२६ ७७२ दुर्लभ ग्यारह १७८०८ देवों का संहनन ३२६ ७८० दृष्टान्त अननुयोग के २३८८०८ देवों का स्पर्श ३२६ ८२१ दृष्टान्त आर्याषाढ का ४६६ ८०८ देवों की अवगाहना ३२६ ७६२ दृष्टान्त कम्मियाबुद्धि के २७६ | ८८८ देवों की उत्पत्ति ३२८ ८२१ दृष्टान्त कुशध्वज का ४५५ ८०८ देवों की ऋद्धि ३३१ २१ दृष्टान्त चिलातीपुत्र का ४३४८०८ देवों की गतागत ३२८ ५२१ दृष्टान्त सम्यक्त्व के ४२२ / ८८ देवों की वेशभूषा ३३१ २१ दृष्टान्त दुर्गन्धा का ४५८०८ देवों की संख्या ३२० २१ स्टान्त घलासार्थका ४४६ ८.८ देवों के प्रवान्तर भेद ३३३
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
बोल नं०
८० देवों के चिन्ह
८० देवों के संस्थान
८० देवों में अनुभाव ८०८ देवों में उत्तरोत्तर बढ़ने वाली सात बातें
८०८ देवों में उद्वर्तना विरह
८०८ देवो में उपपात
देवों में उपपात विरह देवों में कामभोग
८०८ देवों में कामवासना ८०८ देवों मे क्षुधा, पिपासा
८० देवों में गतागन देवों में ज्ञान
८० देवों मे दृष्टि देवों से प्रवीचार देवों में लेश्या
८०८ देवों में विकुर्षणा
८० देवों में बेदना
८० देवों में समुदुधात ८०८ देवो मैं साता (सुख) ८०६ देशघाती प्रकृतिया ७८६ दोप काया के बारह १८२ दोहे भावनाओं के
ध
( १५ )
पृष्ठ | बोल नं०
३१६८०४ धर्म के बारह विशेष
८१२ धर्म भावना
८१२ धर्मरुचि मुनि (धर्म भावना)
३२६ ३३६
३८६
३३४८०६ प्र वबन्धिनी प्रकृतियों ३३७ ३३२ ८०६ प्र वसत्ताक प्रकृतियाँ ३४२ ३३६ | ८०६ ध ुवोदया प्रकृतियाँ
३४१
३३२
३३२
३३३७८० नकुल का दृष्टान्त
७६६ नक्षत्रों की सख्या
८२१ नन्दमणिकार का
३३१
३३२
३३०
३३०
३३३
न
दृष्टान्त ८१२ नमिराजर्षि (एकत्व भावना ) ३३०८११ नव तषों के ज्ञान से
परम्परा लाभ
३३१ ३३६ ८१० नाम, ईषत्प्राग्भारा के
१७६ धन्ना अनगार की कथा २०४ ८२१ धन्ना का दृष्टान्त ४४६ ८२० धन्नासार्थवाह (ऋषभदेव
का पहला भव)
४०६
३३१
३३१
३४८ | ७७७ निरियात्रलियाच २७३ | ८१२ निर्जरा भावना ३७६ | ७६४ निश्चय और व्यवहार
·
पृष्ठ
३०६
३७३
प
७८३ पञ्चेन्द्रिय रत्न चक्रबर्तियों के
७७४ पडिमाऍ श्रावक की ७६५ पडिमाऍ साधु की
२४६
३००
७७० नाम ग्यारह महावीर के ३ ७६० नाम बारह मान के
-
४४४
३८१
३५२
३५२
से श्रावक के भाव व्रत २८०
२७५
२३२
३६६
२६३
१८
२८५
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२१
३५०
२३४
( १६ ) बोल नं.
पृष्ठ | घोल न० ८१५ पडिसंलीणया के भेद ३६५ | ८७ वारह भेद अवग्रह के २६६ ७७६ पपहवागरण २०८ ७८८ वारह भेद असत्यामृषा ७७७ पन्नवणा
(व्यवहार) भाषा के २७२ ७७७ परदेशी राना ०१७ | ७८५ वारह भेद आर्य के २६६ ८०६ परावर्तमान प्रकृतियाँ ३५१/८०३ वारह महीनों मे पोरिसी ८०८ परिषदाएं देवलोकों में ३२५ का परिमाण ३०४ ८०६ पाप प्रकृतियां + ३५१ / ८०२ बारह मास ३०३ ७५३ पिता चक्रव तयो के २६२ |७६६ वारह सम्भोग २६२ ८०-पुण्य प्रकृतिया
|७E८ वालमरण के बारह भेद २६८ ७७७ पुष्पचूलिया
| ७६२ बुद्धि कम्मिया के दृष्टान्त २७६ ७७७ पुफिया
२३३
८१२ बोधि दुर्बल भावना ३७१ ८०० पूर्णिमा बारह ३०२ ८०८ ब्रह्म देवलोक ३२ ८०३ पोरिसी का परिमाण ३०४ ७७७ प्रज्ञापना सूत्र
भ
२२१ ८१५ प्रतिसंलीनता के भेद ३६५ ७७६ भगवती सूत्र १३८ ७७५ प्रमासस्वामी ६०1८२० भगवान ऋषभदव के ८०८ प्रवीचार देवों में ३३३ । तेरह भव
४०६ ७५३ प्रव्रज्या चक्रवतियों की २६५
|७७० भगवान महावीर के ७७६ प्रश्न व्याकरण २०८ ग्यारह नाम २०८ प्राणत देवलोक ३२३ |८१२ भरत चक्रवर्ती (अनित्य
भावना)
३७५ ७५३ बल चक्रवर्तियों का २६२
२० भव तेरह ऋषभदेव
२६० ७८६ वारह उपयोग
भगवान के
४० ७७७ वारह उपांग
२१५/८१२ भावनाओं के दोहे ३७६ ८१२ भावना बारह
३५५ ७५२ वारह गुण अरिहन्त के २६० ७८३ बारह चक्रवर्ती
२६०/८१२ भावना भाने वाले ८०८ वारह देवलोक
महापुरुषों का परिचय ३७८ ७६४ (क) वारह व्रत
| ७६४ भाव त श्रावक के' २८० ८१२ बारह भावना ३५५/७७६ भाषा के बारह भेद २३८
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १७ ) पृष्ठ बोल नं०
बोल नं०
७८८ भाषा व्यवहार के भेद २७२/
1८०६ यति धर्म के विशेषण ३१४ ७५ भिक्खु पडिमा बारह २८५ ८०८ भूख और प्यास देवों मे ३३१
७७७ राज प्रश्नीय सूत्र २१६ ७७७ राजा परदेशी २१७
७७७ रायपसेणी सूत्र २९६ मंगलाचरण ७७५ मण्डित स्वामी ७६१ मन विनय (अप्रशस्त)
२० नलिता देव (ऋषम देव ९०
का पांचवा मव) २७५
४१२ के बारह भेद
८० लान्तक देवलोक ३२२ २२१ मयूराण्ड का दृष्टान्त ४५३ ।
८० लेश्या देवों में ७६८ मरण (बाल) के भेद |
1८९२ लोक भावना ३७० ८१२ मल्फिनाथ भगवान के छः ।
८८ लोकानुभाव देवों मै ३३६ मित्र (ससार भावना) ३८० ७७० महति वीर २० महाबल (ऋषभ देव का २० वज्रजंघ (ऋषभदेव का
चौथा भव) ४११ छठा भव) ४१२ ७७० महावार
४ २० वषनाम चक्रवती (ऋषभ ७७० महावीर के ग्यारह नाम | देव का ग्यारहवां भव)४१५ ८०८ महाशुक्र देवलोक ३२२ |२१ षस्वामी का दृष्टान्त ४८१ ८.२ महीने बारह
३०३/२१ षणिक का दृष्टान्त ४५६ ७६० मान के बारह नाम २७५ ७७७ वण्हिदसा ८०२ मास बारह ३०३ ७८० वधिरील्लाप का दृष्टान्त २४१ ७७० माहण
७८३ वर्ण चक्रवर्तियों का २६३ ८०८ माहेन्द्र देवलोक 1८०८ वर्ण देवों का ३२६ ७७० मुण
७७५ वतमान तीर्थङ्करों के ८१२ मृगापुत्र (अन्यत्वभावना)३८२ । . गणघरों का सख्या ७७५ मेताय स्वामो ____५६७७० वर्धमान ७७५ मौर्य स्वामी ५०/७७५ वायुभूति
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८ ) नोन नं.
पृष्ट बोल नं.
उदाहरण २५२ १०८ विफर्वणा देवों में ३३१८१२ शिव राजर्षि (लोक ७७० विदेह
। भावना) ३८७ ८१३ विनय के तेरह भेद ३६१ 1८०५ श्रमण की उपमाए ३६ ७७६ विपाक सूत्र २१३/७७० श्रमण या सहज ८०८ विमानों का आधार ३२७७७१ श्रामण्य पूर्विका अध्ययन ८०८ विमानों की ऊँचाई ३२७ की ग्यारह गाथाएँ ११ ८८ विमानों की मोटाई ३२७ ७७४ श्रावक की पडिमाएँ १८ ८०८ विमानों का वर्ण | Sty श्रावक के भाव वन २८० ८०८ विमानों का विस्तार ३२७ | ७६४ (क) भाषक के १२ व्रत ४६३ ८०८ विमानों की संख्या ३१६ |७३ श्रावक आजीवक के . २७६ ८०८ विमानों की संख्या ३२३ | ७० श्रावकमायो का दृष्टान्त २४५ ८०८ विमानों का सस्थान
३२७ ८२१ श्रेणिक काष्टान्त ४६५ ८ विमानों का स्वरूप ३१६७० श्रणिक के कोप का ७७६ विवाग सुय २१३ उदाहरण २५३ ७७६ विवाह पएणति १३८७७६ श्रेणिक की रानियों २०१ ८०४ विशेषण बारह धर्म के ३०६ / ८११ श्रेयासकुमार का ८०६ विशेषण स्थविरकल्पके ३१४ । दृष्टान्त
४२३ ८२१ विष्णुकुमार का दृष्टान्त ४८५८०८ श्वासोच्छवास देवों का ३२६ ८०८ वेदना देवों में ३३६ ८०८ वेशभूषा देवों में ३३१
स ७७१ सालीय
६-0 संख्या देवों की ३२८ १७ वैयावच्च करने वाले १६७
८१२ सबर भावना ७७५ व्यक्त स्वामी
२१ ससार भावना ७८८ व्यवहार भपा के भेद २७२।
८०८ सस्थान देवों के ३२६ ७७३ व्याख्या प्रज्ञप्ति १३८
८०८ संहनन देवों के ३२६ ७६४ व्रत (भाव) श्रावक के २८०
२१ सकडाल का दृष्टान्त ४६१ ८१२ सनत्कुमार चक्रवती,
(अशुचि भावना) ३८४ ७८० शब कुमार के साहम का [2०८ सनत्कुमार देवलोक ३२१
सासी
३६
३६०
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६.)
पृष्ठ, बोल न०
बोल न.
३२३ ३५२
०८ सुख देवों में
__४०
७५३ सन्तान चकवतियों को २६५/०६० साप्तपदिक व्रत का
उदाहरण ७७० सन्मति (महावीर)
150 सामानिक देवों की ७७६ समवायांग
संख्या ८०८ समुद्घात देवों में ३३१/१०सिद्धशिला के नाम ८१२ समुद्रपाल मुनि (आव भावना)
७७५ सुधर्मा स्वामी ७६१ समुद्रपालीय अध्ययन
| VEE सूर्य, चन्द्रों की संख्या ३००
५५/ को वारह गाथाए
७७६ सूत्रकृताङ्ग ७६६ सम्भोग बारह २१२/
७७८ सूत्र के बारह भेद २३५ २१ सम्यक्त्व के लिए
| ७७६ सूयगडांग
0 तेरह दृष्टान्त
(७७७ सुरपएणति २३०
४६१ ८२१ सयडाल का दृष्टान्त
(७७७ सूर्यप्रजाति
३१७ ८०१ सर्वघाती प्रकृतियाँ
1८८८ सौधर्म देवलोक ८०८ सहसार कल्प
३
७५३ स्त्रीरन चक्रवर्तियों के २६४ ८०६ सादि अनन्त प्रकृतियाँ ३३५ ८०६ सादिसान्त प्रकृतियां ३३८/
1८०६ स्थविरकल्प के विशेषण ३१४
| ७७६ स्थानांग सूत्र ७८१ साधु के लिए मार्ग प्रद
|७३ स्थिति चकवर्तियों की २६३ र्शक वारह गाथाए २५५/
JEE स्थिति देवलोकों मे ३२४ ७६५ साधु की पडिमाएं २८५
०८ सर्श देवों का ३२९ ८०५ साधु की वारह उपमा ३०६)
100 स्वलिंगी का उपपात ३३६ ७६६ साधु के बारह सम्भोग २६२/ ७६७ साधु (ग्लान) की वैया
७० स्वाध्याय का उदाहरण २४० पच्च करने वाले चारह २६७. ८०६ सापेक्ष यति धर्म के
1८१२ हरिकेशी मुनि (संवर
भावना) ३८६ चारह विशेषण ३१४/७५३ हार चक्रपतियों का .२६३
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
आभार प्रदर्शन
जैन धर्म दिवाकर पण्डितप्रवर उपाध्याय श्री आत्माराम जी महाराज ने चौथे भाग की पाण्डुलिपि को आद्योपान्त सुन कर आवश्यक संशोधन करवाया है। इसी प्रकार पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज के सुशिष्य मुनि श्रीपन्नालालजी महाराज ने भीबहुत परिश्रम पूर्वक पुस्तक का आद्योपान्त ध्यान से निरीक्षण किया है। उपरोक्त दोनों मुनिवरों की अमूल्य सहायता प्रथम भागसे लेकर अब तक बराबर मिल रही है। उनके उपकार के लिए कृतज्ञतापूर्ण हृदय से हम कामना करते हैं कि उनका सहयोग सदा इसी प्रकार मिलता रहे।
परम प्रतापी जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज के बीकानेरयामीनासर विराजने से भी हमें बहुत लाम हुआ है। पुस्तक छपते समय या लिखते समय को भी समस्या उपस्थित हुई, उनके पास जाने से सुलझगई।मधुसाध्वी के आचार से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी बातों का स्पष्टीकरण उन्हीं की कृपा से हुआ है। पूज्य भी के परम शिष्य पडितरत्न युवाचार्य श्री गणेशीलालजी महारान, पण्डित मुनि श्री सिरेमलजी महाराज व पण्डितरत्न मुनि श्री नवरीमलजी महाराज ने भी आवश्यकता पड़ने पर अपना अमूल्य समय दिया है। इस उपकार के लिए हम उपरोक्त मुनिवरों के सदा आभारी रहेगे।
श्री श्वे स्थानकवासी जैन कान्फरेंस, बम्बई को पुस्तक की पाण्डुलिपि मेनी गई थी। इसे प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिए हम कान्फरेंस के भी आभारी है।
पण्डित श्री सुबोधनारायण झा,व्याकरणाचार्य तथा पं० हनुमत्प्रसादनी साहित्यशास्त्री बोल संग्रह विभाग में कार्य कर रहे हैं। इन्होंने पुस्तक के लिए काफीपरिश्रम उठाया है। इसके लिए दोनों महानुभावों को हार्दिक धन्यवाद है।
(हितीयावृत्ति के सम्बन्ध में)
परम प्रतापी जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी म. सा. के सुशिष्य शास्त्रममंश पडित मुनि श्री पन्नालालजी म. सा. ने इस भाग का दुबारा सूक्ष्मनिरीक्षण करके सशोधन योग्य स्थलों के लिए उचित परामर्श दिया है। अतः हम आपके आभारी हैं।
पूज्य श्री हस्तीमलजी म. सा. की सम्प्रदाय के वयोवृद्ध मुनि श्री सुनानमलजी म. सा. के सुशिष्य पडित मुनि श्री लक्ष्मीचन्द्रबी म. सा. ने इसकी प्रथमावृचि की अपी हुई पुस्तक का श्रादयोपान्त उपयोग पूर्वक अवलोकन करके कितनेक शकास्थलों के लिए सूचना की थी। उनका यथास्थान सशोधन कर दिया गया है। अतः हम उक्त मुनि श्री के आभारी हैं। विक्रम संवत् २००७
पुस्तक प्रकाशक समिति भाषाढ शुक्ला तृतीया । वीर संवत् २४७६
ऊन प्रेस, बीकानेर
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री अगरचन्द भैरोदान 'सेठिया जैन पारमार्थिक सस्था, बीकानेर
a
का
छत्तीसवां वार्षिक विवरण
तारीख १ जनवरी से ३१ दिसम्बर सन १६४६ तदनुसार विक्रम संवत २००५ पोष सुदी २ से सं. २००६ पोष सुदी ११ तक ।
इस संस्था की स्थापना सन् १६१३ में हुई। इसका डीड आफ ट्रस्ट सन् १६४४ में कलकत्ते में और सन् १६४६ में बीकानेर में रजिस्टर्ड कराया गया। इसकी व्यवस्था के लिए तीन कमेटियों बनी हुई हैं। यथा
( १ ) ट्रस्ट - कमेटी ( Trust Committee)
(१) श्रीमान् सेठ भैरोदान जी सा. सेठिया (२) श्रीमान् जेठमलजी सेठिया ( ३ ) श्रीमान् लहरचन्दजी सेठिया ( कॉभाप्टेड ट्रस्टी ) (४) श्रीमान् जुगराजजी सेठिया ( कॉमप्टेड ट्रस्टी) (५) श्रीमान माणकचन्दजी सेठिया
- (२) मैनेजिङ्ग - कमेटी
(१) श्रीमान् सेठ भैरोदानजी सा. सेठिया (१) श्रीमान् जेठमलजी सेठिया ( ३ ) श्रीमान् लहरचन्दनी सेठिया (४) श्रीमान् जुगराजजी ' सेठिया (५) श्रीमान् माणकचन्दजी सेठिया (६) महता बुधसिंहजी सा. बंद (७) श्रीमान् बकील ललिताप्रसादनी B.A., LL.B.
(३) जनरल कमेटी
- ( १ ) श्रीमान् सेठ भैरोदानजी खा. सेठिया (२) श्रीमान् जेठमलजी सेठिया (३) श्रीमान् मगनमलजी सा. कोठारी ( ४ ' महता
सिंहनीसां वेद (५) श्रीमान् पानमलजी सेठिया (६) श्रीमान्
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२) नहरचन्दजी सेठिया (७) श्रीमान जुगराजजी सेठिया । ८) श्रीमान् कुन्दनमलजी सेठिया (8) श्रीमान माणकचन्दजी सेठिया (१०) श्रीमान् गोविन्दरामजी भणसाली (११) श्रीमान् घेवरचन्दजी बांठिया (१२) श्रीमान् केशरीचन्द्रजी सेठिया.(१३). श्रीमान् खेमचन्दजी सेठिया (१४) श्रीमान् मोहनलालजी सेठिया' ।
इस सान के लिए -श्रीयुत् सतीदासजी तातेड़ और ओयुत् हीरालालजी मुकीम ऑडिटर नियुक्त किये गये है। -
इस संस्था के अन्तर्गत चलने वाले. विभाग और उनका कार्य विवरण इस प्रकार है
विद्यालय विभाग इस विभाग में धर्म हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी आदि की उच्च शिक्षा दी जाती है और शिक्षा प्राप्त छात्रों को विभिन्न परीक्षाएं दिलाई जाती है। इस साल हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की साहित्य मध्यमा परीक्षा में निम्न लिखित तीन विद्यार्थी सम्मिलित हुए।-(१.) सौभाममल महता (२) सुरजमल जैन (३) मदनलाल नसोई। दो विद्यार्थियों ने धार्मिक परीक्षा बोर्ड रतलाम की धर्म मध्यमा परीक्षा दी और दोनों विद्यार्थी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए--(-१-); सोमागमल महता २) लक्ष्मीलाल बाफ दो विद्यार्थी अप्रेजी,की,इन्दर परीक्षा में बठे(१) गो वन्दसिह चपलोत (फर्स्ट इयर साइन्स- शान्तिनाल- मोगरा (फट इयरे कार्मस) ये दोनों विद्यार्थी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। ___ इस वर्ष अग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने वाले कुन विद्यार्थी १७ आगे पीछे वर्ष भर में तथा भिन्न भिन्न स्थानों पर रहें। उन्हें गध, पद्य, नाटक नित्य, पत्र लेखन, अनुवाद,( Translation); जतरल इंगलिश, समाचारसत्र अध्ययन एवं वादालाप आदि की शिक्षा दी गई। इसके. अतिरिका शहीर-विज्ञान स्वास्थय विज्ञान, भूगोल, इतिहास, गणित, नागरिक शास्त्रा आदि विषयों की भी.लिशादी गई।
सिद्धान्तः शाला, विभाग) .. इस विभाग में हिन्दी; संस्कृत, प्राकृत औरधर्मशास्त्रों का साधु साध्वियों को उनके धर्म स्थानों पर भेज कर-पण्डितों, द्वारा अव्ययन कराया गया और उनकी मासिक-परीक्षाएं की गई। जिनका परिणाम
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्था के रजिस्टर में प्रति मांस लिखा गया है। उनका परोक्षा. फल अच्छा रहा है। इस वर्ष पढ़ने वाले साधु सोवियों की संख्या २१ रही। यह संख्या वर्ष भर को है। इन में साधुमार्गीयाधु-साध्वियां १२ और मन्दिरमार्गी साध्धियाँ थीं। उपरोक साधुः साध्वियों को निम्नलिखित शाख और प्रन्थों का अध्ययन कराया गया:
व्याकरण विषय में सिद्धान्त कौमुदी, सिद्धान्त चन्द्रिका, लघुकौमुदी, संस्कृत शिक्षा भाग १ से ४ तक। - .
प्राकृत व्याकरण विषय में जैन सिद्धान्त कौमुदी । हेमचन्द्र अष्टम अध्याय ।' साहित्य विषय में रघुवंश, हितोपदेश, पाण्डव चरित्र ।
आगम विषय में उत्तराध्ययन सूत्र, स्थानांङ्ग सूत्र टीका सहित, दशकालिक सूत्र टीका सहित, प्रश्न व्याकरण सूत्र
दर्शन विषय में- तत्त्वार्थ सूत्र (मूल), प्रमाणनयतत्त्वालोकालार, रत्नाकरावचारिका, सिद्धान्त मुक्तावली, तर्क सपह।' . हिन्दी--हिन्दी बालशिक्षा भाग १ - ६ तक, सुलेख-अभ्यास ।'
'श्राविका और कन्या शिक्षण विभाग। इस विभाग में श्राविकाओं को तथा कन्याओं को शिक्षण दिया गया। इस वर्ष १७ श्राविकाओं को तथा कन्याओं को संस्था की ओर से भिन्न भिन्न स्थानों पर जाकर अध्यापक और अध्यापिकाओं ने हिन्दी. व्याकरण, धार्मिक, गणित, वाणिका आदि विषयों का अध्ययन कराया।
गणित में सामान्य जोड़, बाकी, गुणा भाग तथा रूपया, आना पाई, गज, फोट, इञ्च के तथा जमीन सम्बन्धी, सामान्य सवाल आदि फराये गये। वाणिका-जोड़ बाकी, गुणा, भाग आदि सिखाये गये।
हिन्दी, हिन्दी बालशिक्षा भाग १ से ४ तक, मुलेख-अभ्यास-। धार्मिक-पंचप्रतिक्रमण भक्तामर मूल, कल्याण मन्दिर मूल ।
. साहित्य प्रकाशन विभाग। इस वर्ष इस विभाग में निम्नलिखित पुस्तक प्रकाशित हुई :---
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४). .१.. श्रावक के बारह व्रतों की सक्षिप्त टीप · .. ५०० प्रति २. प्रतिक्रमण मूल (नवम आवृत्ति) ...... ३. भानुपूर्वी (अष्टम आवृत्ति) ... .. २००० ४. श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह प्रथम भाग -
(द्वितीयावृत्ति) ... .. .. १००० , ५. जैनागम तत्त्व दीपिका के प्रश्नोचरों में संशोधन
सम्बन्धी पुस्तिका .. ... ५०० " ६. श्रीमान् भैरोदानजी.सेठिया की सक्षिस जीवनी ५०० ।७. आत्महित बोध भावना को दोहावली ... ५०,
कुल ... ७.०० " श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह चौथा भाग (द्वितीयावृत्ति) छप रहा है, उसका तीन हिस्सा छप चुका है।
साहित्य निर्माण विभाग.। इस संस्था के अन्तर्गत साहित्य प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित होने वाली सत्र पुस्तकों का संशोधन और प्रफ प्रादि देखने का कार्य इस विभाग द्वारा हुआ।मुख विपाक सूत्र का अन्वय सहिन हिन्दी शब्दार्थ लिखवाना प्रारम्भ किया गया है।
Paragraat ETTIR (Free Boarding House
इस संस्था के अन्तर्गत विद्यालय विभाग में अध्ययन करने वाले विद्याथियों में से विद्यार्थी बोडिंग हाउस में रहे। उन सब का रहने का और भोजन आदि का प्रबन्ध संस्था से हुआ है।
- ग्रन्थालय (लायब्रेरी) विभाग संग्रहालय विभाग-इस विभाग में इस वर्ष ३१ पुस्तके नई मंगाई गई। पुरानी पुस्तकें जिनकी जिल्द टूट गई थीं उनकी नई जिल्दें बंधाई गई । संग्रहालय में निम्नलिखित पुस्तकें है:-हिन्दी-६६६ संस्कृत प्राकृत ३०५३ । अंग्रेजी-२६६१ (नर्मन और पाली भाषा के प्रन्थ इसी में शामिल हैं)।गुजराती-१४११ । उद ३२ हस्तलिखित १२४१। इस समय रजिस्टर में नम्बर पर चढो हुई और एक्स्ट्रा पुस्तकें कुल मिनाकर १४७२४ पुस्तकें हैं। एक्स्ट्रा पुस्तकों में से कुछ पुस्तके विक्री विभाग और
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
() भेट विभाग में ले ली गई है। संस्था से प्रकाशित विको की पुस्तकें हैं और :२१६८ ऐसी पुस्तकें हैं जिन पर मूल्य नहीं लिखा हुमा है। कुल मिला कर ८१६७६ पुस्तकें स्टाक में हैं। पत्राकार सूत्र, थोकड़े, हास वगैरह की करीब १२००० पुस्तके स्टॉक में हैं। इस वर्ष लाइनरी: के जनरल रजिस्टर और प्रकारादि अनुक्रमणिका के रजिस्टर बनवाये । गये, जिनमें कई व्यक्तियों को काफी समय देना पड़ा।
(२) वाचनालय विभाग-इस वर्ष दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक पत्र पत्रिकाएं १८ आती रहीं।
(5) पुस्तक लेन देन विभाग-इस वर्ष ११६ सन्जनों ने १९४७ पुस्तकों का लेन देन करके इस विमाग से नाम उठाया।
धर्म प्रचार विभाग इसके अन्तर्गत उपहार विभाग,'धर्मोपकरण विभाग और दीक्षोपकरण विभाग ये तीन विभाग है। (१) उपहार विभाग-इस वर्ष २५०० पुस्तकें उपहार रूप में भिन्न भिन्न पुस्तकालयों (Libraries) और सन्ननों को पासल द्वारा भेजी गई तथा दी गई, उनमें मूल्य वानी पुस्तक १३२१ हैं जिनकी कीमत रुपये १ ) है। ११७८ ऐसी पुस्तकें हैं जिन पर मूल्य नहीं लिखा हुआ है। कुल मिला कर २५०० पुस्तकें हैं। इस लायरी में जिन सत्रों की अधिक प्रतियाँ थीं. वस्त्र अन्य मिन भिन्न सात लायरियों को भेट भेजे गये।
(धर्मापकरण विभाग-इस विभाग द्वारा प्रासन (बैठका) पंजणी, नवकरवाली आदि धर्मोपकरण भावक भाविकाओं को भेट दिये गये जिनकी कीमत ४५४) होती है।
() दीपकरण विभाग-दीक्षार्थियों को भोपा, पूंजणी, पातरा, कम्ममावस्त्र (खादी) तथा दीक्षोपयोगी अन्य फुटकर सामान (साया, कुदछिण, फीता, होरी भादि ) भेट दिया गया जिनकी कीमत Postel होती है। ...
लोन (Loan वभाग इस विभाग द्वारा रूपये ७५२०11) ब शिक्षण प्राप्त करने वाले ११ विद्यार्थियों को उर्व शिक्षण के लिए दिया हुआ है। श्रीमान् मैगेदानज'। सा० सेठिया ने इस वर्ष ५०००) पांच हजार रूपये फिर इस विभाग में
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
जमा करवाये हैं। वे रूपये, पहले से उनकी नेत्राय से त्याग किये हुए थे।
". कार्यालय विमागं ( Officer “इस विभाग में संस्था के समस्त आय व्यय को हिसाब किताब रखा जाता है और उसका बही खातों में जमा खर्च होता है। संस्था के अध्याएकों का वेतन और बिलों का भुगतान तथा रूपये पैसे सम्बन्धी सारा, लेनदेन और हिसाब कितीव इसी विभाग द्वारा होता है। इस संस्था से प्रकाशित पुस्तकें तथा श्री जैन हितेच्छु भाषक मण्डत रतलमि और श्री जवाहर साहित्य समिति भीनासर,आदि की पुस्तकें आईर के अनुसार बाहर बुक पोष्ट और वी. पी. पार्सल से भेजना, उनकी आई हुईवीपियों का हिसाब रखना तथा भेट से भेजी जाने वाली पुस्तकों की पासलें भेजना आदि सारा कार्य इस विभाग द्वारा किया गया, सामाजिक पन्न व्यवहार आदि समाज सेवा का कार्य भी इसी विभाग द्वारा हुआ है।
: : श्रआय व्यय का विवरण (सन् १६४६) ई० १९३२) संस्था के कलकत्ता के मकानों का १२ मास का किराया। । १६) बीकानेर में ठारों की गली वाले मकान का किराया। . १ ) ब्याज, डिविडेण्ड पारिएंट पेपर मिल के प्रिफेरेंस
शेयरों का आया।
..२५६६ )- कुल पाय
व्यय का विवरण, (सन् १९४६ ई.) ४६/-), ब्याज खाते। ३ ) विद्यालयः......
तनख्वाह सुबह शाम को पढ़ाई का ट्युः शन... ३७०) सिद्धान्त गोला....
: तनख्वाह : ओवर टाइम स्लेट पाटी आदि।
२००२०।। १६६१८) १६०). १४:२५) श्राविका कन्या शिक्षण
वनख्वाह.. पढाई के लिए बाहर भेजा। १०
) ट्यूशन' कापी बतरणा आदि।। २१२।। xis)
:
१८६ue) ...५४४५
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
(c))
* -२५४२.१ ) साहित्य निर्माण -
वेतन :
Evie)|
•
२४३३\-)| १५६३||) बोडिंग ( छात्रालय)---- भोजन
अन्य खर्च
१५३४' - ) || २६८ )
७६५|||) लायब्रेरी में ३३१ पुस्तक बाहरे से आई । २३२४ = ) | लायंत्ररी खर्च
३२७|| = ) |||
रेल किराया । १४=)
तनख्वाह ओवर टाइमं जिल्द बंधाई । ...१२८३७) ४६१) ४३११) ॥ २४८ | ) १५२|| - ) अखबार दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक आदि । १०६६-१६) ज्ञान प्रचार, पुस्तकें भेट आदि ।
२४१) समाज सेवा विभाग में तनख्वाह के ।
1
१५२||) रोशनी खर्च - गर्मी की, मौसम में १ पखा लायन से में और 'पखा, विद्यालय में चला तथा रात में विद्यार्थियों के लिये बिजली जनी । -:
७३|||)| स्टेशनरी खाते कागज, पेंसिल, होल्डर, निब, स्लेट पाटी, क पिया आदि ।
१२८|||) विद्यालय खाते -छात्रों को परीक्षा फीस; कॉलेज फीस । २५६०) कार्यालय विभाग ( Office ) -
--:
·
२५७६॥ ) - मुनीम, रोकड़िया, गुमाश्ता आदि का वेतन 1 १०) बहियाँ ।
७४) महाजनी शिक्षा शाला में वेतन 1.
पोस्टे -बाहर पुस्तकें भेर्जी तथा पोस्टकार्ड, लिफा, टिकिट आदि ।
१०१/-)]] • परचून, खर्च - साइकल, पंखा, घड़ीं मरम्मत, इनाम आदि ८६ ॥ - ॥ पानी खर्च |
५०००) ता० २३ ३०४६ को जनरल कमेटी में तय हुआ कि रूपये ५०००) सालाना खर्च खाते लिख कर कलकत्ता के मकानात पुराने होने के कारण कलकत्ता के मकानात
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
(5)
के डिप्रीशिएशन खाते में जमा कर लिए जायें। तदनुसार खर्च खाते लिख कर डिप्रीशिएशन खाते जमा किये गये ।
३५४ | ) | || श्री वृद्धि खाते जमा किये। २५६६३।।।) =
तारीख १-१-४० से ता० ३१-१२-४६ तक संस्था के विभागों में जो खर्च हुआ है । इसका विवरण ऊपर बताया जा चुका है। इसके सिवाय शुभ कार्यों में खर्च करने के लिए इस संस्था में अलंग अलग खातों में रूपये जमा करवाये हुए थे। उन खातों में से जिन जिन खातों में से जो जो रकमें खर्च हुई हैं, उनका विवरण इस प्रकार है :
३६६|| ) || कमठाणे में लगे सो मकान मरम्मत खाते में उठा दिए । ४५४ ||| ) || धर्मोपकरण खाते में – आसन, पूंजी, माला, भोघा, कपड़ा आदि भेट में दिए गए।
२७७|| ) ||| दीक्षोपकरण खाते में-- ओघा, पावरा, कम्बल, पुंजणी यदि दोक्षाओं में दिये गये । १३१ - ) || दया आयम्बिल खाते में । २२३।।।) दवा चिकित्सा खाते में लगे।
६) धर्मादा खाते में | -
४३ १६ ॥ शुभ खाते में लगे ।
२३०||) सहायता खाता में |.
- ३१७|| || स्कालरशिप धामिक पढाई बास्ते ।
1
५७ ||) धर्मादा का पानी खाते - श्रीमान् हजारीमलजी की धर्मपत्नी श्री नानू भाई की तरफ से जानवरों को गर्मी
..की मौसिम में पानी डल्लाया गया !
(३५६) दीक्षोपकरणों में लगाये । :
२८५६|||)|
+
१००) रेख चन्दजी फलोदिया की माजी । १४३॥ )|| रामलालजी रामपुरिया 1, ६४) ॥ गोमती बाई ।
५०) नेमचन्दजी सेठिया
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
चतुर्थ भाग
मङ्गलाचरण तित्थयो भगवते अणुत्तर परकमे अमियनाणी । तिएणे सुगइगइगए, सिद्धिपहपएसए वंदे ॥१॥ वंदामि महाभाग महामुर्णि महायसं महावार । अमरनररायमाहियं तित्थयरमिमस्स तित्थस्स॥२॥ इकारस वि गणहरे पवायए पवयणस्स वदामि । सव्वं गणहरवंसं वायगवंसं पवयणं य॥३॥ अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथति गणहरा निउणं । सासणस्स हियहाए, तो सुत्तं पवत्तेइ ॥४॥ अद्वक्त्रप्रसूतं गणधररचितं द्वादशाङ्गं विशालं, चित्रं बहर्थयुक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः। मोक्षारद्वारभूतं व्रतचरणफलं ज्ञेयभावप्रदीपं, भक्त्यानित्यं प्रपद्येश्रुतमहमखिलसर्वलोकैकसा॥
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
-
-
भावार्थ- सर्वोत्कृष्ट पराक्रम वाले, अमितज्ञानी, संसारसमुद्र से तरे हुए, सुगति गति अर्थात् मोक्ष में गये हुए, सिद्धिपथ अर्थात् मोक्षमार्ग के उपदेशक तीर्थकर भगवान् को वन्दन हो ॥१॥ ___महाभाग्य, महामुनि, महायश, देवेन्द्र और नरेन्द्रों द्वारा पूजित तथा वर्तमान तीर्थ के प्रवर्तक भगवान् महावीर को चन्दन हो ॥२॥
प्रवचन अर्थात् भागमों का सूत्र रूप से उपदेश देने वाले गौतम आदि ग्यारह गणधरों को, सभी गणधरों के वंश अर्थात् शिष्य परम्परा को, वाचकवंश को तथा पागम रूप प्रवचन को वन्दना करता हूँ ॥३॥
अरिहन्त भगवान् केवल अर्थ कहते हैं, गणधर देव उसे द्वादशाङ्गी रूप सूत्रों में गूथते हैं। श्रतएव शासन का हित करने के लिये सूत्र प्रवर्तमान हैं ॥४॥
मैं समस्त श्रुत-आगम का भक्तिपूर्वक आश्रय लेता हूँ, क्योंकि वह तीर्थंकरों से अर्थरूप में प्रकट होकर गणधरों के द्वारा शब्दरूप में अथित हुआ है। वह श्रुत विशाल है अतएव बारह अङ्गों में विभक्त है। वह अनेक अर्थों से युक्त होने के कारण अद्भुत है, अतएव उसको बुद्धिमान् मुनि पुङ्गवों ने धारण कर रक्खा है। वह चारित्र का कारण है, इसलिये मोक्ष का प्रधान साधन है। वह सब पदार्थों को प्रदीप के समान प्रकाशित करता है, अतएव वह सम्पूर्ण संसार में अद्वितीय सारभूत है ॥५॥
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
ग्यारहवां बोल संग्रह
७७०-- भगवान् महावीर के ग्यारह नाम
चौवीसवें तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर के अनेक नोम हैं । कृष्ण नगर, लाहोर से प्रकाशित 'जैनविद्या' नामक त्रैमासिक पत्रिका में पं० वेचरदासजी दोशी का एक लेख प्रकाशित हुआ है । उसमें भगवान् के नामों का शास्त्रों का प्रमाण देकर विवेचन I किया है। उपयोगी जान कर वह यहाँ उद्धृत किया जा रहा है ।
כם
हमारे जैन समाज में भगवान् महावीर के दो नाम ही प्रायः प्रसिद्ध हैं। एक महावीर दूसरा वर्द्धमान । इनमें भी महावीर नाम अधिक प्रसिद्ध है । प्रस्तुत निबन्ध में प्रभु महावीर के दूसरे नामों की चर्चा की गई है, जो आगम ग्रन्थ और जैनकोशों में मिलते हैं ।
आचाराङ्ग सूत्र में लिखा है- समये भगवं महावीरे कासवगोते । तस्स एं इमे तिरिण यामधेजा एवं प्राहिज्जंति अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे । सहसमुदिए समणे । भीमभय भैरवं उरालं प्रचेलयं परीसहं सहइ त्ति कटुदेवो हैं से पामं कयं समणे भगनं महावीरे!” (चौवीसवां अध्ययन - भावना)
श्रमण भगवान् महावीर काश्यप गोत्र के थे । उनके तीन नाम इस प्रकार कहे जाते हैं
(१) वर्धमान - माता पिता ने उनका नाम वद्धमाय-वर्धमान किया था ।
(२) श्रमण -- सहज स्वाभाविक गुण समुदाय के कारण उनका दूसरा नाम समय- श्रमण हुआ ।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
(३) महावीर- अचेलकता अर्थात् नग्नता का कठोर परीषह जिसे बड़े बड़े शक्तिशाली पुरुष भी सहन नहीं कर सकते हैं उसको भी भगवान् वर्धमान ने समभाव पूर्वक सहन किया इस कारण देवों ने उनका नाम ' महावीर 'क्खा । (१) विदेह-विदेह दिगण । आचाराङ्ग सूत्र के चौवीसवें अध्ययन में अन्यस्थल पर लिखा है- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे णाये, णायपुरो, गायकुलणिन्वये, विदेहे, विदेहदिएणे, विदेहजच्चे, विदेहसमाले । ( सूत्र, १७ )
उपाठ में भगवान को 'विदेह' नाम से सम्बोधित किया है। भगवान का विदेह नाम भगवान की माता के कुल के साथ सम्बन्ध रखता है। माता त्रिशला 'विदेह' कुल की थी।
आचाराङ्ग सूत्र में लिखा है- 'समणस्स भगवो महावीरस्स अम्मा वासिङगोता। तीसे वंतिरिण णामधेजा एवं पाहिज्जंति तिसलानि वा विदेहदिएणात्तिवा,पियकारिणि चिवा। राजा चेटक वैशाली नगरी की गणसत्ता का प्रमुख था। वैशाली नगरी विदेह देश का एक अवयव रूप थी। राजा चेटक का घराना 'विदेह' नाम से ख्यात था इसी कारण चेटक कीबहिन और प्रभु महावीर की माता त्रिशला के भी विदेह के घराने की होने से विदेहदिएणा-विदेह दत्ता नाम हुआ और विदेहदिएणा के पुत्र भगवान वर्षमान का नाम विदेह'और विदेहदिएण हुआ। (५) गाय, णायपुत्त-ज्ञात, ज्ञातपुत्र- माता के कुल के कारण भगवान् महावीर का नाम विदेह पड़ा। इसी प्रकार पिता के वंश के । कारण प्रभु का नाम णाय-ज्ञात अथवा णायपुत्-शातपुत्र हुआ। उक्त स्थल के प्राचाराङ्ग सूत्र के पाठ में लिखा है-'णाए-शाय- , पुचे, गायकुलणिवत्ते'। भगवान के पिता राजा सिद्धार्थ को भी सायकलणिवत्ते-नातकुल-नितः अर्थात् 'ज्ञात कुल में
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह. चौथा भाग
उत्पन्न हुवा' इस नाम से सूत्रकार ने संबोधित किया है।
बौद्धों के मूल पिटक ग्रन्थों में 'दीर्घतपस्सी निम्गंठो नातपुतो' वाक्य का उल्लेख अनेक स्थलों में श्राता है। उस वाक्य का 'नातपुत' पद भगवान् महावीर का सूचक है और 'दीर्घ तपस्सी' पद भगवान् की कठोरतम तपोमय साधना का द्योतक है, तथा 'निग्गंठ' पद भगवान् के असाधारण अपरिग्रह व्रत को दर्शाता है। जैन परम्परा की अपेक्षा बौद्ध परम्परा में भगवान् के लिए 'नातपुत ' नाम विशेष प्रतीत होता है ।
जैन
1
1
सूत्रों में 'नायाधम्म कहा' नाम का छठा श्रङ्ग है । हमारी समझ में 'नायाधम्म कहा' का श्राद्य 'नाय' पद भगवान् के नाम का द्योतक है । नाय अर्थात् ज्ञात - ज्ञातपुत्र- महावीर, उनसे कही हुई धम्पकहा नायधम्पकहा ज्ञातधर्मकथा । दिगम्बर परम्परा में 'नायम्पका' को 'नाथधर्म कथा' अथवा ' ज्ञातृ धर्म कथा' कहते हैं । 'नाथधर्म कथा' का आद्य 'नाथ' शब्द भगवान महावीर का ही बोधक है । 'नात' नाम भगवान् के पितृ वंश का है उसी नाम का 'नाथ' उच्चारणांतर है। प्राकृत नात, शौरसेनी नाथ । 'नात' शब्द ही किसी प्रकार 'नाथ' रूप में परिणत हो गया है । धनञ्जय नाममाला के प्रणेता महाकवि धनञ्जय ने भगवान् को 'नाथान्वय' कहा है। 'नाथान्वय' का अर्थ जिनका वंश नाथ हो अर्थात् नाथ वंश के । भगवान् के पितृकुल का नाम 'ज्ञात - नात' है और चौद्ध पिटकों में भी 'नातपुत्त' नाम से भगवान् की ख्याति है इसी कारण कविराज धनञ्जय सूचित 'नाथान्वय' पद का चांध 'नाथ' और प्रस्तुत 'ज्ञात' दोनों को समानाक्षर और समानार्थ सपझना चाहिए। 'व' और 'थ' का अक्षर मेद, उच्चारणांतर का ही परिगाम है। यदि 'नाथ' और 'नात' पद समान न समझें तो नाथान्वय' का अर्थ ही ठीक न होगा। 'नाथधर्म कथा' का दूसरा नाम ज्ञातु धर्म
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला कथा भी दिगम्बर परम्परा में प्रसिद्ध है। ज्ञात अर्थात् ज्ञात-ज्ञात पुत्र से कही गई धर्म कथा ज्ञातधर्मकथा । श्वेताम्बर परम्परा के
आगमों में भगवान को 'णाय' अथवा 'णात' तथा 'णायपुत्त' अथवा 'णातपुत्त' नाम से कहा गया है। मैं समझता हूँ कि 'पाय' की अपेक्षा 'पात' पाठ विशेष प्राचीन है। 'णात' का संस्कृत परिवर्तन 'ज्ञात' तो होता ही है परन्तु 'ज्ञा' भी हो सकता है। पितृ' पद का प्राकृत परिवर्तन 'पित' भी होता है और 'पिय' भी। उसमें भी 'पिय' की अपेक्षा 'पित' उच्चारण भाषादृष्टि से विशेष प्राचीन है। इसी प्रकार प्राकृत 'णात' का संस्कृत परिवर्तन श्वेताम्बरों ने 'ज्ञात' किया तो दिगम्बरों ने 'ज्ञात' किया। इनमें मात्र अक्षर भेद है किन्तु अर्थ मेद नहीं है। गोम्मटसार के रचयिता ने 'नाथधर्म कथा' नाम लिख कर 'नात' पद को अपनाया है तो राजवातिककार ने (भट्ट अकलङ्क देव ने) 'ज्ञातृधर्म कथा' कह कर 'ज्ञात' पद की स्वीकृति की है। इस तरह दिगम्बर परम्परा में 'ज्ञात' और 'ज्ञात' दोनों का प्रचार हुआ है । बौद्ध पिटकों के प्रकाएड पंडित
और इतिहासज्ञ श्री राहुल सांकृत्यायन कहते हैं कि वर्तमान में विहार में 'झथरिया' गोत्र के क्षत्रिय लोग विद्यमान हैं। वे झथरिया लोग भगवान महावीर के वंशज है। 'ज्ञात' का प्राकृत में एक उच्चारण 'जात' भी होता है और 'ज्ञात' का 'जातार। . श्री राहुलजी का मत है कि गोत्र सूचक 'झथरिया' शब्द का सम्बन्ध उक्त 'जात' अथवा 'जातार के साथ है। जैनसंघ का कर्तव्य है कि भगवान् के वंशजों की परिशोध करके उनके अभ्युदयार्थ सक्रिय प्रवृत्ति करें। (६) वेसालिय-वैशालिक। सूत्र कृताङ्ग (द्वितीय अध्ययन तृतीय उद्देशक) में भगवान् को 'वेसालिय' नाम से सूचित किया है। 'विशाला' विहार की एक प्राचीन नगरी का नाम है। वर्तमान
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह, चौथा भाग में इसका नाम वसाडपट्टी है। भगवान् की माता 'विशाला' नगरी की रहने वाली थी। इस कारण माता त्रिशला का अपार नाम 'विशाला' हुआ और विशाला के पुत्र का नाम वैशा. लिक पड़ा, विशालायाः अपत्यम्-वैशालिक, प्रा० वेसालिय । जैसे माता के 'विदेह' देश के साथ सम्बन्ध रखने से भगवान् का नाम 'विदेह' पड़ा, ठीक उसी प्रकार माता का 'विशाला' नगरी के साथ सम्बन्ध होने के कारण भगवान् का नाम वैशालिक हुआ। (७) मुणि-मुनि और माहण-ब्राह्मण । आचाराङ्ग सूत्र में 'मुणिणा हु एतं पवेदित' (अध्ययन पॉचवां उद्देशक चौथा ), मुगिणा पवे दितं (अध्ययन पाँचवां उद्देशक तीसरा), 'मुणिणा हु एवं पवेड्यं' (अध्ययन दूसरा उद्देशा तीसरा) इस प्रकार अनेक जगह भगवान् को मात्र 'मुणि-मुनि' शब्द से संबोधित किया है। मालूम होता है कि भगवान् का वाचा संयम असाधारण था। साढ़े बारह वर्ष तक भगवान् ने अपनी आत्मशुद्धि के लिए जो कठोरतम साधना की, इसमें भगवान् ने वचन प्रयोग बहुत कम किया था इस प्रकार भगवान् अपने असाधारण मौन गुण के कारण 'मुनि' शब्द से ख्यात हुए । इसी कारण भगवान् कि ख्याति 'माहणब्राह्मण'शब्द से भी हुई थी। आचाराङ्ग सूत्र में लिखा है कि 'माहणेणं मतिमता' (अध्ययन ६, उद्दशक १-२-३-४) अर्थात् 'मतिमान् ब्राह्मण ने- भगवान् वीर ने इस प्रकार कहा है ऐसा लिख कर सूत्रकार ने भगवान को 'ब्राह्मण' शब्द से भी संबोधित किया है। ब्राह्मण शब्द का मूल 'ब्रह्म' शब्द है । ब्रह्म वेति स ब्रामणः अर्थात् जिसने ब्रह्म को जाना वह ब्राह्मण है।
बहुत पुराने समय के ब्राह्मण ब्रह्मचारी थे वा सर्वथा समभावी-अहिंसक सत्यवादी और अपरिग्रही थे। परन्तु भगवान के जमाने में प्रामण वर्ग विकृत हो गया था । पशुयागादि में हिंसा
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला करता था, दक्षिणा के लालच से मूढ़ होकर राजाओं की वा धनी लोगों की खुशामद करता था इस प्रकार भगवान के समय का ब्राह्मण अपकृष्ट हो गया था । भगवान् के समय की समाज व्यवस्था का हूबहू चित्र जैन सूत्रों में और बौद्ध पिटक ग्रन्थों में खींचा हुआ है। उसको देखने से उस समय के ब्राह्मण की अपकृष्ट दशा का ठीक ठीक ख्याल आता है । उस अपकृष्ट ब्राह्मण को उत्कृष्ट बनाने के लिए भगवान् सच्चे ब्राह्मण हुए और भगवान् ने अपने आचरणों से और वचनों, से अपने अनुयायियों को सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप भी बताया। इसी कारण भगवान् 'ब्राह्मण' नाम से ख्यात हुए । 'ब्राह्मण' का पुराना प्राकृत उच्चारण 'वह्मण' चंभण'
और 'माहण' होता है। जैन व्याख्याकारों ने माहण अर्थात् 'मत हनों' का भाव 'माहण' शब्द से दिखाया है और जो हनन हिंसा नहीं करता है अथवा 'हनो' शब्द का उच्चारण नहीं करता है उसको 'माहण' बताया है। परन्तु व्याकरण की दृष्टि से देखा जाय तो 'ब्राह्मण' शब्द का सम्बन्ध 'ब्रह्म' शब्द के साथ है न कि • 'माहन के साथ।
कोशकार महाकवि धनञ्जय ने अपनी धनन्जय माला में भगवान् महावीर के नामों का उल्लेख इस प्रकार किया है
"सन्मतिः, महतिवीरः,महावीरोऽन्त्यकाश्यपः। नाथान्वयः वर्धमानः, यत्तीर्थमिह सांप्रतम् ॥११॥
उक्त श्लोक में महावीर के छ: नाम बताए हैं-सन्मति । महतिवीर। महावीर । अन्त्यकाश्यप, नाथान्वय और वर्धमान । इनमें से महावीर, वर्धमान और नाथान्वय नामों का वृत्तान्त ऊपर हो चुका, शेष तीन का इस प्रकार है(5) सन्मति-'सती मतिर्यस्य स सन्मतिः' अर्थात् जिसकी मति सद्रूप है, अचल है, शाश्वत है, सत्यरूप है, विभावों के कारण
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग - जिसकी मति (प्रज्ञा) में लव मात्र का भी परिवर्तन नहीं हो सकता है वह सन्मति है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने रचित गहन ग्रन्थ का नाम भगवान के नाम पर 'सन्मति प्रकरण' रक्खा है। इससे मालूम होता है कि भगवान का 'सन्मति' नाम
अधिक प्राचीन है। । (६) महतिवीर- व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) आदि श्रङ्ग. सूत्रों में और औपपातिक प्रभृति उपाङ्ग त्रों में स्थल स्थल पर लिखा है कि 'समणे भगवं महावीरे तीसे महति महालियाए परिसाए धम्म श्राइक्खई" अर्थात् श्रमण भगवान महावीर उस महातिमहान् ( महान् से महान ) सब से बड़ी परिषद को धर्म कहते है। इस प्रकार भगवान की धर्मदेशना-सभा को सर्वत्र महातिमहान (बड़ी से बड़ी) बताया है। कोपकार धनंजय ने भगवान की महातिमहान् (महति महालिया) धर्म परिषद् को ध्यान में रख कर भगवान को भी 'महति वीर' नाम से ख्यात किया हो ऐसा मालूम होता है अथवा 'महति' पद को सप्तम्यन्त समझा जाय तो उसका अर्थ 'बड़े में होगा और समस्त महति+चीर 'महतिवीर' का अर्थ घड़े लोगों में वीर (सव से बड़ा वीर) होगा। इस पक्ष में 'महावीर और महतिवीर के अर्थ में कुछ भी अन्तर न , होगा । बड़े पुरुषों के अनेक नामों का खास खास हेतु होता है इस दृष्टि से देखा जाय तो महतिवीर नाम का सम्बन्ध भगवान् की महातिमहान् धर्म-परिषद् के साथ जोड़ना युक्ति संगत मालुम होता है। (१०) अन्त्यकाश्यप-सूत्रकृताङ्ग सूत्र के तृतीय अध्ययन, तृतीय उद्देशक में भगवान को 'कासव-काश्यप शब्द से सम्बोधित किया है और दशकालिक सूत्र (अध्ययन चतुर्थ) में भगवान् को 'कासव-काश्यप- शब्द से विशिष्ट करके भी संबोधित किया है । भगवान् का गोत्र 'काश्यप था और भगवान् काश्यप
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
गोत्र के होकर अन्तिम तीर्थङ्कर हुए थे इससे कोषकार ने भगवान् को 'अन्त्यकाश्यप' नाम दिया है। सूत्र यागम निर्दिष्ट उल्लेखों से भगवान् का केवल 'काश्यप' नाम ही प्रचलित था ऐसा मालूम होता है और कोपकार के निर्देश से 'अन्त्यकाश्यप नाम भी जान पड़ता है ।
कविराज धनञ्जय की तरह महावैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने 'अभिधानचिन्तामणि नाम माला' कोष में भगवान् वीर के अनेक नाम बताए हैं
१०
६
" वीरः चरमतीर्थकृत् " ॥ २६ ॥
" महावीर : वर्धमानः, देवार्यः ज्ञातनन्दनः " ॥ ३० ॥
( प्रथम देवाधिदेव काड ) वीर, चरम तीर्थकृत्, महावीर, वर्धमान, देवार्थ और ज्ञातनन्दनं ये छः नाम आचार्य हेमचन्द्र ने बताये हैं । इनमें से वीर, महावीर, वर्धमान नामों का वृत्तान्त पहले लिखा गया है । 'ज्ञातनन्दन' नाम ज्ञातपुत्र का ही पर्याय है। प्रभु अंतिम तीर्थङ्कर होने से जैसे धनञ्जय ने उनको 'अन्त्यकाश्यप' कहा वैसे ही आचार्य हेमचन्द्र ने उनको 'चरम तीर्थ कृत्' कहा । चरम -अंतिम, तीर्थकृत् तीर्थङ्कर । व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'अन्त्यकाश्यप और 'चरम तीर्थकृत्' का अर्थ समान है ।
I
(११) देवार्य - आचार्य हेमचन्द्र ने भगवान् का एक नवीन नाम देवार्य बताया है | इसका अर्थ करते हुए श्राचार्य' हेमचन्द्र लिखते हैं कि - "देवश्वासौ श्रार्यश्च देवार्यः । देवैः श्रर्यते-अभि I गम्यते इति वा । देवानां इन्द्रादीनां श्रर्यः स्वामी इति वा " - (उक्त श्लोक टीका ) हेमचन्द्राचार्य के कथनानुसार 'देवार्य' शब्द में 'देव आर्य' और 'देव अर्य' इस प्रकार दो विभाग से पदच्छेद है । 'देवार्य' का देवरूप चार्य अथवा देवों के याद
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जेन ग्रन्थमाला
११
रणीय आर्य अथवा देवों का स्वामी ऐसे तीन अर्थ होते हैं और ये तीनों अर्थ जैन दृष्टि के अनुसार महावीर में सुसंगत भी हैं । आवश्यक सूत्र की हरिभद्रसूरि ( विक्रम संवत् नवम शताब्दी ) रचित वृत्ति में भगवान् महावीर का सविस्तर चरित्र लिखा हुआ है। उसमें कई जगह भगवान् को 'देवज - देवार्य' पद से संबोधित किया है और आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में भी भगवान् को 'देवा' नाम से सूचित किया है ।
उक्त नामों के अतिरिक्त वीर, त्रिशला तनय, त्रैशलेय, सिद्धार्थ - सुत आदि नाम भी मिलते हैं परन्तु उनका कोई विशेषार्थ नहीं है इस कारण उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गई है।
(ले० अध्यापक देवरदास दोशी । जनविद्या Vol 1 No 1 जुलाई )
७७१ - श्रामण्य पूर्विका अध्ययन की ग्यारह
गाथाएं
जैन धर्म में चारित्र को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है । क्योंकि चारित्र धारण किये बिना न तो परिणामों में दृढ़ता श्राती है और न किसी कार्य में सफलता प्राप्त होती है। इस लिए जैन शास्त्रों में चारित्र की बहुत महिमा बतलाई गई है । जितनी चारित्र की महिमा है उतनी ही उसकी श्रावश्यकता भी है और जितना वह आवश्यक है उतना ही वह कठिन भी है । इस लिए जिसकी आत्मा परम धैर्य्यवान् और सम्यग्दर्शन सम्पन्न है वही इसे धारण कर सकता है और वही इसका पालन कर सकता है।
चारित्र के अनेक भेद हैं। कामदेव को जीत लेने पर ही उन सब का सम्यक् पालन हो सकता है। कामदेव का मन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । मन श्रति चंचल है। उसको जीते विना कामदेव का जीतना कठिन है और कामदेव को जीते विना चारित्र
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
का पालन नहीं हो सकता । इस विषय को लेकर दशवेकालिक.
t
सूत्र के दूसरे अध्ययन में ग्यारह गाथाए आई हैं उनका भावार्थ नीचे दिया जाता है
(१) जो पुरुष काम भोगों से निवृत्त नहीं हुआ है, वह पुरुष पद पक्ष में संकल्प विकल्पों से खेदखिन्न होता हुआ किस प्रकार संयम का पालन कर सकता है ! अपितु संयम का पालन नहीं कर सकता । जिसने द्रव्यलिङ्ग धारण कर रक्खा है और द्रव्य - क्रियाए भी कर रहा है किन्तु जिसकी अन्तरङ्ग श्रात्मा विषयों की ओर ही लगी हुई है वह वास्तव में श्रमण (साधु) नहीं है।
(२) वस्त्र, गन्ध, अलकार ( आभूषण ) स्त्रियाँ तथा शय्या श्रादि को जो पुरुष भोगता तो नहीं है लेकिन उक्त पदार्थ जिसके वश में भी नहीं हैं, वह वास्तव में त्यागी नहीं कहा जाता, अर्था जिस पुरुष के पास उक्त पदार्थ नहीं हैं किन्तु उनको भोगने की इच्छा बनी हुई है, ऐसी दशा में यद्यपि वह उनका भोग नहीं करता है तथापि वह त्यागी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इच्छा बनी रहने के कारण उसके चित्त में नाना प्रकार के संकल्प विकल्प पैदा होते रहते हैं अर्थात् सदा ध्यान बना रहता है। इस लिए द्रव्य - लिङ्ग धारण किए जाने पर भी वह त्यागी नहीं कहा जा सकता । (३) जो पुरुष प्रिय और कमनीय भोगों के मिलने पर भी उन्हें. पीठ दे देता है तथा स्वाधीन भोगों को छोड़ देता है, वास्तव में वही पुरुष त्यागी कहा जाता है ।
जो भोग इन्द्रियों को प्रिय नहीं हैं, या प्रिय हैं परन्तु स्वाधीन नहीं हैं, या स्वाधीन भी हैं किन्तु किसी समय प्राप्त नहीं होते तो उनको मनुष्य स्वयं ही नहीं भोगता या नहीं भोग सकता । लेकिन जो इन्द्रियों को प्रिय हैं, स्वाधीन हैं और प्राप्त भी हैं उन्हें जो छोड़ता है, उनसे विमुख रहता है, वास्तव में सच्चा त्यागी वही
4
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
है। ऐसा न्याग करना धीर वीर पुरुषों का काम है। (४) सब प्राणियों पर समभाव रख कर विचरते हुए मुनि का मन यदि कदाचित संयम रूपी घर से बाहर निकल जाय तो मुनि को चाहिए कि 'वह स्त्री आदि मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ' इस प्रकार विचार कर उस स्त्री आदि पर से रागभाव को दूर हटा ले और अपने मन को संयम मार्ग में स्थिर करे। (५। गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! आतापना ले, सुकुमार भाव को छोड़, काम भोगों का अतिक्रमण कर । इनके त्यागने से निश्चय ही दुःख अतिक्रान्त हो जावंगे अर्थात् दुःखों का विनाश हो जायगा। द्वेष को छेदन कर, राग को दूर कर, ऐसा करने से संसार में तूं अवश्य ही सुखी हो जायगा।
आतापना आदि तप को अङ्गीकार करना और सुकुमारता का त्याग करना काम को रोकने के लिये बाह्य कारण हैं । राग द्वेष को छोड़ना अन्तरङ्ग कारण है। इन दोनों निमित्त कारणों के सेवन से मनुष्य काम को जीत सकता है और सुखी हो सकता है। (६) अंगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प, कठिनता से सहन की जाने वाली और जिसमें से धुंये के गुब्बारे उठ रहे हैं, ऐसी (जिसे सहन करना दुष्कर है ऐसी धूम चिह्न वाली) जाज्वल्यमान प्रचण्ड अनि में गिर कर अपने प्राण -देने के लिये तो तय्यार हो जाते हैं परन्तु वमन किये हुए विष को वापिस पी लेने की इच्छा नहीं करते।
आगे सातवीं और आठवीं गाथा.में राजमती और रहनेमि का दृष्टान्त देकर उपरोक्त विषय का कथन किया गया है । इसलिये उस कथा का पूर्वरूप यहाँ लिखा जाता है.
सोरठ देश में 'द्वारिका' नाम की एक नगरी थी। विस्तार में वह चारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी थी। उस समय
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
1
नवें वासुदेव श्रीकृष्ण महाराज राज्य करते थे। उनके पिता के एक बड़े भाई समुद्रविजय थे। उनके शिवा देवी नाम की रानी थी। शिवा देवी की कुक्षि से बाईसवें तीर्थङ्कर भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म हुआ। युवावस्था को प्राप्त होने पर उग्रसेन राजा की पुत्री श्रीराजमती से उनका विवाह होना निश्चित हुआ | धूम धान के साथ जब वे बरात लेकर जा रहे थे तो उन्होंने जूनागढ़ के पास बहुत से पशु और पक्षियों को बाड़े और पिंजरों में बन्द देखा । श्री अरिष्टनेमि ने जानते हुए भी जनता को बोध कराने के लिये सारथि से पूछा -- ये पशु यहाँ किस लिये बंधे हुए हैं ? सारथि ने कहा -- हे भगवान आपके विवाह मे साथ श्राये हुए मांसाहारी बरातियों के लिये भोजनार्थ ये पशु और पक्षी यहाँ लाये गये हैं । यह सुनते ही भगवान श्ररिष्टनेमि का चित्त बड़ा उदास हुआ। जीवों की दया से द्रवित होकर उन्होंने विचार किया कि विवाह के लिये इतने पशु पक्षियों का वध होना परलोक मं कल्याणकारी न होगा। यह विचार कर उनका चित्त विवाह से हट गया। भगवान की इच्छानुसार सारथि ने उन बाड़े और पिंजरों के द्वार खोल दिये और उन पशु पक्षियों को बन्धन मुक्त कर दिया । सारथि के इस कार्य से प्रसन्न होकर भगवान ने मुकुट और राज्यचिह्न के सिवाय सम्पूर्ण भूषण उतार कर सारथि को प्रीति दान में दे दिये और आप विवाह न करते हुए अपने घर को वापिस चले आये एक वर्ष पर्यन्त करोड़ों सुवर्ण मुद्राओं का दान देकर एक हजार पुरुषों के साथ उन्होंने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। इन समाचारों को सुन कर राजमती ने भी अपनी अनेक सखियों के साथ संयम स्वीकार कर लिया। संयम लेकर राजमती भगवान् श्ररिष्टनेमि, के दर्शनार्थ रेवती पर्वत पर (जहाँ वे तपस्या कर रहे थे ) चलीं। रास्ते में अकस्मात् अति वेग से वायु चलने
C
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग
१५
लगी और बड़े जोर की वर्षा हुई जिससे सब साध्वियाँ तितर चितर हो गई। राजमती अकेली रह गई। वायु और वर्षा की घबराहट के कारण एक गुफा में प्रवेश किया। उसे निर्जन स्थान जान कर राजमती ने अपने भींगे हुए कपडों को उतार कर भूमि पर फैला दिया । उस गुफा में भगवान् अरिष्टनेमि के छोटे भाई श्री रथनेमि (रहनेमि ) पहले से ही समाधि लगा कर खड़े थे । बिजली की चमक में नम्र राजमती के शरीर पर रथनेमि की दृष्टि पड़ी। देखते ही रथनेमि का चित्त काम भोगों की ओर आकर्षित हो गया और राजमती से प्रार्थना करने लगे। इस पर विदुषी राजमती ने रथनेमि को समझाया कि देखो, अगन्धन जाति का सर्प एक तिर्यश्च होता हुआ भी अपने जातीय हठ से जाज्वल्यमान अग्नि में पड़ कर अपने प्राण देने के लिये तो तैयार हो जाता है परन्तु वह यह इच्छा नहीं करता कि मैं चमन किये हुए विप को फिर से अङ्गीकार कर लूं । हे मुनि ! विषयभोगों को विष के समान समझ तुम उनका त्याग कर चुके हो परन्तु खेद है कि चमन किये हुए उन कामभोगों को तुम वापिस अङ्गीकार करना चाहते हो । श्रव राजमती आक्षेपपूर्वक उपदेश करती हुई रथनेमि से कहती है
de
(७) हे अपयश के चाहने वाले ! ( रथनेमि !) अपने श्रसंयम रूप जीवन के लिये जो तू वमन को पुनः पीना चाहता है अर्थात् छोड़े हुए कामभोगों को फिर से अङ्गीकार करना चाहता है, इससे तो तेरी मृत्यु हो जाना ही अच्छा है ।
( ८ ) अपने कुल की प्रधानता की ओर रथनेमि का ध्यान श्राक-. र्पित करती हुई राजमती कहती है कि - हे रथनेमि ! मैं उग्रसेन" राजा की पुत्री हूँ और तू समुद्रविजय राजा का पुत्र है । अतः गन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प (जो कि वमन किये हुए जहर
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
को वापिस चूस लेता है) के समान न हो। किन्तु तू अपने चित्त को निश्चल कर और दृढ़तापूर्वक संयम का पालन कर । (६) हे रथनेमि ! ग्रामानुग्राम विहार करते हुए और गोचरी के लिये घर घर फिरते हुए तू जिन जिन सुन्दर स्त्रियों को देखेगा और फिर यदि उनमें विषय के भाव करेगा, तो वायू से प्रेरित हड़ नामक वृक्ष ( हड नाम का एक वृक्ष होता हैं जिसका मूल अर्थात् जड़ तो बहुत कमजोर तथा निर्बल होती है और ऊपर शाखाओं श्रादि का भार अधिक होता है अबद्धमूल होने के कारण वायु का थोड़ा सा झोंका लगते ही वह गिर पड़ता है) की तरह स्थिर आत्मा वाला हो जायगा ।
( १० ) सती राजमती के उपरोक्त वचनों को सुनकर वह रथनेमि, जिस प्रकार अंकुश से हाथी वश में हो जाता है, उसी प्रकार धर्म में स्थिर हो गया ॥ १० ॥
(११) तच्च के जानने वाले प्रविचक्षण पंडितपुरुष उसी प्रकार भोगों से विरक्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि पुरुषोत्तम रथनेमि ।
2
इस गाथा में रथनेमि के लिये 'पुरुषोत्तम' विशेषण लगाया गया है । इससे यह प्रकट होता है कि जो पुरुष चाहे जैसी विकट और डिगाने वाली परिस्थिति के उपस्थित हो जाने पर भी संयम मार्ग से न डिगें वह तो सर्वोत्तम है ही किन्तु वह भी पुरुषोत्तम है जो परिस्थिति से हिलाये हिल जाने पर भी अर्थात् मन के चंचल हो जाने पर भी सोच समझ कर अपने श्राचरण रूप व्रत से नहीं डिगते और दूसरों के उपदेश द्वारा मन को वश में कर कुपथ से हट कर प्रायश्चित पूर्वक अपने व्रत में दृढ़ बन जाते हैं । यह भी शूरवीर पुरुषों का लक्षण है । वे भी शीघ्र ही अपना कल्याण कर लेते है ॥ ११ ॥
( दशत्रैकालिक दूसरा अध्ययन ).
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धा त बोल संग्रह, चौथा भाग
१७
७७२ दुर्लभ ग्यारह
संसार में ग्यारह बातों की प्राप्ति होना बहुत दुर्लभ है । वे निम्न लिखित हैं
(१) मनुष्य भव (२) श्रर्यक्षेत्र (३) उत्तम जाति (मातृपक्ष को जाति कहते हैं) (४' उत्तम कुल (पितृपक्ष कुल कहलाता है ) (५) रूप अर्थात् किसी भी अङ्ग में हीनता न होना (६) आरोग्य (७) आयु (८) बुद्धि अर्थात् परलोक सम्बन्धी बुद्धि (६) धर्म का सुनना और उसका भली प्रकार निश्चय करना (१०) निश्चय कर लेने के पश्चात् उस पर श्रद्धा ( रुचि) करना (११) निरवद्य अनुष्ठान रूप संयम स्वीकार करना । ( हरिभद्रीयावश्यक प्रथम भाग गाथा ८३१ )
७७३ आरम्भ और परिग्रह को छोड़े बिना ग्यारह बातों की प्राप्ति नहीं हो सकती
श्रारम्भ और परिग्रह को छोड़े बिना निम्न लिखित ग्यारह वातों की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
(१) केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण - श्रारम्भ और परिग्रह अनर्थ के मूल कारण हैं। आरम्भ और परिग्रह से सन्तोष किये विना प्राणी केवली भगवान द्वारा फरमाये गये धर्म को सुन भी नहीं सकता । (२) आरम्भ और परिग्रह को छोड़े बिना प्राणी शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता अथवा जीवाजीवादि नव तत्त्वों का सम्यग् ज्ञान नहीं कर सकता ।
'
(३) आरम्भ परिग्रह को छोड़े बिना प्राणी मुण्डित होकर गार धर्म से श्रीनगर धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता । केशलोचन आदि द्रव्यमुण्डपना है और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों पर विजय प्राप्त करना अर्थात् इन्हें छोड़ देना भावमुण्डपना कहलाता
है । जो व्यक्ति आरम्भ, परिग्रह को छोड़ देता है वही शुद्ध प्रव्रज्या
I
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला को अङ्गीकार कर सकता है। (४) अब्रह्म से निवृचि रूप शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन भी प्रारम्भ परिग्रह को छोड़े बिना नहीं हो सकता। (५) प्रारम्भ और परिग्रह को छोड़े बिना पृथ्वीकाय आदि छ। कायों की रक्षारूप संयम का पालन भी नहीं हो सकता। (६) आश्रव (जिससे कर्मों का बन्धन होता है) द्वारों का निरोधरूप संवर भी प्रारम्भ परिग्रह के त्याग विना नहीं हो सकता। ..७) अविपरीत रूप से पदार्थों को बतलाने वाला अर्थात् संशय रहित निश्चित ज्ञान प्रामिनिबोधिक कहलाता है। इसके इन्द्रिय निमित्त और अनिन्द्रियनिमित्त ऐसे दो भेद हैं। इस ज्ञान की प्राप्ति
भी प्रारम्भ परिग्रह को छोड़े विना नहीं हो सकती। • (८) श्रुतज्ञान, (६) अवधिज्ञान, (१० मनापर्ययज्ञान और (११ केवल ज्ञान की प्राप्ति भी आरम्भ परिग्रह को छोड़े बिना नहीं हो सकती।
(गणाग २ उ०१ सूत्र६४) ७७४- उपासक पडिमाएं ग्यारह
साधुओं की उपासना (सेवा) करने वाला उपासक कहलाता है अभिग्रह विशेष को पडिमा (प्रतिमा) कहते हैं। उपासक (श्रावक) का अभिग्रह विशेष (प्रतिज्ञा ) उपासक पडिमाएं कहलाती हैं। स्यारह पडिमाएं ये हैं(१).दंसण सावए- पहली दर्शन पडिमा है। इसमें श्रमणोपासक 'रायाभियोगेणं' आदि आगारों रहित सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करता है अर्थात् क्रियावादी अक्रियावादी नास्तिक आदि वादियों के मतों को भली-प्रकार जान कर विधि पूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करता है। इस पडिमा का आराधन एक मास तक किया जाता है।- ... (२) कयव्वयकम्मे- दूसरी पडिमा में, सब प्रकार के धर्मों की
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
____१६ रुचि रहती है। बहुत से शीलवत गुणव्रत विरमण व्रत प्रत्याख्यान और पौषधोपवास धारण किये जाते हैं किन्तु सामायिक व्रत और देशावकाशिक व्रत का सम्यक पालन नहीं होता। । पहली पडिमा का आराधक पुरुष शुद्ध सम्यक्त्व वाला होता है। दूसरी में वह चारित्रशुद्धि की ओर झुक कर कर्मक्षय का प्रयत्न करता है। वह पाँच अणुव्रत और तीनगुणवतों को धारण करता है। चार शिक्षा व्रतों को भी अङ्गीकार करता है किन्तु सामायिक और देशावकाशिक व्रतों का यथा समय सम्यग पालन नहीं कर सकता । इस पडिमा का समय दो मास है। । (३ सामाइयकडे-तीसरी पडिमा में सर्व धर्म विषयक रुचि रहती है। वह शीलवत, गुणव्रत, विरमण प्रत्याख्यान और पौषधो पवासवत धारण करता है। सामायिक और देशावकाशिक व्रतों की आराधना भी उचित रीति से करता है, किन्तु चतुदर्शी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा आदि पर्व दिनों में पौषधोपवास बत की. सम्यग आराधना नहीं कर सकता है। इस पडिमा के लिये तीन मांस का समय है। . . ॥४) पोसहोववासनिरए- चौथी पडिमा में उपरोक्त सब ब्रतों का पालन सम्यक् प्रकार से करता है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण -पौपधवत का-पूर्णतया पालन किया जाता है किन्तु 'एक रात्रि की उपासक पडिमा का सम्यक् आराधना नहीं कर सकता। यह पडिमा चार मास की होती है। - .:.----- (५) दिवा बंभयारी रचिपरिमाण कड़े- पाँचवीं पडिमा वाले को सर्व धर्म विषयक रुचि होती है। उपरोक्त सब ब्रतों का सम्यः क्तया पालन करता है और 'एक रात्रि की उपासक पडिमा का भी भली प्रकार पालन करता है। इस पडिमा में पाँच पाते. विशेष रूप से धारण की जाती हैं-वह स्नान नहीं करता, रात्रि में चारों
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
आहारों का त्याग करता है, धोती की लांग नहीं देता, दिन में ब्रह्मचारी रहता है और रात्रि में मैथुन की मर्यादा करता है । इस प्रकार विचरता हुआ वह कम से कम एक दिन दो दिन या तीन दिन से लेकर अधिक से अधिक पांच मास तक विचरता रहता है। (६) दिया वि राम्रो वि चंभयारी-छठी पंडिमा में सर्व धर्म विष. यक रुचि होती है। वह उपरोक्त सब व्रतों का सम्यक् रूप से पालन करता है और पूर्ण ब्रह्मचर्या का पालन करता है, किन्तु वह सचित पाहार का त्याग नहीं करता अर्थात् औषधादि सेवन के समय या अन्य किसी कारण से वह सचित्त का सेवन भी कर लेता है। इस पडिमा की अवधि कम से कम एक दो या तीन दिन है
और अधिक से अधिक छः मास है। (७) सचिच परिणाए- सातवीं पडिमा में सर्व धर्म विषयक रुचि होती है। इस में उपरोक्त सब नियमो का पालन किया जाता है इस पडिमा का धारक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है और सचित्त आहार का सर्वथा त्याग कर देता है किन्तु प्रारम्भ का त्याग नहीं करता। इसकी उत्कृष्ट काल मर्यादा सात मास है। (८) प्रारम्भ परिएकाए-आठवीं पडिमा में सर्व धर्म विषयक रुचि बनी रहती है। इसका धारक सर्व नियमों का पालन करता है । सचित्त आहार और प्रारम्भ का त्याग कर देता है किन्तु वह दूसरों से प्रारम्भ कराने का त्याग नहीं करता। इसकी कालमर्यादा जघन्य एक दिन दो दिन या तीन दिन है और उत्कृष्ट आठ मास है। (६) पेस परिणाए- नवमी पडिमा को धारण करने वाला उपासक उपरोक्त सबै नियमों का यथावत् पालन करता है। प्रारम्भ का भी त्याग कर देता है किन्तु उद्दिष्ट भक्त का परित्याग नहीं करता अर्थात् जो भोजन उसके निमित्त तय्यार किया जाता है उसे वह ग्रहण कर लेता है। वह स्वयं प्रारम्भ नहीं करता
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री नैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
और न दूसरों से करवाता है किन्तु अनुमति देने का उसे त्याग नहीं होता । इस पडिमा का काल जघन्य एक दो या तीन दिन है उत्कृष्ट नौ मास है। (१०) उहिट्ठ भत्तपरिएकाए-दसवीं पडिमाधारक श्रावक उप. रोक्त सब नियमों का पालन करता है और वह उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग कर देता है । उस्तरे (चुर से) मुण्डन करा देता है अथवा शिखा (चोटी) रखता है। किसी विषय में एक चार या अनेक बार पूछने पर वह दो प्रकार का उत्तर दे सकता है। यदि वह उस पदार्थ को जानता है तो कह सकता है कि मैं इसको जानता हूँ । यदि नहीं जानता हो तो कह दे कि मैं नहीं जानता । उसका कोई सम्बन्धी जमीन में गड़े हुए धन आदि के विषय में पूछे तो भी उसे हाँया ना के सिवाय कुछ जवाब न दे। इस पडिमा की अवधि एक दो या तीन दिन है और उत्कृष्ट अवधि दस मास है। (११) समणभूए-ग्यारहवीं पडिमाधारी सर्व धर्म विषयक रुचि रखता है। उपरोक्त सब नियमों का पालन करता है। शिर के बालों को उस्तरे से (तुर से) मुंडवा देता है अथवा लुञ्चन करता है अर्थात् शनि हो तब तो उसे लुचन ही करना चाहिए और शक्ति न हो तो उस्तरे से मुंडन करा ले। साधु का वेश धारण करे। साधु के योग्य भएडोपकरण आदि उपधि धारण कर श्रमण निग्रंथों के लिये प्रतिपादित धर्म का निरतिचार पालन करता हुआ विचरे । मार्ग में युगप्रमाण भूमिको आगे देखता हुआ चले। यदि मार्ग में त्रस प्राणी दिखाई देंतो उन जीवों को बचाते हुए पैरों को संकुचित कर चले अर्थात् उन जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा न पहुँचाता हुआईर्यासमिति पूर्वकगमन क्रिया में प्रवृत्ति करे किन्तु जीवों को बिना देखे सीघा गमन न करे। ग्यारहवीं पडिमाधारी की सारी क्रियाएं साधु के समान होती है अतः प्रत्येक क्रिया में यतना पूर्वक प्रवृत्ति करे।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रथमाना
।
साधु की तरह भिक्षावृत्ति से अपना जीवननिर्वाह करे किन्तु, इतना फर्क है कि उसका अपने सम्बन्धियों से सर्वथा राग चन्धन छूटता नहीं है इसलिए वह उन्हीं के घर मिक्षा लेने को जाता है।
मिक्षा लेते समय एषणा समिति का भी पूर्ण ध्यान रखे । जो पदार्थ उसके जाने से पहले पक चुके हों और अग्नि पर से उतार कर शुद्ध स्थान में रखेहुए हों उन्हीं को ग्रहण करे।जोपदार्थउसके जाने के बाद पके उसे ग्रहण न करे । जैसे उसके जाने के पहले चावल पके है और दाल पकनेवाली है तो केवल चावलों को ग्रहण करे। दाले नहीं। यदि उसके जाने से पहले दाल पकी हो और चावल पकने वाले हों तो केवल दाल ले चावल नहीं।
'मिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय पडिमाधारी श्रावक को भिक्षा दो ऐसा कहना चाहिए।
उस श्रावक की और साधु की मिक्षाचरी और पडिलेहणा तथा अन्य वाहरी क्रियाओं में कोई अन्तर नहीं होता साधु सरीखा ही होता है। केवल शिखा धारण करता है। इसके लिए समवायांग सूत्र में पाठ आया है कि 'समर्ण भूए' (श्रमणभूत। अर्थात् साधु के तुल्य। अतः किसी के ऐसा पूछने पर कि 'आप कौन है उसे स्पष्ट उत्तर देना चाहिये कि मैं पडिमाधारी श्रावक हूँ, साधु नहीं।
इस पडिमा की अवधि जघन्य एक दो या तीन दिन की है और उत्कृष्ट ग्यारह मास है । अर्थात् यदि ग्यारह महीने से पहले ही उस पडिमाघारी श्रावक की मृत्यु हो जाय या वह दीक्षित हो जाय तो जघन्य या मध्यम काल हा उसकी अवधि है और यदि दोनों में से कुछ भी न हुआ तो उपरोक्त सब नियमों के साथ ग्यारह महीने तक इस पडिमा का पालन किया जाता है। .सब पडिमाओं का समय मिलाकर साढ़े पांच
(दशाभुतस्कन्ध दशा ६) (समवायाग समावाय ११)
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह चौथा भाग
७७५ गणधर ग्यारह
लोकोत्तर ज्ञान दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को धारण करने वाले तथा प्रवचन को पहले पहल सूत्र रूप में गूंथने वाले महापुरुष गणधर कहलाते हैं। वे प्रत्येक तीर्थङ्कर के प्रधान शिष्य तथा अपने अपने गण के नायक होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थकरों के गणधर इस प्रकार थे
(१) भ० ऋषभदेव - ८४
(२) भ०
(३), संभवनाथ - (५) „ सुमतिनाथ - (७), सुपार्श्वनाथ - (2), सुविधिनाथ - ८८
१०२
१००
(१७), कुन्थुनाथ-(१६), मल्लिनाथ(२१), नमिनाथ(२३),, पार्श्वनाथ -
६५
(४)
(६),
(८) "
(१०),
"
(११), श्रेयांसनाथ - ७६ (१२),,
(१३), विमलनाथ-
(१५), धर्मनाथ
२३
५७ (१४',
४३ (१६),
अजितनाथ - ६५
अभिनन्दन - ११६
पद्मप्रभ
१०७
चन्द्रप्रभ -
६३
शीतलनाथ -
८१
वासुपूज्य - ६६
अनन्तनाथ - शान्तिनाथ -
५०
३६
अरनाथ
११
३५ (१८), २८ (२०), मुनिसुव्रत१७ (२२), नेमिनाथ-१० (२४), महावीरभगवान् महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे। दो गण ऐसे थे जिनमें दो दो गणधर सम्मिलित थे। भगवान महावीर के शिष्य होने से पहले म्यारहों गणधर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् थे । इन्द्रभूति, अभिभूति और वायुभूति ये तीनों भाई थे। अपने मत की पुष्टि के लिए शास्त्रार्थ करने के लिए भगवान् के पास आए थे। अपने अपने संशय का भगवान् से सन्तोषजनक उत्तर पाकर सभी उसके शिष्य हो गए। सभी के नाम और संशय और नीचे लिखे अनुसार हैं(१) इन्द्रभूति - जीव हैं या नहीं ।
३३
१८
११
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्धमाला
(२) अमिभूति-ज्ञानावरण आदि कर्म है या नहीं। (३) वायुभूति-शरीर और जीव एक हैं या भिन्न भिन । (४) व्यक्त स्वामी-पृथ्वी आदि भूत हैं या नहीं। (५) सुधर्मा स्वामी-इस लोक में जो जैसा है, परलोक में भी वह वैसा ही रहता है या नहीं। (६) मंडितपुत्र-बंध और मोक्ष हैं या नहीं। ) (७) मौर्यपुत्र--देवता हैं या नहीं। (८) अकम्पित-नारकी हैं या नहीं। (६) अचलमाता पुण्य ही बढ़ने पर सुख और घटने पर दुःख का कारण होजाता है, या दुख का कारण पाप पुण्य से अलग है। (१०) मेतार्य आत्मा की सत्ता होने पर भी परलोक है या नहीं। (११) प्रभास मोक्ष है या नहीं।
समी गणधरों के संशय और उनका समाधान विस्तार पूर्वक नीचे लिखे अनुसार है[१] इन्द्रभूति शास्त्रार्थ के लिए आए हुए इन्द्रभूति को देख कर भगवान ने प्रेम मरे शब्दों में कहा आयुष्मन इन्द्रभूते। तुम्हारेमन में सन्देह है कि आत्मा है या नहीं। दोनों पक्षों में युक्तियों मिलने से तुम्हें ऐसा सन्देह हुआ है। प्रात्मा का अभाव सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित युक्तियाँ है
आत्मा नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। जैसे आकाश के फूल । जो वस्तु विद्यमान है वह प्रत्यक्ष से जानी जा सकती है
जैसे घटापात्मा प्रत्यक्ष से नहीं जानी जा सकती इसलिए नहीं • है। 'परमाणु विधमान होने पर भी प्रत्यक्ष से नहीं जाने जा सकते'
यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि घटादि कार्यों के रूप में परिणत होने पर वे प्रत्यक्ष से जाने जा सकते हैं।
प्रात्मा अनुमान से भी नहीं जाना जा सकता । प्रत्यक्ष सेदो
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग
२५
वस्तुओं का अविनाभाव (एक दूसरे के बिना न रहना) निश्चित हो जाने के बाद किसी दूसरी जगह एक को देख कर दूसरी का ज्ञान अनुमान से होता है। आत्मा का प्रत्यक्ष न होने के कारण उसका श्रविनाभाव किसी वस्तु के साथ निश्चित नहीं किया जा सकता।
आगम से भी आत्मा की सिद्धि नहीं होती। क्योंकि उसी महापुरुष के वाक्य को श्रागम रूप से प्रमाण माना जा सकता है जिसने श्रात्मा को प्रत्यक्ष देखा है । श्रात्मा प्रत्यक्ष का विषय नहीं है इस लिए उसके अस्तित्व को बताने वाला आगम भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। दूसरी बात यह है कि अलग अलग मतों के आगम भिन्न भिन्न प्ररूपणा करते हैं। कुछ आत्मा के अस्तित्व को बताते हैं और कुछ अभाव को । ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक आगम ही प्रमाण है ।
उपमान या श्रर्थापत्ति प्रमाण से भी श्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि इन दोनों की प्रवृत्ति भी प्रत्यक्ष द्वारा जाने हुए पदार्थ में ही हो सकती है।
उत्तर पक्ष
हे गौतम! आत्मा तुम्हें भी प्रत्यक्ष ही है। तुम्हेंजो संशयरूप ज्ञान हो रहा है, वह श्रात्मा ही है । उपयोग ही आत्मा का स्वरूप है। इसी • प्रकार अपने शरीर में होने वाले सुख दुःख यादि का ज्ञान स्वसंवेदी (अपने आपको जानने वाला) होने के कारण आत्मा को प्रत्यक्ष करता है। प्रत्यक्ष से सिद्ध वस्तु के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । 'मैंने किया, मैं करता हूँ, मैं करूंगा। मैंने कहा, मैं कहता हॅ, मैं कहूँगा । मैंने जाना, मैं जानता हूँ, मैं जानू गा इत्यादि तीनों कालों को विषय करने वाले ज्ञानों में भी 'मैं' शब्द से श्रात्मा का ही बोध होता है। इस प्रत्यक्ष ज्ञान से भी आत्मा की सिद्धि होती है । अगर 'मैं' शब्द से शरीर को लिया जाय तो मृत शरीर में
·
•
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
श्री सेठिया जैन अन्धमाला
भी यह प्रतीति होनी चाहिए। आत्मा का निश्चयात्मक ज्ञान हुए बिना 'मैं हूँ' यह निश्चयात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि इस • में भी मैं शब्द का अर्थ आत्मा ही है।
आत्मा के नहीं होने पर प्रात्मा है या नहीं इस प्रकार का संशय भी नहीं हो सकता क्योंकि संशय ज्ञान रूप है और ज्ञान आत्मा का गुण है। गुणी के बिना गुण नहीं रह सकता। ज्ञानको शरीर का गुण नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान अमूर्त और वोध रूप है तथा शरीर मूर्त और जड़ है। दो विरोधी पदार्थ गुण और गुणी नहीं बन सकते । जैसे बिना रूप वाले आकाश का गुण रूप नहीं हो सकता इसी प्रकार मूर्त और जड़ शरीर का गुण अमूर्त और बोध रूप ज्ञान नहीं हो सकता । सभी वस्तुओं का निश्चय आत्मा का निश्चय होने पर ही हो सकता है। जिसे आत्मा में ही सन्देह है वह कर्मबन्ध, मोच तथा घट पट आदि के विषय में भी • संशय रहित नहीं हो सकता।
आत्मा का अभाव सिद्ध करने वाले अनुमान में पक्ष के भी बहुत से दोष हैं। प्रत्यक्ष मालूम पड़ने वाले आत्मा का अभाव • सिद्ध करने से साध्य प्रत्यक्ष बाधित है। आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने वाले अनुमान द्वारा बाधित होने से यह साध्य अनुमान विरुद्ध भी है । 'मैं संशय वाला हूँ 'इसमें 'मैं शब्द से वाच्य ात्मा का अस्तित्व मानते हुए भी उसका निषेध करना अभ्युपगम विरोध है। लोक में जिस वस्तु का निश्चय छोटे से लेकर बड़े सभी व्यक्तियों को हो उसका निषेध करने से लोक बाधित है। अपने ही लिए 'मैं हूँ या नहीं इस प्रकार संशय करना अपनी माता को बन्ध्या बताने की तरह स्ववचन बाधित है । इस प्रकार पक्ष के प्रत्यक्षादि द्वारा बाधित होने के कारण पक्ष में अपक्षधर्मता के कारण हेतु भी प्रसिद्ध है। हिमालय के पलों (चार तोले का
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग २७ एक तोल) का परिमाण तथा पिशाच आदि में पाँचों प्रमाणों की प्रवृत्ति न होने पर भी उसका अस्तित्व सभी मानते हैं, इसलिए उपरोक्त हेतु अनेकान्तिक भी है। प्रमाण सिद्ध आत्मा में ही हेतु की प्रवृत्ति होने के कारण हेतु विरुद्ध भी है।। __आत्मा प्रत्यक्ष है, क्योंकि इसके गुण स्मृति जिज्ञासा (जानने की इच्छा) चिकीर्षा(करने की इच्छा) जिगमिषा (जानने की इच्छा) संशय आदि प्रत्यक्षं हैं। जिस वस्तु के गुण प्रत्यक्ष होते हैं वह वस्तु भी प्रत्यक्ष होती है, जैसे घट के गुण रूपादि प्रत्यक्ष होने से घट भी प्रत्यक्ष है। अगर गुणों के ग्रहण से गुणी का ग्रहण न माना जाय तो भी गुणों के ज्ञान से गुणवाले का अस्तित्व तो अवश्य सिद्ध हो जाता है। .
शङ्का-ज्ञान आदि गुणों से किसी गुणवाले की सिद्धि वो अवश्य होती है किन्तु वैगुण आत्मा के ही हैं, यह नहीं कहा जा सकता। जैसे गोरापन, दुबलापन, मोटापन आदि बातें शरीर में मालूम पड़ती है उसी तरह ज्ञान, अनुभव आदि भी शरीर में मालूम पड़ते हैं, इसलिए इनको शरीर के ही गुण मानना चाहिए। __समाधान-ज्ञानादिगुण शरीर के नहीं हैं, क्योंकि शरीर मूर्त और चक्षु इन्द्रिय का विषय है। जैसे घट । ज्ञानादि गुण अमूर्त और अचानुप हैं। इसलिए उनका आश्रय गुणी भी अमूर्त और अचाक्षुप होना चाहिए । इस प्रकार का गुणी जीव ही है। ___ अपने शरीर में आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध है। दूसरे के शरीर में उसका ज्ञान अनुमान से होता है। वह अनुमान इस प्रकार है-दूसरे के शरीर में आत्मा है क्योंकि वह इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट से निवृत्ति करता है। जिस शरीर में प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है वह प्रात्मा वाला है जैसे अपना शरीर ।
'हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव प्रत्यक्ष सिद्ध होने के बाद
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९
श्री सेठिया जैन मन्यमाला
हेतु से साध्य का अनुमान होता है। यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भूत पिशाच ग्रह आदि का कहीं प्रत्यक्ष दर्शन न होने पर भी किसी शरीर में विविध चेष्टानों से अनुमान किया जाता है।
शरीर किसी के द्वारा किया गया है, क्योंकि आदि और निश्चित आकार वाला है। जैसे घट । जिस का कोई कर्ता नहीं होता वह आदि और निश्चित आकार वाला नहीं होता, जैसे बादलों का आकार या मेरुपर्वत । तथा इन्द्रियाँ किसी के द्वारा अधिष्ठित हैं क्योंकि करण हैं जैसे दण्ड, चक्र, चीवर आदि करण होने के कारण कुम्हार द्वारा अधिष्ठित हैं। जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं होता वह करण भी नहीं होता, जैसे आकाश। इन्द्रियों का अधिठाता जीव ही है।
जहाँ आदान (लेना) और आदेय भाव लिया जाना) होता है वहाँ आदाता अर्थात् लेने या ग्रहण करने वाला भी अवश्य होता है, जैसे संडासी और लोहे में आदानादेयमाव है तो वहाँ आदाता लुहार है। इसी प्रकार इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं और विषय ग्रहण किए जाते हैं तो वहाँ ग्रहीता या आदाता भी अवश्य होना चाहिए
और वह आदाता जीव है। जहाँ प्रादाता नहीं है वहाँ आदानादेयभाव भी नहीं होता जैसे आकाश में।
देह आदि का कोई भोक्ता है, क्योंकि ये भोग्य हैं। जैसे भोजन वस्त्रादि का मोक्ता है। जिस वस्तु का कोई भोक्ता नहीं होता उसे भोग्य नहीं कहा जा सकता जैसे आकाश के फूल । शरीर श्रादि का कोई स्वामी है क्योंकि संघातरूप हैं, मूर्त हैं, इन्द्रियों के विषय हैं, दिखाई देते हैं। जैसे नाट्यगृह आदि के स्वामी सूत्रधारवगैरह। जो बिना स्वामी का होता है वह संघात आदि रूप वाला भी नहीं होता जैसे आकाश के फूल। शरीर प्रादि संघातरूप हैं इसलिए इनका कोई स्वामी है।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
इन सब अनुमानों में कर्ता अधिष्ठाता आदि शब्द से जीव ही लिया जा सकता है । शङ्का - मूर्त घटादि के कर्ता कुम्हार वगैरह जैसे मूर्त हैं उसी प्रकार मूर्त देह आदि का कर्ता भी कोई मूर्त ही सिद्ध किया जा सकता है, अमूर्त नहीं | इसलिए विरुद्ध दोष आता है ।
समाधान - संसारी जीव ही देह आदि का कर्ता है और वह कथञ्चित् मूर्त भी है । इसलिए किसी प्रकार का दोष नहीं आता ।
जीव विद्यमान है, क्योंकि उसके विषय में संशय होता है । जिस वस्तु के विषय में संशय होता है वह कहीं न कहीं अवश्य विद्यमान है । जैसे स्थाणु और पुरुष के संशयात्मक ज्ञान में स्थाणु और पुरुष दोनों भिन्न भिन्न रूप से विद्यमान हैं । आत्मा और शरीर के विषय में सन्देह होता है इसलिए दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है ।
२६
शङ्का - 'विद्यमान वस्तु में ही सन्देह होता है' यह मानने से आकाशकुशुम को भी विद्यमान मानना पड़ेगा ।
समाधान- आकाश और कुसुम दोनों पदार्थ स्वतन्त्र रूप से विद्यमान हैं इसलिए उनके विषय में सन्देह हो सकता है। जिस वस्तु का सन्देह जहाँ हो वहीं उसका होना संशय से सिद्ध नहीं किया जाता किन्तु कहीं न कहीं उस वस्तु की सत्ता अवश्य होती है । कुसुम श्राकाश में न होने पर भी लता पर हैं। इसलिए उनका संशय हो सकता है। जो वस्तु कहीं नहीं हैं उसका संशय नहीं हो सकता ।
जीव शब्द की सत्ता से भी जीव सिद्ध किया जा सकता है। क्योंकि अजीव शब्द जीव का निषेध करता है। जीव की सत्ता के बिना उसका निषेध नहीं किया जा सकता ।
'आत्मा नहीं है' इस निषेध से भी उसका अस्तित्व सिद्ध . होता है क्योंकि विद्यमान वस्तु का ही स्थान विशेष में निषेध किया जा सकता है। जो वस्तु बिल्कुल नहीं है उसका निषेध भी नहीं किया जा सकता ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
___जीव शब्द अर्थ वाला है, क्योंकि व्युत्पत्ति वाला होते हुए शुद्धपद है। जो व्युत्पत्ति वाला होते हुए शुद्ध पद होता है उसका कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है जैसे घट शब्द । शरीर, देह
आदि तथा जीव प्राणी आदि शब्दों में भेद होने से इन्हें समानार्थक नहीं कहा जा सकता । शरीर और जीव के गुणों में भेद होने के कारण भी इन्हें समानार्थक नहीं कहा जा सकता । आत्मा शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि देह के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा के द्वारा उपलब्ध वस्तु का स्मरण होता है। जैसे खिड़की से देखा गया पुरुष खिड़की के न रहने पर भी स्मृति का विषय होता है, इस लिए पुरुष खिड़की से भिन्न है।
भगवान ने फिर कहा-'जीव है' यह वचन सत्य है, क्योंकि मेरा वचन है। जैसे-अवशेष वचन । अथवा 'जीव है यह वचन सत्य है क्योंकि सर्वज्ञ का वचन है। जैसे आपके माने हुए सर्वज्ञ का वचन ।
मेरा वचन सत्य और निर्दोष है, क्योंकि भय, राग, द्वेष और अज्ञान से रहित हैं। जो वचन भय आदि से रहित है वह सत्य होता है। जैसे मार्ग पूछने पर उसे जानने वाले शुद्ध हृदय व्यक्ति द्वारा दिया गया ठीक उत्तर। ।
शङ्का-आप सर्वज्ञ हैं तथा भयादि से रहित वचनों वाले हैं, यह कैसे कहा जा सकता है।
समाधान-मैं सभी सन्देहों को दूर कर सकता हूँ तुम जो पूछो उसका उत्तर दे सकता हूँ तथा सर्वथा निर्भय हूँ। अपने ज्ञान द्वारा लोकालोक को देखता हूं तथा अनन्त शक्ति सम्पन मेरी मात्मा अजर अमर है। इस लिए मेरे में उपरोक्त गुण हैं।
इत्यादि युक्तियों से आत्मा की सिद्धि हो जाती है । उसका लक्षण वीर्य और उपयोग है। संसारी और सिद्ध अथवा त्रस और
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह. चौथा भाग - ३१ स्थावर के भेद से आत्मा के दो भेद हैं।
भगवान के उपदेश से इन्द्रभूति का संशय दूर हो गया। वे भगवान के शिष्य हो गए और प्रथम गणधर कहलाए। (२) अग्निभूति-इन्द्रभूति को दीक्षित हुआ जानकर उनके छोटे भाई अग्निभृति को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने सोचा-महावीर बड़े भारी ऐन्द्रजालिक हैं। उन्होंने अपने वाग्जाल से मेरे भाई को जीत लिया और अपना शिष्य बना लिया। मैं उन्हें जीत कर अपने भाई को वापिस लाऊंगा। यह सोचकर बड़े अभिमान के साथ अग्निभूति भगवान महावीर के पास पहुंचे। भगवान का दर्शन करते ही उनका क्रोध शान्त होगया। अभिमान भाग गया। मुंह से एक भी शब्द न निकल सका। भगवान की सौम्यमूर्ति, दिव्य ललाट तथा शान्त और गम्भीर मुद्रा को देखकर वे चकित रह गए। ऐसा दिव्य स्वरूप उन्होंने न पहले कभी देखा था, न सुना था।
भगवान ने प्रेमभरे शब्दों में कहा-सौम्य अमिभूति। अमिभूति ने सोचा क्या ये मेरा नाम भी जानते हैं ? पर मैं वो जगत्मसिद्ध हूँ। सारा संसार मेरा नाम जानता है। यदि ये मेरे मन के संशय को जान जाँय और उसे दूर करें तभी मान सकता हूँ कि ये सर्वज्ञ हैं। भगवान ने उसके मन की बात जानते हुए कहा-हे श्रमिभूति ! तेरे मन में सन्देह है कि कर्म है या नहीं ? यह सन्देह तुझे परस्पर विरोधी वेद वाक्यों से हुआ है। वेदों में एक जगह पाया है_ 'पुरुष एवेदं सर्व यन्तं यच्च भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्ननातिरोहति । यदेजति यन्नेजति यह रे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदुत सर्वस्यास्य बाह्यत' इत्यादि। __ अर्थात्-यह सारा संसार पुरुष अर्थात् आत्मरूप ही है । भूत .
और भविष्यत् दोनों आत्मा अर्थात् ब्रह्म ही हैं। मोक्ष का भी वही स्वामी है जो अन्न से बढ़ता है, जो चलता है अथवा नहीं चलता।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग जो दर है और समीप है। जो इस ब्रह्माण्ड के भीतर है या बाहर है वह सब ब्रह्म ही है।
इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्म के सिवाय और कोई पदार्थ नहीं है। कर्म या पुण्य पाप वगैरह भी कुछ नहीं हैं । इसके विरुद्ध दूसरी श्रुति है
पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणा,इत्यादि । इस श्रुति से कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होता है । कर्मों का प्रत्यक्ष न होने से वे और किसी प्रमाण द्वारा भी नहीं जाने जा सकते । इस सन्देह को दूर करने के लिए भगवान् ने नीचे लिखे अनुसार कहना शुरू किया
हे सौम्य ! मैं कर्मों को (जो कि एक प्रकार का परमाणु पुद्गलमय द्रव्य है) प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। तुम भी इन्हें अनुमान द्वारा जान सकते हो इस लिए कर्मों के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए। नीचे लिखे अनुमानों से कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होता है
सुख और दुख के अनुभव का कोई कारण है क्योंकि ये कार्य हैं। जैसे अङ्कर । सुख और दुःख के अनुभव का कारण कर्म ही है।
शङ्का-माला, चन्दन, अङ्गना आदि इष्ट वस्तुएँ सुख का कारण हैं और साँप, विष, काँटा श्रादि अनिष्ट वस्तुएँ दुख का । इस प्रकार प्रत्यक्ष मालूम पड़ने वाले कारणों को छोड़ कर प्रत्यक्ष न दीखने वाले कर्मों की कल्पना से क्या लाभ ? दृष्ट को छोड़ कर अदृष्ट की कल्पना करना न्याय नहीं हैं। ___ समाधान-दो व्यक्तियों के पास इष्ट और अनिष्ट सामग्री बराबर होने पर भी एक सुखी और दूसरा दुखी मालूम पड़ता है । इस प्रकार का भेद किसी अदृष्ट कारण के बिना नहीं हो सकता और वह अदृष्ट कारण कर्मवर्गणा ही है।
बालक का शरीर किसी पूर्व शरीर के बाद उत्पन्न होता है,
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३३क्योंकि इन्द्रियादि वाला है। जैसे युवा शरीर। इस अनुमान के द्वारा जन्म से पहले किसी शरीर का अस्तित्व सिद्ध होता है जो बालक के शरीर का कारण है । पूर्व जन्म का शरीर तो इसका कारण नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह पूर्वजन्म में ही छूट जाता है, विग्रहगति में नहीं रहता । जो कार्य की उत्पत्ति के समय अवश्य विद्यमान रहता है उसे ही कारण कहा जा सकता है। पूर्वजन्म का शरीर नवीन शरीर उत्पन्न होने से बहुत पहले नष्ट हो जाता है इसलिए वह नवीन शरीर का कारण नहीं कहा जा सकता । दूसरी बात यह है कि बिना शरीर के जीव की गति नहीं होती। विग्रह गति में स्थूल शरीर न होने पर भी सूक्ष्म शरीर रहता है। वही सूक्ष्म शरीर कार्मण (कर्मों का समूह रूप) है। ___ दान आदि क्रियाएं फल वाली हैं, क्योंकि वेचेतन द्वारा की जाती हैं। जो क्रियाएँ चेतन द्वारा की जाती हैं उनका फल अवश्य होता है और वह फल कर्म ही है।
शङ्का-दान देने से चित्त प्रसन्न होता है। इस लिए चित्त की प्रसन्नता ही दान आदि क्रियाओं का फल है। कर्म रूप फल मानने
की कोई आवश्यकता नहीं है। ___ समाधान-चित्त की प्रसन्नता के प्रति दान निमित्त है, जैसे मिट्टी घड़े के प्रति निमित्त है। जिस प्रकार घड़ा मिट्टी का फल नहीं कहा जा सकता उसी तरह चित्त की प्रसन्नता दान आदि का फल नहीं कहा जा सकता। इसलिए दान आदि का फल कर्मही है। ___कर्मों के कार्य शरीर आदि के मूर्त होने से कम मूर्त है इत्यादि युक्तियों से मूर्व कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होने पर और अमिभूति का संशय दूर हो जाने पर वे भगवान् के शिष्य बन गए। (३) वायुभूति-अमिभूति को दीक्षित हुआ जान कर उनके छोटे भाई वायुभूति ने सोचा- भगवान् वास्तव में सर्वज्ञ हैं, तमी तो
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मेरे दोनों बड़े भाई उनके पास दीक्षित हो गए । उसका मस्तक भक्ति से झुक गया। वन्दना करने के लिए वह भगवान के पास पहुँचा। भगवान को वन्दना करके नम्रता पूर्वक बैठ गया । मगवान ने प्रेमपूर्वक कहा
सौम्य ! वायुभूते । संकोचवश तुम अपने हृदय की बात नहीं कह रहे हो। तुम्हारे मन में संशय है कि जीव और शरीर एक ही , हैं या भिन्न भिन्न । वेद में दोनों प्रकार की श्रुतियाँ मिलती हैं, कुछ ऐसी हैं जिन से जीव का शरीर से मिन अस्तित्व सिद्ध होता है और कुछ ऐसी हैं जिन से जीव और शरीर एक ही सिद्ध होते हैं।
शङ्का-भूतवादियों का कहना है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चारों भूतों के मिलने से आत्मा उत्पन्न होता है । यद्यपि पृथ्वी आदि में अलग अलग चेतना शक्ति नहीं है, फिर भी चारों के मिलने से नवीन शक्ति उत्पन्न हो सकती है। जैसे किसी एक वस्तु में मादकता न होने पर भी कुछ के मिलने पर नई मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
समाधान-केवल भूत समुदाय से चेतना उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि अलग अलग भूतों में वह शक्ति विल्कुल नहीं है । जैसे चालू से तेल नहीं निकल सकता । जिन वस्तुओं के समूह में जो शक्ति रहती है वह उनके एक देश में भी आंशिक रूप से रहती ही है। जैसे एक तिल में तेल । पृथ्वी आदि भूतों में पृथक रूप से चेतना शक्ति नहीं रहती इसलिए वह समुदाय में भी नहीं पा सकती। जिन वस्तुओं से मद्य पैदा होता है उनमें अलग अलग भी मदशक्ति रहती है, इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि प्रत्येक वस्तु में मद न होने पर भी उनके समूह में उत्पन्न हो जाता है। नीचे लिखे अनुमानों से भी भूतों से अलग श्रात्मा सिद्ध होता है-जीव का चेतना गुण भूत और इन्द्रियों से भिन्न वस्तु का धर्म
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
३५
है क्योंकि भूत और इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किए हुए पदार्थ का स्मरण होता है। जैसे पाँच खिड़कियों द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण करने वाले देवदत्त आदि की आत्मा । अनेक कारणों से जाने गए पदार्थ को जो एक स्मरण करता है वह उनसे भिन्न होता है । घटादि पदार्थ चतु, स्पर्श आदि अनेक इन्द्रियों से जाने जा सकते हैं किन्तु उनका स्मरण करने वाला एक ही है, इसलिए वह चक्षु आदि से भिन्न है। इस प्रकार स्मरण करने वाला आत्मा ही है। शङ्का - इन्द्रियाँ ही स्वयं जानती हैं और वे ही स्मरण करती हैं। अलग आत्मा मानने से क्या लाभ ?
1
समाधान - न इन्द्रियाँ स्वयं जानती हैं, न स्मरण करती हैं किन्तु श्रात्मा इन्द्रियों द्वारा जानता है और वही स्मरण करता है । अगर इन्द्रियाँ ही स्मरण करती हैं तो किसी इन्द्रिय के नष्ट हो जाने पर उसके द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण नहीं होना चाहिए।
घटपट आदि को जानना इन्द्रियों से भिन्न किसी दूसरी वस्तु का कार्य हैं, क्योंकि इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर उनका व्यापार न होने पर भी उनके द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण होता है, ' अथवा इन्द्रियों का व्यापार होने पर भी वस्तु की उपलब्धि न होने से कहा जा सकता है कि जानने वाला कोई और है । जब मन किसी दूसरी ओर लगा होता है तो किसी वस्तु की ओर आँखें खुली रहने पर भी वह दिखाई नहीं देती । इससे जाना जाता है कि जानने वाला इन्द्रियों से भिन्न कोई और है। क्योंकि इन्द्रियाँ तो कारण हैं ।
आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है क्योंकि एक इन्द्रिय से वस्तु को जान कर दूसरी इन्द्रिय से विकार प्राप्त करता है। जैसे एक खिड़की से किसी वस्तु को देख कर दूसरी से उसे ग्रहण करने की चेष्टा करने वाला व्यक्ति खिड़कियों से भिन्न है । आँखों से निम्बू
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वगैरह देखने पर मुख में पानी भरना इस बात को सिद्ध करता है कि आँख और मुख दोनों में क्रिया करने वाला कोई तीसरा है और वह आत्मा है।
1
बालक का ज्ञान किसी दूसरे के ज्ञान के बाद होता है क्योंकि ज्ञान है । जो ज्ञान होता है, वह किसी दूसरे ज्ञान के बाद ही होता है जैसे युवक का ज्ञान । बालक के ज्ञान से पहले होने वाला ज्ञान शरीरजन्य नहीं हो सकता क्योंकि पूर्व शरीर पूर्वभव में ही नष्ट हो जाता है। ज्ञान रूप गुण बिना आत्मा रूपी गुणी नहीं रह सकता जैसे प्रकाश बिना सूर्य नहीं रह सकता। इसलिए श्रात्मा सिद्ध होता है ।
माता के स्तनपान के लिए होने वाली बालक की प्रथम अभिलाषा किसी दूसरी अभिलाषा के बाद होती है क्योंकि अनुभव . रूप है । जैसे बाद में होने वाली अभिलाषाएँ । जब तक वस्तु का ज्ञान नहीं होता तब तक उसकी इच्छा नहीं होती। बालक बिना चंताए ही दूध पीने की इच्छा तथा उसमें प्रवृत्ति करने लगता है, इससे सिद्ध होता है कि उसे इन वस्तुओं का ज्ञान पहले से है । इस ज्ञान का आधार पूर्व जन्म का शरीर तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह नष्ट हो चुका है, वर्तमान शरीर भी नहीं हो सकता क्योंकि उसने अनुभव नहीं किया है । इसलिए पूर्व शरीर और वर्तमान शरीर दोनों के अनुभव का आधार कोई स्वतन्त्र आत्मा है ।
इत्यादि अनुमानों द्वारा शरीर से भिन्न आत्मा सिद्ध कर देने पर वायुभूति की संशय दूर होगया और वे भगवान् महावीर के शिष्य होगए ।
(४) व्यक्त स्वामी - इन्द्रभूति, अभिभूति और वायुभूति की दीक्षा का समाचार सुन कर व्यक्त स्वामीं का हृदय भी भक्ति पूर्ण हो गया। वे भी बन्दना नमस्कार करने के लिए भगवान् के पास आए।
}
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ____३७ भगवान ने व्यक्त स्वामी के हृदय की बात जान कर कहा-हे व्यक्क ! तुम्हारे मन में सन्देह है कि पृथ्वी आदि भूत हैं या नहीं! वेदों में दोनों प्रकार की श्रुतियों मिलने से तुम्हें ऐसा सन्देह हुआ है। एक जगह लिखा है- 'स्वप्नोपमं वै संकलमित्येष ब्रह्मविधि - असा विज्ञेय' । अर्थात् यह सारा संसार स्वप्न की तरह मायामय है। इससे भूतों का अभाव सिद्ध होता है। दूसरी जगह लिखा है-'यावापृथिवी (आकाश और पृथ्वी) देवता, आपो (जल) देवता । इन सब से यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी भूत अलग है। इस प्रकार भूतों के अस्तित्व और नास्तित्व के संशय को बताकर भगवान् ने नीचे लिखे अनुसार कहना शुरू किया
हे व्यक्त! तुम्हारा मत है कि यह सारी दुनियाँ स्वप्न के समान कल्पित है, मिथ्या है । इसे वास्तविक सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। ___ घट पट आदि वस्तुओं की सिद्धि न स्वतः हो सकती है, न परतः, न दोनों से और न किसी अन्य प्रकार से । कार्य कारण
आदि सारी बातें आपेक्षिक हैं। जितनी वस्तुएँ हैं वे या तो कारण हैं या कार्य । कारण के द्वारा किए जाने पर किसी वस्तु को कार्य कहा जाता है और किसी कार्य को करने पर ही कोई वस्तु कारण कही जाती है। जैसे मिट्टी कारण है और घट कार्य। मिट्टी इसी लिए कारण कही जाती है क्योंकि वह घट रूप कार्य को उत्पन्न करती है और घट इसीलिए कार्य कहा जाता है क्योंकि वह मिट्टी से उत्पन्न होता है। इस लिए कार्यकारणादिपना स्वतः सिद्ध नहीं है। जो वस्तु स्वतः सिद्ध नहीं है वह परतः सिद्ध भी नहीं हो सकती जैसे आकाश के फूल । स्वपर उभय से भी सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि जो बात अलग अलग किसी वस्तु को सिद्ध नहीं कर सकती, वह इकट्ठी होकर भी उसे सिद्ध नहीं कर सकती । जैसे
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
बालूरेत के एक कण में तेल नहीं है तो बहुत सी रेत इकट्ठी होने पर भी तेल पैदा नहीं हो सकता ।
३८
कारण के विना कार्य सिद्ध नहीं होता और कार्य के बिना कारण सिद्ध नहीं हो सकता इसलिए अन्योऽन्याश्रय दोष- श्रा जाएगा । इसलिए नोभयतः भी संभव नहीं है ।
चौथा विकल्प भी सिद्ध नहीं होता क्योंकि स्वतः और परतः को छोड़कर और कोई विकल्प हो ही नहीं सकता ।
इसी प्रकार हस्व दीर्घ च्यादि व्यवहार भी अपेक्षा पर ही निर्भर हैं। इसलिए इसमें भी वे दोष हैं जो कार्य और कारण में बताए गए हैं।
मध्यमा अङ्ग ुली की अपेक्षा तर्जनी छोटी कही जाती है और कनिष्ठा की अपेक्षा वही । वास्तवमें न कोई छोटी है न बड़ी। इस लिए संसार में वास्तविक पदार्थ कोई भी नहीं है । सभी शून्य हैं। केवल कल्पना के आधार पर सारा प्रपश्च दिखाई देता है । "इत्यादि युक्तियों से संसार में सर्वशून्यता का सन्देह करने वाले व्यक्वस्वामी को भगवान ने कहा- आयुष्मन् व्यक्त ! पृथ्वी आदि भूतों में तुम्हारा संशय नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो वस्तु श्राकाशकुसुम की तरह सर्वथा असत् है उसमें संशय नहीं हो सकता । तुम्हारे इस संशय से ही सिद्ध होता है कि पृथ्वी आदि पांच भूत हैं। यदि सभी वस्तुएँ असत् हैं तो स्थाणु और पुरुष विषयक ही संशय क्यों होता है । गगनकुसुम विषयक संशय क्यों नहीं होता । जो वस्तु किसी एक स्थान पर प्रमाण द्वारा सिद्ध होती है उसी का दूसरी जगह संशय होता है, जो वस्तु स था असत् है उसमें संशय नहीं हो सकता । संशय उत्पन्न होने के लिए ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय आदि सामग्री आवश्यक है। सर्वशून्य मानने पर सामग्री न रहेगी और संशय भी उत्पन्न न होगा ।
शङ्का - सर्वथा अभाव होने पर भी स्वप्न में संशय होता है। जैसे
M
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह. चौथा भाग
-
-
-
आंगन में कुछ न होने पर भी स्वमद्रष्टा को संदेह होता है कि यह हाथी है या पहाड़ है। ___ समाधान- स्वम में भी संशय का विषय ऐसी वस्तुएं ही हैं जो जाग्रतावस्था से जानी जा चुकी हैं। जिस व्यक्ति ने हाथी को कभी सुना या देखा न हो उसे स्वम में हाथी दिखाई नहीं दे सकता।
संसार को शून्य रूप मानने से स्वम और जाग्रत, सत्य और मिथ्या आदि में कुछ भी मेद नहीं रहेगा।
हस्व दीर्घ आदि की सचा केवल प्रापेक्षिक नहीं है किन्तु अर्थक्रिया का करना रूप सत्व भी उन में पाया जाता है, क्योंकि वे अपने ज्ञान को पैदा करना रूप अर्थक्रिया करती हैं। यदि ये हल दीर्घ या तदुमय रूप धान उत्पन्न करती हैं तो प्रमाण से स्वयंसिद्ध ही हैं। वर्जनी अगली में मोटापन और बड़प्पन दोनों धर्म रहते हैं। कनिष्ठा या मध्यमा की अपेक्षा वे केवल कहे जाते हैं। यदि इन धर्मों के बिना रहे भी इन्हें छोटा या बड़ाकहा जाय तोआकाशकुसुम में भी हस्वतत्व या दीर्घतत्व की प्रतीति होनी चाहिए। किसी लम्बी वस्तु को भी हल कहा जा सकेगा।
सर्वशन्यवाद में और भी अनेक दोषपाते हैं। उनसे पूछा जा सकता है-घट पट आदि सब वस्तुओं को मिथ्या बताने वाला वचन सत्य है या असत्य ? यदि सत्य है तो उसी के वास्तविक हो जाने के कारण शून्यवाद सिद्ध नहीं होगा । यदि असत्य है वो स्वयं अप्रमाण होने के कारण शून्यवाद की सिद्धि नहीं हो सकती। इस तरह किसी प्रकार शून्यता सिद्ध नहीं होती।
यदि वस्तुओं की असता सब जगह समान है तो कार्यकारणभाव का मी लोप हो जाएगा। तिलों से ही तेल निकलता है, वालूरेत से नहीं, इसमें कोई नियामक न रहेगा। आकशकुसुम की तरह असत वस्तुओं से ही सब कुछ उत्पन्न होने लगेगा। कारण विशेष
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला से कार्यविशेष उत्पन्न होता हुआ दिखाई देता है, इस के लिए भिन्न मित्र कार्यों के उत्पन्न होने से पहले कारण का वास्तविक अस्तित्व मानना आवश्यक है।
इस प्रकार बहुत सी युक्तियों से समझाने के बाद भगवान ने व्यक्त से कहा-हे व्यक्त ! पृथ्वी, जल और अमि तो सभी के प्रत्यक्ष हैं, इस लिए इनका अपलाप नहीं किया जा सकता। वायु का भी स्पर्श होने से वह प्रत्यक्ष ही है। इसका अस्तित्व अनुमान से भी सिद्ध किया जा सकता है-शरीर के साथ होने वाले अदृश्य स्पर्श
आदि बिना गुणी के नहीं हो सकते, क्योंकि गुण हैं, जो गुण हैं वे गुणी के बिना नहीं होते, जैसे घट के रूपादि । स्पर्श, शब्द स्वास्थ्य, कम्प आदि गुणों का आधार गुणी वायु ही है।
आकाश का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए नीचे लिखा अनुमान है-पृथ्वी, जल, अमि और वायु आधार वाले हैं, क्योंकि मत हैं। जैसे पानी का आधार घट है । संसार में पृथ्वी आदि वस्तुओं का आधार आकाश ही है, इससे आकाश की भी सिद्धि हो जाती है। इत्यादि युक्तियों से समझाया जाने पर व्यकस्वामी का संशय दूर हो गया और वे भगवान महावीर के शिष्य हो गए। (५) सुधर्मा खामी- व्यक्तखामी को दीक्षित हुआ जान कर सुधर्मास्वामी भी भगवान महावीर के पास वन्दना आदि के लिए गए । सुधर्मा स्वामी को देखते ही भगवान ने कहा-हे सुधर्मन् ! तुम्हारे मन में सन्देह है कि मनुष्यादि मर कर दूसरे भव में पूर्वमव सरीखे ही रहते हैं या बदल जाते हैं। यह सन्देह तुम्हारे मन में विरुद्ध वेदवाक्यों के कारण हुआ है। एक वाक्य कहता है'पुरुषोनु मृतः सन परभवे पुरुषत्वमेवाभुते प्रामोति' तथा 'पशवों । गवादयः पशुत्वमेव' इत्यादि अर्थात् पुरुष मर कर परमव में पुरुष ही होता है और गाय आदिपशु मर कर पशु होते हैं। इस वाक्य
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
४१
से मालूम पड़ता है कि परभव में जीव पूर्वभव सरीखा ही रहता है। 'शृगालो वै एप जायते यः सपुरीषो दाते', अर्थात् जो व्यक्ति पुरीष (विष्ठा) सहित जला दिया जाता है वह दूसरे भव में शृगाल होता है। इस वाक्य से दूसरे भव में बदल जाना सिद्ध होता है !
युक्तियाँ भी दोनों पत्तों का समर्थन करती हैं- कारण के अनु सार ही कार्य होता है। जैसे जौ के बीज़ से जौ ही पैदा होते हैं, गेहूँ नहीं। वर्तमान भव का कारण पूर्वभव है । इस लिए पूर्वभव के सदृश ही वर्तमान भव हो सकता है। यह कहना ठीक नहीं है, कार्य का कारण के समान होना एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि शृङ्ग से सरं (तृण विशेष ) उत्पन्न हो जाता है । उसी पर सरसों का लेप करने से गन्ध की उत्पत्ति होती है। गाय और मेड़ के लोग से दूब पैदा होता है । इस प्रकार मित्र मित्र वस्तुओं के मिलाने से अनेक प्रकार के वृक्ष उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार गोमय (गोबर) आदि वस्तुओं से बिच्छू आदि अनेक प्राणी तथा दूसरी वस्तुएँ बन जाती हैं । उनमें कहीं भी कार्य और कारण का सादृश्य नहीं दिखाई देता ।
1
कारण के अनुरूप कार्य को मान लेने पर भी परभव में विभिन्नता हो सकती है। परभव का कारण इस जन्म का शरीर नहीं है किन्तु कर्म ही है। उनकी विचित्रता के अनुसार परभव में विचित्रता हो सकती है। क्रूर कर्मों वाला जीव नरक, तिर्यञ्च आदि नीच गतियों में उत्पन्न होता है, शुभ कर्मों वाला जीव देव और मनुष्य रूप शुभगति में उत्पन्न होता है । इस लिए कर्मों में विविधता होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तरभव में जीव पूर्वभव सरीखे ही रहते हैं । इसके लिए नीचे लिखा अनुमान है - संसारी जीव नारक आदि रूप वाले विचित्र संसार को प्राप्त करते हैं, क्योंकि संसार विचित्र कर्मों का फल है । कर्मों की परिणति विचित्र रूप से होती है, क्योंकि कर्म विचित्र पुद्गल परिणाम रूप हैं।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
संसार में प्राणी भिन्न भिन्न प्रकार की क्रियाएँ करते हुए नजर आते हैं । क्रिया के अनुरूप ही फल होने से परभव में फल भी । विचित्र ही होगा ।
४२
J
शङ्का - इस भव में होने वाली खेती आदि क्रियाएँ ही सफल हैं, परभव के लिए की जाने वाली दान आदि क्रियाओं का कोई फल नहीं है । पारलौकिक क्रियाओं के निष्फल होने से परमव में उनका कोई असर नहीं होता, इसी लिए परभव में सभी प्राणी एक सरीखे होते हैं ।
·
समाधान - इस प्रकार भी सब जीव समान नहीं हो सकते, क्योंकि समानता कर्मों से पैदा होती है। पारलौकिक क्रियाओं को निष्फल मानने पर कर्म नहीं हो सकते और कर्मों के विना जीवों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि बिना कर्म के भी समानता मानी जाय तो बिना कुछ किए फल प्राप्ति होने लगेगी और किए हुए दान यदि कर्म बिना फल के नष्ट हो जाएंगे । अथवा पारलौकिक क्रियाओं के न मानने पर कर्मों का सर्वथा अभाव हो जायगा । कर्मों का अभाव होने पर परभव की प्राप्ति ही नहीं होगी । फिर समानता और विषमता की बात ही दूर रह जाती है। यदि कर्मरूप कारण के विना कारण ही भवान्तर की प्राप्ति मानते हो तो भव प्राप्ति की तरह नाश भी ऐसे ही होने लगेगा, फिर संसार का बन्धन काटने के लिए तप नियम आदि का अनुष्ठान व्यर्थ हो जायगा । बिना कारण मानने पर जीवों की समानता की तरह विषमता भी ऐसे ही सिद्ध हो जायगी ।.
शंका- जिस प्रकार कर्मों के बिना ही मिट्टी आदि कारणों से खाभाविक रूप से घटादि कार्य उत्पन्न होते रहते हैं, इसी प्रकार मनुष्य तिर्यश्च आदि अलग अलग जाति के प्राणियों से उन्हीं के समान प्राणी उत्पन्न होते रहेंगे ; कर्मों को मानने की क्या आवश्यकता है?
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
समाधान- घटादि कार्य स्वतः उत्पन्न नहीं होते। उन्हें भी कर्ता, करण आदि की अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार परभव में होने वाले शरीर को भी श्रात्मा रूप कर्ता और करण की अपेक्षा है । शरीर के लिए कर कर्म ही है।
1
शङ्का - घट पट आदि के कर्ता कुम्हार जुलाहा आदि प्रत्यक्ष सिद्ध हैं इस लिए उनमें कर्ता और करण मान लेने चाहिए । शरीरादि कार्य तो बादलों के विकार की तरह खाभाविक ही मानने चाहिए क्योंकि वहाँ कर्ता आदि दिखाई नहीं देते। इस लिए कर्मों की सिद्धि नहीं होती ।
समाधान - शरीर आदि स्वाभाविक नहीं हैं, क्योंकि आदि तथा निश्चित श्राकार वाले हैं। जो वस्तु यादि तथा निश्चित आकार वाली होती है, वह कर्चा करण आदि की अपेक्षा के बिना स्वाभाविक रूप से उत्पन्न नहीं होती, जैसे घट जैसे किसी समय कर्म ही कर्ता रूप में आ जाता है यथा- 'पचति श्रोदनं स्वमेव ' इसी प्रकार नामकर्म शरीरोत्पत्ति में काम कर रहा है।
n
. इस प्रकार युक्तियों से समझाकर भगवान ने कहा- सभी वस्तुओं में तीन धर्म रहते हैं। उत्पाद, व्यय और धौम्य । उत्पाद और व्यय की अपेक्षा कोई भी वस्तु पहली पर्याय सरीखी नहीं रहती। जीव भी देव, मनुष्य आदि नवीन पर्याय को प्राप्त करता रहता है। धौव्य की अपेक्षा वस्तुओं की सभी पर्यायों में समानता रहती है। जैसे मिट्टी का गोला घट के रूप में बदलता है । गोले और बड़े का आकार भिन्न भिन्न होने से दोनों में मेद है किन्तु मिट्टी की अपेक्षा दोनों में समानता है। इसी प्रकार देव और मनुष्य भव में बहुत सा मेद है. किन्तु दोनों पर्यायों में आत्मा एक ही होने से दोनों में समानता है। समानता द्रभ्य का धर्म है और विषमता गुणों का। भगवान् महावीर के युक्तियुक्त समाधान द्वारा सुधर्मा स्वामी का
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला सन्देह दूर होने पर वे उनके शिष्य हो गए और पांचवें गणधर कहलाए। (६) मण्डित स्वामी-इन्द्रभूति से सुधर्मा स्वामी तक को दीक्षित हुआ जान कर मण्डित स्वामी भगवान की वन्दना करने के लिए गए उन्हें देखते ही भगवान ने कहा-हे मण्डित । तुम्हारेम में सन्देह है कि वन्ध और मोक्ष हैं या नहीं। बन्ध और मोक्ष का अभाव सिद्ध करने के लिए तुम नीचे लिखी युक्तियाँ उपस्थित करते हो
जीव के साथ होने वाला कर्मों का बन्ध सादि है या अनादि ! यदि सादि है तो पहले जीव की सृष्टि होती है पीछे कर्मों की, अथवा पहले कर्मों की सृष्टि होती है फिर जीवों की,या दोनों की साथ होती है ?
पहले जीव पीछे कर्म कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मों के बिना जीव की उत्पचि नहीं हो सकती। जीव का जन्म अर्थात् उत्पत्ति कर्म द्वारा ही होती है। विना कर्म वह कैसे उत्पन्न हो सकेगा? अगर विना कारण भी कोई वस्तु उत्पन्न होने लगे तो खरा भी उत्पन्न होने लगेंगे। अगर प्रात्मा को अनादि और फिर कर्मों की उत्पत्ति मानी जाय तो भी ठीक नहीं है । इस तरह कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि शुद्ध भात्मा के साथ कर्मबन्ध नहीं होता । अगर शुद्ध के साथ भी कर्मबन्ध हो तो मुक्त जीवों को भी कर्मवन्य हो लगेगा।
पहले कर्म पीछे जीव मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जीव कों का कर्ता है और कर्ता के बिना कर्मरूप कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता।
दोनों की एक साथ उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है। एक साथ उत्पन्न होने पर भी जीव कर्मों का कर्ता नहीं हो सकता। इन दोनों का पास्सर सम्बन्ध भी नहीं हो सकता । पहले वाले सभी दोष इस पक्ष में भी समान हैं। इसलिए जीव और कर्मों को सादि नहीं
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
माना जा सकता।
यदि इन दोनों का सम्बन्ध अनादि माना जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अनादि सम्बन्ध कभी नष्ट नहीं हो सकता, जैसे जीव और ज्ञान का सम्बन्ध । इस प्रकार मोत का अभाव हो जाएगा।
समाधान-शरीर और कर्म की सन्तान परम्परा अनादि है, क्योंकि वे एक दूसरे के हेतु हैं। जैसे वीज और अंकुर । बीज से अंकुर पैदा होता है और अंकुर से वीज । यह नहीं कहा जा सकता कि यह परम्परा कब शुरू हुई । इसी प्रकार कर्मों से शरीर पैदा होता है और शरीर से कम होते हैं। इन दोनों की परम्परा अनादि है। किसी खास कर्म या शरीर के लिए यह कहा जा सकता है कि वह आदि वाला है किन्तु उनकी परम्परा के लिए नहीं कहा जा सकता । इस लिए पहले कर्म हुए या जीव इत्यादि प्रश्न ही नहीं उत्पन्न हो सकते । ऐसा कोई कर्म नहीं है जो उससे पहले होने वाले शरीर का कार्य न हो और ऐसा कोई शरीर नहीं है जो अपने
पहले होने वाले कर्म का कार्य न हो। कर्मों का होना ही वन्ध है, इसलिए वन्ध भी प्रवाह से अनादि है। देह और कर्म दोनों का कर्ता जीव है । देह को बनाते समय कर्म करण हैं और कर्मों को बनाते समय शरीर । यद्यपि कर्मों का प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु देहरूप कार्य से उनका अनुमान किया जा सकता है, अर्थात् उनकी सिद्धि की जा सकती है।
'कर्म और शरीर की सन्तान परम्परा को अनादि मानने से उसका कभी अन्त न होगा' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वीज और अंकुर की सन्तान परम्परा अनादि होने पर भी सान्त होती है । वीज अथवा अंकुर के विना कार्य किए नष्ट हो जाने पर वीज और अंकुर की परम्परा नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार मुर्गी और उसके अण्डे, पिता और पुत्र कीपरम्परा भी नष्ट हो सकती है।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला सोने में लगा हुआ मैल अनादि होने पर भी आग से तपाना आदि कारणों से छूट जाता है । उसी प्रकार जीव और कर्मों का सम्बन्ध भी तप और संयम रूप उपायों से छूट जाता है। इस लिए मोक्ष का अभाव नहीं हो सकता। ____जीव और कर्मों का परस्पर सम्बन्ध अभव्यों में अनादि और अनन्त तथा भव्यों में अनादि सान्त है। ___ शङ्का-समी जीव एक सरीखे हैं। फिर उनमें भव्य और अभव्य का मेद क्यों होता है?
समाधान- भन्यों में स्वभाव से ही मुक्ति की योग्यता होती है और अभव्यों में नहीं।
शङ्का-मोक्ष गया हुआ जीव वापिस नहीं लौटता और छ महीनों में एक जीव अवश्य मोक्ष जाता है। ऐसा मानने पर कमीन कमी संसार भव्यों से खाली हो जायगा, क्योंकि काल अनन्त है ? ,
समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि भव्य जीव अनन्तानन्त हैं। जैसे भविष्यत्काल और आकाश । जो वस्तु अनन्तानन्त होती है वह प्रतिक्षण कम होने पर भी खतम नहीं होती, जैसे प्रत्येक क्षण में वर्तमान रूप से परिणत होता हुआ भविष्यत्काल । अथवा आकाश के एक एक प्रदेश को बुद्धि द्वारा कम करते रहने पर भी वह कमी समास नहीं होता । इसी प्रकार भन्यों का उच्छेद नहीं हो सकता।
भूत और भविष्यत्काल परापर है। इस लिए यह कहा जा सकता है कि जितने जीव भूतकाल में मोक्षगए हैं उतने ही भविष्य में जाएंगे। भूतकाल में अब तक एक निगोद का अनन्तवाँ भाग जीव मोक्ष गए हैं, इस लिए भविष्य में भी उतने ही जाएंगे। न्यून या अधिक नहीं जा सकते । इस प्रकार भी भव्यों का उच्छेद नहीं हो सकता, क्योंकि भव्य जीव काल और आकाश की तरह अनन्त हैं। जिस तरह काल और आकाश खतम नहीं होते, उसी तरह भव्य
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
जीव भी समाप्त नहीं होते। ___ शब-यदि सव भव्य मोच नहीं जाएंगे तो मोच न जानेवाले
भव्य तथा प्रभव्य जीवों में क्या मेद है ? ' समाधान-जो मोक्ष जाएंगे वेही भव्य नहीं कहे जाते, किन्तु जिनमें मोक्ष जाने की योग्यता है, वे भव्य कहे जाते हैं। अभव्य जीवों में मोक्ष जाने की योग्यता ही नहीं होती। योग्यता होने पर भी कारणसामग्री न मिलने से बहुत सी वस्तुएं उस रूप में परिणतः नहीं होतीं। जैसे दण्ड के आकार में परिणत होने की योग्यता होने पर भी, बहुत से वृक्ष उस रूप में परिणत नहीं होते। इसी प्रकार जो जीव मोक्ष न जाने पर भी मोक्ष जाने की योग्यता रखते हैं, वे भव्य कहे जाते हैं। अभन्यों में तो मोक्ष जाने की योग्यता ही नहीं होती। जैसे पानी में दण्ड बनने की योग्यता नहीं है। अथवा जैसे मिले हुए सोने और पत्थर में अलग अलग होने की योग्यता होने पर भी सभी अलग अलग नहीं होते किन्तु जिन्हें अलग करने की सामग्री प्राप्त हो जाती है, वे ही अलग अलग होते हैं। यह निश्चय पूर्वक कहां जा सकता है कि वे ही अलग अलग होते हैं, जिन में योग्यता होती है। इसी प्रकार सभी भव्यों में योग्यता होने पर भी सामग्री न मिलने से कर्ममल दूर नहीं होता । अभव्यों में कर्ममल दूर करने
की योग्यता नहीं है। ' शङ्का-मोक्ष गया हुआ जीव वापिस नहीं लौटता, यह कहना ठीक नहीं है। मोक्ष नित्य नहीं है, क्योंकि कृतक है, प्रयत्न के बाद प्राप्त होता है, प्रादि वाला है। जैसे पड़ा।
समाधान-जो कृतक, प्रयत्न के बाद उत्पन्न होने वाला और आदि वाला है वह नाश वाला है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रध्वंसामाव कतकादि वाला होने पर भी नष्ट नहीं होता। प्रध्वंसाभाव को प्रभाव स्वरूप बताकर दृष्टान्त में वैषम्य बताना ठीक
साल
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला नहीं है, क्योंकि प्रध्वंसाभाव पुद्गल और सत् रूप ही है।
मोन को कृतक मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि आत्मा और कमपुद्गलों का अलग अलग होना ही मोक्ष है। तप और संयम के द्वारा कर्मों का नाश हो जाने पर वियोग स्वयं हो जाता है। आत्मा अपने आप शुद्ध और निर्मल बन जाता है। इस लिए मोक्ष कृतक । अर्थात किया जाने वाला नहीं है। जिस प्रकार मुग्दर द्वारा घट का नाश होने पर आकाश का कुछ नहीं होता इसी प्रकार तप और संयम द्वारा कर्मों का नाश होने पर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को. प्राप्त हो जाता है उसमें कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती।
शङ्का-जीव निर्जरा द्वारा जिन कर्म पुद्गलों को छोड़ता है वे लोक में ही रहते हैं, लोक के बाहर नहीं जाते। जीव भी लोक में ही रहते हैं, तो उनका फिर सम्बन्ध क्यों नहीं होता?
समाधान-मुक्त जीव को फिर वन्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें बन्ध के कारण नहीं हैं। जैसे विना अपराध का पुरुष। कर्मवन्ध योग और कषायों के कारण से होता है और वे मुक्त आत्मा के नहीं है, इसलिए उनके कर्मबन्ध नहीं होता । जिस बीज में अंकुर पैदा करने की शक्ति नष्ट हो गई है, उससे फिर अंकुर पैदा नहीं होता । इसी प्रकार जिस आत्मा में कर्मवन्ध का वीज नष्ट हो गया है, उसमें फिर कर्मबन्ध नहीं होता। कर्मवन्ध का मूल कारण कर्म ही है। इसलिए एक वार कर्म नष्ट हो जाने पर फिर कर्मबन्ध नहीं होता इसी कारण से मुक्त आत्माओं की संसार में पुनरावृत्ति नहीं होती।
शङ्का-जीव की गति कर्मों के अनुसार ही होती है । मुक्त आत्माओं के पाठों कर्म शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं, फिर उन की ऊर्ध्वगति कैसे होगी? .
समाधान-मुक्त आत्मा कर्मों का बन्धन छूटते ही ऊपर की ओर गमन करते हैं। उनकी एक समय की गति होती है। कर्मों
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४ - का क्षय होने से जैसे जीव सिदत्व रूप खभाव को प्राप्त कर लेता
है। ऊर्ध्वगति रूप जीव का खभाव है। अथवा जिस प्रकार तुम्नी, एरएडफल, अमि, धूम और धनुष से छूटे हुए नाण की गति होती है उसी प्रकार सिदों की भी पूर्वप्रयुक्त वेग से गति होती है। . शबर-जितनी वस्तुएं भमूर्त है वे सभी प्रक्रिय है,जैसे आकाश। आत्मा अमृत है तो इसे अक्रिय भी मानना पड़ेगा। '
समाधान- दूसरे अमूतों के अक्रिय होने से अगर सक्रिय आत्मा को भी अक्रिय सिद्ध किया जा सकता है तो दूसरे प्रमों के जड़ होने से आत्मा को भी जड़ मानना पड़ेगा। जिस प्रकार दूसरे अमूतों के जड़ होने पर भी मिन्न स्वभाव वाले आत्मा को जड़ नहीं कहा जा सकता, इसी प्रकार दूसरे अमूर्तों के अक्रिय होने पर भी आत्मा अक्रिय नहीं है। नीचे लिखे अनुमान से भी आत्मा सक्रिय सिद्ध होता है-आत्मा सक्रिय है, क्योंकि कर्ता और भोक्ता है जैसे कुम्भार, अथवा आत्मा सक्रिय है, क्योंकि प्रत्यक्ष से शरीर का हलन चलन दिखाई देता है, जैसे यन्त्रपुरुष (मशीन का बना हुमा पुरुष)। कर्म न होने पर भी सिद्ध गति के परिणामस्वरूप सिद्धों में भी क्रिया होती है। .
शङ्का- यदि सिद्ध जीवों के स्वभाव के कारण ही ऊर्ध्वगति होती है तो सिद्ध क्षेत्र से आगे भी गति क्यों नहीं होती? ___ • समाधान-सिद्धगति के बाद धर्मास्तिकाय न होने से गति नहीं होती, क्योंकि लोकाकाश के साथ ही धर्मास्तिकाय और अभमास्तिकाय समाप्त हो जाते हैं। जीव और पुद्गलों की गति विना धर्मास्तिकाय के नहीं होती इस लिए जीव ऊपर जाता हुआ मागे धर्मास्तिकाय न होने से रुक जाता है। जैसे मत्स्य पानी के बिना नहीं चल सकता उसी तरह धर्मास्तिकाय के विना जीव और पुद्गल की गति नहीं होती।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
शङ्का - अगर व्यक्तिगत रूप से देखा जाय तो सभी सिद्ध जीवों की आदि है, क्योंकि कर्म खपाने के बाद ही जीव वहाँ पहुँचते हैं। सभी जीवों की आदि मानने पर प्रथम जीव के मोक्ष जाने से पहले सिद्ध क्षेत्र को खाली मानना पड़ेगा ।
समाधान- जिस प्रकार प्रत्येक समय का प्रारम्भ होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि कालद्रव्य अमुक समय शुरू हुआ और इस से पहले काल नहीं था, उसी प्रकार मोक्ष को समष्टिरूप से सादि नहीं कहा जा सकता ।
• शङ्का- सिद्ध क्षेत्र का विस्तार अढाई द्वीप (मनुष्य क्षेत्र) जितना ही है । जीव अनन्तकाल से सिद्ध हो रहे हैं और अनन्तकाल तक होते रहेंगे । थोड़े से क्षेत्र में इतने जीव कैसे समा सकते हैं ?
1
समाधान- सिद्ध जीव अमूर्त हैं इस लिए एक दूसरे का प्रतिघात नहीं करते । थोड़े से क्षेत्र में भी वे अनन्त रह सकते हैं । जैसे किसी द्रव्य के सूक्ष्म होने पर उस पर अनन्त सिद्धों का ज्ञान पड़ता है, एक ही नर्तकी पर हजारों दृष्टियाँ गिरती हैं, छोटे से कमरे में सैकड़ों दीपों की प्रभासमा जाती है, एक पुरुष के ज्ञान में अनेक वस्तुओं का चित्र समाविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार सिद्ध भी एक दूसरे का बिना प्रतिघात किए परिमित क्षेत्र में भी अनन्त रहते हैं ।
इस प्रकार युक्ति के द्वारा समझाया जाने पर मण्डित स्वामी का संशय दूर हो गया और वे भगवान के शिष्य हो गए । . (७) मौर्यस्वामी - वन्दना करने के लिए आए हुए मौर्यस्वामी को भगवान ने कहा- हे मौर्य ! तुम्हारे मन में संशय है कि देव हैं या नहीं ?. वेदों में दोनों प्रकार की श्रुतियाँ मिलने से तुम्हें यह सन्देह हुआ है । किन्तु तुम्हें यह संशय नहीं करना चाहिए, क्योंकि तुम भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक चारों प्रकार के देवों को दर्शनों के लिए आते हुए देख रहे हो। प्रत्यक्ष होने के कारण तुम्हें
५०
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ५१ उनके विषय में सन्देह न करना चाहिए।
सूर्य चन्द्र आदि ज्योतिषी देवों को तुम दिन रात देखते हो। यद्यपि दिखाई देने वाले विमान है, फिर भी विमान से विमान में रहने वाला स्वतः सिद्ध हो जाता है, क्योंकि रहने वाले का सर्वथा अभाव होने पर रहने का स्थान नहीं बन सकता।
अनुमान से भी देवों का अस्तित्व सिद्ध होता है-देव हैं, क्योंकि लोक में देवों द्वारा किए गए उपकार और अपकार देखे जाते हैं, जैसे राजा वगैरह द्वारा किए गए उपकार और अपकार ।।
मनुष्य और तिर्यञ्च गति में सुख और दुःख दोनों मिले हुए हैं। किसी को सुख अधिक है, किसी को दुःख । जिन जीवों ने उत्कट पुण्य या पाप किया है, उनके फल भोग के लिए ऐसा स्थान होना चाहिए, जहाँ सुख ही सुख हो या दुःख ही दुःख हो। इन्हीं दो स्थानों का नाम स्वर्ग और नरक है।
शडा-यदि देव हैं और अपनी इच्छापूर्वक आहार विहार करते रहते हैं तो वे मनुष्यलोक में क्यों नहीं पाते ? - समाधान -देवों के मनुष्यलोक में नहीं आने के कई कारण हैं। जैसे सुन्दर रूप वाली कामिनी में आसक्त और रमणीय प्रदेश में रहने वाला व्यक्ति अपने स्थान को छोड़ कर दूसरी जगह नहीं जाना चाहता, इसी तरह स्वर्गीय वस्तुओं में प्रेम वाले होने से तथा वहाँ के काम भोगों में आसक्त होने के कारण देव मनुष्यलोक में नहीं पाते। जैसे अपने कार्य में व्यस्त मनुष्य इधर उधर नहीं जाता, इसी तरह देव अपना कार्य समास न होने से मनुष्यलोक में नहीं आते । जिस प्रकार सङ्गरहित मुनि विना चाहे घर में नहीं जाता इसी प्रकार देव मनुष्यों के अधीन न होने के कारण यहाँ नहीं आते। मनुष्य-लोक के अशुभ तथा दुर्गन्धि वाला होने के कारण भी देव नहीं पाते।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्धमाला
शङ्का-क्या देवता मनुष्यलोक में बिल्कुल नहीं आते १
उत्तर- तीर्थक्कर के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण के अवसर , पर अपना कर्तव्य पालन करने के लिए देव मनुष्यलोक में आते । हैं। उनमें से कुछ इन्द्र आदि तो भक्ति पूर्वक आते हैं। कुछ उनकी देखा देखी चले आते हैं । कुछ संशय दूर करने के लिए, कुछ पूर्वभव के मित्र आदि से अनुराग होने के कारण कुछ समयबन्ध अर्थात् पूर्वजन्म में किए हुए किसी संकेत के कारण, कुछ किसी तपस्वी या विद्वान साधु के गुणों से आकृष्ट होकर, कुछ पूर्वजन्म के शत्रु को पीड़ा देने के लिए, कुछ पूर्वजन्म के मित्र या पुत्रादि पर अनुग्रह करने के लिए और कोई कोई यों ही क्रीड़ा के लिए मनुष्यलोक में प्राजाते हैं।
भूत प्रेत आदि के द्वारा अधिष्ठित व्यक्ति में दिखाई देने वाली विचित्र क्रियाओं से भी देवयोनिविशेष का अनुमान किया जा सकता है। इसी तरह भूत द्वारा अधिष्ठित घरों में होने वाली अद्भुत घटनाओं से देवों का अस्तित्व सिद्ध होता है।
स्वर्ग तथा देवों का अस्तित्व न मानने से वेद में बताई गई अमिहोत्र आदि क्रियाएँ निष्फल हो जाएंगी।
इस प्रकार समझाया जाने हर मौर्य स्वामी का संशय दूर हो गया और वे भगवान् महावीर के शिष्य हो गए तथा सातवें गणघर बने। (E)अंकम्पित स्वामी-दर्शनों के लिए आए हुए भकम्पित स्वामी को देख कर भगवान ने कहा-हे अकम्पित ! तुम्हारे मन में संशय है कि नरक है या नहीं ? यह संशय तुम्हें वेद वाक्यों से हुआ है।
शङ्का-नारकी जीव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से मालूम नहीं पड़ते। अनुमान से भी नहीं जाने जा सकते । संसार में देव, मनुष्य और तिर्यवतीनही प्रकार के प्राणी मालूम पड़ते हैं, चौथे नारकी दिखाई
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह. बौथा भाग
-
५३
नहीं देते।
समाधान- भगवान ने उत्तर दिया।हेमकम्पित अपने केवल. झान द्वारा मैं नारकी जीवों को प्रत्यय देख रहा हूँ। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि नारकी जीव किसी के प्रत्यन नहीं हैं।
शक्षा-भगवन् ! आपके ज्ञान में प्रत्यच होने पर भी हम तो उसी वस्तु को मानते हैं जो हमारे प्रत्यक्ष हो।
समाधान-यह तुम्हारा दुराग्रह है। प्रत्येक व्यक्ति अगर यह निधय कर ले कि मैं अपनी आँखों से देखी हुई वस्तु कोही मानू गा तो दुनियाँ का व्यवहार ही न चले । बहुत से काम, गांव, नगर, नदियाँ, नाले, समुद्र, भूत और भविष्यत्काल की बातें तुम्हें प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु उन्हें मान कर व्यवहार करते हो। इसलिए अपनी
आँखों से देखी हुई वस्तु कोही मानना ठीक नहीं है । बहुत सी बातों में दूसरे द्वारा साक्षात की गई वस्तु पर भी विश्वास करना पड़ता है। वास्तव में देखा जाय तो वस्तु को आत्मिक ज्ञान द्वारा जानना ही वास्तविक प्रत्यक्ष है। इन्द्रियों द्वारा जानना तो वास्तव में परोक्ष है। केवल व्यवहार में उसे प्रत्यक्ष मान लिया जाता है। ऐन्द्रियक ज्ञान में जीव वस्तु को साचाद नहीं जानता किन्तु इन्द्रियों द्वारा जानता है। इसलिए इन्द्रियों का व्यवधान होने से यह ज्ञान परोक्ष है। शङ्का-प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष से अधिक कैसे जानता है।
समाधान-जैसे पाँच खिड़कियों वाले कमरे में बैठा हुमा व्यक्ति जितना जानता है, दीवारै हट जाने पर खुले प्रदेश में बैठा हुमा व्यक्ति उससे कहीं अधिक जानता है, हमी प्रकार इन्द्रिय जाग से मान्यज्ञान अधिक विस्तृत शार विशद होता है। . नीचे लिख भनुपान से भी नरक की सिद्धि होती है-उस्कट पाप का फल भोगने वाले कहीं रहते हैं, क्योंकि कर्म का फल भोगना । ही पड़ता है, जैसे कर्मफल को भोगने वाले मनुष्य और तिर्गश्च ।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला . मनुष्य और निर्यश्च गति में दुःख होने पर भी सुख मिला हुआ है। इस लिए तीव्र पाप कर्मों का फल नरकों में ही मोगा जाता है।
- इस प्रकार समझाया जाने पर अंकम्पित खामी का सन्देह दूर हो गया। वे भगवान् महावीर के शिष्य हो गए और आठवें गणघर कहलाए।
- (गाथा १८८५-१९०४) (8) अचल भ्राता-दर्शनार्थ आए हुए अचल भ्राता को. देखकर भगवान् ने कहा- हे अचल भ्राता। तुम्हारे मन में सन्देह है कि पुण्य और पाप हैं या नहीं ? यह संशय तुम्हें परस्पर विरोधी बात : बताने वाले वेदवाक्यों से हुआ है।
पुण्य और पाप के विषय में पांच मत हैं-(११ पुण्य ही है, पाप, नहीं है । (२) पाप ही है पुण्य नहीं है। (३) पाप और पुण्य दोनों मिले हुए हैं जैसे मेचकमणि में कई रंग मिले हुए होते हैं और वे मिश्रित सुख और दुःख के कारण हैं । इस लिए पुण्य पाप नामक एक ही वस्तु है। (४) पुण्य और पाप दोनों स्वतन्त्र और मित्र... मिन्न स्वरूप वाले हैं। पुण्य सुख का कारण है और पाप दुख का। (५)पुण्य या पाप रूप सत्ता ही नहीं है। सारा संसार अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं परिवर्तित हो रहा है। __ पहले पक्ष में जैसे जैसे पुण्य बढ़ता है, सुख भी अधिक होने , लगता है । जैसे जैसे पुण्य घटता है सुख कम और दुःख अधिक होने लगता है । सुख और दुःख पुण्य की मात्रा पर अवलम्बित हैं। पाप को अलग मानने की आवश्यकता नहीं है। पुण्य का सर्वथा षय होने पर मोक्ष हो जाता है। जैसे पथ्याहार की वृद्धि होने पर
आरोग्य की वृद्धि होती है, उसी प्रकार पुण्य की वृद्धि से सुख की वृद्धि होती है । जैसे पथ्याहार क्रम से छोड़ने पर शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार पुण्य की कमी होने पर दुःख उत्पन्न हो जाते हैं। सर्वथा पाहार का त्याग कर देने पर जैसे मृत्यु हो
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त.बोल संग्रह, चौथा भाग जाती है उसी प्रकार सर्वथा पुण्य का क्षय हो जाने पर मोक्ष हो जाता है।
जसरे पक्ष में विलकुल इससे उल्टा है। जैसे अपथ्याहार बढ़ने पर रोग की वृद्धि तथा घटने पर रोग कम हो जाता है। उसी तरह . पाम बढ़ने पर दुःख की वृद्धि तथा पाप घटने पर सुख की वृद्धि होती है। पापका, सर्वथा नाश हो जाने पर मोक्ष हो जाता है। . जैसे सर्वथा अपथ्याहार छोड़ देने पर रोग से मुक्ति हो जाती है।
" तीसरे में एक ही वस्तु के पुण्य और पाप रूप,दो अंश हैं, जैसे मेनकमणि में कई रंग होते हैं, अथवा नरसिंह में नरव और सिंहत्व दोनों रहते हैं, उसी प्रकार एक ही वस्तु में पुण्य और पाप मिले रहते हैं, पुण्यांश के अधिक होने पर वही सुख का कारण तथा पापांश के अधिक होने पर वही दुःख का कारण हो जाती है।
चौथे पक्ष में पुण्य और पाप दोनों मिन भिन्न स्वतन्त्र वस्तुएं हैं, क्योंकि इन दोनों के कार्य मिन मित्र तथा परस्पर विरोधी हैं। पुण्य का कार्य सुख देना है और पाप का दुःख देना। ... पांचवें पक्ष में संसार स्वभाव से ही सुखी या दुःखी हुआ करता है। अलग किसी कारण को मानने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए पुण्य और पाप नहीं हैं। ..
. इनमें से चौथा पक्ष आदेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है, बाकी चार नहीं । स्वभाव वाद का खण्डन अमिभूति के बाद में किया जा चुका है। कर्मों की सिद्धि के लिए और भी बहुत से अनुमान दिए जा सकते हैं, जैसे-दानादिशुभ क्रियाओं तथा हिंसा आदि अशुभ क्रियाओं का कोई न कोई फल है, क्योंकि वे कारणरूप हैं, जैसे
खेती आदि क्रियाओं का फल धान्य आदि की प्राप्ति है। इसी तरह दानादि क्रियाओं का फल पुण्य तथा हिंसादि क्रियाओं का फल पाप है। इसी प्रकार देह आदि का कोई कारण है, क्योंकि वे कार्य
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला रूप हैं। जैसे घट की उत्पत्ति के लिए मिट्टी, दण्ड, चक्र, चीवर आदि की मावश्यकता पड़ती है। __ शश-देह प्रादि के माता पिता आदि कारण प्रसिद्ध ही हैं, फिर अदृष्ट कारण मानने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान-माता पिता आदि कारणों के समान होने पर भी दो व्यक्खियों में भेद नजर आता है। एक सुरूप होता है दूसरा कुरूप एक बुद्धिमान दूसरा मूर्ख । इन सब बातों का कारण माता पिता के सिवाय कोई दूसरा मानना पड़ता है।
सुख और दुख का उन्हीं सरीखा कारण है, क्योंकि ये कार्य है।जो कार्य होता है, उसके अनुरूप कारण भी होता है, जैसेघट के परमाणु। ___ शङ्का-सुख और दुःख के अनुरूप कारण होने से पुण्य और पाप की सिद्धि की जाती है । सुख और दुख आत्मा के भाव होने से अमूर्त है, इसलिए उनका कारण भी अमूर्त होना चाहिए। अमूर्त का कारण मूर्त कर्मों को नहीं माना जा सकता।
समाधान-कार्य और कारण सर्वथा समान नहीं होते । सर्वथा समान मानने पर कार्य और कारण का मेद ही मिट जाएगा। इसलिए दोनों में कुछ समानता होती है और कुछ विषमता ।
शा-संसार की सभी वस्तुएं कुछ अंशों में समान तथा कुछ अंशों में भिन्न है । कारण और कार्य भी कुछ अंशों में भिन्न हैं। ऐसी दशा में कारण को कार्य के अनुरूप कहने का स्या तात्पर्य है ?
समाधान-कारण ही कार्यरूप में परिणत होता है इसलिए वह उसके अनुरूप कहा जाता है । जो जिस रूप में परिणत नहीं होता वह उसके अनुरूप नहीं कहा जाता । जीव और पुण्य का संयोग सुख का कारण है और सुख उसी की पर्याय है। जीव और पाप का संयोग दुःख का कारण है और दुःख भी उसी की पर्याय है।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग ५७ जैसे सुख को शुभ, कल्याण, शिव इत्यादि नामों से कहा जाता है। वैसे ही पाप भी दूसरे नामों से पुकारा जाता है।
'पुण्य से ही सुख और दुःख दोनों हो जाएंगे, इस लिए पाप को मानने की कोई आवश्यकता नहीं। यह पन भी ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्य की कमी से ही दुःख नहीं बढ़ सकता । ऐसा मानने पर मुक्त जीवों को सब से अधिक दुःख होना चाहिए । दूसरी बात यह है, जैसे सुख अपने अनुकूल कर्मों के प्रकर्ष (अधिकता) से पैदा होता है उसी प्रकार दुःख की उत्पत्ति भी अपने अनुकूल कर्मों के प्रकर्ष से माननी चाहिए। यदि पुण्य के अपकर्ष मात्र से दुःख की उत्पत्ति मानी जाय तो अभीष्ट वस्तु की प्राति न होने पर ही दुःख होना चाहिए, किसी अनिष्ट की प्राप्ति पर दुःख न होना चाहिए। पुण्य की कमी से सुख की कमी हो सकती है दुःख की उत्पत्ति न होनी चाहिए। जैसे चक्रवर्ती श्रादि का शरीर पुण्य प्रकृति के उदय से होता है इसी प्रकार दुःखी प्राणी का शरीर पाप प्रकृति के उदय से होता है । इत्यादि युनियों से पुण्य से अलग पाप को मानना आवश्यक है।
इन्हीं युनियों को दूसरे पक्ष में लगाने पर पाप से अलग पुण्य की सिद्धि हो जाती है । इस लिए केवल पाप को मानने वाला दुसरा पक्ष भी ठीक नहीं है। - मन, वचन और कायारूप योगों की प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होता है। इनकी प्रवृत्तिदोतरह से होती है किसी समय शुभ, किसी समय अशुभा दोनों तरह की प्रवृत्तियाँ एक साथ नहीं हो सकतीं। शुभ प्राचि से शुभवन्ध होता है और अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ। शुभबन्ध को पुण्य तथा अशुभवन्ध को पाप कहा जाता है।
प्रश्न- 'एक समय में शुभ या अशुभ एक ही क्रिया होती है' यह कहना ठीक नहीं है। जो मनुष्य बिना विधि दान दे रहा है,
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
उपदेश दे रहा है, या मन में सोच रहा है उसको एक ही समय में शुभ और अशुभ दोनों क्रियाएं होती हैं।
५
उत्तर- व्यवहार जय की अपेक्षा ऐसे स्थान पर शुभाशुभ क्रिया मानी जा सकती है, किन्तु निश्चय नय की अपेक्षा वहाँ, एक समय में एक ही योग रहता है। योगों का शुभ या अशुभ होना परिणाम या भावों पर निर्भर है। बुरे भाव होने पर योग अशुभ हो जाता है और अच्छे भाव होने पर शुभ । ये दोनों भाव एक समय में एक साथ नहीं रह सकते, इस लिये शुभाशुभ योग भी कोई नहीं है। शास्त्र में भानयोग ही विशेष माना जाता है, द्रव्ययोग नहीं । जैसे कि मन में शुभ भाव आने से शुभमनोयोग होता है और अशुभ भाव आने से अशुभ मनोयोग कहा जाता है । वास्तव में मनोयोग शुभाशुभ नहीं है, किन्तु भावयोग के सम्बन्ध से द्रव्यमनोयोग शुभाशुभ हो जाता है। इसी लिए ध्यान के चार भेद बताए गए हैं। इन में से दो शुभ हैं और दो अशुभ | इसी प्रकार लेश्याओं में भी अन्तिम तीन शुभ हैं और पहली तीन अशुभ | ध्यान और लेश्या के शुभाशुभ होने से योग भी शुभाशुभ होता है । इस प्रकार पुण्य और पाप दोनों पृथक् पृथक् सिद्ध हो। जाते हैं। शुभ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त शुभ फल देने बाली कर्मप्रकृतियों को पुण्य कहते हैं । अशुभ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त तथा अशुभ फल देने वाली कर्मप्रकृतियों को पाप कहते हैं। शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करता हुआ जीव पुण्य या पाप के योग्य कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है । कर्म वर्गणा के पुद्गल न तो मेरु की तरह अतिस्थूल हैं और न परमाणु की तरह सूक्ष्म । जिस स्थान में जीव रहता है उसी स्थान में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है, दूसरे स्थान में रहे हुए पुद्गलों को नहीं । जैसे तेल की मालिश किए शरीर में धूल आकर चिपक जाती है उसी तरह रागद्वेष के कारण कर्मपुद्गल जीव से चिपक
1
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
जाते हैं । कर्मों को जीव अपने सभी प्रदेशों से ग्रहण करता है।
उपशमश्रेणी से गिरा हुआ जीव सादि मोहनीय आदि कर्मों को बाँधता है। जिस जीव ने किसी श्रेणी को नहीं प्राप्त किया है उसके कर्म अनादि होते हैं।
जिस प्रकार एक सरीखा होने पर भी गाय के द्वारा खाया हुआ आहार दूध के रूप में परिणत हो जाता है, और साँप के द्वारा खाया हुआ विष के रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार ग्रहण करने से पहले कर्मपुद्गल एक सरीखे होते हैं। शुभयोग पूर्वक प्रवृत्ति करने वालों के वे पुण्यरूप में परिणत हो जाते हैं और अशुभयोग पूर्वक प्रवृत्ति करने वालों के पापरूप में । अथवा जैसे एक ही शरीर में ग्रहण किया हुआ थाहार रक्त मांस आदि धातु तथा मल मूत्र
आदि निःसार पदार्थों के रूप में परिणत हो जाता है इसी प्रकार कर्मपुद्गल भी शुभ और अशुभ रूप में परिणत होते हैं। कर्मों की ४६ प्रकृतियाँ शुभ है, बाकी अशुभ हैं। सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, पुरुपवेद और रति ये चार प्रकृतियाँ किसी के मत से पुण्य में नहीं गिनी जाती,ऐसी दशा में पुण्य प्रकृतियाँ ४२ ही रह जाती हैं। इन्हें पुण्य में गिनने से पुण्य प्रकृतियाँ ४६ हैं। .
इस प्रकार पुण्य और पाप को मिला कर एक ही वस्तु मानने वाला पक्ष भी खण्डित हो गया, क्योंकि सुख और दुःख दोनों वस्तुएं भिन्न भिन्न हैं, इस से उनके कारण भी भिन्न भिन्न मानने पड़ेंगे। ___ इस प्रकार समझाए जाने पर अचलाता द्विजोपाध्याय का संशय दूर हो गया। वे भगवान महावीर के शिष्य हो गए और नवें गणधर कहलाए।
'(गा १९०५-१८४८) (१०) मेतार्यस्खामी-दर्शनार्थ आए हुए मेतार्यखामी को देख कर भगवान ने कहा-आयुष्मन् मेतार्य! तुम्हारे मन में यह संदेह
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
है किपरलोक है या नहीं ? तुम्हारा कहना है अगर जीव को पाँच. भौतिक माना जाय तब तो परलोक हो ही नहीं सकता। अगर भूतों से आत्मा को अलग माना जाय तो भी उत्पत्ति वाला होने से उसे अनित्य अर्थात् नश्वर मानना पड़ेगा।नवर होने से उसका शरीर के साथ ही नाश हो जायगा और परलोक गमन नहीं होगा। इस प्रकार मीपरलोक की सिद्धि नहीं होती। वर्ग और नरक के प्रत्यक्ष न दिखाई देने से उन्हें मानने में कोई प्रमाण नहीं है।
यह ठीक नहीं है। स्वर्ग,नरक तथा आत्मा की सिद्धि पहले की जा चुकी है। उसी तरह यहाँ भी समझ लेना चाहिए ।
शङ्का-आत्मा ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान क्षणिक है, इस लिए आत्मा को भी क्षणिक मानना पड़ेगा। यदि आत्मा को ज्ञान से मित्र माना जाय तो वह जड़ स्वरूप हो जायगा।
समाधान-सभी वस्तुएं उत्पाद, व्यय और धौम्य इन तीन गुणों वाली हैं। प्रात्मा के ज्ञानादि बदलते रहने पर भी चैतन्य ध व है। इस लिए उसका नाश नहीं होता । ज्ञान भी एकान्त क्षणिक नहीं होता, क्योंकि गुण है। इसी प्रकार संसार की सभी वस्तुएं नित्यानित्य हैं।
, इस प्रकार पहले कही हुई युक्तियों से समझाने पर मेतार्यस्वामी का संशय दर हो गया। वे भगवान के शिष्य हो गए और दसवें गणधर कहलाए ।
(गा० १६४६-१६७१) (११) प्रभास स्वामी- दर्शनों के लिए आए हुए प्रभास स्वामी को देख कर भगवान ने कहा-हे आयुष्मन प्रभास! तुम्हारे मन में संशय है कि निर्वाण है या नहीं? अगर निर्वाण होता है, तो क्या दीपक की तरह होता है? अर्थात् जैसे दीपक बुझने के बाद उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता, इसी तरह निर्वाण हो जाने पर प्रात्मा का अस्तित्व भी मिट जाता है। यह बौद्ध मान्यता है। बौदाचार्य अश्व
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
घोष ने इसे नीचे लिखे अनुसार बताया हैदीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो,
नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चित् विदिशंन काश्चित् ,
स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो,
नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशंन काञ्चित् विदिशं न काञ्चि
क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ अर्थात्-जैसे निर्वाण को प्राप्त हुआ दीपक न पृथ्वी को जाता हैन आकाश को । न किसी दिशा को जाता है न विदिशा को। तेल खतम हो जाने पर अपने श्राप शान्त हो जाता है। उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआजीवन पृथ्वी को जाता है न आकाश को, न किसी दिशा को न विदिशा को । क्लेश का क्षय हो जाने से अपने श्राप शान्त हो जाता है। ___ अथवा जैसे जैन मानते हैं अर्थात् राग, द्वप, मद, मोह, ज-म, जरा, रोग आदि दुःखों का क्षय हो जाना मोच है। इस मत में निर्वाण हो जाने पर भी जीव का अस्तित्व बना रहता है। ___ अथवा कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादि होने से वह अनन्त भी है। जो वस्तु अनादि होती है वह अनन्त भी होती है।
इन सन्देहों को दूर करने के लिए भगवान ने नीचे लिखेअनुसार कहना शुरू किया
कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादि होने पर भी छूट सकता • है, यह पहले सिद्ध किया जा चुका है। प्रदीप की तरह पाला का.
सर्वनाशमानना भी ठीक नहीं है। जैसे दूध पर्याय नष्ट होने परद्ध दही के रूप में परिणत हो जाता है, मुद्गर आदि के द्वारा नष्ट किया
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला हुमा घट कपाल (ठीकरें) रूप में बदल जाता है इसी प्रकार दीए की आग भी दूसरे रूप में बदल जाती है सर्वथा नष्ट नहीं होती, क्योंकि किसी वस्तु का सर्वथा नाश नहीं हो सकता।
शङ्का-यदि दीपक का सर्वथा नाश नहीं होता तो बुझाने के पाद दिखाई क्यों नहीं देता?
समाधान-प्रदीप के बुझ जाने पर वह अन्धकार के रूप में परिणत हो जाता है और अन्धकार के रूप में दिखाई भी देता है। बहुत सी वस्तुएं सूक्ष्म होने से नहीं भी मालूम पड़ती, जैसे विखरते हुए काले बादल या वायु में धीरे धीरे उड़ते हुए सूक्ष्म परमाणु । इस लिए किसी वस्तु की सूक्ष्म परिणति न दिखाई देने मात्र से उसे असत् नहीं कहा जा सकता । बहुत से पुद्गल विकार को प्राप्त होने पर दूसरी इन्द्रिय से ग्रहण किए जाते हैं। जैसे सोना पहले चक्षु इन्द्रिय से जाना जा सकता है । गलाने के बाद राख में मिल जाने पर केवल स्पर्श का विषय होता है। फिर भस्म से अलग कर देने पर चक्षु से जाना जा सकता है। इसी प्रकार नमक, गुड़
आदि बहुत से पदार्थ पहले चनु से जाने जा सकते हैं किन्तु शाक श्रादि में मिलने पर केवल रसनेन्द्रिय से जाने जाते हैं, इत्यादि पातों से मालूम पड़ता है कि पुद्गलों के परिणाम बहुत ही विचित्र हैं। पुद्गल सूक्ष्मता को प्राप्त होने पर बिल्कुल नहीं दिखाई देते। इस लिए किसी भी वस्तु का रूपान्तर हो जाने पर उसका सर्वथा नाश मानना ठीक नहीं है। दीपक भी पहले चक्षु इन्द्रिय से जाना जाता है, किन्तु बुझने पर प्राणेन्द्रिय से जाना जाता है। उसका सर्वथा समुच्छेद नहीं होता। इसी प्रकार जीव भी निर्वाण होने पर सिद्धस्वरूप हो जाता है उसका नाश नहीं होता। इस लिए जीव । के विद्यमान रहते हुए दुःखादि का नाश हो जाना मोक्ष है। । ।
साजीव के जन्म, जरा, व्याधि, मरण, इष्टवियोग, मरति,
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह, चौथा भाग ३ शोक, सुधा, प्यास, शीत, उष्ण, काम, क्रोध, मद, शाट्य, तृष्णा, राग, द्वेष, चिन्ता, उत्सुकता आदि समो दुःख नष्ट हो जाते हैं, इसलिए उन्हें परम मुख प्राप्त होता है जैसे वीतराग मुनि को। लकड़ी
आदि में ऊपर लिखी बातें न होने पर भी जड़ होने से उसे सुख का अनुभव नहीं होता, तथा मुक्त जीव अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होते हैं क्योंकि उनके आवरण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गये हैं। स्थिनः शीतांशुवज्जीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया ।
चन्द्रिकावच विज्ञानं, तवावरणमभ्रवत् ॥ अर्थात्-अपनी शुद्ध प्रकृति में रहा हुआ जीव चन्द्रमा के समान है उसका ज्ञान चॉदनी की तरह है और आवरण बादलों सरीखा है। स व्यावाधाभावात् सर्वज्ञत्वाच भवति परमसुखी। व्यावाधाभावोऽन्न स्वच्छंस्य ज्ञस्य परमसुखम् ॥ __ अर्थात्-किसी तरह की वाघा (अड़चन या इच्छा) न होने से जीव परम सुख वाला है । किसी प्रकार की बाधा तथा आवरण का न होना ही परम सुख है।
शङ्का-समी जीव इन्द्रियादि करणों द्वारा जानते हैं । मुक्त जीवों के करण न होने से उन्हें सर्वज्ञ नहीं मानना चाहिए।
समाधान-जानना वास्तव में प्रात्मा का स्वभाव है। ज्ञानावरणीय आदिकर्मों कापरदा पड़ा रहने के कारण संसारी जीव इन्द्रियों की सहायता के बिना नहीं जान सकते । मुक्त जीवों का परदा हट जाने के कारण वे आत्मज्ञान द्वारा संसार की सभी वस्तुओं को जानते हैं। उन्हें करणों की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्न-मुख का कारण पुण्य है और दुःख का पाप मुक्त आत्माओं को जैसे पाप नष्ट हो जाने के कारण,दुःख नहीं होता, उसी प्रकार पुण्य नष्ट हो जाने के कारण सुख भी नहीं होना चाहिए। फिर मोक्ष में अव्यावाध मुख का कहना मिथ्या है।
M
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
उचर-पुण्य से होने वाला सुख वास्तव में सुख नहीं है क्योंकि वह कर्मों के उदय से होता है और उन कमों के हट जाने पर नहीं होता। इसी लिए बड़े बड़े चक्रवर्ती या देव कोई भी संसारी जीव वास्तव में सुखी नहीं है।
शङ्का-यदि संसार में होने वाला सुख कर्मों के कारण वास्त. विक नहीं है तो संसार में होने वाला दुःख भी कर्मों के कारण नहीं मानना चाहिए । इस लिए स्वयं प्रात्मा द्वारा अनुभव किए जाने वाले सुख और दुःख को वास्तविक न कहना ठीक नहीं है।
समाधान-संसारी जीवों को वास्तव में सुख का अनुभव नहीं होता। जिस प्रकार भार ढोने वाला व्यक्ति थोड़ी देर के लिए भार हट जाने पर अपने को सुखी समझने लगता है, अथवा प्यासा पानी मिल जाने पर अपने को सुखी समझता है, इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी थोड़ा सा दुःख दूर होने पर अपने को सुखी समझने लगता है। उसे वास्तव में सुख कुछ नहीं है। मन में रही हुई काम वासना से एक तरह की बेचनी पैदा होती है और वह क्षण भर के लिए स्त्रीसम्भोग से शान्त हो जाती है तो मनुष्य उसे सुख समझने लगता है। यदि स्त्री का आलिङ्गन वास्तव में सुख देने वाला हो तो वासना रहित व्यक्ति को क्यों नहीं सुख देता । बालक या वृद्ध जिसके हृदय में वासना नहीं है उसके सामने स्त्री के विलास बिल्कुल फीके हैं। जो व्यक्ति किसी बीमारी से व्याकुल हो रहा है उसे कामिनियों की चेष्टाएं कड़वी लगती है, इस लिए संसार की किसी वस्त को वास्तव में सुख देने वाली नहीं कहा जा सकता। जैसे खुजली रोग वाला अपने अङ्ग को खुजलाने में सुख समझता है इसी प्रकार संसारी प्राणी अपनी इच्छाओं की क्षणिक तृप्ति में सुख मान लेते हैं। जैसे नाखून से खुजाने का परिणाम भयङ्कर खुजली होता है उसी प्रकार एक इच्छा को पूर्ण करने से नई नई इच्छाएं
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग
भयङ्कर रूप में खड़ी हो जाती है । इसलिए दुःख का कारण होने से क्षणिक तृप्ति भी दुःख ही है। अज्ञानी मनुष्य उसे सुख समझता है। जैसे अपथ्य भोजन खाने में स्वाद होने पर भी परिणाम में बुरा है इसी प्रकार सांसारिक सुख भी बुरे हैं।
वास्तविक सुख तभी होता है जब पुराना रोग विनकुल कट • जाय, नया पैदा होने के कारण न रहे। ऐसी अवस्था मोक्ष ही
है। वहॉ इच्छा, राग, द्वेष आदि सभी दुःख के कारण नष्ट हो जाते हैं और कर्म न होने से नवीन उत्पन्न नहीं होते । इस लिए वहीं पर दुःख का सर्वथा नाश और सुख का आत्यन्तिक लाभ होता है । जिस महापुरुष ने मानसिक विकारों को जीत लिया उसे तो यहाँ भी परम सुख प्राप्त है । देवों की विशाल ऋद्धि और चक्रवर्ती का विशाल साम्राज्य भी उसके सामने तुच्छ हैं। इसी लिए कहा हैनिर्जितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥
(प्रशमरति २३८ श्लोक) अर्थात् जिन्होंने मद और मदन (काम) को जीत लिया है, जो मन, वचन और काया के विकार से रहित हो गए हैं, जो सब आशाओं से परे हैं तथा समाधियुक्त हैं उन्हें इसी जन्म में मोच है।
जिस प्रकार आत्मा के अनन्तज्ञान गुण को ज्ञानावरणीय कर्म ढक देता है और चनु आदि इन्द्रियाँ घट पटादि के ज्ञान में सहायक होती हैं, इसी प्रकार आत्मा का अनन्त सुख रूप गुण पाप कर्मों द्वारा ढका रहता है। पुण्य कर्म समय समय पर क्षणिक सुखानुभव के लिए सहायक होते हैं। जिस प्रकार पूर्ण ज्ञान ज्ञानावरणीय के सर्वथा नाश होने पर ही होता है और फिर इन्द्रियादि करणों की आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार आत्मा को पूर्ण
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्धमाला सुख की प्राप्ति पाप कर्मों के सर्वथा नाश होने पर ही होती है और फिर पुण्य की अपेक्षा नहीं रहती। सिद्धावस्था में विषय सुख से विलक्षण परम सुख की प्राप्ति होती है । विषय सुखों में लिप्त प्राणी उस अनुपम सुख की कल्पना भी नहीं कर सकता। सिद्धों का सुख नित्य, अव्यावाध तथा वास्तविक होता है।
वेदपदों से भी यही सिद्ध होता है कि जीव जब अशरीर अर्थात् मुक्त हो जाता है तभी उसे दुखों से छुटकारा मिलता है। इस लिए यह सिद्ध हुआ कि निवांण अवस्था में जीव विद्यमान रहता है। राग, द्वेष आदि विकार तथा दुःख सर्वथा क्षीण हो जाते हैं और जीव उस समय परम आत्मीय आनन्द का अनुभव करता है।
इस प्रकार समझाने पर प्रभासस्वामी का संशय दूर हो गया। वे भगवान महावीर के शिष्य हो गए और ग्यारहवें गणधर कहताए।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा १५४६ से २०२४)
(हरिभद्रीयावश्यक टिप्पण) (समवायाग ११वा) ७७६- ग्यारह अंग
जिस प्रकार ब्राक्षण संस्कृति का आधार वेद, बौद्ध संस्कृति का त्रिपिटक और ईसाइयों का आधार वाइवल है उसी तरह जैन संस्कृति का प्राधार गणिपिटक या बारह अंगसूत्र हैं। नन्दीसत्र में अवज्ञान के चौदह भेद बताए गए हैं-उनमें तेरहवां अंग प्रविष्ट है। मुख्य रूप से अतज्ञान के दो भेद हैं-अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य । आचाराङ्ग आदि चारह अंगप्रविष्ट हैं। इनके अतिरिक्त सभी सूत्र भंग वाह्य गिने जाते हैं। जिस प्रकार पुरुष के शरीर में २ पैर २ जंघाएं, २ ऊरु, २ गावाई (पसवाड़े), २ वाहें, १ गरदन और १ सिर बारह अंग हैं उसी प्रकार श्रुतरूपी पुरुष के १२ अंग हैं। अथवा जिन शास्त्रों को तीर्थङ्करों के उपदेशानुसार गणधर भगवान् स्वयं रचते हैं, वे श्रगान कहे जाते हैं। गणघरों के अतिरिक्त
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग
६७
विद्या सम्पन्न आचार्यों द्वारा रचे गए शास्त्र अंगवा कहे जाते हैं। अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं- (१) श्राचाराङ्ग, (२) सूयगडांग, (३) ठायांग, (४) समवायांग, (५) विवाहपन्नत्ती (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती ), (६) नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा ), (७) उवासगदसाओ, (८) अंतगडदसाओ, (६) अणुत्तरोववाइनदस (१०) पहागरणाई (प्रश्नव्याकरण), (११) विवागसु (विपाक भूत), (१२) दिट्टिवाओ ( दृष्टिवाद ) 1
इनमें बारहवाँ दृष्टिवाद आज कल उपलब्ध नहीं है। दूसरे सूत्रों के भी कुछ अंश नहीं मिलते। नंदी सूत्र के अनुसार उनकी गाथा आदि की संख्या देकर उपलब्ध सूत्रों की विषयसूची दी जाएगी ।
( १ ) आचारांग – महापुरुषों के द्वारा सेवन की गई ज्ञान, दर्शन चारित्र आदि के श्राराधन करने की विधि को आचार कहते हैं। श्राचार को प्रतिपादन करने वाला आगम आचाराङ्ग कहा जाता है । नन्दी सूत्र के अनुसार इसका स्वरूप निम्न लिखित है । मुख्यरूप से इसमें साधुओं की चर्या से सम्बन्ध रखने वाली सभी शिक्षाएं हैं। वे इस प्रकार हैं
श्राचार - ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की श्राराधना के लिए किया जाने वाला विविध श्राचार।
गोचरी - भिक्षा ग्रहण करने की विधि । विनय-ज्ञान और ज्ञानी आदि की विनय भक्ति ।
विनेय-शिष्यों का स्वरूप और उनका आचार ।
भाषा-सत्या और असत्यामृषारूप भाषा का स्वरूप ।
भाषा - मृपा और सत्यामृषा (मिश्र) रूप श्रभाषा का स्वरूप । चरण- पाँच महाव्रत, दस प्रकार का श्रमण धर्म, सत्रह प्रकार का संयम,दस प्रकार का वैयावृत्य, नव बाढ़ ब्रह्मचर्य की, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बारह प्रकार का तप और चार कपायों का निग्रह धरण
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कहलाते हैं। करण-चार पिंडविशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावना, बारह मिक्खु पडिमा, पाँच इन्द्रियों का निरोध, पच्चीस प्रकार की पडिलेहणा, तीन गुप्तियाँ और चार अभिग्रह करण कहलाते हैं। यात्रा-संयमरूप यात्रा का पालन । मात्रा-संयम की रक्षा के लिए परिमित आहार लेना। वृत्ति-विविध अमिग्रहों को धार कर संयम की पुष्टि करना।
इन में कुछ विषयों का एक दूसरे में अन्तर्भाव होने पर भी. जहाँ जिसका प्रधान रूप से वर्णन है, वहाँ वह दुवारा दे दिया गया है।
प्राचार के संक्षेप से पाँच भेद हैं-(१) ज्ञानाचार(२) दर्शनाचार (३) चारित्राचार (४) तप आचार (५) वीर्याचार।
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप एक काल चक्र की अपेक्षा से आचाराङ्ग सूत्र की वाचनाएं परिमित हुई हैं। भूत और भविष्यत काल की अपेक्षा से अनन्त वाचनाएं हैं। उपक्रम आदि अनुयोग संख्यात हैं । प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में अनुयोग आता है इस. लिए श्राचारांग के संख्यात अध्ययन होने के कारण अनुयोग भी संख्यात हैं। संख्यात वेढ (एक प्रकार का छन्द) हैं। संख्यात श्लोक हैं।संख्यात नियुक्तियाँ हैं। संख्यात प्रतिपत्तियाँ (द्रव्यादि पदार्थों को स्वीकार करना अथवा पडिमा या अभिग्रह अङ्गीकार करना) हैं।
ज्ञान की अपेक्षा क्रिया का प्राधान्य होने से क्रियारूप प्राचार बताने वाला यह सत्र भी प्रधान है, इसी लिए यह पहला अंग है। अथवा शुद्ध आचार के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है, इसी लिए प्राचार का प्रतिपादक यह अंग पहले बताया गया है।
इसमें दो श्रुतस्कन्ध (अध्ययनों का समुदाय) हैं। पहले श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं और दूसरे में सोलह ।पचासी उद्देशे हैं।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग
प्रत्येक मध्ययन का नाम, उद्दशे और विषय नीचे लिखेअनुसार है
प्रथम श्रुतस्कन्ध पहला अध्ययन-शस्त्रपरिज्ञा। जीवों की हिंसा के कारण को शस्त्र कहते हैं। इसकेदो भेद हैं-द्रव्यशख और भावशस्त्र । तलवार आदि द्रव्यशस्त्र हैं और अशुभयोग भावशस्त्र हैं। इस अध्ययन में भावशखों की परिक्षा अर्थात् जानकारी है। परिक्षा दो तरह की होती है-ज्ञपरिना अर्थात् अशुभ योग प्रादि कर्मबन्ध के कारणों को जानना । प्रत्याख्यान परिज्ञा अर्थात् समझ कर उनका त्याग करना । पहले अध्ययन में सात उद्देशे हैं। एक अध्ययन में पाए हुए नवीन विषय के प्रारम्भ को उद्दश कहते हैं। (१)उ०-आत्मा तथा कर्मबन्धहेतु विचार। (२)उ०-पृथ्वीकाय की हिंसा का परिहार । दुख के अनुभव के लिए अन्धवधिर का दृष्टान्त । (३)उ०--अकाय की हिंसा का परिहार। (४)उ०-अग्निकाय की हिंसा का परिहार। (१)उ०-वनसतिकाय की हिंसा का परिहार । मनुष्य शरीर की समानता से वनस्पतिकाय में जीवसिद्धि । (६)
उ स जीवों की हिंसा का परिहार [प्रस जीवों की हिंसा
के कारण। ' (७)उ०-वायुकाय की हिंसा का परिहार।
दूसरा अध्ययन-लोक विजय । संसार और उसके कारणों पर विजय प्राप्त करना । इसमें छह उद्देशे हैं। (१)उ०-माता, पिता आदि लोक को जीत कर संयम पालना। (२)उ०-अरति टालकर संयम में दृढ़ रहना। (३)उ०—मान छोड़ना तथा भोगों से विरक्ति । (8)उ०:-भोगों से रोग की उत्पत्ति ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त चील संग्रह, चौथा भाग ' '
-
(५) विषयमोग छोड़कर जनता से आहार आदि, प्राप्त करना। (६)उ०--संयम के लिए लोक को ध्यान रखते हुए भी ममता न रखना। .
तीसरा अध्ययन-शीतोष्णीय।
सरदी गरमी या सुख दुःख की अधिक परवाह न करके सब जगह समभाव रखना । इसमें चार उद्देशे हैं(१)उ०-वास्तव में सोया हुआ कौन है ? (२)०-पाप का फल तथा हित उपदेश । (३)उ०-लज्जा आदि के कारण पाप का परिहार तथा परिषह सहने मात्र से कोई मुनि नहीं बनता। उसके लिए हृदय में संयम चाहिए। (४)उ०-कषायों का त्याग । __चौथा अध्ययन-सम्यक्त्व । इसमें चार उद्देशे हैं(१)उ०-सत्यवाद । (२)उ०-दूसरे मतों का विचार पूर्वक खण्डन । (३/30-तप का अनुष्ठान । - (४)उ०-संयम में स्थिर रहना। . , . ,
पाँचवाँ अध्ययन-लोकसार । इसमें छ: उद्देशे हैं(उ०प्राणियों की हिंसा करने वाला, विषयों के लिए प्रारम्भ में प्रवृत्त होने वाला और विषयों में आसक्ति रखने वाला मुनि नहीं हो सकता। (२)उद्देश-हिंसा आदि पापों से निवृत्त होने वाला ही मुनि कहा जा सकता है। (३)उ०-मुनि किसी प्रकार का परिग्रह न रखे तथा काममोगों की इच्छा भी न करें। (2)उ०-अव्यक्त (आयु और विद्या की योग्यता से रहित),
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग अगीतार्थ तथा सूत्रार्थ में निश्चय रहित साधु को अकेले विचरने में बहुत दोष लगने की सम्भावना है। . . (५)उद्देश-मुनि को सदाचार से रहना चाहिए । उसके लिए जलाशय का दृष्टान्त । (६)उद्देश-उन्मार्ग में न जाना तथा रागद्वप का त्याग करना।
छठा अध्ययन-धूत । पापकर्मों को धोना। इसमें पाँच उद्देशे हैं(१)उद्देश-खजन सम्वन्धियों को छोड़ करधर्म में प्रवृत्त होना । (२) उद्देश-कर्मों को आत्मा से दूर करना। (३) उद्देश मुनि को अल्प उपकरण रखने चाहिएं और जहाँ तक हो सके कायाक्लेश आदि करता रहे। .। (४) उद्देश-मुनि को सुखों में मूञ्छित नहीं होना चाहिए। ()उद्देश-मुनि को संकटों से डरना नहीं चाहिए और प्रशंसा सुन कर प्रसन्न न होना चाहिए । उपदेश के योग्य आठ बातें।
सातवाँ अध्ययन महापरिज्ञा । नन्दीसूत्र की मलयगिरिटीका और नियुक्ति के अनुसार यह आठवाँ अध्ययन है । इसमें सात उद्देशे हैं। यह अध्ययन विच्छिन्न हो गया है, आजकल उपलब्ध नहीं है। • आठवॉअध्ययन-विमोद या विमोह । संसार के कारणों को यां मोह को छोड़ना मलयगिरि टीका के अनुसार यह अंध्ययन सातवाँ है। इसमें आठ उद्देशे हैं- " (१)उ०-कुशालपरित्याग । लोक धू व है या अधू व ? (२) उ०-अकल्पनीय वस्तुओं का परित्याग। । (३)उ०-मिथ्या शंका का निवारण । परिषहों से न डरना। (४)उ०-मुनियों को कारणविशेप से वैखानसादि (फाँसी आदि) वालमरण भी करना चाहिए। (५)उ०---चीमार पड़ने पर मुनि को भक्त परिक्षा से मरना चाहिए। (६)उ०-- वैर्यवाले मुनि को इंगितमरण (नियभूमि) करना
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
चाहिए। (७)उ०-पादपोपगमन मरण । (८)उकालपर्याय से तीनों मरणों की विधि ।
नवाँ अध्ययन-इसमें चारउद्देशे हैं:- . (१)उ०-भगवान् महावीर स्वामी की विहारचर्या का वर्णन किया है जैसे कि तेरह महीने के पश्चात् देवघ्य वख का परित्याग, क्षुद्र जीवों द्वारा दिए गए अनेक कष्टों का सहन, छ: काय की रक्षा, उस स्थावर जीवों की गतागत पर विचार, कभी भी हिंसा कान करना, शुद्ध आहार का ग्रहण, परवस्त्र और परपात्र का अग्रहण, शीत और उष्ण परिसह का सहन, ईयो समिति और भाषासमिति पर अत्यन्त विवेक इत्यादि विषय वर्णित किए गये हैं। . (२)उ०-- बस्विविषय। श्रावेसन (शून्यगृह), सभा, प्रपा, पणीय शाला, सराय, पाराम (पाग), नगर, श्मशान, सूने घर, वृक्ष के मूल इत्यादि स्थानों में रात दिन यतना करते हुए अप्रमत्तभाव से विचरते थे। निद्रा से अभिभूत न होते हुए रात्रि को खड़े रह कर ध्यान करते थे। उक्त वस्तियों में अनेक प्रकार के सादिद्वारा किए गए कष्टों को सहन करते थे। भगवान् को अनेक पुरुष नाना प्रकार से पीड़ित करते थे। भगवान् मौन वृत्ति से प्रात्मध्यान में निमग्न रहते थे।कारणवशात् मैं भिन्नु हूँ इस प्रकार से बोलते थे। शीत आदि परिपह का सहन करते हुए विचरते थे। इस प्रकार वर्णन किया गया है। (३)उ०-परिषह सहन । तणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, दंशमशक स्पर्श, आक्रोश, वध इत्यादि परिषहों को सहन करते हुए विचरते थे। लाट देश की वजभूमि में नाना प्रकार के परिपहों को सहन किया। कुत्तों के परिवहों को सहन करते हुए तथा अनायों द्वारा केश लुचन होने पर भी ध्यान से विचलितन होतेथे। कठोर वचन के परिषह को सहन करते हुए शूरवीर हाथी की तरह परि
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ७३
पह रूपी संग्राम में जय विजय करते हुए विचरते थे । इत्यादि वर्णन किया गया है।
1
(४) उ०- तपश्चर्या । अनशन आदि तप करते हुए रोग की चिकित्सा न करते हुए, और न शरीर का शृङ्गार करते हुए मौन वृत्ति से विचरते थे। शीत उष्ण को सहन करते हुए सूर्य की आतापना लेते थे । औदन, मन्थु, कुल्माप (उड़द के वाकले आदि) इन तीन पदार्थों को मारा और अर्द्ध मास के पारणे में ग्रहण करते थे । मास, द्विमास, त्रिमास यावत् छः मास के पारणों में भी उक्त आहार को ही ग्रहण करते थे । तत्र को जानने वाले भगवान् महावीर ने छद्मस्थ चर्या (अवस्था) में आपने स्वयं पापकर्म नहीं किया, दूसरे से नहीं करवाया और करते हुए को भो भला न जाना । ग्राम और नगर में शुद्ध आहार के लिए किसी भी जीव का वृत्तिच्छेद न करते हुए आहार ग्रहण करते थे । मन्दगति से चलते हुए, हिंसा से निवृत्त होते हुए, जिस प्रकार का भी आहार मिलता था उससे ही निर्वाह करते थे। हढ़ासन लगा कर आत्मान्वेषण करते हुए ध्यान में लीन हो जाते थे । शब्दादि पदार्थों में मूच्छित न होते हुए कभी भी प्रमाद न करते थे इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है 1
दूसरा श्रुतस्कन्ध
इस श्रुतस्कन्ध में तीन चूलिकाएं हैं। पहली चूलिका में दस से सोलह तक सात अध्ययन हैं। दूसरी में सतरह से तेईस तक सात । तीसरी में २३ और २४ दो । अध्ययनों के नाम, उद्देशे और विषय नीचे लिखे अनुसार हैं :
पहली चूलिका ।
दसवाँ अध्ययन - पिंडेपणा । गोचरी के नियम तथा सदोष निर्दोष आहार का विवेचन । इसमें ग्यारह उद्दशे हैं
(१) उ० - मुनियों को कैसा श्राहार लेना चाहिये और कैसा
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
-
नहीं। गृहस्थ के घर में प्रवेश करने की विधि।। (२)उ०-मुनियों को अशुद्ध आहार नहीं लेना चाहिए। (३)उ०-जीमनवार आदि में जाने से हानि । (४)उ०-मुनि को जीमनवार में नहीं जाना चाहिए। (१)उ०-मुनि को कैसा आहार लेना और कैसा नहीं लेना चाहिए। (६)उ०-ग्राह्य और अग्राह्य आहार के लिए नियम । (७)उ०-कैसा आहार कैसे लेना चाहिए और कैसा आहार कैसे छोड़ना चाहिए। . (८)उ०-पानी, फल, फूल तथा दूसरे प्रकार का आहार लेने
और न लेने के नियम । (8)उ०-कैसा आहार लेना और कैसा न लेना चाहिए। (१०)उ०----आहार पानी लाने के लिए मुनि को कैसे वर्तना चाहिए। (१)उ०-मिले हुए आहार की सात शिक्षाएं। सात पिंडेपणाएं (अभिग्रह विशेष) और सात पानपणाएं। ___ ग्यारहवाँ अध्ययन-शय्या । ठहरने के स्थान और पाटलादि के लिए नियम । इसमें तीन उद्देशे हैं(१)उ०-वसति अर्थात् ठहरने के स्थान के दोष । (२)उ०-गृहस्थ के साथ मुनि के रहने पर दोष तथा नव प्रकार की वसति। (३)उ०-मुनि को कैसे स्थान में रहना चाहिए और कैसे स्थान में नहीं। शय्या (पाट, पाटला,मकाने आदि) की चार प्रतिज्ञाएं।
बारहवाँ अध्ययन-ईयो । मुनि के लिए गमनागमन तथा । विहार करने के नियम । इसमें भी तीन उद्देशे हैं - (१) उ0--विहार के नियमामुनि को नौका पर का पैठना चाहिए
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग । ७५ (२) उ०—नाव पर बैठने और नदी आदि पार करने की विधि । (३) ३०- विहार करने की विधि।
तेरहवाँ अध्ययन-भाषाजात । भाषा कितने प्रकार की है
तथा मुनि को कैसी भाषा बोलनी चाहिए । इसमें दोउद्देशे हैं(२) उ०-भाषा के सोलह वचन तथा चार प्रकार। (२) उ०-मुनि को कैसे बोलना चाहिए।
चौदहवाँ अध्ययन-वस्त्र पणा । इस में दो उद्देशे हैं(२)उ०-मुनि को कैसे और किस प्रकार के वस्त्र लेने चाहिए।' (२) उ०-वस्त्र सम्बन्धी आज्ञाएं। ___ पन्द्रहवाँ अध्ययन-पात्रेपणा । इसके भी दो उद्देशे हैं(१) उ०-पात्र कैसें और किस प्रकार लेने चाहिए । (२) उ०-पात्र विषयक आज्ञाएं। .
सोलहवाँअध्ययन-अवग्रह प्रतिमा। इसमें भी दोउद्देशे हैं(१) उ० –साधु के योग्य उपाश्रय देखना। (२) उ०-साधु के योग्य उपाश्रय देखने की विधि ।
दूसरी चूलिका इसके सभी अध्ययनों में एक एक उद्देशा है। सत्रहवाँ अध्ययन- स्थान । खड़े रहने के स्थान की विधि ।
अठारहवाँ अध्ययन-निशीथिका । अभ्यास करने के लिए कैसा स्थान अवलोकन करना चाहिए ।
उन्नीसवाँ अध्ययन-उच्चारपासवण । स्थंडिल के लिए कैसास्थान अवलोकन करना चाहिए। बीसवाँ अध्ययन- शब्द । मुनि को शब्द में मोहित नहीं होना
चाहिए।
इक्कीसवॉ अध्ययन-रूप । सुन्दर रूप देख कर मोहित न होना चाहिए।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
-
बाईसवाँ अध्ययन-परक्रिया। मुनि के शरीर में कोई गृहस्थ कर्म बन्ध करने वाली क्रिया करे तो कैसे वर्तना चाहिए। ।
तेईसवाँ अध्ययन-अन्योन्यक्रिया। मुनियों को आपस में होने वाली कर्मवन्धन की क्रियाओं में कैसे रहना चाहिए।
तीसरी चूलिका चोवीसवाँ अध्ययन-भावना । महावीर प्रभु का चारित्र तथा पाँच महाव्रतों की भावनाएं। पञ्चीसवाँ अध्ययन-विमुक्ति । हित शिक्षा की गाथाएं।
(२) सूयगडांग सूत्र दर्शन शास्त्र के विकास में सूयगडांग सूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका संस्कृत नाम 'सूत्रकृताङ्ग' या 'सूचाकृताङ्ग है। इसमें भगवान महावीर के समय में प्रचलित ३६३ मतों का सूत्ररूप से यो सूचनारूप से निर्देश किया गया है।
इसमें दोश्रुतस्कन्ध हैं। पहले श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन हैं और दूसरे में सात । इनमें निम्नलिखित विषयों का वर्णन है
प्रथम श्रस्कन्ध- पहला अध्ययन-विमिन्नवादों की चर्चा । (१)उ०-गाथा १--५ वन्ध तथा वन्धकारण। ६-८ भौतिकवादियों का मत । । ब्रह्मवाद । १० एकात्मवाद का खण्डन । १११२ दूसरे भौतिकवादी। १३ प्रक्रियावादी । १४ प्रक्रियावादियों का खण्डन । १५ वैशेषिकमत का प्रारम्भिक रूप । १६ द्रव्यों की नित्यता । १७ बौद्ध । १८ ज्ञानक (जानय)। (२)3०-गा० १-१६ भाग्यवाद और उसका खण्डन । १७ भौतिकवाद । २४ क्रियावाद । २५-२८ बौद्ध । (३)3०-गा०१-४ मुनि के लिए अग्राह्य आहार। ५-१०.पौराणिक । ११-१३ गोशालक के अनुयायी। १४ वैनयिक । (४)3०-- बहुत से प्रचलित मत । उपसंहार।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धा-त गेल संग्रह, चौथा भाग
दूसरा अध्ययन-कर्मनाश। इसके तीन उद्देशे हैं। तीनों में कर्मों को नष्ट करने का उपाय बताया गया है।
तीसरा अध्ययन-मित्रुजीवन के विन। इसमें चार उद्दशे हैं। इनमें दुःखों का वर्णन है। (१)उ०-साधु पर आने वाले कष्ट । (२)उ०-साधु किस तरह गृहस्थ जीवन की ओर आकृष्ट किया जाता है। (३)3०-साधु किस तरह फिसल जाता है। साधु को समान समाचारी वाले रोगी की भोजन आदि से सेवा नहीं करनी चाहिए, इस बात का खण्डन। (४)उ०-विरोधों का परिहार।
चौथा अध्ययन-स्त्रीप्रसंग। इसमें दोउद्देशे हैं और स्त्रीचरित्र का वर्णन है। (१)उ०-त्रियों साधु को कैसे फुसलाती हैं । (२)उ०-बाद में उसके साथ कैसा बर्ताव करती हैं।
पाँचवॉ अध्ययन–पाप का फल । इसमें दो उद्देशे हैं, दोनों में नरक तथा उसके दुःखों का वर्णन है।। ___ छठा अध्ययन-भगवान् महावीर । इसमें भगवान् महावीर की स्तुति है।
सातवाँ अध्ययन-अधर्मियों का वर्णन । पापों का वर्णन। जीव हिंसा का त्याग । यज्ञ तथा अनि में होम आदि कार्यों की व्यर्थता । साधु को स्वार्थी न होना चाहिए।
आठवॉअध्ययन-सच्ची वीरता। कायक्लेश, अकाम निर्जरा ।
नवॉ अध्ययन-धर्म संयम । साधु को किन बातों से अलग हना चाहिए।
दसवाँ अध्ययन,-समाधि । जयणा का स्वरूप । साधु को क्या
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
करना चाहिए और क्या न करना चाहिए।
ग्यारहवाँ अध्ययन-मोक्षमार्ग । मार्ग की यतना।
चारहवाँ अध्ययन-वादियों की चर्चा । मतों का वर्णन । चार मतों का स्वरूप । भूतवाद, विनयवाद, अक्रियावाद और क्रियावाद ।
तेरहवाँ अध्ययन-कुछ स्पष्ट बातें । साधु के कुछ कर्तव्य । चौदहवाँ अध्ययन-~-ज्ञान कैसे प्रास करे।निर्ग्रन्थों का स्वरूप। पन्द्रहवाँ अध्ययन-उपसंहार,यमक,विविध पातों का निरूपण ।
सोलहवाँ अध्ययन-गाथाएं । सच्चे साधु का गुण कीर्तन । द्वितीय श्रुतस्कन्ध-प्रथम अध्ययन-पुंडरीक । कमल की उपमा । विविध भौतिकवादी । वैशेषिक दर्शन के प्रारम्भिक रूप को मानने वाले । वेदान्ती। नियतिवादी। सत्य मार्ग को अपनाने के लिए उपदेश।
द्वितीय अध्ययन-तेरह क्रियास्थान । तेरह प्रकार से किया जाने वाला पाप । दोष रहित क्रिया। कुछ पाप क्रियाएं । साधु तथा श्रावक का चारित्र । ३६३ मतों का खण्डन । उपसंहार।
तृतीय अध्ययन-आहार विचार राजीवोत्पत्ति के स्थान अर्थात सृष्टिविकास तथा विविध भेद ।
चौथा अध्ययन-प्रत्याख्यान | दुनियों के कामों से छुटकारा पाना। -
पाँचवाँ अध्ययन-सदाचार घातक मान्यताएं । भूलों से छुटकारा पाना। ___ छठा अध्ययन-पाक कुमार । पाक मुनि का गोशालक आदि के साथ संवाद । इसी तरह बौद्ध, वैदिक, बामण, वेदान्ती
और हस्तितापस का खण्डन । ___ सातवाँ अध्ययन-नालन्द । उदकमुनि जो भगवान् पार्श्वनाथ का शिष्यानुशिष्य था, उसका भगवान् महावीर के शासन
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
७६
-
में आना।
(३) श्री ठाणांग सूत्र ठाणांग या स्थानांग सूत्र तीसरा अंग है। इसमें जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसिद्धान्त, पर सिद्धान्त, स्वपरसिद्धान्त, लोक, अलोक, लोकालोक तथा पर्वत, द्वीप, हृद आदि भौगोलिक वस्तुओं का वर्णन है। इसमें एक भ्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशे तथा इकीस समुद्दशे हैं। ठाणांग सूत्र में विषयों की व्यवस्था उनके भेदों के अनुसार की गई है, अर्थात् समान संख्याक मेदों वाले विषयों को एक ही साथ रक्खा है । एक भेद वाले पदार्थ पहले अध्ययन में हैं। दो मेदों वाले दूसरे में । पदार्थों को ठाण या स्थान शब्द से कहा गया है। इसी प्रकार दस भेदों तक के दस अध्ययन हैं। इसके विपयों की सूची नीचे लिखे अनुसार है:
पहला अध्ययन । एक मेद वाले पदार्थ आत्मा,दण्ड, क्रिया, लोक, अलोक, धर्म, अधर्म, बन्ध, मोत, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, प्रत्येक शरीर में जीव, भवधारणी विक्रिया, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, उत्पाद, व्यय, मृत आत्मा का शरीर, गति, आगति, च्यवन, उपपात, तर्क, संज्ञा, बुद्धि, (आलोचन), विज्ञ, वेदना, छेदना, मेदना, चरमशरीरियों की मृत्यु, संशुद्धि तथा दुख, अधर्मप्रतिमा, धर्मप्रतिमा, देव, असुर और मनुष्यों का मन, उत्थान, कर्म, वल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, समय, प्रदेश, परमाणु, सिद्धि, सिद्ध, निर्वाण, निवृत्ति, शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, सुशब्द, दुःशब्द, सुरूप, कुरूप, दीर्घ, हस्व, वृत्त (गोल), न्यस्त्र, (त्रिकोण). चतुरस्र (चतुकोण), पृथुल (मोटा), परिमंडल, कृष्ण, नील, लोहित (लाल), हारिद्र (पीला), शुक्ल, सुगन्ध, दुर्गन्ध, तिक्त (तीता), कडा, कपायला, आम्ल (खट्टा), मीठा यावत् कठोर, रूक्ष । प्राणातिपात
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
. श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
आदि परिग्रह पर्यन्त, क्रोध, मान, माया, लोभ । राग, द्वेषयावत् परपरिवाद । रति अति, मायामृषा, मिथ्यादर्शन शल्य । प्राणातिपात आदि से विरमण | क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक का विवेक । अवसर्पिणी, सुषमसुषमा आदि आरे, उत्सर्पिणी, दुषमदुषमा आदि धारे। नारकी से लेकर वैमानिक तक २४ दण्डकों में प्रत्येक की एक वर्गणा, भवसिद्धि, अभवसिद्धि, भवसिद्धि नारकी आदि वैमानिक तक की वर्गणा, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि जीवों की वर्गणा, सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि आदि नारकी जीव, कृष्णपक्षी, शक्रपक्षी, कृष्णलेश्या, नीललेश्या,
यावत् शुक्ललेश्या वाले जीव, नारकी आदि जीवों में लेश्या, । कृष्ण लेश्या और तीनों दृष्टियाँ, इसी प्रकार आठ प्रकार से २४
दंडकों की वर्गणा | तीर्थसिद्ध यावत् अनेकसिद्ध, प्रथम समय सिद्ध यावत् अनन्त समय सिद्ध, परमाणपुद्गल यावत् अनन्तप्रादेशिकस्कन्ध, एक प्रदेशावगाढ यावत् असंख्यात प्रदेशावगाढ, एक समय स्थिति वाले यावत् असंख्यात समय स्थिति वाले, एक गुणकाल यावत् असंख्यात गुणकाल तथा अनन्तगुणकाल वाले पुद्गलों की वर्गणा, इसी तरह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि वाले पुद्गल, जघन्य प्रदेशों वाले स्कन्ध, जघन्य, उत्कृष्ट प्रदेशों वाले स्कन्ध, मध्यम प्रदेशों वाले स्कन्ध, जघन्य उत्कृष्ट तथा मध्यम अवगाहना वाले, जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट स्थितिषाले,जघन्य,मध्यम तथा उत्कृष्ट काल वाले इसी प्रकार जघन्य वर्णादि वाले, पुद्गलों की वर्गणा । जम्बूद्वीप और सभी द्वीप समुद्रों की परिधि, अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर, अनुत्तरोपपतिक देवों की ऊँचाई एक रत्नि प्रमाण । एक तारें वाले नक्षत्र, एक प्रदेशावगाढ, एक समय स्थिति वाले, एक गुण काल वाले यावत् एक गुण रूखे अनन्त पुद्गल ।
दसरा अध्ययन (द्विस्थानक)-लोक में दो पदार्थ-जीव,
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसमह, चौथा भाग
८१
अजीव । त्रस, स्थावर । सयोनिक अयोनिक । सायु, निरायु । सेन्द्रिय, अनिन्द्रिय । सवेदक, अवेदक । सरूप, अरूप । सपुद्गल, अपुद्गल । संसारी, सिद्धाशाश्वत, अशाश्वत। आकाश, नोआकाश । धर्म, अधर्मीवन्ध, मोनापुण्य, पापाआश्रव, संवररावेदना, निर्जरा। दो जीव क्रियाएं- सम्यक्त्रक्रिया, मिथ्यात्वक्रिया। दो अजीव क्रियाएं-ईविहिकी, साम्परायिकी । दो क्रियाएं कायिकी, आधिकरणिकी। कायिकी के दो भेद-अनुपरतकायक्रिया, दुष्प्रयुक्तकायक्रिया। प्राधिकरणिकी के दो भेद-संयोजनाधिकरणिकी, निर्वतनाधिकरणिकी। दो क्रियाएं- प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी । प्राद्वपिकी के दो भेद-जीवप्रापिकी, अजीवप्राद्व पिकी पारितापनिकी के दो भेद- स्वहस्तपारितापनिकी, परहस्तपारितापनिकी। दो क्रियाएं-प्राणातिपातक्रिया, अप्रत्याख्यानक्रिया । प्राणातिपातक्रिया के दोमेद-स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया, परहस्तप्राणातिपातक्रिया । अप्रत्याख्यानक्रिया के दो भेद-जीव अप्रत्याख्यानक्रिया, अजीव अप्रत्याख्यानक्रिया।दो क्रियाएं-प्रारम्भिकी, पारि
ग्रहिकी। प्रारम्भिकी के दो भेद-जीवारम्भिकी, अजीवारम्भिकी। .इसी तरह पारिग्रहिकी के भी दो भेद हैं। दो क्रियाएं-मायाप्रत्यया, मिथ्यादर्शनप्रत्यया । मायाप्रत्यया के दो भेद-पात्लभाववञ्चनता, परभाववञ्चनता। मिथ्यादर्शनप्रत्यया के दो भेद-ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया, तद्व्यतिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया । दो क्रियाएंदृष्टिजा, पृष्टिजा । दृष्टिना के दो भेद-जीवदृष्टिजा, अजीवदृष्टिजा। इसी तरह पृष्टिजा के दो भेद हैं। दो क्रियाएं-भातीत्यिकी, सामन्तोपनिपातिकी। प्रातीस्यिकी के दो भेद-जीवप्रातीत्यिकी,अजीवपातीत्यिकी । इसी तरह सामन्तोपनिपातिकी के दो भेद हैं। दो क्रियाएं-स्वाहस्तिकी, नैसृष्टिकी । स्वाहस्तिकी के दो भेद-जीव स्वाहस्तिकी, अजीवस्खाहस्तिकी । इसी तरह नैसृष्टिकी के दो भेद
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
---
हैं | दो क्रियाएं - आज्ञापनी, वदारिणी । स्वाहस्तिकी की तरह प्रत्येक के दो भेद हैं | दो क्रियाएं - अनाभोगप्रत्यया, अनवकांक्षाप्रत्यया । श्रनाभोगप्रत्यया के दो भेद - अनायुक्तादानता, अनायुक्तप्रमार्जनता । अनवकांक्षाप्रत्यया के दो भेद - आत्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया, परशरीरानवकांक्षाप्रत्यया । दो क्रियाएं - रागप्रत्यया, द्वेषप्रत्यया । रागप्रत्यया के दो भेद - मायाप्रत्यया, लोभ प्रत्यया । द्वेषप्रत्यया के दो भेद — क्रोध, मान ।
ग के दो मेद-मन से, वचन से, अथवा दीर्घ काल तक ग, थोड़े काल तक गर्दा । प्रत्याख्यान के दो भेद - मन से, वचन से, अथवा दीर्घ काल तक के लिए, अल्पकाल के लिए । संसार सागर को पार करने के दो मार्ग — ज्ञान, चारित्र । आरम्भ और परिग्रह रूप दो बातों का त्याग किए बिना आत्मा केवली के धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता, उसे समझ नहीं सकता, शुद्ध दीक्षा का पालन नहीं कर सकता, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता, संयम नहीं पाल सकता, संवर नहीं कर सकता अर्थात नए कर्मों के आगमन को 'नहीं रोक सकता, मतिज्ञान आदि पाँच ज्ञानों को प्राप्त नहीं कर संकता, इन्हीं दो बातों का त्याग करके जीव ऊपर लिखी ग्यारह बातों को प्राप्त कर सकता है । दो काल -- उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी । दो उन्माद - यचावेश से होने वाला और मोहनीय कर्म के उदय से होने ' वाला, इन दोनों का भेद । दो दंड-अर्थदंड, अनर्थदंड | दो दर्शनसम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन । दो सम्यग्दर्शन --- निसर्गसम्यग्दर्शन, अभिगमसम्यग्दर्शन । निसर्गसम्यग्दर्शन के दो भेद - प्रतिपांती, श्रप्रतिपाती । अभिगमसम्यग्दर्शन के दो भेद - प्रतिपाती, अप्रतिपाती । मिथ्यादर्शन के दो भेद - श्रभिग्रहिक मिथ्यादर्शन, अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन । श्रभिग्रहिकमिध्यादर्शन के दो भेद - सपर्यव - सित, पर्यवसित | इसी तरह अनाभिग्रहिक के भी दो भेद हैं । दो
।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग
३
ज्ञान-प्रत्यक्ष, परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद-केवलज्ञान, नो केवलज्ञान । केवलज्ञान के दो भेद-भवस्थकेवलज्ञान, सिद्धकेवलज्ञान । भवस्थकेवलज्ञान के दो भेद-~सयोगिमवस्थकेवलज्ञान, अयोगि भवस्थकेवलज्ञान । सयोगिभवस्थकेवलज्ञान के दो भेद-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान, अप्रथमसमयसयोगिमवस्थकेवलज्ञान, अथवा चरमसमय और अचरमसमय के भेद से भी प्रत्येक के दो भेद हैं । अयोगिभवस्थकेवलज्ञान के भी इसी प्रकार भेद हैं। सिद्धकेवलज्ञान के दो भेद-अनन्तरसिद्धकेवलज्ञान, परम्परासिद्धकेवलज्ञान | अनन्तरसिद्धकेवलज्ञान के दो भेद- एकानन्तरसिद्धफेवलज्ञान, अनेकानन्तरसिद्धकेवलज्ञान । परम्परासिद्धकेवलज्ञान के दो भेद है- एकपरम्परासिद्धकेवलज्ञान, अनेकपरम्परासिदूधकेवलज्ञान । नोकेवलज्ञान के दो भेद- अवधिज्ञान, मनम्पर्ययज्ञान | अवधिशान के दो भेद-भवप्रत्यय, क्षयोपशमनिमित्त । भवप्रत्यय वाले जीवों के दो भेद-देव, नारकी। योपशमनिमित्त वालों के दो भेद-मनुष्य, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च । मन पर्यायज्ञान के दो मेद- जुमति, विपुलमति । परोक्षज्ञान के दो भेद-पतिज्ञान, श्रुतज्ञानामतिज्ञान के दो भेद-श्रुवनिम्सृत, अश्रुतनिःसृत । श्रुतनिःसृत के दो भेद-अर्थावग्रह, व्यञ्जनावग्रह । अश्रु तनिःसृत के भी इसी तरह दो भेद हैं । श्रुतज्ञान केदो भेद-अंगप्रविष्ट, अंगवाह्य । अंगवाह्य केदो भेद-आवश्यक, श्रावश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यकव्यतिरिक्ष के दो मैद-कालिक, उत्कालिक । धर्म के दो मेदश्रुतधर्म, चारित्रधर्म।श्रुतधर्म के दो भेद-सूत्रतधर्म,अर्थश्रु तधर्म। चारित्रधर्म के दो भेद-आगारचारित्रधर्म, अनागारचारित्रधर्म । संयम के दो भेद-सरागसंयम, चीतरागसंयम | सरागसंयम के दो भेद-सूक्ष्मसम्परायसरागसंयम, वादरसम्परायसरागसंयम । सूक्ष्मसम्परायसरागसंयम के दो मेद- प्रथमसमयसूक्ष्मसम्पराय
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
सरागसंयम, अप्रथमसमयसूक्ष्मसम्परायसरागसंयम, अथवा चरमसमयः, अचरमसमय०, अथवा संक्लिश्यमान, विशुध्यमान । बादरसम्परायसरागसंयम के दो मेद-प्रथमसमयवादर०, अप्रथम समयवादर०, अथवा चरमसमय०, अचस्मसमय०, अथवा प्रतिपाती, अतिपाती । वीतरागसंयम के दो भेद-उपशान्तकषायवीतरागसंयम, क्षीणकपायवीतरागसंयम । उपशान्तकषायवीतरागसंयम के दो भेद-प्रथमसमयउपशान्त०, अप्रथमसमयउपशान्त अथवा चरमसमय०, अचरमसमय० । क्षीणकषायवीतरागसंयम के दो मेद:- छमस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम, केवलिक्षीणकषाय वीतरागसंयम । छमस्थक्षीणकषायवीतरागसंयम के दो मेद-स्वयम्बुद्धछयस्थ, बुद्धबोधितछमस्थ । स्वयम्बुद्धछमस्थ के दो भेद -- प्रथमसमय०, अप्रथमसमय, अथवा चरमसमय, अचरमसमय० । केवलिक्षीणकषायवीतरागसंयम के दो मेद---सयोगिकेवलिक्षीणकषाय, अयोगिकेवलिक्षीणकषाय । सयोगिकवलिक्षीणकषाय
संयम के दो भेद-- प्रथमसमय०, अप्रथमसमय०, अथवा चरम • समय०,अचरमसमय अयोगिकेवलिक्षीणकषायसंयम के दो भेदप्रथमसमय०, अप्रथमसमय०, अथवा चरमसमय०, अचरमसमय।
पृथ्वीकाय के दो मेद-सूक्ष्म, वादर। इसी तरह वनस्पतिकाय तक प्रत्येक के दो मेद है, अथवा पर्याप्तक, अपर्याप्तका परिणत, अपरिणत, गतिसमापन, अगतिसमापन, अनन्तरावगाढ, परम्परावगाढ इस प्रकार भी दो दो भेद हैं। परिणत, अपरिणत आदि मेद द्रव्य के भी हैं। काल के दो भेद- उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी। आकाश के दो मेद-लोकाकाश, अलोकाकाश।
नारकी, देव, पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, तिर्यश्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य वथा विग्रहगति वाले जीवों के दो शरीर-आभ्यन्तर, बाहय । प्रत्येक की व्याख्या।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ८५ नारकी आदि जीवों की शरीरोत्पत्ति तथा शरीर निवर्तन के दो कारण-राग, द्वेप। दो काय-सकाय, स्थावरकाय त्रसकाय के दो भेद-भत्रसिद्धिक, अभवसिद्धिक । इसी तरह स्थावर काय के भी दो भेद हैं। पूर्व और उत्तर इन दो दिशाओं की तरफ मॅह करके साधु साध्वी को प्रवज्या श्रादि १७ बातें करनी चाहिए।
द्वितीय स्थान (२) उद्देश-देव, नारकी आदि २४ दण्डकों के जीव सुख, दुःख आदि भोगते हुए जो पाप करते हैं उसका फल उस गति में भी भोगते हैं, दूसरी गति में भी। नारकी जीव मर कर दो गतियों में उत्पन्न होते हैं तथा दो गतियों से आते हैं-मनुष्य, तिर्यश्च । इसी प्रकार देवों की गतागत भी जाननी चाहिए । पृथ्वीकाय आदि मनुष्य पर्यन्त गतागत ।
नारकी श्रादि सभी जीवों के १६प्रकार से दो दो मेदादो प्रकार से आत्मा अधोलोक, तिर्यग्लोक, ऊर्ध्व लोक तथा केवलकल्पलोक को जानता देखता है- समुद्घात में, बिना समुद्घात के अथवा विक्रिया से, विना विक्रिया के । दो स्थानों से आत्मा शब्द आदि सुनता है-देश से, सर्वरूप से । इसी तरह रूप, रस और गन्ध के विषय में भी जानना चाहिए। दो स्थानों से आत्मा प्रकाशित होता है- देश से, सर्व से। इसी प्रकार मासित होना आदि नौ वाते हैं। दो स्थानों से शब्द सुनता है-देश से, सर्व से। देवों के दो भेद-एक शरीर वाले और दो शरीर वाले।
द्वितीय स्थान (३) उद्देश-शब्द केदो भेद-भाषाशब्द, नोभाषाशब्दामापाशब्द के दो भेद-अक्षरसम्बद्ध, नोअक्षरसम्बद्ध। नोमापाशब्द के दो भेद-पातोयशब्द, नोआतोध शब्द । आतोद्यशब्द के दो भेद- तत, वितत । तत के दो भेद-घन, शुपिर । इसी तरह वितत के दो भेद हैं। नोमातोय शब्द के दो भेद-भूषणशब्द, नोभूषणशब्द। नोभूषणशब्द के दो भेद-तालशब्द, कास्य
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
८६
शब्द | शब्द की उत्पत्ति के दो कारण हैं- पुद्गलों का संघात होना, अलग होना ।
पुद्गलों का संघात दो कारण से होता है - स्वयमेव, पर निर्मित से। इन्हीं दो कारणों से पुद्गलों का भेद, पतन, गलन या विनाश होता है । बारह प्रकार से पुद्गलों के दो दो भेद हैं-भेद वाले, विना भेद वाले । नाशस्वभाव वाले, बिना नाशस्वभाव वाले । परमाणु पुद्गल, नो परमाणु पुद्गल । सूक्ष्म, वादर । वद्धपार्श्वस्पृष्ट, नोबद्धपार्श्वस्पृष्ट । पर्यायातीत, अपर्यायातीत । श्रत, अनात्त । इष्ट, अनिष्ट | कान्त, कान्त । प्रिय, अप्रिय । मनोज्ञ, अमनोज्ञ । मणाम, श्रमणाम। शब्द के दो भेद - आत्त, अनात्त । यावत् मणाम, अमणाम । इसी प्रकार रूप, रस, गंध, स्पर्श के भी भेद जानने चाहिए ।
7
श्राचार के दो मेद -- ज्ञानाचार, नोज्ञानाचार । नोज्ञानाचार के दो भेद - दर्शनाचार, नोदर्शनाचार । नोदर्शनाचार के दो भेदचारित्राचार, नोचारित्राचार। नोचारित्राचार के दो भेद - तपाचार, वीर्याचार | दो पडिमाएं - समाधिपडिमा, उपधानपडिमा अथवा विवेकपडिमा, व्युत्सर्गपडिमा । अथवा भद्रा, सुभद्रा, अथवा महाभद्रा, सर्वतोभद्रा, अथवा क्षुद्रमोकप्रतिमा, महती - मोकप्रतिमा, . अथवा यवमध्यचन्द्रप्रतिमा, वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा । सामायिक के दो भेद - श्रगार सामायिक, अनगार सामायिक |
•
उपपात जन्म के दो स्थान --- देव, नारकी । उद्वर्तना के दो स्थान नारकी, भवनवासी देव । च्यवन के दो स्थान - ज्योतिषी, वैमानिक देव । मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यश्च इन दो स्थानों में पाई जाने वाली १२ बातें - गर्भोत्पत्ति, गर्म में रहते हुए आहार, गर्म में वृद्धि, झास, विकुर्वया, गतिपर्याय, समुद्घात, कालसंयोग, आयाति (गर्म से निकल जाना), मरण, चर्मवाला शरीर और शुक्र शोणित से उत्पत्ति । दो प्रकार की स्थिति -- कायस्थिति, भवस्थिति । का
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग
७
-
स्थिति के दो स्थान-मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च । भवस्थिति के दो स्थान-देव, नारकी। आयु के दो भेद-श्रद्धायु, भवायु । अद्धायु के दो स्थान-मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च । भवायु के दो स्थान-देव, नारकी। कर्म के दो भेद-प्रदेशकम, अनुमावकर्म । दो गति वाले जीव पूरी आयु प्राप्त किए बिना नहीं मरते-देव, नारकी । दो गतियों में आयु का अपवर्तन होता है अर्थात् वीच में भी टूट जाती है यानी अकाल में मृत्यु हो जाती है-मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च ।
जम्बूद्वीप में क्षेत्र, देव तथा अन्य वस्तुएं।
भरत और ऐरावत में सुषम दुषमा नामक भाग दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। सुपमा आरे में मनुष्यों की अवगाहना दो कोस की होती है और दो पल्योपम की पूर्णायु । इसी तरह दो संख्या वाले वास, क्षेत्र, हद, जीव आदि।।
जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र, दो सूर्य आदि सभी ग्रह, नक्षत्रों के नाम ।
जम्बूद्वीप की वेदिका दो कोस ऊँची है लवणसमुद्र का चक्रवान विष्कम्म दो लाख योजन है। लवण समुद्र की वेदिका दो कोस ऊँची है। धातकी खंड का वर्णन, उसमें पर्वत, हृद, कूट, वास आदि । इसी तरह पुष्कराई का वर्णन। ___ असुरकुमारों के दो इन्द्र-चपर, वली । नागकुमारों के दो इन्द्रधरण, भूतानन्द । सुपर्णकुमारों के दो इन्द्र-वेणुदेव, वेणुदारी । विद्युत्कुमारों के दो इन्द्र-हरि, हरिसह । अग्निकुमारों के दो इन्द्रअग्निशिख, अग्निमाणव ।द्वीपकुमारों के दो इन्द्र-पुण्य, विशिष्ट । उदधिकुमारों के दो इन्द्र-जलकान्त, जलप्रभ । दिशाकुमारों के दो इन्द्र-अमितगति, अमितवाहन । वायुकुमारों के दो इन्द्रवेलम्ब, प्रभजन । स्वनितकुमारों के दो इन्द्र-घोष, महाघोष । पिशाचों के दो इन्द्र-काल, महाकाल । भूतों के दो इन्द्र-मुरूप, प्रतिरूप । यक्षों के दो इन्द्र-पूर्णभद्र, मणिभद्र । राक्षसों के दो
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्धमाला
इन्द्र- भीम, महाभीम। किमरों के दो इन्द्र-किनर, किम्पुरुष । किम्पुरुषों के दो इन्द्र-सत्पुरुष, महापुरुष। महोरगों के दो इन्द्रअतिकाय, महाकाय । गन्धवों के दो इन्द्र-गीतरति, गीतयशा । अन्नपाणकों के दो इन्द्र-सन्निधि, सामान्य । पानपणिकों के दो इन्द्र-धाता, विधाता । ऋषिवादियों के दो इन्द्र-ऋषि, ऋषिपालक । भूतवादियों के दो इन्द्र-ईश्वर, महेश्वर । कन्द नामक देवों के दो इन्द्र-सुवत्स, विशाल । महाकन्द देवों के दो इन्द्र--हास्य, हास्यरति । कुहएड देवों के दो इन्द्र-श्वेत, महाश्वेत । प्रेतों के दो इन्द्र-प्रेत, प्रेतपति। ज्योतिषी देवों के दो इन्द्र-चन्द्र, सूर्य सौधर्म और ईशानकल्प में दो इन्द्र-शक्र, ईशान । इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में दो इन्द्र- सनत्कुमार, माहेन्द्र । ब्रह्मदेवलोक और लान्तककल्प में दो इन्द्र-ब्रह्म, लान्तक । महाशुक्र, और सहस्रार कल्प में दो इन्द्र-महाशुक्र, सहस्रार । श्रानत, प्राणत और पारण, अच्युत कल्पों में दो इन्द्र-प्राणत, अच्युत । महाशुक्र और सहस्रारकल्प में विमानों के दो रंग है-पीत, श्वेत । अवेयक देवों की ऊँचाई दो रलियाँ होती हैं।
। द्वितीय स्थान (४)उद्देश-समय से लेकर सागरोपम तक-काल, ग्राम, नगर, नियम, राजधानी आदि निवासस्थान, छाया, धूप, प्रकाश, अन्धकार प्रादि सब जीव तथा अजीव दोनों कहे जाते हैं। . दो राशि-जीवराशि, अजीवराशि । शरीर से निकलते समय आत्मा दो प्रकार से शरीर को छूता है- देश से, सर्वरूप से । इसी तरह आत्मा का शरीर में स्फुरण, कोटन, संर्वतन या निर्वर्तन दो प्रकार से होता है।
दो स्थानों से आत्मा को केवलिप्ररूपित धर्म की यावत् मनःपर्णवज्ञान की प्राप्ति होती है-क्षय, क्षयोपशम । .. काल की दो उपमाएं-पल्योपम, सागरोपम । इन दोनों का ।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
ह
-
स्वरूप
क्रोध केदो मेद-आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित । चौवीस दण्डकों में कोपके इसी प्रकार दोदो भेद । मान,माया आदि मिथ्यादर्शन शल्य तक सभी के ऊपर लिखे दो दो मेद जानने चाहिए। संसारी जीवों के दो भेद-त्रस, स्थावर । सब जीवों के दो मेद-सिद्ध, प्रसिद्ध । सेन्द्रिय, अनिन्द्रिय | सकाय, अकाय । सयोग, अयोग । सवेद, अवेद । सकपाय, अकगाय । सलेश्य अलेश्य । सज्ञान, अज्ञान । सोपयोग, निरुपयोग। साहार, निराहार । भाषक, अमापक । चरमशरीरी, अचरम शरीरी । सशरीर, अशरीर ।
दो प्रकार का अशुभ मरण-- वलन्मरण, वशार्गमरण । इसी तरह निदानमरण, तद्वमरण, अथवा गिरिपतन, तरुपतन । जलप्रवेश ज्वलनप्रवेश । विपमवण, शस्त्रावपातन । दो प्रकार का मरण अशुभ होने पर भी कारणविशेष होने पर निषिद्ध नहीं है--वैहायस, गृधूस्पृष्ट । दो प्रकार का प्रशस्त मरण-पादपोपगमन, मक्कप्रत्याख्यान । पादपोपगमन के दो भेद-नीहारिम अनीहारिम । भक्तप्रत्याख्यान के दो भेद-नीहारिम, अनीहारिमं ।
लोक क्या है ? जीव और अजीवा लोक में अनन्त और शाश्वत क्या है ? जीव और अजीव । बोधि के दो भेद-ज्ञानवोधि, दर्शन पोधि । दो प्रकार के बुद्ध-ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध । इसी प्रकार मोह
और मूढ के भी दो दो मेद हैं। ____ ज्ञानावरणीयकर्म के दो मेद-- देशज्ञानावरणीय, सर्वज्ञानावररणीय । इसी प्रकार दर्शनावरणीय के भी दो मेद । वेदनीय के दो भेद-सातावेदनीय, असावावेदनीय । मोहनीय के दो भेद-दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय । आयु के दो भेद-श्रद्धायु (कालाय), भवायु। नाम के दो मेद-शुभनाम, अशुभनाम | गोत्र के दो भेद-- उपगोत्र, नीचगोत्र । अन्तराय के दो भेद-प्रत्युत्पन्नविनाशी,
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
पिहितागामपथ ।
1
❤
मूर्छा के दो भेद — प्रेमप्रत्यया, द्वेषप्रत्यया । प्रेमप्रत्यया के दो भेद - माया, लोभ । द्वेषप्रत्यया के दो भेद-क्रोध, मान । दो प्रकार की आराधना -- धार्मिकाराधना, केवलिकाराधेनां । धार्मिंकाराधना के दो भेद - श्र तधर्माराधना, चारित्रधर्माराधना । केवलिकाराधना के दो भेद अन्तक्रिया, कल्पविमानोपपत्तिका | दो तीर्थङ्करों का वर्ण नील उत्पल के समान है - मुनिसुव्रत, श्ररिष्टनेमि | दो तीर्थरों का रंग प्रियंगु के समान श्याम है— मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ दो तीर्थङ्कर पद्म के समान गौर हैं- पद्मप्रभ, वासुपूज्य । दो तीर्थकर चन्द्र के समान गौर हैं - चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त ।
5
1
-
सर्वप्रवाद पूर्व में दो वस्तु हैं। दो भाद्रपदा - पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा | दो फाल्गुनी — पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी । मनुष्य क्षेत्र में दो समुद्र हैं- लवण, कालोद | दो चक्रवर्ती सातवीं नरक में उत्पन्न हुए- सुभूम, ब्रह्मदत्त ।
दो पल्योपम या सागरोपम स्थिति वाले देव । दो कल्पों में कल्पस्त्रियाँ होती हैं— सौधर्म, ईशान । दो कल्पों में तेजोलेश्या वाले देव होते हैं - सौधर्म, ईशान । इन्हीं दो कल्पों में देव काय प्रवीचार वाले होते हैं। दो कल्पों में देव स्पर्शप्रवीचार वाले होते हैं— सनत्कुमार, माहेन्द्र । दो कल्पों में रूपशवीचार वाले होते हैं - ब्रह्मलोक, लान्तक । दो कल्पों में शब्दप्रवीचार वाले होते हैं- महाशुक्र, सहस्रार । दो मन प्रवीचार वाले होते हैं- प्राणत, अच्युत । कर्मों के उपचय, I वन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के दो स्थान नस, स्थावर । द्विप्रादेशिक, द्विप्रदेशावगांढ - जांव द्विगुण रूक्ष पुद्गल अनन्त हैं। तीसरा अध्ययन (त्रिस्थानक ) .
www
(१) उद्देश—तीन इन्द्र —नामेन्द्र, स्थापनेंन्द्र, द्रव्येन्द्र, अथवा ज्ञानेन्द्र दर्शनेन्द्र, चारित्रेन्द्र, अथवा देवेन्द्र, असुरेन्द्र, मनुष्येन्द्र | तीन
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग १ प्रकार से तीन तरह की विकुर्वणाएं । तीन प्रकार की नारकी। इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़ कर वैमानिक तक सभी दण्डकों के तीन तीन भेद । तीन प्रकार की परिचारणा । तीन प्रकार का मैथुन । तीन मैथुन प्राप्त करने वाले तथा तीन सेवन करने वाले।
तीन योग । तीन प्रयोग । तीन करण दो प्रकार से। अल्पायु चाँधने के तीन कारण। दीर्घायु बाँधने के तीन कारण । अशुभ दीर्घायु चाँधने के तीन कारण । शुभ दीर्घायु वॉधने के तीन कारण । (सूत्र १२४-१२५)
तीन गुप्ति। तीन अगुप्ति । तीन दण्ड । तीन गर्दा,दो प्रकार से। तीन प्रत्याख्यान । तीन वृक्ष । तीन पुरुष पाँच प्रकार से। तीन उत्तम पुरुष । तीन मध्यमपुरुष । तीन जघन्यपुरुष । (सूत्र १२६-१२८)
तीन प्रकार के मत्स्य।अंडज मत्स्य के तीन भेद । पोतज मत्स्य के तीन भेद । पक्षियों के तीन भेद तथा अंडज और पोतज के फिर तीन तीन मेद।इसी प्रकार उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के भी तीन तीन भेद । स्त्रियों के तीन भेद । तिर्यश्च स्त्री और मनुम्य स्त्री के तीन तीन मेद । मनुष्य तथा नपुंसकों के दो भेद प्रमेद। तिर्यञ्च के तीन मेद । (सूत्र ११६-१३१)
नारकी आदि दंडकों में लेश्याएं । तीन कारणों से वारे अपने स्थान से विचलित होते हैं, तीन कारणों से देव विजली की विकुर्वणा करते हैं और तीन कारणों से गर्जना करते हैं । लोक में अन्धकार के तीन कारण,उद्योत के तीन कारण, इसी प्रकार देवान्धकार, देवोद्योत, देवसंनिपात, देवोत्कलिका, देवकहकहा के तीन कारण । तीन कारणों से देवेन्द्र मनुष्यलोक में आते हैं। इसी तरह सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, अग्रमहिपियाँ श्रादि के भी तीन कारण है। तीन कारणों से देव, उनके सिंहासन और चैत्यवृक्ष आदि विचलित होते हैं और वे मनुष्यलोक में आते हैं। (सत्र १३२-३४)
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला माता पिता, सेठ, गुरु तीनों के द्वारा किए हुए उपकार का बदला नहीं चुकाया जा सकता । तीन स्थानों पर रहा हुआ अनगार संसार समुद्र को पार करता है। तीन प्रकार की उत्सपिणी । तीन प्रकार की अवसर्पिणी। तीन प्रकार से पुद्गल विचलित होता है। तीन प्रकार की उपधि । तीन प्रकार का परिग्रह (दो प्रकार से)। (सूत्र १३५-१३८)
तीन प्रणिधान । तीन सुप्रणिधान । तीन दुष्प्रणिधान । तीन योनि (चार प्रकार से)। तीन गर्मज उत्तम पुरुष । तृणवनस्पतिकाय के तीन भेद । भारतवर्ष में तीन तीर्थ मागध, वरदाम, प्रभास । इसी प्रकार धातकीखंड तथा पुष्कराई के क्षेत्रों में जानना चाहिए। (सूत्र १३६-१४२)
तीन सागरोपम स्थिति वाले आरे। तीन पन्योपम श्रायु तथा तीन कोस की अवगाहना वाले मनुष्य । तीन वंश । तीन उत्तम पुरुष । तीन अनपवयं तथा मध्यम आयु वाले।
तीन दिन अनिकाय के जीवों की आयु। तीन वर्ष की आयु वाले अनाज के जीव । तीन पल्योपम या तीन सागरोपम आयु वाले देव तथा नारकी जीव । उष्ण वेदना वाले पहले तीन नरक । अप्रतिष्ठान नरक, जम्बूद्वीप और सर्वार्थ सिद्ध विमान लम्बाई चौड़ाई में समान हैं। इसी तरह सीमन्तक नरक, अढाई द्वीप और सिद्धशिला मी लम्बाई चौड़ाई में समान हैं। खाभाविक रस वाले पानी से युक्त तीन समुद्र कालोद, पुष्करोद, खयंभूरमण अधिक मत्स्य, कच्छपादि वाले तीन समुद्र-लवण, कालोद, स्वयंभूरमण । (२०१४३-१४६)
सातवीं नरक में उत्पन होने वाले तीन । सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होने वाले तीन । ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प में विमानों के तीन रंग। प्राणत, प्राणत, पारण और अच्युत कन्पों में देवों की भवधारणी अवगाहना तीन रलियाँ। तीनमत्र-दीपसागर पपल
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग
६३
त्ति, सूर पण्यत्ति, चन्द पण्यति दिन की पहिली या अन्तिम पौरुषी में पढ़े जाते हैं । (सूत्र १५० - १५२) ।
द्वितीय उद्देश तीन लोक (तीन प्रकार से ) । चमरेन्द्र की तीन परिषदाएं । चमरेन्द्र के सामानिक देवों की तीन परिषदाएं । इसी प्रकार त्रायखिंश, अग्रमहिषियों तथा दूसरे इन्द्रों की सभाएं । (सूत्र १५३ - १५४) ।
तीन याम । तीन व्रत। तीन बोधि । तीन बुद्ध । तीन प्रव्रज्या ( चार प्रकार से ) । तीन निर्ग्रन्थ नोसंज्ञोपयुक्त। तीन संज्ञा नोसंज्ञोपयुक्त । तीन भैचभूमियाँ । तीन स्थविर । (सू० १५५ - १५६)
अनेक अपेक्षाओं से पुरुष के तीन तीन भेद । कुल १२७ मेद । शील व्रत आदि से रहित व्यक्ति तीन स्थानों से निन्दित होता है । शील, व्रत आदि वाला तीन स्थानों से प्रशस्त माना जाता है । तीन संसारी जीव । तीन प्रकार के सर्वजीव (तीन अपेक्षाओं से ) । तीन प्रकार से लोकस्थिति । तीन दिशाएं। तीन दिशाओं में जीवों I की गति आदि १३ बोल | ( सू० १६० - १६३) ।
तीन त्रस | तीन स्थावर । तीन अच्छेद्य । इसी प्रकार तीन अभेद्य. दाह आदि आठ बातें | श्रमण भगवान महावीर द्वारा कहे हुए तीन वाक्य - प्राणी दुःख से डरते हैं, प्रमादवश जीव दुःख को पैदा करता है, दुःख श्रप्रमाद के द्वारा भोगा जाता है । (सू० १६४-१६६ ) । क्रिया और फलभोग के विषय में अन्यतीर्थिकों का प्रश्न तथा उत्तर (सू० १६७ ) ।
तृतीय उद्देश -- तीन कारणों से (तीन प्रकार से) मायावी माया करके आलोचना आदि नहीं करता। तीन कारणों से (तीन प्रकार से) आलोचना आदि करता है। तीन प्रधान पुरुष । साधु साध्वियों को तीन प्रकार के वस्त्र कल्पते हैं। तीन प्रकार के पात्र । तीन कारणों से वस्त्र धारण करने चाहिएं | ( सू० १६८ - १७१) ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
आत्मा के राग द्वेष आदि पाप या संसार समुद्र से बचने के तीन स्थान-(१)जव आत्मा किसी बुरे रास्ते पर जा रहा हो उस समय किसी धार्मिक व्यक्ति द्वारा उपदेश मिलने पर आत्मा की रक्षा हो जाती है अर्थात् वह बुरे मार्ग में जाने से बच जाता है । (२) अपनी वाणी को वश में रखने वाला अर्थात् मौन रहने वाला या समय पर हित, मित और प्रिय वचन बोलने वाला आत्मा की रक्षा करता है। (३) किसी प्रकार का विवाद खड़ा होने पर अगर शान्त रहने की शक्ति न हो, उपेक्षा करने की सामर्थ्य न रहे तो उस स्थान से उठ कर किसी एकान्त स्थान में चले जाने से आत्मरक्षा होती है, अथवा हमेशा एकान्त सेवन करने वाला आत्मरक्षा करता है। ग्लायमान साधु शरीर रक्षा के लिए तीन प्रकार से पेय वस्तुएं ग्रहण करे। (सू० १७२)।
संभोगी को विसंभोगी करने के तीन कारण । तीन अनुज्ञा । तीन समनुज्ञा । तीन विजहणा अर्थात् त्याग। (सू० १७३-१७४)
तीन वचन । तीन अवचन । तीन प्रकार का मन । तीन प्रकार का अमन । अल्पवृष्टि के तीन कारण । सुवृष्टि के तीन कारण। देव द्वारा मनुष्य लोक में न आ सकने के तीन कारण । देव द्वारा मनुष्य लोक में आने के तीन कारण । (सू० १७५-१७७)
देव तीन बातों की.अभिलाषा करता है। तीन कारणों से देव । पश्चाचाप करता है। तीन कारणों से देव अपने च्यवन को जान । जाता है। तीन वातों से देव उद्विग्न होता है । विमानों के तीन संस्थान । विमानों के तीन आधार। तीन प्रकार के विमान । (५० १७८-८०)
तीन प्रकार के नारकी आदि दण्डक । तीन दुर्गतियाँ । तीन सुगतियाँ । तीन दुर्गत । तीन सुगत । चउत्थ, छट्ट और अट्ठम भत्त करने वाले साधु को कल्पनीय तीन पेय द्रव्य । तीन उपहता तीन अवगृहीत, तीन ऊनोदरी । उपकरणोनोदरी के तीन भेद । साधु,
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
-
साध्वियों के लिए तीन अहितकर स्थान तथा तीन हितकर स्थान । तीन शल्य । तेजोलेश्या के संकोच और विस्तार के तीन कारण । तीन मास की मिक्खुपडिमावालों को आहार और पानी की तीन तीन दतियाँ कल्पती हैं। एक रात्रिकी मिथुप्रतिमा सम्यक्न पालने वाले अनगार को तीन प्रकार से हानि होती है तथा सम्यक् पालने वाले को तीन प्रकार से लाभ होता है। (सू० १८१-१८२)।
तीन कर्मभूमियाँ। तीन दर्शन | तीन रुचि। तीन प्रयोगातीन व्यवसाय (तीन अपेक्षाओं से)। इहलौकिक व्यवसाय के तीन मेद । लौकिक व्यवसाय के तीन भेद । वैदिक व्यवसाय के तीन भेद । सामयिक व्यवसाय के तीन भेद-ज्ञान, दर्शन, चारित्र । तीन अर्थयोनि-साम, दण्ड, भेद । तीन प्रकार के पुद्गल । पृथ्वी के नीन आधाररातीन मिथ्याला तीन प्रक्रियाएँ । तीन प्रयोगक्रियाएं। तीन समुदान क्रियाएँ । तीन अज्ञान क्रियाएँ। तीन अविनय । तीन अज्ञान । तीन धर्म । तीन उपक्रम (दो अपेक्षाओं से), इसी तरह वैयावच, अनुग्रह, अनुशिष्टि और उपालम्म के भी तीन तीन मेद हैं। तीन कथा। तीन विनिश्चय । साधु सेवा के फल । ५० (१८३-६०)
चतुर्थ उद्देश-पडिमाधारी साधु के लिए प्रतिलेखना योग्य तीन उपाश्रय तथा तीन संस्तारक (शय्या) । तीन काल । तीन समय । तीन पुद्गलपरावर्तन । तीन वचन (तीन अपेक्षाओं से)। तीन प्रज्ञापना । तीन सम्यक्-ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक्, चारित्र सम्यक् । तीन उपघात । तीन विशुद्धि । तीन आराधना । ज्ञाना
राधना के तीन मेद । इसी प्रकार दर्शनाराधना और चारित्रा, राधना के तीन तीन मेद । तीन संक्लेश । इसी तरह असंक्लेश,
अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के भी तीन तीन भेद हैं। तीन का अतिक्रमण आदि होने पर आलोचना आदि करना चाहिए ! तीन प्रकार का प्रायश्चित्र । मेरु के दक्षिण में तीन अकम
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भूमियाँ । मेरु के उत्तर में तीन कर्मभूमियाँ । उत्तर में तीन वास । दक्षिण में तीन वास । उत्तर और दक्षिण में तीन तीन वर्षधर पर्वत । दक्षिण तथा उत्तर में तीन तीन महाद्रह तथा वहाँ रहने वाले देव । दक्षिणी तथा उत्तरी महाद्रह से निकलने वाली नदियाँ तथा उनकी उपनदियाँ । (सू० १६१ - १६७) ।
एक देश से भूचाल के तीन कारण । सर्व देश से भूचाल के तीन कारण । किल्विषी देवों के तीन भेद तथा उनके निवास । तीन पल्योपम स्थिति वाले देव तथा देवियाँ । तीन प्रकार का प्रायश्चित | तीन अनुद्घातिम। तीन पारंचित। तीन अनवस्थाप्य । दीक्षा, शिक्षा आदि के योग्य तीन । (सू० १६८ - २०३) । तीन मांडलिक पर्वत । तीन महाति महालय । तीन कल्पस्थिति (दो अपेक्षाओं से ) । तीन शरीर वाले जीव । तीन गुरुप्रत्यनीक । तीन गतिप्रत्यनीक । तीन समूह प्रत्यनीक । तीन अनुकम्पा प्रत्यनीक । तीन भावप्रत्यनीक । तीन भुतप्रत्यनीक । तीन पिता के अङ्ग । तीन माता के अङ्ग । (सू० २०४ - २०६ ) ।
1
1
1
साधु के लिए महानिर्जरा के तीन स्थान | श्रावक के लिए महा निर्जरा के तीन स्थान । तीन पुद्गल प्रतिघात । तीन चक्षु | तीन अभिसमागम । तीन ऋद्धि । तीनों ऋद्धियों के दो अपेक्षाओं से तीन तीन भेद । तीन गारव । तीन करण । तीन धर्म । तीन 1 I व्यावृति | तीन अन्त । तीन जिन । तीन केवली । तीन अरिहन्त । तीन दुर्गान्धि वाली लेश्याएं । तीन सुगन्धि वाली लेश्याएं । इसी तरह दुर्गति और सुगति में ले जाने वाली, संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट,
1
मनोज्ञ और मनोज्ञ, अविशुद्ध और विशुद्ध, अप्रशस्त और प्रशस्त, शीतरूक्ष और स्निग्धोष्ण तीन तीन लेश्याएं । तीन प्रकार का मरण | तीन प्रकार का बालमरण। तीन प्रकार का पण्डित - मरण | तीन प्रकार का बालपण्डितमरण ( सू० २१०-२२२ ) ।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग १०१ प्रकार के श्रावक । चार प्रकार की श्राविकाएं। (सत्र ३१५-३२०)।
चार प्रकार के श्रावक (दो अपेक्षाओं से) श्रमण भगवान महावीर के श्रमणोपासकों की अरुणाभ नामक विमान में चार पल्योपम स्थिति है। नया उत्पन्न हुआ देव मनुष्यलोक में आने की इच्छा होने पर भी चार कारणों से नहीं आ सकता और चार कारणों से श्रा सकता है। चार कारणों से लोक में अन्धकार हो जाता है तथा चार कारणों से प्रकाश होता है, इसी प्रकार दिव्यान्धकार, दिव्योद्योत, दिव्यसनिपात, दिव्योत्कलिका और देवकहकहा रूप पाच चोल जानने चाहिएं। चार कारणों से देव मनुष्यलोक में आते हैं। (सूत्र ३२१-३२४)
चार दुःखशय्याएं तथा चार सुखशय्याएं । चार अवाचनीय । चार प्रकार के पुरुष। तेरह अपेक्षाओं से चार प्रकार के पुरुष । चार प्रकार के घोड़े (सात अपेक्षाओं से) तथा उनकी उपमा वाले पुरुष । चार प्रकार के पुरुष । चार लोक समान हैं। चार लोक सभी दिशा तथा विदिशाओं में समान हैं। ऊर्ध्व और अधोलोक में दो शरीर वाले चार चार जीव । चार प्रकार के पुरुष । चार शय्या पडिमाएं । चार वस्त्र पडिमाएं । चार पात्र पडिमाएं । चार स्थान पडिमाएं। चार शरीर जीव से स्पृष्ट है। लोक चार अस्तिकायों से स्पृष्ट है। उत्पन्न होते हुए चार चादरकायों से लोक स्पृष्ट है। चार के प्रदेश तुल्य हैं। चार कायों का शरीर आँखों से नहीं दीखता । चार इन्द्रियाँ पदार्थ को छूकर जानती हैं। चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के बाहर नहीं जा सकते । (सूत्र ३२५-३३७)
चार दृष्टान्त प्रत्येक के चार भेद। हेतु के चार भेद (तीन अपेक्षाओं से) चार प्रकार का गणित । अधोलोक में अन्धकार करने वाले , चार पदार्थ । ति, लोक में प्रकाश करने वाले चार पदार्थ । ऊर्ध्व
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
श्री सेठिया जेन प्रन्थमाला
लोक में प्रकाश करने वाले चार पदार्थ । (मत्र ३३८) (४) उद्देश-चार प्रसर्पक । चारों गतियों में श्राहार । चार श्राशीविष । चार प्रकार की व्याधि । चार प्रकार की चिकित्सा। चार प्रकार के चिकित्सक । तीन अपेक्षाओं से चार चार प्रकार के पुरुष । चार प्रकार के व्रण (दो अपेक्षाओं से) और उनके समान पुरुष । छः प्रकार से चार चार प्रकार के पुरुष । चार प्रकार की वृक्षविकुर्वणा । चार प्रकार के वादी नैरयिक आदि दण्डकों में। (सू० ३३९-४५)
सात अपेक्षाओं से चार प्रकार के मेघ और उनकी उपमा वाले पुरुष, माता पिता तथा राजा | चार प्रकार के मेघ । चार करण्डक
और उनके समान आचार्य ।दो तरह से चार प्रकार के वृक्ष और तत्समान भाचार्य । चार प्रकार के मत्स्य और उनके समान भिक्षुक। तीन अपेक्षाओं से चार प्रकार के गोले और तत्समान पुरुष । चार प्रकार के पत्ते और उनके समान पुरुष । चार प्रकार की चटाइयां
और वत्समान पुरुष। चार प्रकार के चौपाएं। चार प्रकार के पक्षी। चार प्रकार के क्षुद्र प्राणी । चार प्रकार के पक्षी और उनके समान मिचुका पाँच अपेक्षाओं से चार प्रकार के पुरुष (०३४६-५२) __ सात अपेक्षाओं से चार प्रकार का संवास (मैथुन) । चार अपध्वंसापासुरी, भाभियोगिकी, सम्मोहनी और कैल्विषिकी प्रवृत्तियों के चार चार कारण । पाठ प्रकार से प्रव्रज्या के चार चार मेद । (सत्र ३५३-३५५) .
चार संज्ञाएं और उनके चार चार कारण । चार काम । चार प्रकार के जल और समुद्र तथा उनके समान पुरुष। चार प्रकार के तैराक । सात अपेक्षाओं से चार चार प्रकार के कुम्म और उनके समान पुरुष तथा चारित्र । चार उपसर्ग तथा प्रत्येक के चार चार भेद । (सूत्र ३५६-३६१) 'तीन अपेक्षाओं से चार प्रकार के कर्म । चार प्रकार का संघ।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
१०३
चार प्रकार की बुद्धि । चार प्रकार की मति । चार प्रकार के संसारी जीव । चार प्रकार के सब जीव तीन अपेक्षाओं से । (सूत्र ३६२
३६५)
___ चार अपेक्षाओं से चार प्रकार के पुरुष । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च
और मनुष्यों की गति तथा आगति । बेइन्द्रिय जीवों के अनारम्म में चार प्रकार का संयम और आरम्भ में असंयम । सम्यग्दृष्टि नारकी आदि जीवों की चार क्रियाएं । चार कारणों से गुण नष्ट होते हैं और चार कारणों से उद्दीप्त होते हैं। नारकी श्रादि शरीरोत्पत्ति के चार कारण । (सूत्र ३६६-३७१) ।
चार धर्मद्वार । नरक आदि के योग्य कर्म चाँधने के चार चार कारण । चार चार प्रकार के वाद्य, नाट्य, गेय, मल्ल, अलङ्कार और अभिनय । चार वर्ण वाले विमान । चार रनियों की उत्कृष्ट अवगाहना । (सूत्र ३७२-३७५)
भावी वर्षा की सूचक्र चार बातें।चार मानुपीगर्भ । उत्पाद पूर्व की चार मल वस्तुएं । चार प्रकार का काव्य । नारकी जीवों के चार समुद्घात । (सूत्र ३७६-३८०)
अरिष्टनेमि भगवान् के शासन में चार सौ पूर्वधर थे। भगवान महावीर के शासन में चार सौ वादियों की सम्पदाथी। अर्द्धचन्द्राकार वाले विमान । पूर्णचन्द्राकार विमान । चार समुद्र प्रत्येक प्रान् भिन्न भिन्न रस वाले। चार श्रावर्त । चार तारों वाले नक्षत्र | चार स्थानों से जोव पुद्गलों का चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना तथा निर्जरा करता है। चार प्रदेशों वाले पुद्गल । (सू० ३८१-३८८)
पंचम स्थानक-पाँच महाव्रत । पाँच अणुव्रत । पाँच वर्ण : पाँच ग्स। पाँच कामगुण । पाँच प्रासक्ति, सुगति, दुर्गति आदि के कारण। पाँच पडिमाएं । पाँच स्थावरकाय । पहले पहल अवधिदर्शन उन्पन्न होने पर चोम के पांच कारण । (सूत्र ३८९-३९४)
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
- श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
१०४ नारकी शरीरों के पाँचवर्ण तथा ५ रसापांच शरीराप्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के शासन में पांच दुर्गम तथा दूसरे तीर्थङ्करों के शासन में पाँच सुगम बोल । भगवान द्वारा कहे हुए श्राचरणीय पाँच गोल । पांच महानिर्जरा के कारण । (२० ३६५-३६७)।
सम्भोगी को विसम्मोगी करने तथा पारचित प्रायश्चित्त देने केपांच कारण । गण में विग्रह तथा अवग्रह के पाँच स्थान । पांच निषद्याएं । पांच आर्जव स्थान | पांच ज्योतिषी । पांच देव । पांच परिचारणा | असुरेन्द्र तथा वलीन्द्र की पांच अग्रमहिषियो। पांच चमरेन्द्र, वलीन्द्र, धरणेन्द्र, भूतानन्द नाम के नाग कुमारेन्द्र, वेणु देव नामक सुवर्णेन्द्र,शक्रन्द्र, ईशानेन्द्र तथा दूसरे इन्द्रों की सेनाएं। पांच पन्योपम की स्थिति वाले देव । (सूत्र ३९८-४०५)
पांच प्रतिघातापांच आजीवकः।पांच राजचिह्न । छमस्थ तथा केवली द्वारा परीषह सहन करने के पांच प्रकार | पांच हेतु तथा अहेतु केवली के पांच अनुत्तर । चौदह तीर्थंकरों के एक एक नक्षत्र में पांचों कल्याणक । (सूत्र ४०६-४११) __ साधु द्वारा पार करने के लिए वर्जित पाँच नदियाँ। ऐसी नदियों को भी पार करने के विशेष पाँच कारण । साधु तथा साध्वी के लिए चतुर्मास में विहार करने के पांच कारण । पाँच अनुद्घातिक । साधु द्वारा राजा के अन्तःपुर में प्रवेश के पांच कारण । (सू०४१२-१५)
पुरुषसंयोग के विना गर्भधारण के पॉच कारण । साधु साध्वियों के एक ही मकान आदि में ठहरने के पाँच कारण । पाँच भानव द्वार। पांच संवर द्वार। पाँचदण्ड । क्रिया के पांच भेद। पाँच परिज्ञा। पाँच व्यवहार । संयत मनुष्य के सोने पर पॉच जागृत और जागने पर पाँच सुप्त तथा असंयत मनुष्य के इससे उल्टे । कर्मरज संग्रह तथा विनाश के पाँचकारण। पाँच उपघाता पॉच विशुद्धि।.४१६-२५)
दर्लभ वोधि कर्म बाँधने के पाँच कारण। सुलभवोधि के पांच
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग १०५ कारण । पाँच प्रतिसंलीन । पाँच अप्रतिसंलीन । पाँच संवर। पाँच असंवर । पाँच संयम । पाँच एकेन्द्रिय जीवों का संयम और असंयम। पंचेन्द्रियों की रक्षा से पाँच संयम तथा हिंसा से पाँच असंयम । सर्व प्राण भृत जीव सच विषयक पांच संयम और. पाँच असंयम। पॉच तृणवनस्पतिकाय । पाँच आचार । पाँच आचार-प्रकल्प । पाँच आरोपणा । पाँच वक्षस्कार पर्वत । पाँच महाहद । अढाई द्वीप में पाँच क्षेत्र । भगवान् ऋषभदेव की अवगाहना पाँच सौ धनुष की। इसी तरह भरत चक्रवर्ती, वाहुवली अनगार, वाशी और सुन्दरी की भी पाँच पाँच सौ धनुष की अवगाहना।
जागने के पाँच कारण । साधु द्वारा साध्वी के छुए जाने के पाँच विशेष कारण |प्राचार्य और उपाध्याय के पॉच अतिशय । पॉच गणापक्रमण । पाँच ऋद्धि वाले मनुष्य । (सू०४२६-४४०)
(३) उद्देशक-पाँच अस्तिकाय । प्रत्येक के पाँच मेदा पाँच गति। पाँच इन्द्रियार्थी पाँच मुण्डित (दो प्रकार से)। तीनों लोकों में पाँच पादर। पाँच वादर तेउकाय । पाँच चादर वायुकाय । पाँच अचित्त वायुकायापाँच निर्ग्रन्थ । प्रत्येक के पाँच र मेदा पाँच वस्त्र।पाँचरजोहरण।धर्मात्मा के पाँच बालम्बन स्थान । पाँच निधि । पाँच शौच । छमस्य द्वारा पूर्ण रूप से देखने तथा जानने के योग्य पाँच घातें।
पाँच महानरक । पाँच महाविमान । पाँच पुरुष, पाँच मत्स्य । पाँच भिक्षुक । पाँच वनीपक । अचेल पाँच पातों से प्रशंसनीय होता है । पाँच उत्कट । पॉच समितियाँ । पाँच संसारी जीव । : एकेन्द्रिय आदि जीवों की पाँच गतागत । पाँच सर्वजीव । उत्कृष्ट पाँच वर्ष की स्थिति वाले धान्य । पाँच संवत्सर । युगसंवत्सर, प्रमाणसंवत्सर और लक्षणसंवत्सर के पाँच पाँच मेद । (४४१-६०)
पाँच निर्याणमार्ग। पाँच छेदन। पांच भानन्तर्य । पाँच अनन्त ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६ । श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पाँच अनन्तक । पाँच ज्ञान । पाँच ज्ञानावरणीय। पाँच स्वाध्याय । पाँच प्रत्याख्यान । पाँच प्रविक्रमण । सूत्र वाचन के पाँच प्रयोजन। सूत्र सिखाने के पाँच प्रयोजना पाँच वर्णों वाले पाँच विमान | पाँच सौ योजन अवगाहना । पाँच रनि की उत्कृष्ट प्रवगाहना बन्धयोग्य पंचवर्ण पुद्गल । गंगा, सिन्धु, रक्षा और रक्षवती महानदी में मिलने वाली पाँच नदियाँ । कुमारावस्था में दीक्षित पाँच तीर्थकर । चमरचंचा की पाँच सभाएं । इन्द्रस्थान की पाँच सभाएं। पनि तारों वाले नक्षत्र । वन्ध योग्य पाँच पुद्गल । (४६१-७४)
छठा स्थानक गण धारण करने वाले के छःगुण । साधु द्वारा सोध्नी के ग्रहण, अवलम्बन आदि के कारण। साधु साध्वी के मृत कलेवर सम्बन्धी कार्य करने के कारण छिमस्थ द्वारा अज्ञेय तथा भद्रष्टव्य छपाते। छ. अशक्य । छाजीवनिकाया छ तारों वाले ग्रहाका संसारी जीव। छ सर्वजीव । छः तृण वनस्पतिकाय । छ दुर्लभ । इन्द्रियार्थे । छः संवरछा असंवर । सुखाः प्रायश्चित्ता (सू०४७५-४८४)
छ: मनुष्य छः ऋद्धिमान मनुष्य । छः ऋद्धि रहित मनुष्य । छः उत्सर्पिणी । छ। अवसर्पिणी । सुषम सुषमा में अवगाहना और आयु । देवकुरु और उत्तरकुरु में अवगाहना तथा प्रायु । कसंहनन । संस्थान । सकषायी के लिए अशुभ तथा अकषायी के लिए शुभ छ बातें जात्यार्या छकुलार्य छ: लोकस्थिति।छः दिशाएं। छाहार करने तथा छोड़ने के स्थान । (सूत्र ४४०-५००)
उन्मादप्राप्ति के छ कारण। छ: प्रमाद। छः प्रमाद प्रतिलेखना।
अप्रमाद प्रतिलेखना। लेश्या। छ: अप्रमहिषियाँ। छ: पन्योपम की स्थिति छः दिक्कुमारियाँ । घरणेन्द्र की छः अमहिषियाँ । भूतानन्द श्रादि की छः अग्रमहिवियाँ । छः हजार सामानिकों वाले
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह चौथा भाग
१०७
देव । श्रवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा के छः छः भेद । (लू० ५०१-१०) छः बाह्य तप । छः आभ्यन्तर तप । छः विवाद । छः क्षुद्र प्राणी । छः गोचरी । छः अपक्रान्त महानरक। ब्रह्मलोक में छः पाथड़े । चन्द्र के साथ रहने वाले छः नक्षत्र । अभिचन्द्र कुलकर की अवगाहना छः सौ धनुष । भरत चक्रवर्ती का राज्यकाल छः लाख
| भगवान् पार्श्वनाथ की वादि परिषत् छः सौ । वासुपूज्य भगवान् छः सौ पुरुषों के साथ दीक्षित हुए। भगवान् चन्द्रप्रभ छः मास तक छनस्थ रहे । तेइन्द्रिय जीवों की हिंसा में छः प्रसंयम तथा अहिंसा में छः संयम । (सू० ५११-५२१)
छः कर्मभूमियाँ । छः वास । छः वर्षधर पर्वत । छः कूट । छः महाद्रह और वहां रहने वाले देव । छः महानदियां । छः अन्तरनदियाँ । छः अकर्मभूमियाँ । छः ऋतु। न्यून रोत्रि तथा अधिक रात्रि वाले छः पर्व । छः अर्थावग्रह । छः प्रकार का अवधिज्ञान | साधु साध्वियों के लिए नहीं बोलने योग्य छः कुवचन । छः कल्पप्रस्तार । छः कल्पपरिमन्धु । छः कन्पस्थिति | भगवान् महावीर की दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष छट्ट भक्त (बेले) के बाद हुए। सनत्कुमारं तथा माहेन्द्रकल्प में विमानों की ऊंचाई छः सौ धनुष तथा शरीर की अवगाहना छः रति । (सू० ५२२-५३२ ) ।
छः भोजन परिणाम । छः विप परिणाम । छः प्रश्न । उत्कृष्ट छः छः मास विरह वाले स्थान । छः प्रकार का आयुबन्ध । छः भाव । छः प्रतिक्रमस्य । छः तारों वाले नक्षत्र । छः कर्मबन्ध । ( ५३३ -४०) सप्तम स्थानक
सात गणापक्रमण । सात विभंगज्ञान । सात योनिसंग्रह | सात अंडज आदि की गतागत। श्राचार्य और उपाध्याय के सात संग्रहस्थान । सात असंग्रह स्थान । सात पिंडैषणाएं । सात पायैषयाए । सात श्रवग्रहप्रतिमाए । सप्त सप्तिका । सात महाध्ययन ।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला सात मिनुप्रतिमाएं । सात पृथ्वियाँ । सात धनोदधि । सात घनवात सात तनुवात । सात श्राकाशान्तर । सात पृथ्वियों के नाम और गोत्र । सात बादरवनस्पतिकाय । सात संस्थान । सात भयस्थान। अग्रस्थ तथा केवली को पहचानने के सात चिह्न। (सू० ५४१-५५०)
सात मूल गोत्र प्रत्येक के सात सात भेद । सात मूल नय । सात स्वर । सात स्वर स्थान । सात जीवनिम्मत स्वर। सात अजीवनिःसत स्वर । सात स्वरों के शुभाशुभ लक्षण । सात स्वरों के ग्राम । प्रत्येक ग्राम की सात मर्छनाएं।सात स्वरों के स्थान, योनि, श्वास, आकार, दोष,गुण, वृत्त, भणितियो । कौन कैसा गाता है। स्वरमण्डल।
सात कायक्लेश । सात वास । सात वर्षधर पर्वत । सात महानदियाँ । धातकीखंड में सात वास, पर्वत और नदियाँ । पुष्कराई। में वास आदि । सात कुलकर तथा उनकी भार्याएं । सात कल्प. वृक्ष । सात दण्ड | चक्रवर्ती के सात सात रन । दुषमा तथा सुषमा काल आया हुआ जानने के सात चिह्न । सात संसारी जीव । सात पायुभेद । सात सर्वजीव । (सू० ५५०-५६२)
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सात धनुष की अवगाहना और सात सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर सातवीं नरक में गए । मल्लिनाथ भगवान ने छः राजाओं के साथ दीक्षा ली। सात दर्शन | छमस्थ वीतराग द्वारा वेदने योग्य सात कर्म प्रकृतियाँ। छद्मस्थ द्वारा अज्ञय तथा प्रदर्शनीय सात बातें। भगवान महावीर की ऊँचाई सात रनियां । सात विकथाएं । आचार्य तथा उपाध्याय के सात अतिशय । सात संयम । सात असंयम सात प्रारम्भ । कोठे आदि में रखे हुए अलसी, सरसों आदि धान्य के बीजों की उत्कृष्ट स्थिति सात वर्षे। बादर अपकाय की उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्षे । तीसरी नरक के नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति और चौथी नारकी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम । वरुण सोम और यम की सात सात अप्रमहिषियां । सात पल्योपम स्थिति वाले देव और देवियाँ । सात सौ, सात हजार देवों वाले विमान। सात सागरोपम स्थिति वाले देव ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग २०६ सात सौ योजन ऊंचाई वाले विमान । सात रनियों की ऊंचाई चाले सात देव । सात द्वीप । सात समुद्र । सात श्रेणियाँ । चमरेन्द्र की सात सेनाएं तथा सात सेनापति । वलीन्द्र, धरणेन्द्र, भूतानन्द आदि इन्द्रों की सात सात सेनाएं, सेनापति और कक्षाएं। (५० ५६३-५८३)
सात वचनविकल्प। सात विनय । सात मन विनय । सात वचन । विनय!सात काय विनया सात लोकोपचार विनय । सात समुद्घात ।
सात निव । सात सातावेदनीय का अनुमाव । सात असातावेदनीय का अनुभाव । प्रत्येक दिशा में उदित होने वाले सात नक्षत्र । सात तारों वाले नक्षत्र । पर्वतों के सात कूट । वेइन्द्रिय की सात लाख कुलकोटि । कर्मपुद्गल ग्रहण करने के सात स्थान । सात सप्रादेशिकस्कन्ध । (मु० ५८४-५६३)
आठवाँ स्थानक एकलविहार पडिमा के आठ स्थान । योनिसंग्रह पाठ। कर्मपाठ। माया की पोलोचना न करने के आठ स्थान । माया की आलोचना के पाठ स्थान । माया का स्वरूप तथा आलोचना न करने के आठ फल। पाठ संवर आठसर्श आठ लोकस्थिति पाठ गणिसम्पदा। आठ महानिधि | आठ समितियाँ । (सू० ५६४-६०३)
आलोचना देने वाले के आठ गुण । आलोचना करने वाले में आठ गुण पाठ प्रायश्चिच । भाठ मदस्थान | आठ प्रक्रियावादी। आठ महानिमित्त । आठ वचनविभक्ति । छद्रस्थ द्वारा अज्ञेय पाठ चातें। पाठ आयुर्वेद शक्रन्द्र, ईशानेन्द्र तथा वैश्रमण की आठपाठ अग्रमहिपियाँ । आठ महाग्रह । पाठ तृणवनस्पतिकायिक । चउरिन्द्रिय जीवों की हिंसा में आठ असंयम तथा अहिंसा में पाठ संयम ।
आठ सूक्ष्म । भरत चक्रवर्ती के साथ आठ सिद्ध । भगवान पार्श्वनाथ के पाठ गणधर । (२०६०४-६१७)
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला, पाठ दर्शन | काल की पाठ उपमाएं । भगवान् नेमिनाथ के शासन में आठवें पाट तक पाठ केवली हुए तथा भगवान के केवली . होने पर दो वर्ष बाद पाठ सिद्ध हुए भगवान महावीर के पास आठ राजाओं ने दीक्षा ली । पाठ आहार | आठ कृष्णराजियाँ। आठ लौकान्तिक देव । धर्मास्तिकाय आदि के आठ प्रदेश | भावी उत्सपिणी के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान महापम के पास आठ राजा दीक्षित होंगे। कृष्ण की आठ अग्रमहिपियाँ । वीर्यपूर्व की पाठ वस्तुएं । (सू० ६१८-६२७) .
आठ गतियां । आठ योजन विस्तार वाले द्वीप । कालोदधि समुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ आठ लाख योजन । पुष्कराद्ध का विष्कम्भ
आठ लाख योजन । प्रत्येक चक्रवर्ती का काकिणी रत्न आठ सुवर्ण जितना भारी होता है । मगध देश का योजन आठ हजार धनुष लम्बा होता है। पाठ वक्षस्कार पर्वत । चक्रवर्ती विजय आठ। आठ राजधानियां । सीता तथा सीतोदा महानदियों के किनारे होने वाले आठ वीर्थङ्कर । इन नदियों के किनारे होने वाली दूसरी पाठ बाते। इसी प्रकार द्वीप, समुद्र, नदियों आदि का वर्णन । (सू० ६२८-६४४ )
अष्टमी भिक्खुपडिमा। आठ प्रकार के संसारी जीव । सर्वजीव आठ । सयम पाठ। पृथ्वियां आठ । प्रयत्न करने योग्य आठ बातें। आठ सौ योजन की ऊँचाई वाले विमान । भगवान् अरिष्टनेमि की आठ सौ धादिपरिषत् । फेवलिसमुद्घात के आठ समय । भगवान् महावीर के शासन में अनुत्तर विमान में जाने वाले आठ सौ पुरुष । आठ पाणव्यन्तर । आठ चैत्य वृक्ष । रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूमि भाग से आठ सौ योजन की ऊँचाई पर सूर्य की गति। आठ नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ योग । जम्बूद्वीप के द्वारों की ऊँचाई आठ योजन पुरुषवेदनीय की जघन्य बन्धस्थिति आठ वर्ष । यशस्कीर्ति नाम कर्म
और उच्चगोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त । तेइन्द्रिय जीवों की कुल कोटि आठ लाख। आठ समय निवर्तित कर्म पुद्गल ।आठप्रदेशीस्कन्ध
नषवां स्थानक संभोगी को विसंभोगी करने के नौ स्थान | आचारांग सूत्र के प्रथम श्रतस्कन्ध के नौ अध्ययन ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग १११ नौब्रह्मचर्य गुप्तियां अभिनन्दन भगवान् से सुमतिनाथ भगवान् नौ कोडाकोडी सागरोपम वाद हुए। नौ सद्भाव पदार्थ या तत्व । नौ संसारी जीव । पृथ्वी आदि की गतागत । नौ सर्वजीव । रोगोत्पत्ति के नौ कारण । दर्शनावरणीय कर्म नौ । चन्द्र के साथ योग करने वाले नौ नक्षत्र । रत्नप्रभा से तारामण्डल की ऊँचाई । नव योजन मत्स्य । वलदेव और वासुदेवों के माता पिता । चक्रवर्ती की नौ महानिधियां सू० ६६१-६७३)
नौ विगय । नौ स्रोतपरिस्रव । नौ पुण्य । नौ पापस्थान । नौ पापभत । नौ नैपुणिक वरतु । भगवान् महावीर के नौ गण । नव कोटिपरिशुद्ध मिक्षा । ईशानेन्द्र की अग्रमहिपियाँ और उनकी स्थिति | नौ देवनिकाय | नव ग्रैवेयक | ग्रेवेयक विमानों के नाम नौ मायुपरिणाम ! नवनवमिका मिक्खुपडिमा । नौ प्रायश्चित्त । नौ कूट | पारवनाथ भगवान् की अवगाहना नौ रनियाँ । भगवान् महावीर के शासन में तीर्थङ्कर गोत्र वॉधने वाले नव जीव । आगामी उत्सपिणी में होने वाले नव तीर्थकर तथा उनकी कथाएं । (सू० ६७४-६६३)
चन्द्र के पीछे होने वाले नौ नक्षत्र । नव सौ योजन ऊँचाई वाले विमान । विमलवाहन कुलकर की ऊँचाई नव सौ धनुष । इस आरे के नव कोड़ाकोड़ी सागरोपम बीतने पर भगवान् ऋपम देव हुए। नव सौ योजन वाले द्वीप । शुक्र महाग्रह की नव वीथियाँ। नौ नोकपायवेदनीय । नव कुलकोटि वाले जीव । नव प्रकार से कर्मवन्ध । नव प्रादेशिक स्कन्ध । (सू० ६६४-७०३) .
दसवाँ स्थानक दस लोकस्थिति । दस शब्द । दस अतीत और अनागत इन्द्रियार्थ । पुद्गल चलन के दस कारण । क्रोधोत्पत्ति के दस कारण। दम संयम । दम अमंयम । दस संवर । दस अमंवर । अहंकार के
। स्थानक
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला । दस स्थान । दस समाधि । दस असमाधि । दस प्रव्रज्या। दस . श्रमणधर्म । दस वैयावच्च । दस जीवपरिणाम | दस अजीवपरिथाम । (सू० ७०४-७१३)
। दस आकाश के अस्वाध्याय । दस औदारिक अस्वाध्याय । पञ्चेन्द्रिय जीवों की अहिंसा में दस संयम । दस सूक्ष्म । गंगा और सिन्धु आदि में मिलने वाली दस नदियाँ । दस राजधानियाँ । दीक्षा लेने वाले दस राजा ! मन्दर आदि पर्वतों की लम्बाई चौड़ाई। दिशाएं और उनके नाम । समुद्र तथा क्षेत्र आदि का विस्तार । दस क्षेत्र । पर्वतों की लम्बाई चौड़ाई । (सू० ७१४-७२६) ___ दस द्रव्यानुयोग । उत्पातपर्वतों की लम्बाई चौड़ाई । दस सौ योजन की अवगाहना वाले जीव । भगवान् सम्भवनाथ के दस लाख करोड़ सागरोपम बीतने पर भगवान् अमिनन्दन हुए। दस अनन्त । उत्पादपूर्व की दस वस्तुएं। अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व की दस चुल्लवस्तुएं । दस प्रतिसेवना । आलोचना के दस दोष । अपने दोषों की आलोचना करने वाले में दस गुण । पालोचना देने वाले के दस गुण । दस प्रायश्चित्त । दस मिथ्यात्व । भगवान् चन्द्रप्रम दस लाख पूर्व, धर्मनाथ दस लाख वर्ष और नमिनाथ दस हजार वर्ष पूर्णायु प्राप्त कर सिद्ध हुए। पुरुषसिंह वासुदेव एक हजार वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर छठी नरक में गए । नेमिनाथ भगवान् . तथा कृष्णवासुदेव दस धनुष की अवगाहना तथा एक हजार वर्ष प्रायु वाले थे। भवनवासी देव तथा उनके चैत्यवृक्ष । दस प्रकार का सुख । दस उपघात । दस विशुद्धि । (सू०७२७-७३८)
दस संक्लेश । दस असक्लेश । दस बल । दस सत्य । दस मृषा । दस सत्याभूषा । दृष्टिवाद के दस नाम । दस शस्त्र । दस दोष । दस विशेष । दस शुद्धवचनानुयोग । दस दान । दस गति। दस मुण्डित । दस संख्यान । दस पच्चक्खाण । (२०७३६-७४८)
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ११३ दस समाचारी। भगवान महावीर के दस स्वम तथा उनका फल । दस सराग सम्यग्दर्शन । दस संज्ञाएं । नारकों में दस प्रकार की वेदना । छमस्थ द्वारा अज्ञेय दस बातें । दस दिशाएं। कर्मविपाक दशा के दस अध्ययन । उपामकदशा के दस अध्ययन । अन्तगडदशा के दस अध्ययन । अनुत्तरोववाई के दस अध्ययन । भाचारदशा के दस अध्ययन । प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन। बन्धदशा के दस अध्ययन । द्विगृद्धिदशा के दस अध्ययन । दीर्घदशा के दस अध्ययन । संक्षेपितदशा के दस अध्ययन । उत्सपिणी और अवमर्पिणी प्रत्येक का काल दस कोड़ाकोड़ी सागरो-. पम है। (३० ७४४-७५६)
दस प्रकार के नारकी बीव । पसभा में दस लाख नरकावास हैं। दस सागरोपम, दस पन्योपम तथा दस हजार वर्ष आयु वाले जीव । शुभकर्म बाँधने के दस कारण । दस प्रकार का प्राशंसा (इच्छा)प्रयोग। दस प्रकार का धर्म । दस स्थविर । दस पुत्र केवली के दस अनुत्तर । अढाई द्वीप में दस कुरुप दस महादुम । वहां रहने वाले दस बड़ी वृद्धि वाले देव । दुपमा भौर सुषमा जानने के दस चिन्ह । दस कल्पवृक्ष । (सू०७५७-७६६) __ अतीत तथा भावी उत्सर्पिणो के दस कुलकर। दस वचस्कार पर्वत । इन्द्राधिष्ठित कल्प और उन पर रहने वाले दस इन्द्रः । उनके दस विमान | दसदसमिका मिक्षप्रतिमा । दस संसारी जीव । दस सर्वजीव । सौ वर्ष आयु वाले पुरुष की दस दशाएं । दस तृणवनस्पतिकाया श्रेणियों का विष्कम्मदस योजना दूसरे पर तेजोलेश्या छोड़ने के दस कारण । दस आश्चर्य (२०७६७-७७७)
रत्नप्रभा के काण्डों की मोटाई ।द्वीप, समुद्र, द्रह, नदी आदि का विस्तार कृचिका और अनुराधा नक्षत्रों की दसवें मंडल में गति। ज्ञान की वृद्धि करने वाले दस नक्षत्रा चतुष्पद स्थलचर पन्वेन्द्रिय
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन अन्यमाला की दस लाख कुलकोटि । उरपरिसर्प की दस लाख कुलकोटि । दस प्रकार के पुद्गलों का करवन्धी दस प्रादेशिक स्कन्ध।
(४) समवायांग सूत्र तीसरे अङ्ग के पश्चात् चौथा अङ्ग समवायांग सूत्र है। इसमें जीव, अजीव और जीवाजीव का निरूपण तथा अपना सिद्धान्त परसिद्धान्त तथा स्वपरसिद्धान्त का कथन है। इसमें एक से लेकर एक सौ उनसठ तक मेद वाले बोल एक एक भेद की वृद्धि करते हुए क्रमशः बताए हैं। इसमें एक अध्ययन, एक भुतस्कन्ध, एक उद्देश तथा एक ही समुद्देश है। समवायांग सूत्र में एक लाख चवालीस हजार पद हैं।
नोट-पदों की यह संख्या नन्दीमत्र के अनुसार है। पूरे समवायांग स्त्र में इतने पद थे। आज कल जितना उपलब्ध है, उस में पदों की संख्या इतनी नहीं है। समवायांग सूत्र में नीचे लिखे विषय हैं१ आत्मा,१ अनात्मा,१ दण्ड, १ अदण्ड, १ क्रिया, १ प्रक्रिया १ लोक, १ अलोक, १ धर्म,१अधर्म, १ पुण्य, १ पाप, १बन्ध, १ पोच, १ अाश्रव, १ संवर, १ वेदना और १ निर्जरा ।
जम्बूद्वीप, अप्रतिष्ठान नरक, पालक विमान और सर्वार्थसिद्ध की लम्बाई चौड़ाई एक लाख योजन है। पार्दा, चित्रा और स्वाति 'नक्षत्र एक तारे वाले हैं। एक पल्योपम तथा एक सागरोपम की स्थिति वाले देव, मनुष्य, निर्यश्च तथा नारकी जीव ।
२ दण्ड, २ राशि, २ बन्धन, २ तारों वाले नक्षत्र,२ पन्योपम तथा २ सागरोपम की आयु वाले जीव ।
३ दण्ड, ३ गुप्तियाँ, ३ शल्य,३ गारच, ३ विराधना, ३ तारों वाले नक्षत्र, ३ पल्योपम तथा ३ सागरोपम की आयु वाले जीव।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोला संग्रह, चौथा भाग ११५ ४ कषाय, ४ च्यान, ४ विकथा, ४ संज्ञा, ४ बन्ध, ४ कोस का एक योजन, ४ तारों वाले नक्षत्र, ४ पन्योपम तथा ४ सागरोपप की स्थिति वाले देव और नारक। ,
५क्रियाएं, ५ महाव्रत, ५ कामगुण, ५ श्राश्रवद्वार, ५ संवरदार ५ निर्जरास्थान, ५ समिति, ५ अस्तिकाय, ५ तारों वाले नक्षत्र, ५ पन्योपम तथा ५ सागरोपम की आयु वाले देव और नारकी जीव।
६ लेश्या, ६ जीवनिकाय, ६ बाह्य तप, ६ आभ्यन्तर तप, ६ समुद्घात, ६ अर्थावग्रह, ६ तारों वाले नक्षत्र, ६ पल्योपम तथा ६ सागरोपम की आयु वाले देव और नारकी जीव।
७ भयस्थान, ७ समुद्घात, भगवान् महावीर की ऊँचाई ७ रति प्रमाण, ७ वर्षधर पर्वत, ७ तारों वाले नक्षत्र, ७ पन्योपम तथा ७ सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव |
८ मदस्थान, प्रवचनमाता, ८ योजन की ऊँचाई वाले पदार्थ, केबली समुद्घात के ८ समयों का क्रम, भगवान् पार्श्वनाथ के ८ गण और ८ गणधर, नक्षत्रों से चन्द्र का योग होता है, ८ पल्योपम तथा ८ सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव ।
ब्रह्मचर्य गुप्ति, ब्रह्मचर्य अगुप्ति, ६ ब्रह्मचर्य, पार्श्वनाथ भगवान् की अवगाहना हरनि प्रमाण, अभिजित् नक्षत्र का कुछ अधिक है मुहूर्त तक चन्द्र के साथ योग होता है, अभिजित् आदि नौ नक्षत्रों का उत्तर में चन्द्र के साथ योग होता है, रखममा पृथ्वी से सौ योजन की ऊँचाई में तारामण्डल है, जम्बूद्वीप में ह योजन के मत्स्य (मच्छ) हैं, जम्बूद्वीप के विजय नामक द्वार की प्रत्येक दिशा में नौ नौ मझले महल हैं, सुधर्मा सभा की ऊंचाई ह योजन है। दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ, पल्योपम तथा ६ सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव। '
१० श्रमणधर्म, १० चित्तसमाधि स्थान, १० हजार योजन
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
११६
मन्दर पर्वत का विष्कम्भ, १० धनुष की अवगाहना वाले शलाका पुरुष, १० नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले, १० कल्पवृच, १० पन्योपप तथा १० सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव ।
श्रावक की ११ पडिमाए, लोक के अन्तिम भाग से ज्योतिषी चक्र ११११ योजन है । मेरुपर्वत से ११२१ योजन की दूरी पर ज्योतिचक्र घूमता रहता है, भगवान महावीर के ११ गणधर, भूज्ञा नक्षत्र ११ तारों वाला होता है, नीचे वाले ग्रैवेयक देवों में १११ विमान होते हैं, मेरुपर्वत का विष्कम्भ ऊपर ऊपर अंगुल के ग्यारहवें भाग कम होता जाता है अर्थात् एक अंगुल की ऊंचाई पर चंगुल का ग्यारहवाँ भाग मोटाई कम हो जाती है, ११ अंगुल के बाद एक अंगुल, ११ योजन के बाद एक योजन इसी परिमाण से विष्कम्भ (मोटाई) घटती जाती है, ग्यारह पल्योपम तथा सागरो'पम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव ।
१२ भिक्खुपडिमा १२ सम्भोग, १२ कीर्तिकर्म ( वन्दना ), विजया नामक राजधानी की लम्बाई चौड़ाई १२ हजार योजन है, राम बलदेव की आयु १२ हजार वर्ष, मन्दराचल पर्वत की चूलिका मूल में १२ हजार योजन है, जम्बूद्वीप की वेदिका मूल में १२ योजन विस्तार वाली है, सब से छोटी रात और छोटा दिन १२ मुहुर्त के होते हैं, सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान के ऊपर वाले विमानों से ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी १२ योजन ऊपर है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के १२ नाम, १२ पल्योपम तथा १२ सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव ।
१३ क्रियास्थान, सौधर्म और ईशान कल्प देवलोक में १३ पाथड़े हैं, सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक नामक विमान साढ़े बारह लाख योजन विस्तार वाला है, ईशान देवलोक का ईशाना' वतंसक भी इतने ही विस्तार वाला है, जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचों
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
११७
की कुलकोटियों के साढ़े चारह लाख उत्पत्तिस्थान है, चारहवें प्राणायु नाम के पूर्व में तेरह वस्तु (अध्याय) हैं, गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रियों के १३ योग हैं, सूर्य के विमान का घेरा एक योजन का हवाँ भ ग है । १३ पल्योपम तथा १३ सागरोपम की स्थिति वाले देव तथा नारकी जीव। ___ १४ भूतग्राम, १४ पूर्व, दूसरे पूर्व में १४ वस्तु हैं, भगवान् महावीर के पास उत्कृष्ट १४ हजार साधु थे, १४ गुणठाणे, भरत और ऐरावत की जीवा १४४०१ योजन है, चक्रवर्ती के १४ रन, लवण समुद्र में गिरने वाली १४ महानदियाँ, १४ पन्योपम और १४ सागरोपम की स्थिति वाले देव तथा नारकी जीव ।
१५ परमाधामी, नमिनाथ भगवान की अवगाहना १५ धनुष, धू वराह कृष्णपक्ष में एकम से लेकर प्रतिदिन चन्द्र का १५ वाँ भाग ढकता जाता है, शुक्रपक्ष में १५ वॉ माग प्रतिदिन छोड़ता जाता है, छ: नक्षत्रों का चन्द्र के साथ १५ मुहूर्त योग होता है, चैत्र
और आश्विन मास में १५ मुहूर्त का दिन होता है, चैत्र में १५ मुहूर्त की रात्रि होती है, विद्यानुप्रवाद'नामक पूर्व में १५ वस्तु हैं, मनुष्यों में १५ योग, १५ पल्योपम तथा १५ सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव ।
सूयगडांग सूत्र प्रथम श्रु तस्कन्ध के १६अध्ययन, १६ कषाय, मेरु पर्वत के १६ नाम, पार्श्वनाथ भगवान् के उत्कृष्ट १६ हजार साधु थे, सातवें आत्मप्रवाद नामक पूर्व में १६ वस्तु हैं, चमरेन्द्र
और चलीन्द्र के विमानों का विस्तार १६ हजार योजन है, लवण समुद्र की उत्सेध परिवद्धि १६ हजार योजन है, १६ पन्योपम तथा
१६ सागरोपम की आयु वाले देव तथा नारकी जीव ।। * १७प्रकार का असंयम, १७ प्रकार का संयम, मानुषोत्तर पर्वत
की ऊँचाई १७२१ योजन है, सभी वेलंधर और अनुबेलंधर नाग
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
राजाओं के आवासपर्वतों की ऊँचाई १७२१ योजन है, रत्नप्रभा पृथ्वी से कुछ अधिक १७००० योजन ऊँचा उड़ने के बाद चारण लब्धि वालों की तिरछी गति होती है, चमर असुरेन्द्र का विगिच्छ कूट नामक उत्पात पर्वत १७२१ योजन ऊंचा है, बलि असुरेन्द्र का रुचकेन्द्र नामक उत्पात पर्वत १७२१ योजन ऊँचा है, १७ प्रकार का मरण, सूक्ष्मसम्पराय गुण स्थान में वर्तमान जीव १७ कर्मप्रकतियाँ बाँधता है, १७ पन्योपम तथा १७ सागरोपम की स्थिति वाले देव नथा नारकी जीव ।
१८ ब्रह्मचर्य, अरिष्टनेमि भगवान की उत्कृष्ट १८ हजार साधु सम्पदा. साधु साध्वियों के लिए सेवन अथवा परिहार करने योग्य १८ स्थान, आचाराङ्ग के १८ हजार पद हैं, १८ लिपियाँ, चौथे पूर्व अस्तिनास्ति प्रवाद में १८ वस्तु हैं. धूमप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लखि अठारह हजार योजन है, पोष मास में उत्कृष्ट १८ मुहूर्त की रात तथा आषाढ मास में उत्कृष्ट १८ मुहूर्त का दिन होता है, १८ पल्योपम तथा १८ सागरोपम की आयु वाले देव और नारकी जीव । ___ ज्ञातास्त्र के १६ अध्ययन, जम्बूद्वीप में सूर्य १६०० योजन अर्थात् अपने स्थान से सौ योजन ऊपर और अठारह सौ योजन नीचे तक प्रकाश देता है। शुक्र महाग्रह १४ नक्षत्रों के साथ 'उदित तथा अस्त होता है, जम्बूद्वीप की कलाएं योजन का १४वाँ भाग हैं, १९ तीर्थङ्करों ने गृहस्थावास तथा राज्य भोग करदीवाली, १पन्योपम तथा१६सागरोपम की आयु वाले देव तथा नारकी जीव।
२० असमाधिस्थान, मुनिसुव्रत भगवान् की अवगाहना २० धनुष, धनोदधि का बाहल्य २०हजार योजन, प्राणत नामक इन्द्र के २०हजार सामानिक देव हैं, नपुंसकवेदनीय फर्म की बन्ध- . स्थिति २० कोडाकोडी सागरोपम है, न पञ्चक्खाण पूर्व में २० वस्तु है,उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का एक कालचक्र २० कोड़ा
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
११९
श्री सेठिया जैन भन्थम्पला कोड़ी सागरोपम का होता है, २० भन्योपम और २० सामसेपमा की स्थिति वाले देव और नारकी जीव ।।
२१ शवल दोष, आठवें निवृत्ति-नादर नामक गुणस्थान में रहने वाले जीव में विद्यमान मोहनीय की २१ प्रकृतियाँ, २१हजार वर्ष वाले आरे, २१ पल्योपम तथा २१ सागरोपम की स्थिति वाले देव तथा नारकी जोव।
२२परिषह, दृष्टिवाद नामक १२ ३ अंग में भिन्न मिन विषयों को लेकर बाईस वाईस सूत्र, २२ प्रकार का पुद्गल परिणाम, २२ 'पन्योपम तथा २२ सागरोपम की स्थिति वाले देव तथा नारकी जीव ।
सूयगडांग सूत्र के कुल २३अध्ययन, २३वीथङ्करों को सूर्योदय के समय केवलज्ञान हुआ, २३तीर्थङ्कर पूर्वभव में ग्यारह अंगों के ज्ञान वाले थे, २३ तीर्थङ्कर पूर्वभव में माण्डलिक राजा थे, २३ पन्योपम तथा सागरोपम की आयु वाले देव तथा नारकी जीव । ___ २४ देवाधिदेव तीर्थङ्कर,जम्बूद्वीप में लघुहिमवान और शिखरी पर्वतों की ज्या २४६३२६.योजन झामेरी है, २४देवस्थान इन्द्र से युक्त हैं, सूर्य के उत्तरायण में होने पर पोरिसी २४ अंगुल की होती है, गंगो और सिन्धु महानदियों का पाट कुछ अधिक २४ कोस विस्तार वाला है, रक्षा और रक्तवती महा नदियों का विस्तार भी कुछ अधिक २४ कोस है, २४ पन्योपम तथा २४ सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव।
२५ भावनाए, मल्लिनाथ भगवान की अवगाहना २५ धनुष थी, दीर्घवैताट्य पर्वतों की ऊँचाई २५ योजन है.और वे २५ गयूति (कोस) पृथ्वी में धंसे हुए हैं, दूसरी पृथ्वी शर्कराप्रमा में २५ लाख नरकावास हैं,चलिका सहित आचारांग सूत्र के २५ अध्ययन हैं, संक्लिष्ट परिणाम वाला अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय नाम कर्म की २५ प्रकृतियॉ वॉधता है, गंगा, सिन्धु, रवा और
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग १२० रक्तवती नदियाँ २५ कोस की चौड़ाई वाली होकर अपने अपने कुण्ड में गिरती हैं, लोकविन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व मै २५वस्तु हैं, २५सागरोपम तथा २५पन्योपम की स्थिति वाले देव और नारकीजीव।
दशाश्र तस्कन्ध,व्यवहार और बृहक्कल्प सूत्र तीनों के मिला कर २६उद्देशे हैं, अभवी जीवों के मोहनीय कर्म की २६प्रकृतियों के काश सत्ता में रहते हैं । २६ सागरोपम तथा २६ पल्योपम स्थिति वाले देव तथा नारकी जीव। ___ साधु के २७ गुण, जम्बूद्वीप में अभिजत् नक्षत्र को छोड़कर चाकी २७ नक्षत्रों से व्यवहार होता है, नक्षत्र मास सत्ताईस दिन रात का होता है, सौधर्म और ईशानकल्प में विमानों का बाहन्य २७सौ योजन है,वेदकसम्यक्त्व के वन्ध से निवर्तने वाले जीव के मोहनीय कर्म की २७ प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं, श्रावण शुक्ला सप्तमी को पौरिसी २७ अंगुल की होती है, २७ पल्यापम तथा २७सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव।।
२८आचारकल्प,मन्यजीवों के मोहनीय कर्म की २८प्रकतियाँ सत्ता में रहती हैं, मतिज्ञान के २८ मेद, ईशानकल्प में २८ लाख विमान हैं, देवगति का बन्ध होते समय जीव नाम कर्म की २८ प्रकृतियाँ घाँधता है, नारक जीव भी २८ प्रकृतियाँ वाँधते हैं, २८ पल्योपम तथा २८सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव ।
२६ पापभुतप्रसंग, २६ दिन रात वाले महीने, चन्द्रमास में २६ दिन होते हैं, शुभपरिणामों वाला सम्यग्दृष्टि भव्य जीव २६ प्रकृतियाँ बाँधता है, २६ पल्योपम तथा २६ सागरोपम की स्थिति वाले देव और नारकी जीव। । ३०महामोहनीय स्थान, मंडितपुत्र स्थविर ३० वर्ष की दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध हुए, ३०मुहूर्य का एक अहोरात्र होता है. ३० मुहत्तों के ३० नाम, अरनाथ भगवान की अवगाहना ३०
।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग
१२१
घनुष की थी, सहसार देवलोक के इन्द्र के अधीन ३० हजार सामानिक देव हैं, भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर ३० वर्ष तक-गृहस्थावास में रह कर साधु हुए, रत्नप्रभा में ३० लाख नरकावास-है, ३० पल्योपम तथा सागरोपम की स्थिति वाले देव तथा नारकी जीव ।
सिद्धों के ३१ गुण, मन्दराचल पर्वत का घेरा पृथ्वी पर कुछ कम ३१६२३ योजन है. सूर्य का सर्व वाह्यमण्डल में चतुःस्पर्शगति प्रमाण ३१८३१३० योजन है, अभिवद्धित मास कुछ अधिक ३१ रात दिन का होता है, आदित्य मास कुछ कम ३१ रातदिन का होता है, ३१ पन्योपम तथा सागरोपम की स्थिति वाले देव तथा नारकी जीव ।
३२ योगसंग्रह, ३२ देवेन्द्र, कुन्थुनाथ भगवान् के शासन में ३२ सौ ३२ केवली थे, ३२ प्रकार का नात्य, ३२ पल्योपम तथा ३२ सागरोपम की आयु वाले देव तथा नारकी जीव । -
३३ अाशातनाएं, चमरचंचा राजधानी में ३३ मझले महल है। महाविदेह क्षेत्र की चौड़ाई ३३ हजार योजन तृतीय वाह्यमंडल में सूर्य का चक्षुः स्पर्श गति प्रमाण कुछ कम ३३ हजार योजन, ३३ पन्योपम 'तथा सागरोपम की स्थिति वाले देव तथा नारकी जीव ।
३४ अतिशय, ३४ चक्रवर्ती विनय, जम्बूद्वीप में २४ दीर्घवाड्या जम्बूद्वीप मे उत्कृष्ट ३४ तीर्थङ्कर होते हैं, चमरेन्द्र के अधीन ३४ लाख भवन है, पहली, पांचवीं, छठी और सातवीं पृथ्वियों मे ३४ लाख नरकावास है।
वाणी के ३५ अतिशय, कुन्थुनाथ भगवान् और नन्दन बलदेव की अवगाहना ३५ धनुष, सौधर्म देवलोक की सुधर्मा सभा में माणवक नामक चैत्यस्तम्भ है, उसमें साढे बारह योजन नीचे और साढे बारह योजन ऊपर छोड़ कर बीच मे ३५ योजन वज्रमय गोलाकार समुद्र कडा है उसमें जिन भगवान की दाढाएं हैं। दूसरी और चौथी नारकी मे ३५ लाख नरकावास हैं।
३६ अध्ययन उत्तराध्ययन के, चमरेन्द्र की सुर्धर्मा सभा की ऊँचाई ३६ योजन, भगवान महावीर के शासन में ३६ हजार आर्याएं, चेत्र
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भान
e
-
-
और पासोज मासज में ३६ अंगुल की पोरिसी होती है। . '
कुन्थुनाथ भगवान के ३७ गण और गणधर, हैमवत और हैरएयवत पर्वतों की जीवा कुछ कम ३७६७४१ईयोजन है, विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित राजधानियों के प्रकार ३७ योजन ऊँचे हैं, क्षुद्रविमान प्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में ३७ उद्देशे हैं, कार्तिक कृष्ण सप्तमी को पोरिसी की छाया ३७ अंगुल होती है।
पार्श्वनाथ भगवान की ३८ हजार आर्याएं थीं, हैमवत और हैरण्यवत की जीवाओं का धनुःपृष्ठ कुछ कम ३८७४०१२ योजन है, अस्ताचल पर्वत का दूसरा कांड ३८ हजार योजन ऊँचा है, क्षुद्रविमान प्रविभक्ति के दूसरे वर्ग में ३८ उद्देशे हैं।
नमिनाथ भगवान् के शासन में ३६ सौ अवधिज्ञानी थे,३६ कुलपर्वत, दूसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवीं नरक में ३९ लाख नरकावास हैं, ज्ञानावरणीय, मोहनीय, गोत्र और श्रायुष्य इन चार कर्मों की ३६ प्रकृतियाँ हैं। • अरिष्टनेमी भगवान के ४० हजार आर्यिकाएं थीं, मन्दर पर्वत की चूलिका ४० योजन ऊँची है, शान्तिनाथ भगवान की अवगाहना ४० धनुष है, भूतानन्द नामक नागराज के राज्य में ४० लाख भवनपतियों के आवास हैं, क्षुद्रविमान प्रविभक्ति के तीसरे वर्ग में ४० उद्देशे हैं, फाल्गुन और कार्तिक की पूर्णिमा कोष्ट. अंगुल की पोरिसी होती है, महाशुक्र कल्प में ४०हजार विमान हैं।
नमिनाथ भगवान् के शासन में ४१ हजार आर्यिकाएं थीं,चार पृथ्वियों में ४१ लाख नरकावास है, महालया विमान प्रविभक्ति के पहले वर्ग में ४१ उद्देशे हैं।
श्रमण भगवान् महावीर कुछ अधिक ४२ वर्ष दीक्षापर्याय पाल कर सिद्ध हुए, जम्बूद्वीप की वाह्य परिधि से गोस्तूभ नामक पर्वत का ४२ हजार योजन अन्तर है, कालोद समुद्र में ४२ चन्द्र
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन अन्यमाला
तथा ४२ सूर्य हैं, सम्मूछिम सुजपरिसर्प की उत्कृष्ट आयु ४२ हजार वर्ष है, नामकर्म की ४२ प्रकृतियाँ, लवण समुद्र में ४२ हजार नाग देवता जम्बूद्वीप के तर्फ की पानी की वेला को रोकते हैं। महालयाविमान प्रविभक्ति के दूसरे वर्ग में ४२ उद्देशे हैं, अवसर्पिणी के पाँचवें और छठे आरे मिला कर तथा उत्सर्पिणी के पहले और दूसरे आरे मिला कर ४२ हजार वर्ष के हैं।
कर्मविपाक के ४३ अध्ययन, पहली,चौथी और पाँचवीं पृथ्वी में ४३ लाख नरकावास हैं, जम्बूद्वीप की जगती के पूर्व के चरमान्त से गोस्तूम पर्वत के पूर्व के चरमान्त का अन्तर ४३ हजार योजन है, महालयाविमान प्रविभक्ति के तीसरे वर्ग में ४३लह शे हैं
४४ अध्ययन ऋषिभापित हैं, विमलनाथ भगवान् के पाटानुपाट ४४ पुरुष सिद्ध हुए, धरणेन्द्र के अधीन ४४ लाख मवनपतियों के आवास हैं, महालयाविमान प्रविभक्ति के चौथे वर्ग में ४४ उद्दशे हैं। . मनुष्य क्षेत्र, सीमन्तक नरक तथा ईत्याग्भारा पृथ्वी की४५ लाख योजन लम्बाई चौड़ाई है, धर्मनाथ भगवान् की अवगाहना ४५ धनुष थी, मेरुपर्वत के चारों तरफ लवण समुद्र की परिधि का ४५ हजार योजन अन्तर है, छः नक्षत्रों का चन्द्र के साथ४५ मुहूर्त योग होता है, महालयाविमान प्रविभक्ति के पांचवें वर्ग में ४५ उद्देशे हैं।
'दृष्टिवाद में ४६ मातृकापद हैं, ब्राह्मी लिपि में ४६अक्षर हैं, प्रभजन नामक वायुकुमारेन्द्र के अधीन ४६ लाख भवनावास हैं, सूर्य का सर्वाम्यन्तर मण्डलचार होने पर ४७२६३६योजन चतुःस्पर्शगति परिमाण होता है, अग्निभूति अनगार ने४७ वर्षगृहस्थ में रह कर दीक्षा ली।
प्रत्येक चक्रवर्ती के राज्य में ४८ हजार पत्तन (नगर) होते हैं,
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला धर्मनाथ भगवान् के ४८ गण तथा ४८ गणधर थे सूर्यमण्डल का विष्कम्भ योजन है।
सप्तसप्तमिका मिनुपडिमा ४६ दिन में पूरी होती है, देवकुरु और उत्तरकुरु में युगलिए ४६ दिन में जवान होजाते हैं, तेइन्दिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति ४६ दिन है।
मुनिसुव्रत भगवान् के ५० हजार आर्यिकाएं थीं, अनन्तनाथ भगवान् तथा पुरुषोत्तम वासुदेव की अवगाहना ५० धनुष थी, दीर्घताढ्य पर्वतों की चौड़ाई मूल में ५० योजन है, लान्तककल्प में ५० हजार विमान है, ५० योजन लम्बी गुफाएं कंचन पर्वतों के शिखर ५० योजन चौड़े हैं। __ आचारांगप्रथम श्रुतस्कन्ध में५१ उद्देशे हैं,चमरेन्द्र और वलीन्द्र की सभा में ५१ सौ खम्भे हैं, सुप्रभ वलदेव ५१ लाख वर्षों की परमायु प्राप्त करके सिद्ध हुए, दर्शनावरणीय और नाम कर्म की मिलाकर ५१ उत्तरप्रकतियाँ हैं।
मोहनीय कर्म के ५२ नाम, पूर्व लवण समुद में गोस्तूभ पर्वत के पूर्व के चरमान्त से बड़वामुख महापाताल कलश के पश्चिम के चरमान्त के बीच में ५२ हजार योजन का अन्तर है। ज्ञानावरणीय नाम और अन्तराय की मिलाकर ५२प्रकृतियाँ है,सौधर्म,सनत्कुमार और माहेन्द्र कम्प में मिलाकर ५२ लाख विमान हैं।
देवकुरु और उत्तरकुरु कीजीवाएं कुछ अधिक ५३ हजार योजन लम्बी हैं, महाहिमवंत और रुक्मी पर्वत की जीवाएं ५३६३१६ योजन लम्बी हैं. भगवान महावीर के शासन में एक साल की दीक्षा पर्याय वाले ५३ श्मनगार पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए, सम्मृञ्छिम उरपरिसर्प की उत्कृष्ट स्थिति ५३ हजार वर्ष है।
५४उत्तम पुरुप,अरिष्टनेमि भगवान् ५४दिन छमस्थ पर्याय का पालन कर सिद्ध हुए. भगवान महावीर ने एक ही आसन से बैठे हुए ५४ प्रश्नों का उत्तर दिया अनन्तनाथ भगवान् के ५४ गणधर थे।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
मल्लिनाथ भगवान् ५५ हजार वर्ष की परमायु प्राप्त कर सिद्ध हुए, मन्दराचल के परिचम के चरमांत से विजय आदि द्वारों के पश्चिम के चरमान्त का अन्तर ५५ हजार योजन है, भगवान् महावीर अन्तिम रात्रि में ५५ अध्ययन वाला सुखविपाक और ५५ अध्ययन वाला दुःखविपाक पाठ कर सिद्ध हुए, पहली और दूसरी नरक में ५५ लाख नरफावास, दर्शनावरणीय, नाम और आयु तीन कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ ५५ हैं।
जम्बूद्वीप में ५६ नक्षत्र, विमलनाथ भगवान के ५६ गणधर, आचारांग की चूलिका छोड़ कर तीन गणिपिटकों में ५७ अध्ययन हैं, गोस्तूम पर्वत के पूर्व के चरमान्त से बड़वामुख नामक पाताल कलश के मध्यभाग तक का अन्तर ५७ हजार योजन, मल्लिनाथ भगवान के शासन में ५७ सौ.मनापर्ययज्ञानी थे, महाहिमस्त और रुक्मी पर्वतों की जीवा का धनु:पृष्ट ५७२०३११ योजन है।
पहली, दूसरी और पांचवीं पृथ्वियों में ५८ लाख नरकावास हैं, ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयुष्य, नाम और अन्तराय इन पांचों कर्मों की ५८ उत्तरप्रकृतियाँ हैं, गोस्तूम पर्वत के पश्चिम के. चरमांत से बड़वामुख नामक पाताल कलश के मध्य भाग तक का अन्तर ५८ हजार योजन है।
चंद्र संवत्सर की रफ ऋतु ५६ रात दिन की है, सम्भवनाथ भगवान् ५६ लाख पूर्व गृहस्थ में रहकर दीक्षित हुए, मल्लिनाथ भगवान् के शासन में ५8 सौ अवधिज्ञानी थे।
६० मुहूतों में सूर्य एक मण्डल पूरा करता है, लवण समुद्र में ६० हजार नाग देवता समुद्रवेला की रक्षा करते है, विमलनाथ भगगन की अवगाहना ६० धनुष थी, बलीन्द्र तथा ब्रह्म देवेन्द्र के ६० हजार सामानिक देवह,सौधर्म और ईशान दोनोंकल्पों में ६० लाख विमान हैं।
पाँच साल में ६१ ऋतुमास होते हैं,मेरु पर्वत का पहला काण्ड ६१ हजार योजन ऊंचा है, चन्द्रमण्डल और सूर्यमण्डल का समांश योजन का ६१ वॉ भाग है।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६ . श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पाँच साल के युग में ६२ पूर्णिमाएं तथा ६२ अमावस्याएं होती हैं, वासुपूज्य भगवान के ६२ गणधर थे, शुक्लपक्ष का चन्द्र प्रतिदिन ६२ वी भाग बढ़ता है और कृष्णपक्ष का घटता है, सौधर्म
और ईशान कल्पों के पहले पाथड़े में पहली आवली की प्रत्येक दिशा में ६२ विमान है सभी चैमानिकों में ६२ पाथड़े हैं।
भगवान् ऋषभनाथ ६३ लाख पूर्व गृहस्थ रहे, हरिवास और रम्यकवास युगलियों का उनके माता पिता ६३ दिन (जन्म दिन को छोड़ कर) पालन करते हैं। निषध और नीलवान पर्वत पर ६३ सूर्योदय के स्थान हैं।
अपिया मिथुपडिमा ६४ दिनरात तथा १८० मिक्षाओं में पूरी होती है, असुरकुमारों के ६४ लाख आवास हैं, चमरेन्द्र के ६४ हजार सामानिक देव हैं. प्रत्येक दधिमुख पर्वत ६४ हजार योजन चौड़ाई तथा ऊंचाई वाला है, सौधर्म, ईशान और ब्रह्मलोक तीन कल्पों में मिला कर ६४ लाख विमान हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के पास ६४ लड़ियों वाला महामूल्य मोतियों का हार होता है।
जम्बूद्वीप में ६५ सूर्य मण्डल, मौर्यपुत्र नामक सातवें गणधर ६५ वर्ष गृहस्थ रहे, सौधर्मावतंसक विमान की प्रत्येक बाहु पर ६५ मझले भौम (महल) है। __ मनुष्य क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध रूप प्रत्येक भाग में ६६ सूर्य तथा ६६ चन्द्र हैं। श्रेयांसनाथ भगवान् के ६६ गणधर थे। मतिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम नामेरी है। ___ पाँच साल में ६७ नक्षत्रमास होते हैं, हैमवत और हैरण्यवत की प्रत्येक बाहु ६७५५ क्योजन लम्बी है, मेरु पर्वत के पूर्व के चरमांत से गौतम द्वीप के पूर्व के चरमान्त का अन्तर ६७ हजार योजन है। सभी नक्षत्रों की क्षेत्र सीमा का समांश योजन का ६७ वॉ भाग है। ' धातकी खंड द्वीप में ६८ चक्रवर्तीविजय , ६८ राजधानियाँ हैं, ६८ अरिहन्त, ६८ चक्रवर्ती, ६८ बलदेव और इ८ वासुदेव होते
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
हैं। पुष्कराद्ध में भी ये सभी अड़सठ अड़सठ होते हैं।
समय क्षेत्र में मेरु को छोड़कर ६६ वर्ष (वासा) और वर्षधर पर्वत हैं। मंदर पर्वत के पश्चिम के चरमात से गौतमद्वीप के पश्चिम के चरमात का अन्तर ६६ हजार योजन है। मोहनीय को छोड़ बाकी सात कर्मों की ६६ उत्तरप्रकृतियाँ हैं। ''
भगवान महावीर के शासन में पचास दिन बीतने पर ७० रातदिन का वर्षाकल्प हता है। भगवान पार्श्वनाथ ७० वर्ष श्रमण पर्याय में रह कर सिद्ध हुए । वासुपूज्य भगवान् की अवगाहना ७० धनुष की थी। मोहनीय कर्म की उत्कट स्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। माहेन्द्र देवलोक में ७० हजार समानिक देव हैं।
चौथे चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु में ७१ दिनरात बीतने पर सूर्य आवृत्ति करता है। तीसरे वीर्यप्रवाद नामक पूर्व में ७१ प्राभूत हैं। अजितनाथ भगवान् ७१ लाख पूर्व गृहस्थ रह कर दीक्षित हुए । सगर चक्रवर्ती भी ७१ लाख पूर्व गृहस्थ रह कर दीक्षित हुए।
सुवर्णकुमारों के ७२ लाख आवास है। लवण समुद्र की बाह्य वेला को ७२ हजार नाग देवता धारण करते हैं। भगवान् महावीर की आयु ७२ वर्ष की थी। स्थविर अचलमाता की आयु भी ७२ वर्ष की थी। पुष्कराई में ७२ चन्द्र हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के पास ७२ हजार पुर होते हैं। ७२ कलाएं । सम्मूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की उत्कृष्ट श्रायु ७२ हजार वर्ष की होती है।
हरिवास और रम्यकवास क्षेत्रों की जीवाएं ७३९०११४+१ योजन लम्बी हैं। विजय नामक बलदेव ७३ लाख वर्ष की
आयु पूरी करके सिद्ध हुए। . ___ अग्निभूति गणधर ७४ वर्ष की आयु पूरी करके सिद्ध हुए । सीता
और सीतोदा महानदियों की लम्बाई पर्वत पर ७४ सौ योजन है। चौथी को छोड़ कर बाकी छः पृथ्वियों में मिला कर ७४ लाख नरकावास हैं।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
सुविधिनाथ भगवान के शासन में ७५ सौ केवली हुए । शीतलनाथ भगवान् ७५ हजार पूर्व गृहस्थ रह कर दीक्षित हुए। शान्तिनाथ भगवान् ७५ हजार वर्षे गृहस्थ रह कर दीक्षित हुए। विद्युत्कुमारों के ७६ लाख आवास हैं।
भरत चक्रवर्ती ७७ लाख पूर्व युवराज रहने के बाद सिंहासन पर , बैठे। अंगवंशीय ७७ राजाओं ने दीक्षा ली। गर्दतोय और तुषित दोनों के मिला कर ७७ हजार देवों का परिवार है। एक मुहर्त में ७७ लव होते हैं।
शक्र देवेन्द्र का वैश्रमण नामक दिवसाल ७८ लाख सुवणकुमार और द्वीपकुमरों के आवासों पर शासन करता है। अकम्पित महास्थविर ७८ वर्ष की आयु पूरी करके सिद्ध हुए। सूय के दक्षिणायन में जाने पर दिन मुहूर्त का वा भाग प्रतिदिन घटता जाता है और उतनी ही रात्रि पढ़ती जाती है। उत्तरायण होने पर उतना ही दिन बढ़ता और रात्रि घटती है। ३६ दिन में ७८ भाग घट जाता है।
बहवामुख, केतुक, यूप और ईश्वर नामक पातालकलश और रत्न-' प्रभा के अन्तिम भाग का अन्तर ७६ हजार योजन है। छठी पृथ्वी के मध्यभाग से घनोदधि का अन्तिम भाग७६ हजार योजन है जम्बूद्वीप के द्वारों में परस्पर कुछ अधिक ७६ हजार योजन का अन्तर है।
श्रेयांसनाथ भगवान्, त्रिपृष्ट वासुदेव और अचल बलदेव की अवगाहना ८० धनुष थी। त्रिपुष्ट वासुदेव ने ८० लाख वर्ष राज्य किया। रत्नप्रभा के अब्बहुल काण्ड की मोटाई ८० हजार योजन है। ईशानदेवेन्द्र के ८० हजार सामानिक देव हैं। जम्बूद्वीप में १५० योजन अवगाहन कर सूर्य उत्तर दिशा में उदित होता है।
नवनवमिका नामक भिक्षुपडिमा ८१ दिन में पूरी होती है । कुन्थु
* गर्दतीय और तुषित इन दोनों देवों की सम्मिलित परिवार संख्या के विषय में समवायाग ओर भगवती सूत्रमें पाठ इस प्रकार है:गहतोय तुसियाण देवाण सत्तहत्तरि देवसहस्सपरिवारा परबत्ता।
(समावायाग सूत्र ७७ वा समाषाय) गद्दतीयतुसियाण देवाणं सत्त देवा सत्तदेवसहस्सा पएणत्ता ।
(भगवती सत्र शतक ६ उद्देशक ५ सूत्र २४३)
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग १२६ सूत्र में ८१ महायुग्म शत हैं यानी अन्तर्शतक हैं अर्थात् पैंतीसवें, छत्तीसवें, सैंतीसवें, अड़तीसवें, और उनचालीसवें शतक में बारह बारह अन्तर्शतक हैं। ये ६० अन्तर्शतक हुए । चालीसवें शतक में २१ अन्तर्शतक है। ये कुल मिला कर ८१ महायुग्म अन्तशतक है।
सूर्य १८२ मण्डलों को दो चार संक्रमण करता हुआ गति करता है। श्रमण भगवान् महावीर का ८२ दिन के बाद दूसरे गर्भ में संक्रमण हुआ था। महाहिमवन्त और रुक्मी पर्वत ऊपरी भागों से सौगन्धिक कांड के नीचे तक ८२ सौ योजन का अन्तर है।
भगवान् महावीर का ८३ वीं रात्रि में गर्म परिवर्तन हुआ। शीतलनाथ भगवान् के ८३ गण और ८३ गणधर थे। मंडितपुत्र स्थविर ८३ वर्ष की आयु पूरी करके सिद्ध हुए। अपभदेव भगवान् ३ लाख पूर्व गृहस्थ रह कर दीक्षित हुए । भरत चक्रवर्ती ८३ लाख पूर्व गृहस्थ रह कर सर्वज्ञ हुए। ___ कुल नरकावास ८४ लाख हैं। ऋषभदेव भगवान्, वाली और सुन्दरी की पूर्ण आयु ८४ लाख पूर्व थी। श्रेयांसनाथ भगवान् ८४ लाख वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर सिद्ध हुए ! त्रिपृष्ठ वासुदेव ८४ लाख वर्ष आयु पूरी करके अप्रतिष्ठान नरक में उत्पन हुआ। शक देवेन्द्र के ८४ हजार सामानिक देव है। जम्बूद्वीप से बाहर के मेरु पर्वतों की ऊंचाई ८४ हजार योजन है। सभी अंजन पर्वतों की ऊंचाई ८४ हजार योजन है । हरिवास और रम्यकवास की जीवाओं का धनु:पृष्ठ भाग ८४०१६ योजन है । पङ्कबहुल काण्ड की मोटाई ८४ हजार योजन है । भगवती सूत्र में ८४ हजार पद हैं। ८४ लाख नागकुमारों के आवास | ८४ हजार प्रकीर्णक अन्यों की संख्या है। ८४ लाख जीवों की योनियाँ हैं। पूर्वाङ्ग से लेकर शीर्षप्रहेलिका संख्या तक उत्तरोतर संख्या ८४ गुणी होती जाती है। भगवान् ऋषभदेव के पास ८४ हजार साधु थे। स्व विमान ८४६७०२३ हैं।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
'श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला आचारांग सूत्र के कुल ८५ उद्देशे हैं। धातकीखंड और पुष्करार्द्ध के मेरु पर्वतों का तथा रुचक नाम के मांडलिक पर्वत का सर्वाङ्ग ८५ हजार योजन है । नन्दन वन के प्राधोमाग से सौगन्धिक कांड का अधोभाग ८५ सौ योजन अन्तर पर है। । . सुविधिनाथ भगवान के ८६ गणधर थे। सुपार्श्वनाथ भगपान के ८६०० वादी थे। दूसरी पृथ्वी के मध्यभाग से घनोदधि का अधोभाग ८६००० योजन अन्तर पर है।
मेरु पर्वत के पूर्वीय अन्त से गोस्तूम आवास पर्वतका पश्चिमी अन्त ८७००० योजन अन्तर पर है, इसी तरह मेरु पर्वत के दक्षिणी अन्त से उदकभास नामक पर्वत का उत्तरी अन्त, मेरु पर्वत के पश्चिमी अन्त से शंख नामक पर्वत का पूर्वीय अन्त, मेरु के उचरी अन्त से उदकसीम पर्वत का दक्षिणी अन्त ८७००० योजन अन्तर पर है। ज्ञानावरणीय और अन्तराय को छोड़ कर वाकी छः कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ मिला कर ८७ हैं। महाहिमवंत कूट और रुक्मिकूट के ऊपरी भाग से सौगन्धिक कांड का अधोभाग ८७०० योजन है। · प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के ८८ महाग्रहों का परिवार है । दृष्टि वाद के ८८ सूत्र हैं। मेरु के पूर्वीय अन्त से गोस्तूम का पूर्वीय अन्तं का अन्तर ८८ हजार योजन है । इसी तरह चारों दिशाओं में समझना चाहिए । दक्षिणायान में आया हुआ सूर्य ४४३ मंडल में मुहूर्त का माग दिन को कम कर देता है और उतनी ही रात को बढ़ा देता है। उत्तरायण में आने पर उतना ही दिन को बढ़ा देता है और रात को घटा देता है।
भगवान् ऋषभदेव सुषमदुषमा आरे के और भगवान महावीर दुषमसुषमा पारे के ८४ पन चाकी रहने पर सिद्ध हुए। हरिषण चक्रवर्ती ने ८१०० वर्षे राज्य किया । भगवान् शान्तिनाथ के अधीन ८६००० आर्याएं थीं।
शीतलनाथ भगवान की अवगाहना १० धनुष की थी। अजित
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बो ल संग्रह, चौथा भाग -- १३१ नाथ और शान्तिनाथ भगवान् के 8 गणधर थे। स्वयंभू वासुदेव १० वर्ष तक देश विजय करते रहे सभी गोल बैतादय पर्वतों के ऊपरी शिखर से लेकर सौगन्धिक कांड का अधोमाग 8००० योजन अन्तर पर है।
दूसरे की वैतावत्य करने की ६१ पडिमाएं हैं। कालोदधि समुद्र की परिधि कुछ अधिक ६१ लाख योजन है । कुन्थुनाथ भगवान् के साथ ६१०१ अवधिज्ञानी थे। भायु और गोत्र कर्म को छोड़ कर बाकी छ कर्मों की कुल ६१ उत्तरप्रकृतियाँ हैं। .
१२ पडिमाएं, स्थविर इन्द्रभूति १२ वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर सिद्ध हुए । मेरु पर्वत के मध्यभाग से गोस्तूम आदि चारों आवास पर्वतों का १२००० योजन अन्तर हैं।
चन्द्रप्रम स्वामी के १३ गण तथा १३ गणधर थे। शान्तिनाथ भगवान् के पास १३ सौ पूर्वधर थे। सूर्य के १३३ मंडल में प्रवेश करते तथा निकलते समय दिन और रात परावर होते हैं।
निषध और नीलवान् पर्वतों की जीवाएं ६४१५६४ योजन लम्बी है। अजितनाथ भगवान् के १४०० अवधिज्ञानी थे।
सुपार्श्वनाथ भगवान् के ६५ गण तथा ६५ गणधर थे। जम्बूद्वीप की सीमा से १५००० योजन लवण समुद्र में चार महापावालकलश हैं। लवणसमुद्र के प्रत्येक ओर १५ प्रदेशों के बाद एक प्रदेश ऊंचाई कम होती जाती है । कुन्थुनाथ भगवान ६५००० - वर्ष आयु पाल कर सिद्ध हुए । स्थविर मौर्यपुत्र ६५ वर्ष की आयु प्राप्त करके सिद्ध हुए।
प्रत्येक चक्रवर्ती के ९६ करोड़ गाँव होते हैं। वायुकुमारों के कुल ६६ लाख आवास हैं । कोस आदि नापने के लिए व्यावहारिक दंड ६६ अंगुल का होता है। इसी तरह धनुप, नालिका (लाठी),जूना,समूल आदि भी १६ भंगुल के होते हैं। सूर्य के सा
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
भ्यन्तर मंडत में होने पर पहले मुहूर्त की छाया १६ अंगुल होती है।
मेरु पर्वत के पश्चिमी अन्त से गोस्तूम पर्वत का पश्चिमी अन्त ६७ हजार योजन है। इसी प्रकार चारों दिशाओं में अन्तर जानना चाहिए। आठों कर्मों की ६७ उत्तरप्रकृयिाँ हैं । हरिपेण चक्रवर्ती कुछ कम ६७ वर्षे गृहस्थावास में रह कर दीक्षित हुए।
'नन्दनवन के ऊपरी अन्त से पंडक वन का अधोभाग 85 हजार योजन दूर है। मेरु पर्वत के पश्चिमी अन्त से गोस्तूम का पूर्वीय अन्त ६८ हजार योजन अतर पर है। इसी प्रकार चारों दिशाओं में जानना चाहिए । दक्षिण भरत का धनुः पृष्ठ कुछ कम ६८ सौ योजन है। दक्षिणायन के ४६ - मंडल में रहा हुआ सूर्य महत का भाग दिन को घटा देता है और रात को बढ़ा देता है। उत्तरायण में उतना ही दिन को घटा तथा रात को बढ़ा देता है। रेवती से लेकर ज्येष्ठा तक नक्षत्रों के कुल ८ तारे हैं।
मेरु पर्वत ६६ हजार योजन ऊंचा है। नन्दन वन के पूर्वीय अन्त से उसका पश्चिमी अन्त'हह सौ योजन है। इसी प्रकार दक्षिणी अन्त से उत्तरी अन्त 88 सौ योजन है । उत्तर में पहले सूर्य मंडल की हजार योजनझामेरी लम्बाई चौड़ाई है। दूसरा और तीसरा सूर्य मंडल साधिक है. हजार योजन लम्वा चौड़ा है। रत्नप्रभा पृथ्वी के अंजन नामक कांड के नीचे के चरमान्त से वायव्यन्तर देवों के ऊपर के चरमान्त का 86 सौ योजन अन्तर है।
दशदशमिका नाम भिक्खुडिमा १००दिन में पूरी होती है। शत- . भिषा नक्षत्र के १०० तारे हैं । सुविधिनाथ भगवान् की. अवगाहना १००धनुष की थी । पार्श्वनाथ भगवान् १०० वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर सिद्ध हुए।स्थविर आर्य सुधर्मा भी १०० वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर सिद्ध हुए। प्रत्येक दीर्घ वैताढ्य पर्वत की ऊँचाई १०० कोस है। प्रत्येक चुल्लहिमवान, शिखरी और वर्षधर पर्वत १०० .
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग __ _ १३३ योजन ऊँचा तथा १०० कोस उवध वाला है। सभी कांचन पर्वत १०० योजन ऊंचे, १०० कोस उद्वध वाले तथा मूल में १०० योजन विष्कम्भ वाले हैं।
भगवान चन्द्रप्रभ की १५० धनुष की अवगाहना थी। आरण कल्प में १५० विमान हैं। अच्युतकल्प में भी १५० विमान हैं।
सुपार्श्वनाथ भगवान् की अवगाहना २०० धनुष है । प्रत्येक महाहिमवान्, रुक्मी और वर्षधर पर्वत २०० योजन ऊंचा है तथा २०० कोस उद्धघ वाला है । जम्बूद्वीप में २०० कांचन पर्वत हैं।
भगवान् पद्मप्रभ की अवगाहना २५० धनुष की थी । असुरकुमारों के मुख्य प्रासाद २५० योजन ऊंचे हैं। '
सुमतिनाथ भगवान की अवगाहना ३०० धनुष की थी। अरिष्ठनेमि भगवान् ३०० वर्ष गृहस्थवास में रह कर दीक्षित हुए । वैमानिक देवों के विमानों का प्राकार ३०० योजन ऊँचा है। भगवान् महावीर के पास ३०० चौदह पूर्वधारी थे। पांच सौ धनुष अवगाहना वाले चरम शरीरी जीव की मोक्ष में कुछ अधिक ३०० धनुप अवगाहना रह जाती है। -
पार्श्वनाथ भगवान के पास ३५० चौदह पूर्वधारी थे। अमिनंदन भगवान् की, अवगाहना ३५० धनुष की थी।
संभवनाथ भगवान् की अवगाहना ४०० धनुष की थी। प्रत्येक निषध तथा नीलवान् पर्वत ४०० योजन ऊंचा और ४०० कोस उद्घध वाला है। आनत और प्राणत कन्पों में मिला कर ४०० विमान हैं । श्रमण भगवान् महावीर के पास ४०० वादी थे। ' अजितनाथ भगवान् और सगर चक्रवर्ती की अवगाहना ४५० धनुष की थी। सभी वक्षस्कार पर्वत सीता आदि नदियों के किनारे तथा मेरु पर्वत के समीप ५०० योजन ऊंचे तथा ५०० कोस उद्वेध वाले हैं। सभी वर्षधर पर्वत ५०० योजन ऊंचे तथा ५०० योजन
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
मूल में विष्कम वाले हैं। भगवान ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती की अवगाहना ५०० धनुष थी। सौमनस, गंधमादन, विधु प्रभ और मालवन्त पर्वतों की ऊंचाई ५०० योजन तथा उद्वध'५०० कोस है। हरि और हरिसह को छोड़ कर बाकी सभी वक्षस्कार पर्वतों के कूट ५०० योजन ऊंचे और ५०० योजन लम्बाई चौड़ाई वाले हैं। बलकूट को छोड़ कर सभी नंदनकूट भी ५०० योजन ऊंचे तथा मूल में ५०० योजन लम्बाई चौड़ाई वाले हैं। सौधर्म और ईशानकल्प में प्रत्येक विमान ५०० योजन ऊंचा है।
सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के विमान ६०० योजन ऊंचे हैं। चुलहिमवान पर्वत के ऊपरी अन्त से नीचे समतल ६०० योजन अन्तर पर है, इसी तरह शिखरीकूट में भी जानना चाहिए। पार्श्वनाथ भगवान् के पास ६०० वादिसम्पदा थी। अभिचन्द्र कुलकर की अवगाहना ६०० धनुष की थी। वासुपूज्य भगवान् ६०० पुरुषों के साथ दीक्षित हुए।
ब्रह्म और लान्तक कन्पों में विमानों की ऊंचाई ७०० योजन है, श्रमण भगवान महावीर के पास ७०० जिन तथा ७०० क्रिय लब्धिधारी मुनि थे, अरिष्टनेमि भगवान् ७०० वर्ष की केलिपर्याय पाल कर सिद्ध हुए, महाहिमवंतकूट के ऊपरी अन्त से महाहिमवंत वर्षधर पर्वत का सम भूमितल ७०० योजन अन्तर पर है, रुक्मिकूट भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
महाशुक्र और सहस्रार कल्प में विमान ८०० योजन ऊ'चे हैं, रत्नप्रभा के पहले कांड में ८०० योजन तक वार्णव्यन्तरों के भूमिग्रह हैं, भगवान् महावीर के पास ८०० व्यक्ति अनुत्तरोववाई देवों में उत्पन होने वाले थे। रलप्रभा से ८०० योजन की ऊंचाई पर सूर्य की गति होती है। अरिष्टनेमि भगवान् के पास ८०० वादिसम्पदा थी।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग . १३५ । आनत, प्राणत, पारण और अच्युत कल्पों में विमान १०० योजन ऊंचे हैं। निषधकूट के ऊपरी शिखर से निपध वर्षघर का समतल भूभाग १०० योजन है। इसी तरह नीलवंत कूट का जानना चाहिए । विमलवाहन कुलकर की ऊंचाई १०० धनुष की थी। रत्न प्रभा के समतल भाग से तारामंडल ६०० योजन ऊंचा है। निपध और नीलवंत के जगरी शिखर से रत्नप्रभा के पहले काण्ड का मध्य भाग १०० योजन अन्तर पर है।।
वेपक विमानों की ऊंचाई १००० योजन है । यमक पर्वतों की ऊंचाई १००० योजन तथा उद्वेध १००० कोस है। मूल में लम्बाई चौड़ाई १००० योजन है। चित्र और विचित्रकूट भी इसी तरह समझने चाहिएं। प्रत्येक वर्तुल वैताट्य पति की ऊंचाई १००० योजन, उद्वर १००० कोस तथा मूल में लम्बाई चौड़ाई १००० योजा है। वक्षस्कार कूटी को छोड़ कर सभी हरि और हरिसह कूट १००० योजन ऊंचे तथा मून में १००० योजन विष्कम्भ वाले हैं। नन्दन कूट को छोड़ कर सभी वलकूट भी इसी तरह जानने चाहिएं । अरिष्टनेमि भगवान् १००० वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर सिद्ध हुए। पवनाथ भगवान् के पास १००० केवली थे। पार्श्वनाथ भगवान् के १००० शिष्य सिद्ध हुए। पद्म द्रह और पुण्डरीक द्रह १००० योजन विस्तार वाले हैं। ।
अनुत्तरोववाई देवों के विमान ११०० योजन ऊंचे हैं। पार्व नाथ भगवान के पास ११०० चैक्रिय लधिधारी थे।
महापन और महापुडकरीक द्रह २००० योजन विस्तार वाले हैं। रत्नप्रभा में वज्रकांड के ऊपरी भाग से लोहिताक्ष कांड का अधोभाग ३००० योजन है। तिगिच्छ और केसरी द्रह ४००० योजन विस्तार वाले हैं। मेरु का मध्य भाग रुचक नाभि से प्रत्येक दिशा में ५०००
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
श्री सेठिया जेन प्रन्थमाला
योजन अन्तर पर है।
सहस्रार कल्प में ६००० विमान हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी में रत्नकाण्ड के ऊपरी अन्त से पुलक कांड का अधोभाग ७००० योजन अन्तर पर है।
हरिवास और रम्यकवासों का विस्तार कुछ अधिक ८००० योजन है।
दक्षिणाई भरतक्षेत्र की जीवा १००० योजन लम्बी है। मेरु पर्वत पृथ्वी पर १०००० विष्कम्भ वाला है। लवणसमुद्र का चक्राकार विष्कम्भ २ लाख योजन है। पावनाथ भगवान् के पास ३ लाख २७ हजार उत्कृष्ट श्राविका - सम्पदाथी।
धातकोखण्ड द्वीप का गोल घेरा ४ लाख योजन है।
लवणसमुद्र के पूर्वी अन्त से पश्चिमी अन्त का अन्तर ५ लाख योजन है।
भरत चक्रवर्ती ६ लाख पूर्व राज्य करने के बाद साधु हुए। जम्बूद्वीप की पूर्वीय वेदिका के अन्त से घातकोखण्ड का पश्चिमी अन्त ७ लाख योजन अन्तर पर है। माहेन्द्रकल्प में ८ लाख विमान हैं।
अजितनाथ भगवान् के पास कुछ अधिक 8 हजार अवधिज्ञानी थे।
पुरुषसिंह वासुदेव दस लाख वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर पाँची नरक में उत्पन्न हुए।
भगवान महावीर छठे पूर्वभव में पोट्टिल अनगार के रूप में एक करोड़ वर्ष की साधुपर्याय पाल कर सहसार कल्य के सर्वार्थसिद्ध . विमान में उत्पन्न हुए।
ऋषभदेव भगवान् और महावीर भगवान के बीच एक कोड़ा
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
कोड़ी सागरोपम का अन्तर है
1
१३७
१२ गणिपिटक अर्थात् १२ अङ्ग और उनके विषयों का निरू पण | दृष्टिवाद के विवेचन में १४ पूर्वो का वर्णन ।
दो राशियाँ तथा उनके भेद । सात नरक तथा देवों का वर्णन | भवनपति आदि देवों के श्रावास, नरकों के दुःख, अवगाहना, स्थिति यादि का निरूपण ।
पॉच शरीर । प्रत्येक शरीर के भेद तथा अवगाहना । श्रवधिज्ञान के भेद | नरकों में वेदना । छः लेश्याएं । नारकी जीवों का श्राहार। श्रायुबन्ध के छः भेद | सभी गतियों का विरहकाल । I
छः संघयण । नारकी, तिर्यञ्च और देवों के संघयण । छः संठाण । नारकी आदि के संठाय । तीन वेद । चारों गतियों में वेद
गत उत्सर्पिणी के ७ कुलकर । गत अवसर्पिणी के १० कुलकर । वर्तमान अवसर्पिणी के ७ कुलकर। सात वर्तमान कुलकरों की भार्याएं। वर्तमान अवसर्पिणी के २४ तीर्थङ्करों के पिता । २४ तीर्थङ्करों की माताएं | २४ तीर्थङ्कर । इनके पूर्वभव के नाम । तीर्थङ्करों की २४ पालकियों तथा उनका वर्णन | तीर्थङ्करों के निष्क्रमण (संसारत्यांग) का वर्णन | तीर्थङ्करों की पहली मिक्षाओं का वर्णन । २४ चैत्यवृक्षों का वर्णन । तीर्थङ्करों के प्रथम शिष्य और शिष्याएं । 1 १२ चक्रवर्ती, उनके माता पिता तथा स्त्री रत्न ।
६ बलदेव तथा & वासुदेवों के माता पिता, उनका स्वरूप तथा नाम, पूर्वभव के नाम, वासुदेवों के पूर्वभव के धर्माचार्य, नियाया करने के स्थान तथा कारण, नौ प्रतिवासुदेव, वासुदेवों की गति, बलदेवों की गति ।
ऐरावत में इस अवसर्पिणी के २४ तीर्थङ्कर । भरतक्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणो के ७ कुलकर । ऐरावत में आगामी उत्सर्पिणी के १० कुलकर । भरत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी के २४ तीर्थङ्कर । उन
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
श्री सेठिया जेन प्रन्थमाला
के पूर्वभव तथा माता पिता श्रादि । श्रगामी उत्सर्पिणी के १२ 'चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ बासुदेव, नौ प्रतिवामुदेव । ऐरावत में आगामी उत्सर्पिणी के २४ तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि का वर्णन । (५) श्रीभगवती ( व्याख्या प्रज्ञप्ति)
( शतक संख्या ४१)
ग्यारह के अन्दर भगवती सूत्र पाँचवाँ अंग है। इसका खास नाम व्याख्या प्रज्ञप्ति है। इसमें स्वसमय, परसमय, स्वपरसमय जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक, लोकालोक, भिन्न भिन्न जाति के देव, राजा, राजर्षि आदि का वर्णन है। देव और मनुष्यों द्वारा पूछे गये छत्तीस हजार प्रश्न हैं । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उनका विस्तार पूर्वक उत्तर दिया है। इसमें एक तस्कन्ध है । कुछ अधिक सौ अध्ययन हैं । दस हजार उद्दे शक, दस हजार समुद्द ेशक, ३६ हजार प्रश्न और ८४ हजार पद हैं।
प्रथम शतक
( १ ) उद्देशक- रामोकार महामन्त्र दस उद्देशों के नाम, नमुत्थुणं ( शक्रस्तव), गौतम स्वामी का वर्णन, चलमान चलित इत्यादि प्रश्न का निर्णय, नारकी जीवों की स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार यादि विषयक प्रश्न | नारकी जीवों द्वारा पूर्वकाल में ग्रहण किये हुए पुद्गलों के परिणमन की चौभङ्गी, नारकी जीवों द्वारा पूर्वकाल में ग्रहण किये हुए पुद्गलों का चय, उपचय, उदीरणा, निर्जरा आदि की चौभङ्गी, नारकी जीवों द्वारा कौन से काल में तैजस कार्मण के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, नारकी चलित कर्म बाँधते हैं या प्रचलित, गंध, उदय, वेदना आदि विषयक प्रश्न, असुर कुमारों की स्थिति, श्वासोच्छ्वास आदि विषयक प्रश्न, जीव आत्मारम्भी, परारम्भी, तदुभयारम्भी या अनारम्भी है इत्यादि प्रश्न, २४ दंडकों के ऊपर भी उपरोक्त प्रश्न, जीव में जो ज्ञान, दर्शन,
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग १३६ चारित्र, तप, संयम है वह इहभव सम्बन्धी, परभव सम्बन्धी या उभयभव सम्बन्धी है इत्यादि विषयक प्रश्न, असंवृत (जिसने आश्रवों को नहीं रोका है। साधु- और संवृत (आश्रवों को रोकने वाला) साधु, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है या नहीं ? असंयत, अविरत, अप्रत्याख्यानी जीव मर कर देवलोक में उत्पन होता है या नहीं ? वायव्यन्तर देवताओं के विमान कैसे हैं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर। ,
(२) उद्देशक-जीव स्वकृत कर्मों को भोगता है यापरकृत १२४ दंडक के विषय में पृथक् पृथक रूप से यही प्रश्न, जीव अपना बांधा हुआ आयुष्य भोगता है या नहीं? २४ दंडक के विषय में यही प्रश्न, सप नारकी जीवों का आहार, श्वासोच्छवास, शरीर, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, उत्पचि समय और प्रायु आदि समान हैया भिन्न भिन्न ? उत्पत्ति समय और आयु के विषय में चौमङ्गी। २४ दंडक पर आहार, लेश्या आदि चार बोल विषयक प्रश्न । उत्तर के लिए पनवणा के दूसरे उद्द'शे का निर्देश । संसार संचिट्ठणा, काल, जीव की अन्त क्रिया विषयक प्रश्न और उत्तर के लिए पनवणा के अन्त क्रिया पद का निर्देश (भलामण) । विराधक, अविराधक, संयती, असंयती आदि कौनसे देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं ? असंझी की आयु के चार भेद इत्यादि का वर्णन है।
(३) उद्देशक-जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बांधता और भोगता है ? वीतराग प्ररूपित तत्व सत्य एवं यथार्थ है इस प्रकार श्रद्धान करता हुआ जीव भगवान् की आज्ञा का पाराधक होता है । जीव किस निमित्त से मोहनीय कर्म वांघता है ? नारकी जीव काधामोहनीय कर्म गॉधता और वेदता है या नहीं? इत्यादि प्रश्न ।
(४) उद्देशक-कर्मों की प्रकृतियों के विषय में प्रश्न, उत्तर के लिए पनवखा के 'कम्मपडि' पद के प्रथम उद्देशे का निर्देश । जीव
।
इत्यादि प्रश्न ।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मोहनीय कर्म के उदय से परलोक जाने योग्य कर्म बांधता है । Treat आदि सभी जीव अपने किये हुए कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकते । कर्मों के प्रदेशवन्ध, अनुभागबन्ध, वेदना आदि का वर्णन, पुद्गल की नित्यता, जीव तप, सयम, ब्रह्मचर्य और आठ प्रवचन माता का यथावत् पालन करने से सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हो जाता है । अधोवधि और परमाधोवधि के तथा केवली आदि के विषय में प्रश्नोत्तर |
(५) उ०- पृथ्वी (नारकी), नरकावास, असुर कुमार, असुर कुमारों के आवास, पृथ्वीकाय के आवास, ज्योतिषी, ज्योतिषी देवों के आवास, वैमानिक देव, वैमानिक देवों के आवास, नारकी जीवों की स्थिति, नैरयिक क्रोध, मान, माया, लोभ सहित हैं इत्यादि के २७ मांगे तथा ८० भांगे, चौबीस दंडक पर इसी तरह २७ भांगे, स्थिति, स्थान आदि का विचार ।
(६) उद्द ेशक - उदय होता हुआ। सूर्य जितनी दूर से दिखाई देता है, अस्त होता हुआ भी उतनी ही दूर से दिखाई देता है. । सूर्य तपता है, प्रकाशित होता है, स्पर्श करता है इत्यादि । लोकान्त लोकान्तको स्पर्श करता है और अलोकान्त लोकान्त को । द्वीप समुद्र का स्पर्श करता है और समुद्र द्वीप का । जीव प्राणातिपात 1 आदि क्रियाएं स्पृष्ट या अस्पृष्ट करता है ! रोहक अणगार के प्रश्नो'तर | लोक स्थिति पर मशक का दृष्टान्त, जीव और पुद्गलों के पारस्परिक सम्बन्ध के लिए नौका (नाव) का दृष्टान्त । सदा प्रमाणोपेत सूक्ष्म स्नेहकाय (एक प्रकार का पानी) गिरता है इत्यादि विचार ।
(७) उ०- नरक में उत्पन्न होता हुआ जीव क्या सर्वरूप से उत्पन्न होता है या देश से इत्यादि चौभङ्गी, इस प्रकार चौबीस दंडक पर विचार | तीनों काल की अपेक्षा चौचीस दंडक में
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग
५१
आहार और उपस्थान का विचार ! विग्रहगति समापन और अविग्रहगति समापन का चौवीस दण्डक में विचार | जीव सैन्द्रिय, अनिन्द्रिय, सशरीर, अशरीर, आहारी या अनाहारी, उत्पन्न होता है ? पुत्र के शरीर में रुधिर, मांस और मस्तक की माँजी, ये तीन माता के अङ्ग हैं और अस्थि (हड्डी), अस्थिमिजा, केश, नख आदि तीन पिता के अङ्ग हैं। गर्भ में रहा हुआ जीर मर कर देवलोक और नरक में जाता है या नहीं ? गर्मगत जीव पाठा के सोने से सोता है, माता के बैठने से बैठता है । माता के सुखी होने से सुखी और दुःखी होने से दुःखी । इत्यादि का विस्तृत विचार ।
() उ० - एकान्त पालजीव (मिथ्यादृष्टि जीव) मर कर चारों गतियों में जाता है। एकान्त पण्डितजीव (सर्व विरत साधु) पर कर वैमानिक देव होता है अथवा मोक्ष में जाता है।पालपण्डित जीव (देश विरत सम्यग्दृष्टि श्रावक) मर कर वैमानिक देवताओं में उत्पन्न होता है। मृग मारने वाले मनुष्य को तीन चार यापाँच क्रियाएं लगती हैं। बाण लगने के बाद यदि ग ६ महीने में मर जायतो पॉच क्रियाएं लगती है और यदि मृग ६ महीने के बाद मरे तो चार क्रियाएं लगती हैं। यदि पुरुष पुरुष को मारेतो पाँच क्रियाएं लगती हैं। चौवीस दण्डक में सवीय और अवीर्य का विचार।
(६)उ०-जीव अधोगति का कारण भूत गुरुपना और ऊर्चगति का कारणभूत लघुपना कैसे प्राप्त करता है ? संसार को अन्प, प्रचुर, दीर्घ, हव अनन्त परित्त आदि करने का विचार । सातवीं नारकी के नीचे का प्रदेश गुरुलघु अगुरुलघु है इत्यादि प्रश्न । साधु के लिए लघुता, अमूर्छा, अगृद्धता, अप्रतिवद्धता, अक्रोधता, अमानता, अमायित्व, निर्लोभता आदि प्रशस्त है। रागद्वप से रहित निन्थ संसार काभन्त करता है। अन्पथिकों
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन अन्यमाला
का कथन है कि जीव एक ही समय में इहमव सम्बन्धी और परमव सम्बन्धी आयु का बंध करता है । कालासवेशित नामक साधु के प्रश्नोत्तर । सेठ, दरिद्र, कृपण, राजा आदि को एक अप्रत्याख्यानी क्रिया लगती है । आषाकर्मी आहार विषयक विचार, प्राधाकर्मी आहार भोगने वाले साधु को बन्धने वाली कर्मप्रकृतियों का विचार ।
(१०) उ०-चलमाणे प्रचलिए, निजरिज्जमणे अणिज्जिरणे इत्यादि विषयक प्रश्नोत्तर एवं विस्तृत विचार । एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करने में समर्थ है या नहीं इत्यादि का विस्तृत विचार | नरकगति में नारकी कितने विरह काल से उत्पन्न होते हैं।
दूसरा शतक (१)उ०-पृथ्वी कायिक आदि एकेन्द्रिय और बेइन्द्रिय आदि जीवों के श्वासोच्छवास का विचार । वायुकाय की उत्पत्ति का विचार। मड़ाई (प्रासुकमोजी) निन्थ का विचार | प्राण, भूत जीव, सख का विचार । स्कन्दक परिवाजक, पिङ्गल निर्गन्थ और
साली श्रावक का अधिकार, बालमरण और पण्डितमरण का विस्तृत विचार।
(२) उ०-- समुद्घात के मेदों के लिए प्रश्न | उचर के लिए पन्नवणा के ३६ वे पद का निर्देश ।.
(३) उ०- पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में प्रश्न | उत्तर के लिये जीवामिगम के दूसो उद्देशे का निर्देश।
(४) उ०-इन्द्रियाँ कितनी है ? उत्तर के लिए पन्नवणा के पन्द्रहर्षे पद के पहले उद्देशे का निर्देश।
(५) उ०- अन्य यूथिक निन्य मर कर देवगति में जाता । है या नहीं ? एक समय में एक जीव दो वेदों को (स्त्रीवेद और - पुरुषवेद) वेदता है या नहीं ? उदकगर्म (वर्मा का गर्भ) और
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग १४३ स्त्रीगर्भ कितने समय तक रहता है। मनुष्य और निर्यश्च सम्बन्धी
और भी विचार । एक समय में कितने जीव पुत्ररूप से उत्पन्न होते ६१ धुनसेवी पुरुष को कौन सा असमय होता है ? तु गिया नगरी के श्रावकों का वर्णन, पाँच अभिगम, पूर्वकत संयम और तप के फल विषयक प्रश्न, राजगृह नगर के द्रह का वर्णन ।
(६) उ०-भाषा विषयक प्रश्न । उत्तर के लिये पावणा के ग्यारहवें मापापद का निर्देश।
(७) उ०-देवों के भेद और स्थान विषयक प्रश्न | उत्तर के लिए पनवणा के स्थान पद का निर्देश ।
(८) उ०- चमरेन्द्र और चमरेन्द्र की सभा का वर्णन ।
(६) उ०- समयक्षेत्र विषयक प्रश्न । उत्तर के लिए जीवाभिगम की भलामण।
(१०) उ०- पञ्चास्तिकाय का वर्णन, जीव उत्थान, कर्मबल, वीर्य से आत्मभाव को प्रकट करता है, लोकाकाश और अलो. काकाश में जीवादि हैं इत्यादि प्रश्न । दूसरे अस्तिकाय धर्मास्तिकाय के कितने माग को स्पर्श करते हैं।
तीसरा शतक (१) उद्देशा- दस उद्देशों के नाम, चमरेन्द्र की ऋद्धि और विकृर्वणा की शक्ति का वर्णन, चमरेन्द्र के सामानिक देव, बायस्त्रिंश, लोकपाल, अग्रमहिपी आदि की ऋद्धि का वर्णन, वलेन्द्र, वरणेन्द्र, ज्योतिषी देवों के इन्द्र, शक्रन्द्र की ऋद्धि, विकुर्वणा, सामानिक देव, आत्मरक्षक देव श्रादि की ऋद्धि का वर्णन, पाठ वर्षे श्रमण पर्याय का पालन कर इन्द्र के सामानिक देव बनने वाले तिष्यक अनगार का अधिकार, ईशानेन्द्र की वृद्धि एवं विकुर्वणाशक्ति का वर्णन, छ महीने श्रमण पयिय का पालन कर ईशानेन्द्र के सामानिक देव बनने वाले कुरुदत्त अनगार का वर्णन, सनत्कुमार इन्द्र से ऊपर
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४५
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
के सब लोकपालों की बिकुणा शक्ति का वर्णन, मौका नगरी, ईशानेन्द्र, तामली बालतपस्वी, पौर्यपुत्र प्रादि का अधिकार, शक्र - न्दू और ईशानेन्द्र के विमान, उनके श्रापस में होने वाले आलापसंलाप, मिलन, विवाद आदि का वर्णन, सनत्कुमारेन्द्र भन्य है या अभव्य ? इत्यादि प्रश्नोत्तर।
(२) उ०- चमरेन्द्र का सौधर्म देवलोक में गमन, वहाँ से भाग' कर भगवान महावीर स्वामी की शरण लेना, चमरेन्द्र पूर्वभव में पूरण नाम का बालतपस्वी था इत्यादि वर्णन !
(३) उ०-मंडितपुत्र अनगार का अधिकार, प्रारम्भी अवस्था तक जीव को मोक्ष नहीं, प्रमादी और अप्रमादी की कालस्थिति, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा श्रादि पर्यों पर लवण समुद्र के घटने और बढ़ने का कारण ।
(४)उ०- अवधिज्ञानी अनगार के वैक्रिय समुद्घात का वर्णन तथा चौमङ्गी, लब्धिधारी मुनरािज वृक्ष, काष्ठ तथा कन्द, मूल और फल, पत्र, बीज आदि के देखने विषयक तीन चौमङ्गियाँ, बायुकाय स्त्री और पुरुषके श्राकारकी विकुर्वणा नहीं कर सकता किन्तु अनेक योजन तक पताका रूप विकुर्वणा कर सकता है। मेघ की विकुर्वणा शक्ति विषयक प्रश्न ! मर कर नरक में जाने समय कौनसी लेश्या होती है ? चौवीस दण्डक पर यही प्रश्न मावितात्मा अनगार घाहरी पुद्गलों को लेकर वैभार गिरि को उन्लंघन करने में समर्थ होता है या नहीं ? मायी विकुर्वणा करता है अमायी नहीं इत्यादि विचार ।
(५)3०- मावितात्मा अनगार द्वारा स्त्री, हाथी, घोड़ा धादि अनेक प्रकार की विकुर्वणा का विस्तृत विचार।।
(६) उ०-मायी मिथ्याष्टि भनगार की विकर्वणा, तथाभाव के स्थान में अन्यथा भावरूप देखना अर्थात् वाखारसी के
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग
१४५
स्थान पर राजगृह और राजगृह के स्थान पर वाणारसी (वनारस) का भ्रम होना, सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुणा, सव स्थानों में याथातथ्यमाव से देखना, चमरेन्द्र के आत्मरक्षक देवों का वर्णन।
(७)उ०- शक्रन्द्र के लोकपालों का विचार और विमानों का विचार ।
(2)उ०-अमुरकुमार आदि दस भवनपतियों के नाम, उनके अधिपति देवों के नाम, पिशाच, ज्योतिषी और वाणव्यन्तर दवा के अधिपतियों के नाम और उन पर विचार ।
(8)उ०-पांच इन्द्रियों के कितने विषय है ? उत्तर के लिए श्री जीवाभिगम सूत्र की भलामण ।
(१०)उ००-चपरेन्द्र की सभा से लेकर अच्युतेन्द्र की सभा - तक का विचार।
चौथा शतक (१८)उ०-दस उद्देशों के नाम की गाथा। पहले से चोथे उद्देशे तक ईशानेन्द्र के लोकपाल और विमानों का प्रश्नोत्तर। पॉचत्रे से आठवें उद्देशे तक लोकपालों की राजधानियों का वर्णन ।
(8)उ०-- नरक में नैरयिक उत्पन्न होते हैं या अनैरयिक, इत्यादि विचार।
(१०) उ०--कृष्ण लेश्या, नील लेश्या श्रादि को प्राप्त कर जीव क्या तद्वर्णरूप से परिणत होता है ? उचर के लिए पन्नवणा के लेश्यापद की भलामण।
पाँचवॉ शतक (१)उ०-दस उद्देशों के नाम की गाथा. सर्य की गति विषयक प्रश्न, सूर्य की उत्तरार्द्ध एवं दक्षिणार्द्ध में गति आदि का विचार ।
(२)उ०-पुरोवात, पश्चाद्वात, मंदवात, महावात श्रादि वायु सम्बन्धी विचार, वायुकुमारों द्वारा वायु की उदीरणा, वायु मर
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
मप्रन्थमाला
४६ . श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कर वायु होना, स्पृष्ट, अस्पृष्ट, सशरीरी, अशरीरी आदि वायु सम्बन्धी विस्तृत विचार । श्रोदन, कुरुमाप, मदिरा आदि के शरीर सम्बन्धी प्रश्न | लवण समुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ, लोकस्थिनि । मादि का विचार।
(३)30 जाल मंदी हुई अन्थियों गाँठो)का दृष्टान्त देकर एक ही भव में और एक ही समय में एक ही जीव इस भव और पर भव सम्बन्धी आयुष्य का बेदन करता है, अन्य तीर्थकों के इस प्रकार के कथन का खएडन।
(४) 30-छमस्थ मनुष्य शंख, शृङ्ग, मृदङ्ग आदि का शर सुनता है। छमस्थ कषाय मोहनीय के उदय से हँसता है और सात या आठ कर्मों को बाँधता है । केवली नहीं हँसता । छन्नरथ मनुष्य दर्शनाबरणीय कर्म के उदय से निद्रा लेता है। निद्रा लेता हुश्रा सात पाठकर्म . माँघता है, किन्तु केवली नहीं बाँधता । हिरणगमेषी देव द्वारा स्त्री के गर्भ के संहरण विषयक विचार। अतिमुक्त कुमार का जल में पात्रीतिराने का अधिकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से महाशुक्र के देवतामन द्वारा प्रश्नोनर करते हैं। देवों की भाषा विषयक विचार । केवली अन्तिम शरीर को देखते हैं। केवली की तरह छमस्थ भी अन्तिम शरीर को देखने में समर्थ होता है या नहीं ? फेवली. प्रष्ट मन और वचन को धारण करता है । अनुत्तर विमानवासी देव अपने विमान में बैठा हुआ ही केवली के साथ पालाप संलाए करने में समर्थ होता है। अनुत्तरोपपातिक देव उदीर्णमोह, क्षीणमो? नहीं होते किन्तु उपशान्तमोह होते हैं। क्या केवली इन्द्रियों से जानते और देखते हैं। चौदह पूर्वधारी एक घड़े से हजार घड़े, एक, कपड़े से हजार कपड़े निकालने में समर्थ है इत्यादि प्रश्न।
(५)उ०-वस्थ मनुष्य अतीत, अनागत समय में सिद्ध होता है इत्यादि प्रश्न । उचर के लिए पहले शतक के चौथे उहशे की
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समूह, चौथा भाग
१४७
मलामण । सर्व प्राणी भृत जीव सत्व एवं भूत वेदना को वेदते हैं। नरक आदि २४ दण्डक में एवंभूत वेदना का प्रश्न | जम्बूद्वीप के इस अवसर्पिणी काल के सात कुलकर, तीर्थङ्करों के माता, पिता , बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदि के विषय में प्ररन।
(६) उ०-जीव किस प्रकार से दीर्घायु, अल्पायु, शुभ दीर्घायु, अशुभ दीर्घायु का बन्ध करता है इत्यादि विचार। चोर, पाण, धनुष को कितनी क्रिया लगती हैं ? शय्यातर पिण्ड, आधाकर्मी पिण्ड, आराधना, विराधना आदि विषयक प्रश्न । प्राचार्य, उपाध्याय अपने साधुओं को सूत्रार्थ देते हुए कितने भव करके मोक्ष जाते हैं ? दूसरे पर झूठा कलङ्क चढाने वाले का भव भ्रमण आदि ।
(७) उ०-- परमाणु पुद्गल, अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का विस्तृत विचार । परस्पर स्पर्शना संस्थिति, अन्तरकाल आदि का विचार। चौवीस दण्डक सारम्भी, सपरिग्रही का विचार। पाँच हेतु और पाँच अहेतु का कथन ।
(८)उ०--श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी शिष्य नारदपुत्र और निर्ग्रन्थीपुत्र की विस्तार पूर्वक चर्चा जीव घटते, बढ़ते या अवस्थित रहते हैं? चौबीस दण्डक के विषय में यही प्रश्न। जीव सोपचय, सापचय, निरुपचय, निरपचय है, इत्यादि का चौवीस दण्डक पर विचार।
(8) उ०-राजगृह नगर की वक्तव्यता । दिन में प्रकाश और रात्रि में अन्धकार का प्रश्न । सात नरक और असुर कुमारों में अन्धकार क्यों ? अशुभ पुद्गलों के कारण पृथ्वीकायादि से लेकर तेइन्द्रिय तक अन्धकार | चौरिन्द्रिय, मनुष्य यावत् वैमानिक देवों में शुभ पुद्गल, समय, श्रावलिका आदिकाल का ज्ञान मनुष्य आदि को है, नैरयिक जीवों को नहीं । पार्श्वनाथ मंगवान के शिष्यों को भगवान महावीर का परिचय, चार महानह से गॉच प्रहावर का
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
' श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
ग्रहण । देवताओं के मेद और देवलोकों का वर्णन |
(१०) उ०- चन्द्रमा का विचार | पाँचवें शतक के प्रथम उद्दशे की भलामण।
छठा शतक (१) उ०-दस उद्देशों की नाम सूचक गाथा, महावेदना और महानिर्जरा आदि विचार । महावेदना और महानिर्जरा पर चौभङ्गी।
(२) उ०-श्राहार विषयक प्रश्न । उत्तर के लिए पनवणा के आहार उद्देशे की भलामण।
(३) उ०-चन के उदाहरण से महाकर्म और अन्यकर्म का विचार, पुद्गलों का चय, उपचय, विलसा और प्रयोगसा गति । वन और जीव की सादि सान्तता का विचार, कर्म और कर्मों की स्थिति । कौनसा जीव कितने कर्म वाँधता है । स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों का अल्पबहुत्व।
(४) उ०-कोलादेश की अपेक्षा जीव संप्रदेश है या अप्रदेश इत्यादि भङ्ग।२४डएडक में प्रत्याख्यानीअप्रत्याख्यानी का विचार।
(५) उ०-तमस्काय का स्वरूप, स्थान, आकार, तमस्काय की लम्बाई चौड़ाई, तमस्काय के ग्राम, नगर, गृहादि का विचार मेष की उत्पत्ति, चन्द्र सूर्य सम्बन्धी विचार। तमस्काय के तेरह नाम । कृष्णराजियों के नाम, कृष्णराजियों की वक्तव्यता, पाठ कृप्यराजियों के बीच में आठ लोकान्तिक देवों के विमान ।
(६) उ०-रत्नप्रभा श्रादि सात पृथ्वियों के नाम, श्रावास । पाँच अनुत्तर विमान । मारणान्तिक समुद्घात का वर्णन ।
(७)उ०- शालि, जौ, गेहूँ इत्यादि धान कोठे में सुरक्षित रखे रहने पर कितने समय तक अंकुरोत्पत्ति के योग्य रहते हैं? कलाय, मसर, तिल, मूग, उड़द, कुलथ, चवला, तुवर, चना आदि धान्य पाँच वर्ष तक बीजोत्पत्ति के योग्य रहते हैं। असली, कुसुम, कौटूं,
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग १४ कांग, राल, सण, सरसों आदि धान्य सात वर्ष तक बीजोत्पनि के । योग्य रहते हैं। एक मुहूर्त के३७७३उच्छ्वास । प्रावलिका,उच्छवास, निश्वास, पाण,स्तोक,लव, मुहूर्ग, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु,अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वाङ्ग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अवांग, अवव,हूहूकांग, हूहूक, उत्पलोग,उत्पल, पांग, पद्म, नलिनांग, नलिन,अर्थनुपूरांग, अर्थनुपर, अयुतांग,अयुत,प्रयुतांग,प्रयुत,नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका इत्यादि गणनीय काल का स्वरूप, पन्योपम, सागरोपम आदि उपमेय काल, भरतक्षेत्र का आकार, भरतक्षेत्र के मनुष्यों का स्वरूप आदि। .
(८) उ०-रत्नप्रभा से ईपन्प्राग्भारा तक ८ पृथ्वियों का' स्वरूप एवं विस्तृत वर्णन, पृथ्वियों के नीचे मेघ, बादर अग्निकाय,
आदि का प्रश्न, सौधर्म, ईशान आदि देवलोकों के नीचे मेघ आदि का प्रश्न । लवण समुद्र सम्बन्धी प्रश्न, उत्तर के लिए श्रीजीवामिगम की भलामण । द्वीप समुद्रों के नाम ।
(8) उ-जीव ज्ञानावरणीय कर्म का पन्ध करता हुआ साथ में कितनी अन्य कर्म प्रकृतियों का वध करता है ? उत्तर के लिए पनवणा के बन्धोह शक की भलामण । महर्दिक देव बाह्य पुद्गलों को लेकर किस रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? विशुद्ध लेश्या वाले, भविशुद्ध लेश्या वाले देव के जानने और देखने विषयक बारह मङ्ग।
(१०)उ०-जीवों के सुख दुःखादि को कोई भी बाहर निकाल कर नहीं दिखला सकता। देव तीन चुटकी में जम्बूद्वीप की २१ प्रदक्षिणा कर सकता है। जीव के प्राण धारण करने विषयक प्रश्न । इसी तरह चौवीस दण्डक में प्रश्न । नैरयिकों का आहार, केवली और केवली की इन्द्रियाँ, केवली ज्ञान से ही देखते और जानते हैं।
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
सातवाँ शतक (१)उ०-जीव के अनाहारी होने का समय, लोक, संस्थान, सामायिक में रहे हुए श्रमणोपासक श्रावक को ईर्यावही क्रिया लगती है या साम्परायिकी ? पृथ्वी को खोदने से त्रसकाय अथवा वनस्पति की हिसा होती है। तथारूप अमण, माहण और साधु को शुद्ध पाहारादि देने से जीव समाधि को प्राप्त करता है यावत् मुक्ति को प्राप्त करता है । कर्मरहित जीव की गति । दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट (व्यात) होता है। उपयोग रहित चलते हुए अनगार को ईयर्यावही क्रिया लगती है या साम्परायिकी ? सदोष आहार पानी, निदोष आहार पानी, क्षेत्राविकान्तादि आहार पानी, अग्नि आदि शस्त्र परिणत आहार पानी आदि का निर्णय ।।
(२) उ० सर्व प्राणी, भूत, जीव, सच की हिंसा का पचक्खाण सुपञ्चक्खाण है या दुःपञ्चक्खाण ? मूलगुण पञ्चक्लाण, उत्तरगुण पच्चस्खाण इत्यादि का विस्तृत विवेचन ।
(३)उ०-वनस्पतिकाय अल्पाहारी और महाहारी, वनस्पतिकाय किस प्रकार आहार ग्रहण करती है ? अनन्तकाय वनस्पतिकाय के मेद, कृष्ण लेश्या वाले और नील लेश्या वाले नैरयिक के विषय में अल्पकर्म वाला और महाकर्म वाला आदि प्रश्न, इसी तरह २४ दण्डक में प्रश्न, नरक की वेदना निर्जरा है या नहीं? इसी प्रकार २४ दण्डक में प्रश्न निरयिकशाश्वत है या अशाश्वत इत्यादि प्रश्नोचर। .. (४)उ०-संसार समापन जीव के मेद आदि। श्री जीवाभिगम स्त्र की भलामण ।
(५) उ०-खेचर तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय के योनिसंग्रह विषयक, प्रश्न । उत्तर के लिए श्री जीवामिगम की भलामण ।
(६)उ०-नरयिक जीव कंब भायुबंध करता है ? उत्पन होने
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग - १५१ के पहले, पीछे-या उत्पन्न होते समय ? इसी प्रकार २४ दण्डकों में प्रश्न । नैरयिक जीव को उत्पन्न होने के पहले पीछे या उत्पम होते समय महावेदना होती है ? कर्कशवेदनीय और अंकर्कशवेदनीय, सातावेदनीय और असावावेदनीय का बंध किन किन जीवों को होता है ? इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के अवसर्पिणी काल के दुषमदुषमा नामक छठे आरे का विस्तृत वर्णन। - (७) उ०-संवत अनगार को ईयांपथिकी क्रिया लगती है या साम्परायिकी ? काम रूपी है या अरूपी ? काम सचित्त है या अचित्त ? काम जीव के होते हैं या अजीव के ? भोगों के लिए रूपी,अरूपी,सचित्त,अचित्त,जीव,अजीव आदि के प्रश्नाशब्द और रूप काम है,रस,गंध और स्पर्शमोग है। कामभोगी,नोकामी,नोमोगी, और भोगी पुरुषों का अल्पबहुल, असंही प्राणी अकाम वेदना वेदता है या सकाम १ इत्यादि विचार।
(0) उ.-क्या छमस्थ जीव सिर्फ संयम से ही मुक्ति जा सकता है ? उत्तर के लिए पहले शतक के चौथे उद्देशे की भलामण। हाथी और कुथुए का जीव बराबर है या छोटा पड़ा १ राजप्रश्नीय स्त्र की भलामण । नारकी जीव जो कर्म बाँधता है और बाँधेगा वह दुःख रूप है और जिसकी निर्जरा कर दी वह सुख रूप है। श्राहार संज्ञा आदि दस संज्ञाओं के नाम, नरक की दस वेदना । हाथी और कुंथुए के जीव को समान रूप से अप्रत्याख्यानी क्रिया लगती है। आधाकर्मी आहार के भोगने वाले को क्या बंध होता है ? उत्तर के लिए प्रथम शतक के नवें उद्देशे की भलामण ।
(६) उ०-असंवृत अनगार की विकुर्वणा का विचार, कोणिक राजा के साथ चेड़ा राजा एवं काशी देश और कौशल देश के नव मन्लि और नव लच्छी अठारह गण राजाओं के महाशिला कंटक संग्राम का वर्णन, संग्राम में लाख मनुष्य मारे गये और वे प्रायः नरक और तिर्यच गति में उत्पन हुए । रथमसल
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला सग्राम का वर्णन । वरुणनागनत्तुए नामक श्रावक की युद्ध के लिए तय्यारी, संग्राम में पहले वाण प्रहार करने वाले पर ही वाण प्रहार करने का अभिग्रह, युद्ध मे वरुण को सख्त प्रहार, युद्ध से वापिस लौट कर वरुण का संलेखना संथारा कर प्रथम सौधर्म देवलोक में जाना, देवलोक से चव कर महाविदेह में जन्म लेना
और वहाँ से मोक्ष में जाना। इसी तरह वरुण नागनत्त ए के बालमित्र का भी सारा वर्णन।
(१०)उ०-कालोदायी.शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नायो. दय, नोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक, सुहस्ती भादि अन्य यूथिकों के नाम । उनका पञ्चास्तिकाय के विषय में सन्देह । मंगवान् महावीर स्वामी के पास कालोदायी का श्रागमन और पञ्चास्तिकाय के विषय में प्रश्न, पापकर्म अशुभ विपाक सहित होते हैं और कल्याणकारी कर्मकन्याण फलयुक्त होते हैं? क्या प्रचित्त पुद्गल प्रकाश करते हैं ?
आठवाँ शतक (१) उ०-पुद्गल के परिणाम । २४ दण्डक के परिणाम विषयक प्रश्न और विस्तार पूर्वक विवेचन | प्रयोगसा, विनसा और मिश्र परिणाम विषयक वर्णन और अल्प बहुत्व । ।
(२)उ०-वृश्चिकपाशीविष, मण्डूक आशीविष, उरग आशीविष प्रादि प्राशीविषों का वर्णन । छमस्थ दस स्थानों को नहीं जानता और देखता है। ज्ञान के मेद और विस्तार पूर्वक विवेचन जीव ज्ञानी है या अज्ञानी १ २४ दण्डक में यही प्रश्नोचर। ज्ञानलब्धि प्रादि लब्धि के दस मेद । ज्ञानलब्धि के पाँच मेद, दर्शन.लब्धि के तीन भेद, अज्ञान लब्धि के तीन भेद, चारित्रलब्धि के पाँच मेद, वीर्य्य लब्धि के तीन मेद, लब्धिवान् जीव ज्ञानी है याज्ञानीपाँच बानों का विषय नन्दीरव की भलामण। मति
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समई, चौथा भाग.
ज्ञान आदि ज्ञानों के पर्यायों का अल्पबहुत्व |
(३) उ० - संख्यात जीविक, असंख्यात जीविक, अनन्त जीविक वनस्पति के भेद, जीव प्रदेशों से स्पृष्ट, अस्पृष्ट आदि का विचार | रत्न प्रभा यादि पृथ्वियों चरम प्रान्तवर्ती हैं या अचरम ? उत्तर के लिए श्रीपानया के चरमपद की भलामय । (४) उ० - पॉच क्रियाओं का वर्णन । श्रीपमवया के क्रियापद की भलामण ।
(५) उ० - सामायिक में स्थित श्रावक की स्त्री उसकी जाया कहलाती है या अजाया ? स्थूल प्राणातिपात के प्रत्याख्यान की विधि, प्रतीत प्राणातिपात यादि के प्रतिक्रमण के ४६ भांगे । श्राजीवक (गोशालक ) का सिद्धान्त, आजीविक के १२ श्रमणोपासकों के नाम | श्रावक के लिए त्याज्य इंगालकम्मे यदि पन्द्रह कर्मादान | देवलोकों के चार भेद । 1
( ६ ) उ०- तथारूप श्रमण माहण को प्रासुक और एपणीय आहार पानी देने से एकान्त निर्जरा होती है और गाढ कारण के अवसर पर अप्रासुक और अनेषणीय आहार पानी देने से पाप की अपेक्षा बहुत निर्जरा और निर्जरा की अपेक्षा अल्प पाप होता है तथा असंयती और श्रविरति को गुरुबुद्धि से किसी प्रकार का आहार पानी देने से एकान्त पाप कर्म होता है। जिस साधु का नाम लेकर भिक्षुक को आहार पानी दिया जाने वह उसी को ले जाकर देना चाहिए। आराधक और विराधक । निर्ग्रन्थ के समान निर्मन्थी (साध्वी) का भी आलापक । दीपक जलता है ' या ज्योत जलती है या ढकन इत्यादि प्रश्न । घर जलता है तो क्या भीत जलती है या टाटी १ जीव श्रदारिक आदि पाँच शरीरों से कितनी क्रिया कर सकता है। इसी प्रकार २४ दएडक में प्रश्न
१५३
(७) उ० - अन्य यूथिक त्रिविध असंयत और त्रिविध अविरत हैं वे अदव आदि का ग्रहण करते हैं, पृथ्वी आदि की हिसा
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला करते हैं। गति प्रपात का वर्णन, इसके लिए श्री पनवणा के प्रयोग पद की भलामण ।
(८)उ०-प्रत्यनीक का स्वरूप, गुरुप्रत्यनीक, गतिप्रत्यनीक, समूहप्रत्यनीक, अनुकम्पा प्रत्यनीक, भुतप्रत्यनीक, भावप्रत्यनीक, इन छहों के अवान्तर तीन तीन भेद, व्यवहार के पाँच मेद, पंध के मेद, २२ परिपह और उन परिषहों का ज्ञानावरणीयादि चार कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों में अन्तर्भाव । कर्म बन्ध रहित अयोगी केवली को कितने परिषह होते हैं ? उगता हुआ सूर्य दूर होते हुए भी पास कैसे दिखाई देता है ? इत्यादि सूर्य सम्बन्धी प्रश्न । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि के उगने सम्बन्धी प्रश्न ।मानुपोतर पर्वत से बाहर सूर्य चन्द्र श्रादि का प्रश्न । उत्तर के लिए श्री जीवामिगम की भलामण ।
(३) उ०-वन्ध के दो भेद-विससा बन्ध, प्रयोगवन्ध । विससा के दो भेद-सादि, अनादि । प्रयोग वन्ध के तीन भेद-अनादि अपर्यवसित, सादि अपर्यवसित, सादि सपर्यवसित । सादि सपर्यवसित के चार भेद-भालापन बन्ध, पालीन बन्ध, शरीर बन्ध, शरीर प्रयोग वन्ध । बन्धों के अवान्तर भेद और स्थिति काल धादि का विस्तृत विचार ।
(१०) उ०-शील श्रेष्ठ है या श्रुत, इस पर चौभङ्गी । ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट तीन आराधना,
और उनके फल, पुद्गल परिणाम के भेद, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान परिणाम के मेद, पुद्गलास्तिकाय का द्रव्य देश क्या है ? दो तीन चार आदि पाठ भङ्ग, लोकाकाश के प्रदेश, सब जीवों के आठ कर्मप्रकृतियाँ हैं, ज्ञानावरणीय के अनन्त अविभाग परिच्छेद. माठों कर्मों का पारस्परिक संबंध, जीव पुद्गल है या पुद्गल वाला ? सिद्धों तक यही प्रश्न और इसका विचार ।
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जेन सिद्धान्त बोन साह, चौथा भाग ।
१५५
नवॉ शतक (१) उ०-इस शतक के ३४ उद्देशों के नाम की गाथा।. जम्बूद्वीप के संस्थान आदि के विषय में प्रश्न । उत्तर के लिए श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की भलामण |
(२) उ०-जम्बूद्वीप में और लवण समुद्र में कितने चन्द्रमा हैं और उनका कितना परिवार है ? इत्यादि प्रश्न, उत्तर के लिए श्री जीवाभिगम सूत्र की भलामण ।
(३-३०) उ०-एकोरुक आदि २८ द्वीपों के नाम, उनकी लम्बाई चौड़ाई आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन । समझने के लिए श्री जीवाभिगम सूत्र की भलामण । इन २८ द्वीपों के २८ उद्देशे हैं।
(३१)उ०-केवली से धर्मप्रतिपादकवचन सुन कर किसी जीव को धर्म का बोध होता है ? बोधि का कारण प्रत्रज्या, प्रव्रज्या का कारण ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य का हेतु संयम, संयम का हेतु संघर, संबर का हेतु शास्त्रश्रवण । केवली से धर्म प्रतिपादक वचन सुने बिना भी किसी जीव को धर्म की प्राप्ति होती है। असोचा केवली और उनके शिष्य, प्रशिष्यों द्वारा दूसरों को प्रवज्या देने आदि का प्रश्न ।
(३२) उ०-श्री पार्श्वनाथ भगवान के प्रशिष्य श्री गांगेय भनगार के मांगों सम्बन्धी प्रश्नों का विस्तृत विवेचन । श्री भमण भगवान महावीर स्वामी के पास गांगेय अनगार का चार महावत से पाँच महाव्रत ग्रहण करना।
(३३) उ०-ब्राह्मणकुण्ड ग्राम के निवासी ऋषभदत्त प्रामण और उसकी पत्नी देवानन्दा बामणी का अधिकार । जमाली का अधिकार अर्थात् जमाली की प्रव्रज्या, अभिनिष्क्रमण महोत्सव, प्रबजित होकर ज्ञान उपार्जन करना, फिर अपने आपको अरिहन्त, जिन, केवली बतलाना, भगवान् महावीर स्वामी से अलग विचरना । जमाली मर कर तेरह सागर की स्थिति वाला किल्विषिक
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
देव हुवा। कुछ समय तक संसार परिभ्रमण करके सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त होगा।
(३४) उ०-कोई मनुष्य, मनुष्य, अश्व भादि को मारता हुआ मनुष्य और अश्व को मारता है या नोमनुष्य नोभश्व को मारता है ? प्रस, ऋषि आदि को मारने सम्बन्धी अनेक प्रश्नावच और वनस्पति आदि को हिलाते हुए वायुकाय को कितनी क्रिया लगती है ?
दसवाँ शतक (१) उ०-इस शतक के चौतीस उद्देशों के नामों की संग्रह गाथा, दस दिशाओं का विस्तार पूर्वक विवेचन । औदारिकादि पाँव शरीरों के संस्थान, अवगाहना आदि का प्रश्न । उत्तर के लिए • श्री पनवणा के 'श्रोगाहण संठाण' पद की भलामण ।
(२) उ०-संवत (संखुडा) असंधूत (मसंबुडा) को कौन सी क्रिया लगती है ? उचर के लिए सातवें शतक के पहले उद्देशे की मलामण। योनि के मेद, पनवणा के योनि पद की भलामण | वेदना कितने प्रकार की ? उत्तर के लिए दशा तस्कन्ध की भिक्खुपडिमा तक के अधिकार की भलामण । पाराधक विराधक का विचार ।
(३) उ०-देवता अपनी आत्मशक्ति से अपने से महर्द्धिक, समद्धिक और अन्पशृद्धिक देवतामों के कितने प्रावासों का उल्लंघन कर सकता है और उनके बीच में होकर निकल सकता है, इत्यादि प्रश्न । दौड़ता हुआ घोड़ा 'खुखु' शब्द क्यों करता है ? भाषा के आमंत्रणी, माज्ञापनी आदि बारह मेद।
(४) उ०-श्याम हस्ती अनगार का अधिकार, चमरेन्द्र,बलीन्द्र धरणेन्द्र, शक्रन्द्र, ईशानेन्द्र आदि इन्द्रों के त्रापस्त्रिंश देवों का अधिकार। (५) उ.-चमरेन्द्र, शकेन्द्र आदि इन्द्रों की तथा इनके सब
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग लोकपालों की अग्रमहिपियों का अधिकार, उनका परिवार । सभा में इन्द्र अपनी अग्रमहिषी के साथ भोग भोगने में समर्थ है या नहीं?
(६) उ०-शक्रन्द्र की सुधर्मा सभा की लम्बाई चौड़ाई आदि के विषय में प्रश्न । राजपनीय सूत्र में वर्णित सूर्याम देव की सभा की भलामण । (७-३४) उ०-उत्तरदिशा सम्बन्धी अट्ठाईस अन्तद्वीपों के २८ उद्देशे हैं। श्री जीवामिगम सूत्र की भलामण ।
ग्यारहवां शतक (१) उ०-इस शतक के बारह उद्देशों के नाप सूचक संग्रह गाथा, कमल का पत्ता एकजीवी है या अनेकजीवी ? इत्यादि विस्तृत अधिकार ।
(२) उ०-शालूक (कमल का कन्द) एक जीवी है या अनेकजीवी ?
(३-८) उ.-पलाश-पत्र, कुम्भिक वनस्पति, नालिका वनस्पति, पत्रपत्र, कर्णिका वनस्पति, नलिन वनस्पति एकजीवी है या अनेकजीवी ? इत्यादि प्रश्नोत्तर।
() उ०हस्तिनापुर का वर्णन, शिवराजा, शिवराजा का संकल्प, उसके पुत्र शिवभद्र' को राज्याभिषेक, शिवराजा की प्रव्रज्या, अभिग्रह, शिवराजर्षि का विभंगज्ञान, शिवराजर्षि का सात द्वीप समुद्र तक का ज्ञान, शिवराजर्षि का भगवान् महावीर के पास आगमन, प्रश्नोत्तर, तापसोचित उपकरणों का त्याग कर भगवान् के पास दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करना।।
(१०) उ०-लोक के मेद, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और तियंगलोक । लोक के संस्थान आदि का विवेचन । लोक का विस्तार, जीव प्रदेशों का अल्पवहुत्व आदि।
(११) उ०-वाणिज्यग्राम, दतिपलाश चैत्य, भगवान् को
पास दीक्षा लेकर अधोलोक, अब
का विस्तार
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
-
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला वन्दन के लिए सुदर्शन सेठ का आगमन, काल सम्बन्धी प्रश्न, चल राजा का अधिकार, रानी प्रभावती के देखे हुए सिंह के स्वप्न का फल. गर्भ का रक्षण, पुत्र जन्म, पुत्र जन्मोत्सव, पुत्र का नामस्थापन (महावल), महावल का पाणिग्रहण, धर्मघोष अनगार का आगमन, धर्मश्रवण, महायल कुमार की प्रव्रज्या, संयम का पालन कर ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न होना, वहां दस सागरोपम की स्थिति को पूर्ण करके वाणिज्यग्राम में सुदर्शन सेठ रूप से जन्म लेना, सुदर्शन सेठ को जाति स्मरण ज्ञान होना और दीक्षा अङ्गीकार कर आत्म कल्याण करना।
(१२) उ०-आलम्भिका नगरी के ऋषिभद्र नामक धावक का अधिकार, पुद्गल नामक परिव्राजक को विभंगज्ञान, शेष अधिकार शिवराजर्षि के समान है।
वारहवां शतक (१) उ०-श्रावस्ती नगरी के शंख और पुष्कली (पोखली) श्रावकों का अधिकार, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन के लिए जाना, प्रशन पानादि का सेवन करते हुए पौषध करना, शंख का प्रतिपूर्ण पौषध करना. तीन प्रकार की जागरिकाओं का फल, क्रोध और निन्दा का दुष्फल । शंख श्रावक प्रव्रज्या लेने में समर्थ है या नहीं ? शेप वृत्तान्त ऋषिभद्र पुत्र की तरह है।
(२) उ०-कोशाम्बी नगरी, शतानीक राजा, मृगावती रानी, जयंती श्रमणोपासिका का वर्णन, भगवान् के पास प्रश्नोचर, जयंती श्रमणोपासिका ने प्रव्रज्या अङ्गीकार की।शेष वर्णन देवानन्दा की तरह है।
(३) उ०- रत्नप्रभा आदि सात नारकियों का वर्णन | श्री जीवाभिगम सत्र की भलामण ।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ..' १८ (४) उ०-दो परमाणु पुद्गल से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त पुद्गल परमाणुओं तक की वक्तव्यता, पुद्गल परिवर्तन के मेद प्रमेद आदि का विस्तृत वर्णन ।
(५) उ०-प्राणातिपातादि क्रोध, मान, माया, लोम, रागद्वेष, वैनयिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि कितने वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाली होती है ? नैरयिक, पृथ्वीकायिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, धर्मास्तिकाय, कृष्णलेश्या आदि में वर्ण, गन्ध, रस आदि विषयक प्रश्न । (६) उ०. चन्द्रमा और राहु का विचार, चन्द्रमा का ग्रहण कैसे होता है ? चन्द्रमा सूर्य और राहु के काममोगों का विचार ।
(७) उ०-लोक का विस्तार, लोक का एक भी परमाणुप्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ पर यह जीव न जन्मा और न मरा हो । इस जीव का इस संसार में प्रत्येक प्राणी के साथ शत्रु, मित्र, माता, पिता, स्त्री पुत्र आदि रूप से सम्बन्ध हो चुका है।
(८) उ०- क्या महर्द्धिक देवता देवलोक से चवकर सर्प और हाथी के भव में जा सकता है और एक भवावतारी हो सकता है ? वानर, कुमकुट (कूकड़ा) आदि मर कर रत्नप्रभा आदि नरकों में उत्कृष्ट स्थिति वाला नैरयिक रूप से उत्पन्न हो सकता है या नहीं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर। (ह) उ०-देवता के भविक द्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव आदि पाँच मेद, ये देव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं कितनी स्थिति होती है ? आयु पूर्ण करके कहाँ जाते हैं ? इनका अन्तर काल, विकुर्वणा, तथा अल्पवहुत्व का विस्तार पूर्वक विवेचन ।
(१०) उ०-ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा आदि आत्मा के आठ मेद, इनका पारस्परिक सम्बन्ध, अल्पबहुत्व, द्विप्रादेशिक, त्रिपादेशिक, चतुः प्रादेशिक, पंचप्रादेशिक स्कन्ध और इनके भंग आदि का विस्तृत विवेचन ।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
तेरहवां शतक (१) रत्नप्रभा, शर्कराप्रमा श्रादि सात नरकों में नरकावासों की संख्या, उनका विस्तार । कितने जीव एक साथ नरक में उत्पन्न हो सकते हैं और कितने वहाँ से निकल सकते हैं ? किस लेश्या वाला जीव किस नरक में उत्पन्न होता है इत्यादि विचार ।
(२) उ०-देवताओं के मेद, देवताओं के विमानों की संख्या, उनकी लम्बाई चौड़ाई । असुरकुमारावास में एक समय में कितने जीव उत्पन्न हो सकते हैं ? इसी तरह अनुत्तर विमानों तक उत्पाद और उद्वर्तना विषयक प्रश्न । किस लेश्या वाला जीव कौनसे देवलोक में उत्पन्न हो सकता है ? इत्यादि अनेक प्रश्नोत्तर।
(३) उ०-नारकी जीवों के बाहार आदि के विषय में प्रश्न । उत्तर के लिए श्री पनवणा के परिचारणा पद की भलामण ।
(४) उ०-नरक, नरकावास, वेदना, नरकों का विस्तार । ऊप्रलोक और तिर्यग्लोक का विस्तार आदि। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि का जीवों और अजीवों के प्रति उपकार, अस्तिकायों के एक प्रदेश, दो प्रदेश,तीन प्रदेशआदि की वक्तव्यता। आठ रुचक प्रदेश और उनसे दिशाओं का विचार। लोक संस्थान सम विपम आदि का विचार।
(५) उ०-नैरयिक, सचित्त, अचित्त या मिश्र पाहार करते हैं। उत्तर के लिए श्री पनवणा सूत्र के श्राहार पद की भलामण ।
(६) उ०-नैरयिक अन्तर सहित उत्पन्न होते हैं या अन्तर रहित ? चमरेन्द्र और उसकी चमरचञ्चा राजधानी का वर्णन । चम्पा नगरी, सिन्धुसौवीर देश, उदायन राजा, प्रभावती रानी। उदायन राजा का भगवान महावीर स्वामी के चन्दन के लिए जाना। . अपने भाणेज केशीकुमार को राज्य भार देकर दीक्षा लेने का संकल्प, दीक्षा ग्रहण करना । उदायन राजा के पुत्र अमिचि
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
श्री जैन सिद्धन्त घोल समह, चौथा भाग १६१ कुमार का उदायन के प्रति द्वेष भाव । मर कर रत्नप्रभा नारकी के पास असुरकुमारों के आवासों में जन्म लेना । वहाँ से निकल कर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध गति को प्राप्त करना।
(७) उ०-भाषा क्या है अर्थात् भाषा आत्मा या अनात्मा, रूपी या अरूपी, सचित्त या अचित्त, जीव या अजीव १ इसी तरह काया और मन के विषय में भी प्रश्नोत्तर । मरण के पाँच भेद, प्राविचिकमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिकमरण, वालमरण, पंडितमरण प्रत्येक के क्रमशः ५, ५, ५, १२, २ भेद होते हैं । पण्डितमरण के पादपोपगमन और मात्र प्रत्याख्यान रूप दो भेद। इनके भी निरिम और अनि रिम, सप्रतिकर्म और अप्रतिकर्म आदि मेदों का विस्तार पूर्वक वर्णन ।
(८) उ०-कर्म एवं कर्मप्रकृतियों के विषय में प्रश्न । उचर के लिए पन्नवणा के 'बन्धस्थिति' नामक उद्देशे की भलामण ।
(E) उ०-लब्धिधारी अनगार जलोक, बीजंबोजक पक्षी, विडालक, जीवंजीवक (चकोर) पची, हंस, समुद्रकाक, चक्रहस्त (निसके हाथ में चक्र है), रत्नहस्त आदि अनेक प्रकार के रूप की विकर्षणा करने की शक्ति रखता है इत्यादि अधिकार ।
(१०) उ०-छामस्थिक समुद्घात के मेदों के विषय में प्रश्न । उत्तर के लिए श्री पनवणा स्त्र के 'समुद्घात पद की भलामण ।
चौदहवां शतक (१) उ०-इस शतक के दस उद्देशों की नाम सूचक संग्रह गाथा, भावितात्मा अनगार जो चरम देवावास का उल्लंघन कर परम देवावास को पहुँचा नहीं, वह काल करके कहाँ उत्पन्न हो ? इसी प्रकार असुरकुमार प्रादि के विषय में भी प्रश्नोचर । नैरयिकों की शीघ्रगति, नैरयिक श्रादि २४ दण्डक के जीव अनन्तरोपपन्न हैं, परम्परोपन्न हैं या अनन्तर परम्परानुपपन्न हैं ? इनका
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
श्रायुबन्ध श्रादि प्रश्न |
(२) उ०- उन्माद के भेद, नारकियों को कितनी तरह का उन्माद होता है ? क्या सुरकुमार, इन्द्र, ईशानेन्द्र यदि वृष्टि और तमस्काय करते हैं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर |
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
(३) उ० - महाकाय देव या असुरकुमार भावितात्मा अनगार के बीच में होकर जाने में समर्थ है या नहीं ? क्या नैरयिक, असुरकुमार, तिर्यञ्च पञ्च ेन्द्रिय यादि में विनय, सत्कार, श्रासनप्रदान आदि हैं ? क्या मनुष्य में विनय, सत्कारादि हैं ? अन्य ऋद्धि वाला देवता महर्द्धिक देवों के बीच से, समद्धिक देवता समर्द्धिक देवों के बीच से जाने में समर्थ है या नहीं ? वीच से जाने वाला देव शस्त्र 'प्रहार करके जा सकता है या बिना शस्त्र प्रहार किए ही जा सकता है ?
(४) उ०- भूत, भविष्यत् और वर्तमान में पुद्गल का परिणाम, भूत, भविष्यत् और वर्तमान में जीव का परिणाम, परमाणुपुद्गल शाश्वत, अशाश्वत, चरम, अचरम आदि प्रश्नोत्तर |
(५) उ०- क्या नैरयिक, असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार अनिकाय के बीच से होकर जाने में समर्थ हैं ? नैरयिक अनिष्टरूप, श्रनिष्टशब्द आदि दस स्थानों को भोगते हैं । पृथ्वीकायिक छः 'स्थानों को, वेइन्द्रिय दस स्थानों को, तेहन्द्रिय आठ स्थानों को, चौरिन्द्रियनंव स्थानों को, तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय, मनुष्य, वाणन्यन्तर, ज्योतिषी वैमानिक दस दस इष्ट अनिष्ट रूप स्थानों को भोगते हैं । महर्द्धिक देव क्या बाहरी पुद्गलों को लिए बिना पर्वत, भीत आदि को उल्लंघन करने में समर्थ है ? इत्यादि प्रश्नोत्तर |
·
(६) उ० – नैरयिक वीचिद्रव्य का आहार करते हैं या अवीचि द्रव्य का १ नैरयिकों के परिणाम, आहार, योनि, स्थिति आदि का विचार | शक्र ेन्द्र और ईशानेन्द्र को भोग भोगने की इच्छा होने पर किस प्रकार की विकुर्वणा करते हैं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर |
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओ जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग (७) उ०-केवल ज्ञान की प्राप्ति न होने से खिन्न चित्त हुए गौतम स्वामी को भगवान् महावीर का प्राश्वासन । द्रव्य तुल्यता, क्षेत्र तुन्यता आदि छः भेद, भन्नत्प्रत्याख्यानी अनगार आहार में मूञ्छित नहीं होता । लवसप्तम देवों का अर्थ ।
(८) उ०-रत्नप्रभा पृथ्वी का अन्य छः पृथ्वियों से अन्तर, रत्नप्रभा का सौधर्म देवलोक आदि से अन्तर । वारह देवलोकों का
और अनुत्तर विमान आदि की पारस्परिक अन्तर, शालवृक्ष, शाल यटिका, उंचर यष्टिका, अंवड़ परिव्राजक मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे? जम्भक देवों के मेद, स्थिति, स्थान आदि के विषय में प्रश्नोत्तर।
(8) उ०-भावितात्मा अनगार क्या अपनी कर्म लेश्या को जानता और देखता है ? क्या-पुद्गल प्रकाशित होता है ? नैरयिक यावत् असुरकुमार आदि को पात और अनात्त पुद्गल सुखकारी या दुःखकारी होते हैं ? महद्धिक देव हजार रूप की विकुर्वणा कर हजार भाषा बोलने में समर्थ हो सकता है ? सूर्य और सूर्य की प्रमा, श्रमणों के सुख की तुलना।
(१०) उ०-केवली और सिद्ध, छमस्थ को, अवधिज्ञानी को तथा रत्नप्रभा यावत् ईपत्याग्मारा पृथ्वी को जानते और देखते हैं। केवली शरीर को सकुचित एवं प्रसारित करते हैं तथा भाँख को खोलते और चन्द करते हैं इत्यादि प्रश्नोचर ।
पन्द्रहवॉ शतक (१) उ०-इस शतक में एक ही उद्देशा है। इसमें श्रमण मगवान महावीर के शिष्य गोशालक का अधिकार है। भगवान के पास दीक्षा लेना, शान पड़ना, तेजोलेश्या प्रकट करना, भगवान् को जलाने के लिए भगवान् पर तेजोलेश्या फेंकना, सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि को जला कर भस्म कर डालना । इसके सात दिन बाद गोशालक का काल कर जाना । मरते समय गोशालक
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
श्रीसेठिया जैन प्रन्थमाला का पश्चात्ताप । भगवान के शरीर में पीड़ाकारी दाह, उसकी शान्ति के लिए रेवती श्राविका के घर से विजोरापाक मंगाकर सेवन करना, रोग की शान्ति । सुनक्षत्र, सर्वानुभूति और गोशालक मर कर कहाँ गये और वहाँ से चव कर कहाँ जावेंगे इत्यादि प्रश्नोत्तर।
सोलहवां शतक (१) उ०-चौदह उद्देशों के नाम सूचक गाथा, वायुकाय की उत्पत्ति, वायुकाय का मरण, लोहे के चोट मारने वाले को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? जीव अधिकरणी है या अधिकरण, जीव
आत्माधिकरणी, पराधिकरणी या तदुभयाधिकरणी है ? शरीर, इन्द्रिय, योग आदि के मेद।
(२) उ०-जीवों को जरा और शोक होने का कारण । बरा और शोक का प्रश्न २४ दण्डकों में, पॉच प्रकार के अवग्रह का प्रश्न, शक्रन्द्र सत्यवादी है या मिथ्यावादी शक्रन्द्र सावध भाषा बोलता है या निरवध ? शक्रन्द्र भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक । कर्म चैतन्यकृत है या अचैतन्यकृत इत्यादि प्रश्नोत्तर।
(३) उ०-कर्मप्रकृतियाँ, ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हुआ जीव कितनी प्रकृतियों को वेदता है ? काउसग्ग में स्थित मुनि के अर्शको काटने वाले वैध और मुनि को कौनसी और कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? आतापना की विधि। .
(४) उ०-एक उपवास से साधु जितनी कर्म निर्जरा करता है, नारकी जीव हजार वर्ष में भी उतनी निर्जरा नहीं कर सकता है। श्रमण के अधिक कर्म क्षय होने का कारण तथा प्रश्नोचर ।
(५) उ. क्या देव वाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना यहाँ' पाने में या अन्य क्रिया करने में समर्थ है ? गंगदत्त देव का भगवान के पास आगमन । गंगदत्त देव भवसिद्धिक है या अमवसिद्धिक १ गंगदत्त देव को यह ऋद्धि कैसे मिली ? गंगदत्त देव के
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रो जेन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग १६५ पूर्वभव का कथन और उसकी स्थिति आदि का वर्णन।
(६)उ०-स्वप्नों का वर्णन । तीथङ्कर, चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव, माण्डलिक राजा की माता कितने स्वप्न देखती है ? छमस्थावस्था में देखे हुए भगवान् महावीर के दस स्वप्न और उनका फल । दूसरे सामान्य स्वप्नों के फल आदि का कथन ।
(७)उ०-उपयोग के मेद, श्री पन्नत्रणा सूत्र के उपयोग पद की भलामण।
(८)उ०-लोक का पूर्व, दक्षिण, ऊपर, नीचे का चरमान्त, रत्नप्रभा आदि के पूर्व, चरमान्त आदि की वक्तव्यता, कायिकी
आदि क्रियाओं का कथन । देव अलोक में हाथ फैलाने में समर्थ है या नहीं ?
(8)उ०-वलीन्द्र की सभा का अधिकार । (१०) उ०-अवधिज्ञान के मेदाश्री पन्नवणा मूत्र के तेतीसवें अवधि पद की भलामण । (११) उ०-द्वीपकुमारों के आहार, लेश्या आदि का प्रश्नोत्तर।
(१२-१४)उ०-वारहवें उद्देशे में उदधिक्कुमार, तेरहवें उद्देशे में दिशाकुमार और चौदहवे उद्देशे में स्तनितकुमारों के अाहार, लेश्या आदि का अधिकार है। .
सतरहबॉ शतक (१)उद्देशा-उदायी हस्ती कहाँ से मर कर आया है और मर कर कहाँ जायगा ? कायिकी आदि क्रियाओं का अधिकार, ताड़ वृक्ष को तथा वृक्ष के मूल को और कन्द को हिलाने वाले को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? शरीर, इन्द्रिय, योग इत्यादि का कथन । औदायिक, पारिणामिक आदि छ. भावों का कथन ।
(२)उ०-संयत, विरत जीव धर्म, अधर्म या धर्माधर्म में स्थित होता है ? २४ दण्डकों में यही प्रश्न वालमरण, पण्डित
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
मरण आदि के विषय में प्रश्न, क्या देव रूपी और रूपी पदार्थ की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? इत्यादि प्रश्नोतर |
(३) उ०- क्या शैलेशी अवस्था प्राप्त अनगार एजना ( कंपना ) श्रादि क्रिया करता है ! एजना के पाँच भेद । 'चलना' के तीन भेद शरीर चलना, इन्द्रिय चलना और योग चलना । चलना के कारण, संयोग आदि का फल |
"
(४) उ० - जीव प्राणातिपातादि रूप क्रिया क्या स्पृष्ट करता है या अस्पृष्ट १ २४ दण्डक में यही प्रश्न | क्या दुःख और वेदना आत्मकृत, परकृत या उभयकृत है ? जीव आत्मकृत दुःखादि का ही वेदन करता है, परकृत का नहीं ।
(५) उ० - ईशानेन्द्र की सभा की वक्तव्यता ।
3
(६) उ० – रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में पृथ्वीकाय के जीव मरण समुद्घात करके सौधर्म आदि देवलोकों में उत्पन्न होते हैं तो उत्पत्ति के पश्चात् और पहले भी वे आहार ग्रहण करते हैं । (७) उ०- सौधर्म देवलोक में पृथ्वीकायिक जीव मरण समुद्घात करके रत्नप्रभा यावत् ईषत्प्राग्भारा आदि पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं । वे उत्पत्ति के पहले और पश्चात् दोनों तरह से आहार के I पुद्गल ग्रहण करते हैं ।
(८) उ०- कायिक जीव रत्नप्रभा से सौधर्म देवलोक में काय रूप से उत्पन्न होते हैं' इत्यादि प्रश्नोत्तर |
( 8 ) उ०- कायिक जीव के सौधर्म देवलोक से रत्नप्रभा के घनोदधि वलय में अपकाय रूप से उत्पन्न होने की वक्तव्यता |
(१०-११) उ० - वायुकाय जीवों की रत्नप्रभा से सौधर्म देवलोक में और सौधर्म देवलोक से रत्नप्रभा में उत्पत्ति के समय श्राहारादि की वक्तव्यता |
(१२-१७) उ० – बारहवे से सतरहवं उद्द ेशे तक प्रत्येक में
५
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह चौथा भाग
१६७ क्रमशः एकेन्द्रिय, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, वायुकुमार, अग्निकुमारों के समान आहार, लेश्या का अल्पवहुत्व और ऋद्धि की वहुत्व की वक्तव्यता ।
अठारहवाँ शतक
( १ ) उद्देशा - जीव जीवभाव से और सिद्ध सिद्धभाव से प्रथम हैं या अप्रथम ? इसी तरह थाहारक, अनाहारक, भवसिद्धिक संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयम, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, पर्याप्त आदि द्वारों से प्रथम और अप्रथम की वक्तव्यता और इन्हीं द्वारों से चरम और अचरम की वक्तव्यता | (२) उ० कार्तिक सेठ का अधिकार ।
(३) उ०- माकन्दी पुत्र अनगार का अधिकार | भगवान से किये गये प्रश्नों का उत्तर । पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय से निकल कर जीव मनुष्य भव को प्राप्त कर मोक्ष जा सकता है । निर्जरित पुद्गल सर्वलोक व्यापी हैं। छद्मस्थ निर्जरा के पुद्गलों का वर्ण आदि देख सकता है ? बन्ध के प्रयोग वन्ध, विस्रसा चन्ध आदि भेद तथा इनका वर्णन ।
C
(४) उ० - प्राणातिपात, स्पावाद आदि जीव के परिभोग में आते भी हैं और नहीं भी आते, कषाय के वर्णन के लिए पन्नवणा के कषाय पद की भलामण | क्या नैरयिक यांवत् स्तनितकुमार यादि कृतयुग्म, कल्योज, द्वापरयुग्म आदि राशि रूप हैं । इसी प्रकार चौवीस दण्डकों तक प्रश्नोतर |
(५) उ० - असुरकुमारों में उत्पन होने वाले दो देवों में से एक के विशिष्ट रूपवान, सुन्दर और दूसरे के सामान्य रूपवान् होने का कारण, नरक में उत्पन होने वाले दो नैरयिकों में एक मिथ्या दृष्टि, महाकर्मा और महावेदना वाला और दूसरा सम्यग्दृष्टि, अल्पकर्मा और मन्पवेदना वाला क्यों होता है? चौबीस दण्डकों में
·
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला यही प्रश्नोत्तर । न रयिक आदि जीव धागे के भव का आयुष्य बाँध कर मरते हैं। देवों की इष्ट और अनिष्ट विकुर्वणा।
(६)उ०- गुड़, भ्रमर, कोयल आदि निश्चय नय से पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाले होते हैं। इसी प्रकार द्विप्रादेशिक, त्रिदेशिक यावत् अनन्त प्रादेशिक स्कन्ध में वर्णादि की वक्तव्यता की गई है।
(७) उ०-यक्षाविष्ट केवली सत्य और असत्य, सावद्य और निरवद्य भाषा बोलता है ऐसा अन्ययूथिकों का मन्तव्य । उपधि के सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त तीन भेद, प्रणिधान के दो मेद, मदुक श्रमणोपासक का अधिकार। देवों, का विकुर्वण सामर्थ्य, देवासुर संग्राम, देवों का गमन सामर्थ्य, देवों के पुण्यकर्म के क्षय का तारतम्य ।
(८) उ०-भावितात्मा अनगार के पैर नीचे दब कर यदि कोई जीव मर जाय तो ईर्ष्यापथिकी क्रिया लगती है। छमस्थ के ज्ञान का विषय, अन्य यूथिकों का गौतम स्वामी से प्रश्नोत्तर, अवधिज्ञानी के ज्ञान का विषय, ज्ञान और दर्शन के समय की भिन्नता।
() उ०-- भव्य द्रव्य नैरयिक यावत् वैमानिक देवों तक के आयुष्य का कथन ।
(१०) उ० वैक्रिय लब्धि का सामर्थ्य, वस्ति और वायुकाय की स्पर्शना, रत्नप्रभा और सौधर्म देवलोक के नीचे के द्रव्य । वाणिज्य ग्राम के सोमिल ब्राह्मण की यात्रा, यापनीय, अव्यावाध और प्रासुक विहार आदि के विषय में प्रश्न, सरीसव (सरसों). और कुलत्था भक्ष्य हैं या अभक्ष्य इत्यादि का निर्णय ।
उन्नीसवाँ शतक . - (१४२) उ०-लेश्या का अधिकार । श्री पन्नवणा सूत्र के
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग १६ सतरहवें 'लेश्या पद' के पाँचवें 'गोई शक की भलामण ।
(३) उ०-चार पाँच पृथ्वीकायिक मिल कर प्रत्येक शरीर बाँधते हैं। इनमें लेश्या द्वार, दृष्टिद्वार, ज्ञान द्वार,योग,उपयोग,किमाहार, स्थिति, उत्पाद-द्वार, समुद्घात, उद्वतना द्वार आदि का वर्णन । इसी प्रकार अप्कायिक, अमिकायिक, वनस्पतिकायिक जीवों में भी कहना चाहिये। पृथ्वीकायिक आदि की अवगाहना का अल्पवहुत्व, पृथ्वीकायिक आदि की पारस्परिक सूक्ष्मता, वादपन, शरीर. प्रमाण अवगाहना आदि का कथन । पृथ्वीकायिक, अफायिक आदि को कैसी पीड़ा होती है ? इत्यादि विचार।
(४) उ०-महाआसव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा की अपेक्षा नैरयिकों में १६ माँगे । इसी प्रकार २४ दण्डकों में कथन करना चाहिये।
(५) उ०-नरयिकों में अल्पस्थिति और महास्थिति, अल्प वेदना, महावेदना आदि का कथन ।
(६) उ०-द्वीप समुद्रों के संस्थान आदि के विषय में प्रश्न । उत्तर के लिए श्री जीवाभिगम सूत्र की भलामण ।
(७) उ०-भवनवासियों से वैमानिक देवों तक विमानों की संख्या, उनकी बनावट आदि के विषय में प्रश्नोत्तर । वे सब रनों के बने हुए हैं। .
(८) उ०-जीव, कर्म, शरीर, सर्वेन्द्रिय, भाषा, मन, कपाय, वणे, संस्थान, पंज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग आदि नितियों का स्वरूप।
(8) उ०-शरीरकरण, इन्द्रियकरण, पुद्गलकरण, वणंकरण संस्थानकरण आदि का विवेचन ।
(१०) उ०-वाणव्यन्तर देवों के सम आहार का प्रश्न । सोलहवें शतक के द्वीपकुमारों के उद्देशे की भलामण ।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
७.
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
• बीसवाँ शतक (१) उ० बेइन्द्रिय आदि जीवों के शरीर बन्ध का क्रम, लेश्या, संज्ञा, प्रज्ञा आदि का कथन, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी प्रश्न । पन्नवणा सूत्र की भलामण । पञ्चे न्द्रिय जीव चार पाँच मिल कर एक शरीर नहीं बाँधते इत्यादि ।
। (२) उ०-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के अभिवचनों (पर्याय नामों ) का कथन । ।
(३) उ०--प्राणातिपात आदि आत्मा के सिवाय नहीं परिणमते हैं । गर्भ में उपजता हुआ जीव कितने वर्ण, गन्ध आदि से परिणत होता है ? चारहवें शतक के पॉचवे उहशे की भलामण।
(४) उ०-इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का है ? पनवणा के पन्द्रहवें इन्द्रिय पद के दूसरे उद्देशे की भलामण ।
(५)-उ०--परमाणु में वर्णादि की वक्तव्यता, वर्ण, गन्ध आदि की अपेक्षा द्विप्रादेशिकस्कन्ध के ४२ मांगे, त्रिप्रादेशिकस्कन्ध के १२० भांगे, चतुः प्रादेशिकस्कन्ध के २२२ भांगे, पञ्चप्रादेशिक स्कन्ध के ३२४ मांगे, प्रादेशिक स्कन्ध के ४१४ भांगे, सातप्रादेशिक स्कन्ध के ४७४ माँगे, भ्रष्टप्रादेशिक स्कन्ध के ५०४ मांगे, नवप्रादेशिक स्कन्ध के ५१४ भाँगे। दस प्रादेशिक स्कन्ध के ५१६ मांगे। मृदु, कर्कश आदि स्पर्शों के मांगे । बादर स्कन्ध के स्पर्श की अपेक्षा १२९६ माँगे । परमाणु के द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव की अपेक्षा भिन्न भिन्न रीति से माँगे।
(६) उ०-रत्नप्रभा और शकराप्रभा के बीच से मर कर सौधर्म श्रादि में उत्पन्न होने वाले पृथ्वी कायिक, अप्काकिय आदि जीवों की उत्पति और आहार का पौर्वापयं ( पहले पीछे) का वर्णन ।
(७) उक-ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध, उदय, स्त्रीवेद का बन्ध, दर्शनमोहनीय कर्म के बन्ध आदि का कथन ।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जेन सिद्धान्त बोल्न संग्रह, चौथा भाग(८) उ०-१५ कर्म भूमि, ३० अकर्म भूमि का अधिकार । वर्तमान अवसर्पिणी के २४ तीर्थङ्करों के नाम, इनका पारस्परिक अन्तर, कालिकश्रुत और दृष्टिवाद के विच्छेद का अधिकार । भगपान् महावीर स्वामी का तीर्थ(शासन)इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा। भावी तीर्थङ्करों में अन्तिम तीर्थङ्कर के शासन की स्थिति।
(8) उ०-जंघाचारण और विद्याचारण लन्धि का अधिकार । इनकी ऊपर, नीचे और तिछी गति का विषय । लब्धि का उपयोग करने वाले मुनि के आराधक विराधक का निर्णय।
.(१०) उ०-सोपक्रम और निरुपक्रम आयुष्य का वर्णन जीव आत्मोपक्रम, परोपक्रम या निरुपक्रम से उत्पन्न होता है। इसी प्रकार उद्वर्तन और च्यवन के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। कति संचित, अकति संचित और प्रवक्तव्य संचित की वक्तव्यता, इनका पारस्परिक अल्पबहुत्व, समर्जित की वक्तव्यता और अल्पबहुत्व ।
इक्कीसवॉ शतक इस शतक में आठ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में दस इस उद्दशे हैं अर्थात् कुल ८० उद्देशे हैं।
प्रथम वर्ग, (१) उ०-शालि, बीहि आदि धान्य एक समय में कितने उत्पन्न हो सकते हैं ? इनकी अवगाहना, कर्मवन्ध, लेश्या
आदि का,वर्णन । इनके मूल में जीव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? पनवणा के व्युत्क्रान्ति पद की भलामण ।
(२-१.) उ०-कन्द, मूल के जीव कैसे और कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इसका सारा अधिकार पहले उहशे की तरह है। स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, कोंपल और पत्ते आदि का वर्णन एक एक उद्देशे में है। आठवें, नवें और दसवे उद्देशे में क्रमशः फूल, फल और बीज का वर्णन है। ..
दूसरा वर्ग, (१-१०) उ.-कलाय ( मटर), मघर, तिल, मूंग,
।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
श्री सेठिया जेन प्रन्थमाला
उड़द, पाल, कुलत्थी, पालिसंदक, साटन और पलिमंथक इन , दस प्रकार के धान्य विशेषों का वर्णन इन दस उद्देशों में किया गया है। इसका सारा अधिकार पहले वर्ग के पहले उद्देशे में बताए गए शालि धान की तरह जानना चाहिए। • तीसरा वर्ग, (१--१०) उ०--इन दस उद्देशों में क्रम से अलसी, कुसुभ, कोद्रव, कांगणी, रात, तूअर, कोदूसा, सण, सरिसव
और मूलबीजक इन दस वनस्पति विशेषों का वर्णन है । इनमें मी पहले शालि उद्देशे की भलामण है।
चौथा वर्ग, (१-१०) उ०--बॉस, वेणु, कनक, कविंश, चारुवंश, दंडा, कंडा, विमा, चंडा, वेणुका और कल्याणी इन वनस्पतियों के मूल में उत्पन्न होने वाले जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर के लिए पहले शालि उद्देशे की भलामण ।
पाँचवाँ वर्ग, (१-१०१3०-इतु (सेलडी, इन वाटिका,वीरण, इकड, ममास, सूठ,शर, वेत्र, तिमिर, शतपोरग और नड इन वनस्पतियों के मूल में उत्पन्न होने वाले जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर के लिये पहले शालि उद्दशे की भलामण ।। _छठा वर्ग, (१-१०) उ०-सेडिय, मंतिय, दर्भ, कोतिय, दर्भाश, पर्वक, पोदेइल, अर्जुन, आषाढक, रोहितक, समु, अवखीर, भुस, एरंड, कुरुकुन्द, करकर, सुंठ, विभंग, मधुरयण, थुरग, शिल्पिक और सुकलितण, इन सब वनस्पतियों के मूल में उत्पन्न होने वाले जीवों की वक्तव्यता।
सातवाँ वर्ग, (१--१०) उ6--अम्ररुह, वायण, हरितक, वादलज, तृण, वत्थुलं, 'पोरक, मार्जारक, विल्ली, पालक, दगपिप्पली, दी, स्वस्तिक, शाकमड्डकी, मूलक, सरसव, अंविलशाक, जियंतग, इन सब वनस्पतियों के मूल में उत्पन्न होने वाले जीवों की वक्तव्यता।
आठवाँ वर्ग, (१-१०) उ०-तुलसी, कृष्ण, दराल, फणेजा,
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला हन्त जिन केवली, अपरिस्रावी (कर्मचन्ध रहित)। ___ उपरोक्त पाँचों निग्रन्थों में निम्न लिखित ३६ बातों का कथन इस उद्देशे में किया गया है
प्रज्ञापन, वेद, राग, कल्प, चारित्र, प्रतिसेवना, ज्ञान, तीर्थ, लिङ्ग, शरीर, क्षेत्र, काल, गति, संयम, निकाश (संभिकर्ष), योग, उपयोग, कषाय, लेश्या, परिणाम, बन्ध, वेद (कर्मों का वेदन), उदीरणा, उपसंपद-हान (स्वीकार और त्याग), संज्ञा, आहार, भव, आकर्ष, कालमान, अन्तर, समुद्घात, क्षेत्र, स्पर्शना, भाव, परिमाण और अल्पबहुत्व।
(७)उ०-संयम के मेद, सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय, यथाख्यात । सामायिक के दो भेदइत्वरिक (अल्प कालीन), यावत्कथिक (जीवन पर्यन्त)। छेदो. पस्थापनीय के दो भेद-साविचार और निरविचार। परिहारविशुद्धि के दो मेद-निर्विशमानक ( तप करने वाला) और निविष्टकायिक (वैयावृत्य करने वाला)। सूक्ष्म सम्पराय के दो भेदसंक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक । यथाख्यात के दो भेदछास्थ और केवली। इन पाँचों संयमों में भी उपरोक्त प्रज्ञापन, वेद, राग, कल्प, चारित्र आदि ३६ बातों का कथन इस उद्देशे में किया गया है।
(८)उ०-नारकी जीवों की उत्पत्ति, गति और इनका कारण। परभव, आयुष्यबन्ध का कारण । असुरकुमार आदि की उत्पत्ति और गति आदि का कथन।
(-१२) उ०-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नैरयिकों की उत्पत्ति का कथन क्रमशः नवे दसवें । ग्यारहवें और बारहवें उद्देशे में किया गया है। २४ दण्डक में भी इसी प्रकार का कथन किया गया है।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
१७७
छब्बीसवाँ शतक (१)उ०-सामान्य जीव की अपेक्षा बन्ध वक्तव्यता। लेश्या, कृष्णपादिक, शुक्लपाक्षिक, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, संज्ञा, वेद, कषाय, योग और उपयोगयुक्त जीव की अपेक्षा बन्ध वक्तव्यता । नरयिक • आदि दण्डकों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की वन्ध वक्तव्यता ।
(२-११)उ०-दूसरे से ग्यारहवें उद्देशे तक क्रमशः निम्न विषय वर्णित हैं-अनन्तरोपपन्न नैरयिक का पापकम बन्ध, परम्प- ., रोपपन्न, अनन्तरावगाढ, परम्पराक्गाद, अनन्तराहारक, परम्पराहारक, अनन्तर पर्याप्तक, परम्परापर्याप्तक, चरम और अचरम नैरयिकों के पापकर्म की वन्ध वक्तव्यता । इन सब में इसी शतक के पहले उद्देशे की भलामण दी गई है।
सत्ताईसवॉ शतक (१-१२)उ०-सत्ताईसवें शतक के ग्यारह उद्देशे हैं जिनमें ,निम्न विषय वर्णित हैं-जीव ने पापकर्म किया है, करता है और करेगा, पाप कर्म नहीं किया, नहीं करता है और नहीं करेगा इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं और अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न इत्यादि का कथन छब्बीसवें शतक की तरह किया गया है।
। अठाईसवाँ शतक (१-११)उ०-अट्ठाईसवें शतक में ग्यारह उद्देशे हैं जिनमें निम्न विषय हैं-सामान्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है कि इस जीव ने कहाँ और किस तरह से पाप कर्म उपार्जन किये हैं और कहाँ और किस तरह से भोगेगा? इस प्रकार प्रश्नोत्तर करके अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न इत्यादि का कथन जिस तरह २६ वें शतक में किया गया है उसी तरह यहॉ भी सभी उद्देशों में समझना चाहिए।
उनतीसवाँ शतक (१-१२)उ०-इस शतक में ग्यारह उद्देशे हैं । क्या जीव पाप
है
पापा
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
श्री सेठिया जन प्रन्थमाला
कर्मकाप्रारम्भ एक ही समय (समकाल) में करते हैं और उनका अन्त भी समकाल में ही करते हैं ? इत्यादि प्रश्न करके अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न इत्यादि का कथन ग्यारह उद्देशों में छब्बीसवें शतक की तरह किया गया है।
. तीसवाँ शतक (१-१)उ०-तीसवें शतक में ग्यारह उद्देशे हैं । पहले उद्देशे में चार प्रकार के समवसरण, क्रियावादी, अक्रियावादी, । अज्ञानवादी, विनयवादी । सलेश्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्र
दृष्टि पृथ्वीकायिक आदि जीवों में क्रियावादित्व आयुवन्ध आदि के प्रश्नोत्तर हैं। दूसरे उद्देशे से ग्यारहवे उद्देशे तक अनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नक आदि का कथनर वे शतक की तरह किया गया है।
इकतीसवाँ शतक (१-२८) उ०-इस शतक में २८ उद्देशे है। जिनमें निम्न विषय वर्णित है । जिस संख्या में से चार चार वाकी निकालते हुए अन्त में चार--बचें वह क्षुद्रकृतयुग्म, तीन बचें तो योज, दो चचें तो द्वापरयुग्म और एक वचे तो कल्योन कहलाता है। नैरयिकों के उपपात, उपपात संख्या, उपपात के मेद इत्यादि का कथन किया गया है। दूसरे से आठचे 'उद्देशे तक क्रमशः कृष्णलेश्या नीललेश्या, कापोतलेश्या वाले नरयिक, कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक, कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक, नीललेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों का कथन कृतयुग्म आदि की अपेक्षा से किया गया है।
जिस प्रकार ऊपर भवसिद्धिक जीव की अपेक्षा चार उद्देशे कहे गये हैं उसी तरह प्रभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि, मिथ्वादृष्टि, कृष्णपाक्षिक और शुक्रपाक्षिक प्रत्येक के चार चार उद्देशे कहे गये हैं, उनमें कृतयुग्म, योज, द्वापरयुग्म और कन्योज की अपेक्षा उपपात आदि का वर्णन किया गया है।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री जैन सिद्धान्न बोलसंप्रह, चौथा भाग १७६
बत्तीसवाँ शतक (१-२८)उ०-चचीसवें शतक के उद्देशे हैं। इकतीसवें शतक में क्षुद्र कृतयुग्म नरयिकों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इस पचीसवें शतक में नैरयिकों की उद्वर्तना की अपेक्षा से २८ उद्देशे कहे गये हैं। क्षुद्रकृतयुग्म आदि जीव नरक से निकल कर कहाँ जाते हैं, एक समय में कितने जीव निकलते हैं, इत्यादि बातों का कथन किया गया है।
तेतीसवाँ शतक तेतीसवें शतक में एकेन्द्रिय जीवों का वर्णन है । इस शतक के अन्तर्गत बारह शतक है ।प्रत्येक शतक में ग्यारह ग्यारह उद्देशे हैं। इस प्रकार इस तेतीसवें शतक में कुल १३२ उद्देशे हैं।
प्रथम शतक (१-११)उ०--एकेन्द्रिय के पृथ्वीकाय काय आदि पाँच मेद, पृथ्वीकाय के सूक्ष्म, पादर, पर्याम और अपर्याप्त चार मेद हैं। इनको ज्ञानावरणीयादि पाठों ही कर्मों का बन्ध होता है और वेदन भी होता है। इस प्रकार पहले उद्देशे में सामान्य रूप से कथन किया गया है। दूसरे से ग्यारहवें उद्देशे तक क्रमश अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न अनन्तरवगाई परम्परावगाढ़ अनन्तराहारक परम्पराहारक अनन्तर पर्याप्तक परम्परा पर्यातक चरम और अचरम की अपेक्षा से एकेन्द्रिय का कथन किया गया है और उनमें एकेन्द्रिय जीवों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध और वेदन का वर्णन किया गया है।
दूसरे शतक में कृष्णलेश्या चाले एकेन्द्रिय की अपेक्षा अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक के भेद से उपरोक रीति से ग्यारह उद्देशे कहे गये हैं। इसी प्रकार तीसरे शतक में नील लेश्या वाले एकेन्द्रिय, चौथे शतक में कापोतलेश्या वाले एकेन्द्रिय, पाँचवें शतक में भवसिद्धिक एकेन्द्रिय, छठे शवक, कृष्णलेश्या वाले भव
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
सिद्धिक एकेन्द्रिय, सातवें शतक में नील लेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय, आठवें शतक में कापोत लेश्या वाले भवसिद्धिक एके- . न्द्रिय, नवे शतक में सामान्य रूप से अमवसिद्धिक एकेन्द्रिय, दसवें . शतक में कृष्ण लेश्या वाले अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय, ग्यारहवें शतक में नील लेश्या वाले अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय और बारहवें शतक में कापोत लेश्या वाले प्रभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के कर्मबन्ध और वेदन आदि का कथन किया गया है। प्रत्येक शतक के ग्यारह. ग्यारह उद्देशों में अनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नक आदि की अपेक्षा से वर्णन किया गया है। ..
चौतीसवाँ शतक चौतीसवे शतक के अन्तर्गत बारह शतक हैं। प्रत्येक शतक में ग्यारह ग्यारह उद्दशे है। इस प्रकार इसके भी कुल १३२ उद्देशे हैं। पहले शतक के पहले उद्देशे में निम्न विषय वर्णित हैं___ एकेन्द्रिय जीवों के पाँच मेद । पृथ्वीकाय के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त चार मेद हैं। इनकी गति, विग्रहगति, गति और विग्रहगति का कारण, उपपात आदि का विस्तृत वर्णन है । दूसरे से ग्यारहवें उद्देशे तक प्रत्येक में क्रमशः अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न आदि की अपेक्षा एकेन्द्रियों का वर्णन किया गया है। भागे दूसरे से बारहवें शतक तक तेतोसवें शतक की तरह वर्णन है।
पैतीसवाँ शतक इस शतक के अन्तर्गत बारह शतक हैं। एक एक शतक में ग्यारह ग्यारह उद्दशे हैं। जिनमें निम्न विषय वर्णित हैं-पहले शतक के पहले उद्देशे में १६ महायुग्म का वर्णन है। कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रियों का उपपात, जीवों की संख्या, बन्ध, सातावेदनीय, असातावेदनीय, लेश्या, शरीरादि के वर्ण, अनुबन्ध काल, संवेध आदि का कथन किया गया है। दूसरे से ग्यारहवें उद्देशे तक प्रथम
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
श्री जैन सिद्धान्त बोल-संग्रह, चौथा भाग
१८१
समयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय, अप्रथम समयोत्पन्न, चरम समयोत्पन्न, अचरमसमयोत्पन, प्रथमप्रथमसमयकृतयुग्म कृतयुग्म, अप्रथम प्रथम समयवर्ती, प्रथम चरम समयवर्ती, प्रथम अचरम समयवर्ती, चरम चरम समयवर्ती, चरम अचरम समयवर्ती कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि का वर्णन किया गया है।
आगे दूसरे से बारहवें शतक तक में भवसिद्धिक कृष्ण लेश्या वाले, भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय आदि का वर्णन तेतीसवें शतक की तरह किया गया है:
बत्तीसवाँ शतक छत्तीसवें शतक के अन्तर्गत बारह शतक हैं । एक एक शतक में ग्यारह ग्यारहउद्देशे हैं । पहले शतक के पहले उद्देशे में निम्नविषय वर्णित हैं। __कृतयुग्म कृतयुग्म बेइन्दिय जीवों के उत्पाद, अनुवन्ध काल श्रादि का वर्णन है। दूसरे से ग्यारहवेंउद्दशे तक प्रथमसमयोत्पन्न, अप्रथमसमयोत्पन आदि का कथन है।
दूसरे से पारहवें शतक तक भवसिद्धिक, भवसिद्धिक कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले वेइन्द्रिय जीवों का वर्णन तेतीसवें शतक की तरह किया गया है।
सतीसवाँ शतक इस शतक के अन्तर्गत बारह शतक हैं। प्रत्येक में ग्यारह ग्यारहा उद्देशे हैं अर्थात् इस शतक में कुल १३२ उद्देशे हैं । इस शतक में तेइन्द्रिय जीवों का वर्णन है। इसका सारा अधिकार तेतीसवें शतक की तरह ही है, किन्तु इसमें गति, स्थिति आदि का कथन तेइन्द्रिय जीवों की अपेक्षा किया गया है।
अड़तीसवाँ शतक इसमें बारह अन्तर्शतक हैं जिनके १३२ उद्देशे हैं। इस शतक
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
. १८२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
में चौरिन्द्रिय जीवों की गति, स्थिति आदि का वर्णन किया गया है। शेष अधिकार और वर्णन शैली तेतीसवे शतक की तरह है।
उनतालीसवाँ शतक इसमें बारह अन्तर्शतक हैं जिनमें १३२ उद्देशे हैं। इनमें असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय की गति, स्थिति आदि का कथन किया गया है । वर्णन शैली और अधिकार तेतीसवें शतक की तरह ही है।
___चालीसवाँ शतक इस शतक के अन्तर्गत २१ शतक हैं। प्रत्येक शतक में ग्यारह ग्यारह उद्दशे हैं। पहले शतक के पहले उद्देशे में निम्न विषय वर्णित हैं:-कृतयुग्मकृतयुग्म रूप संज्ञी पञ्चेन्द्रिय का उत्पाद, कर्म का वन्ध,संज्ञा,गति आदि का वर्णन है। दूसरे शतक से इक्कीसवें शतक तक कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, शुक्ल लेश्या वाले पंचेन्द्रिय. भवसिद्धिक सामान्य जीव, भवसिद्धिक कृष्णा, नील, कापोत, तेजो, पा, शुक्ल लेश्या वाले और अभवसिद्धिक की अपेक्षा कृष्ण, नील आदि लेश्या वाले पंचेन्द्रिय की गति, स्थिति
आदि का वर्णन है अर्थात् सात शतकों में औधिक (समुच्चय)रूप से वर्णन किया गया है। सात शतक भवसिद्धिक पंचेन्द्रिय की अपेक्षा
और सात शतक अमवसिद्धिक पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से कहे गये हैं। इस तरह संज्ञी पंचेन्द्रिय महायुग्म के २१ शतक हैं।
इकतालीसवाँ शतक इकतालीसवें शतक में १९६ उद्देशे हैं जिनमें निम्न विषय हैं:कृतयुग्म आदि राशि के चार मेद, कृतयुग्म नैरयिकों का उपपात, उपपात का अन्तर, कृतयुग्म राशि और त्र्योज का पारस्परिक सम्बन्ध, कृतयुग्म और द्वापरयुग्म राशि का तथा कृतयुग्म और • कन्योन राशि का पारस्परिक सम्बन्ध । सलेश्य सक्रिय होता है । या अक्रिय ? कृतयुग्म राशि रूप असुरकुमारों की उत्पत्ति, सलेश्य
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोलसग्रह, चौथा भाग - १५३
मनुष्यों की सक्रियता । सक्रिय जीवों में से कुछ जीव उसी भव में मुक्ति प्राप्त करते हैं और कुछ नहीं, इत्यादि का वर्णन है।
(२)३०-योज राशि रूप नैरयिकों की उत्पत्ति का कथन । कृतयुग्म और व्योज राशि का पारस्परिक सम्बन्ध, ज्योज और द्वापरयुग्म राशि का पारस्परिक सम्बन्ध । श्री पनवणा सूत्र के व्युत्क्रान्ति पद की भलामण।
(३) उ. द्वापरयुग्म राशि प्रमाण नैरयियों का उत्पाद, द्वापरयुग्म और कृतयुग्म का पारस्परिक सम्बन्ध |
(४) उ०-कल्योज प्रमाण नैरयिकों का उत्पाद, कल्योज और कृतयुग्म राशि का पारस्परिक सम्बन्ध ।
(५) उ०-कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज राशि प्रमाण नैरयिकों की उत्पत्ति का कथन किया गया है। नवें से अट्ठाईसवें उद्देशे तक नील, कापोत, तेजो. पद्म और शुक्ललेश्या प्रत्येक के चार चार उद्देशे हैं। इनमें सामान्य चार उद्देशे हैं और छालेश्याओं की अपेक्षा २४ उद्दशे हैं । इसी प्रकार भवसिद्धिक की अपेक्षा २८, अभवसिद्धिक की अपेक्षा २८, कृतयुग्म राशि प्रमाण सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा २८, कृतयुग्म राशि प्रमाण मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा २८कृतयुग्म राशि प्रमाण कृष्णपाक्षिक की अपंक्षा २८, कृतयुग्म राशि प्रमाण शुक्लपाक्षिक की अपेक्षा २८ उद्देशे कहे गए हैं। इस प्रकार इस शतक में कुल १६६ उद्देशे हैं। सम्पूर्ण भगवती में कुल १३८ शतक और १९२५ उद्देशे हैं। प्रकृष्ट ज्ञान और दर्शन के धारक केवलज्ञानियों ने इस भगवती सूत्र के अन्दर दो लाख अट्ठासी हजार पद कहे हैं और अनन्त (अपरिमित) भाव और अभावों (निषेधों) का कथन किया है । सूत्र के अन्त में संघ की स्तुति की गई है। तप, नियम और विनय से संयुक्त, निर्मल ज्ञान रूपी जल से परिपूर्ण, सैकड़ों हेतु रूप महान्
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
श्रो सेठिया जेन प्रन्थमाला वेग वाला, अनेक गुण सम्पन्न होने से विशाल यह संघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) रूपी समुद्र सदा जय को प्राप्त हो
सूत्र की समाप्ति के पश्चात् इस सूत्र को पढ़ने की पर्यादा इस प्रकार पतलाई है:
इस सूत्र में कुल १३८ शतक है अर्थात् पहले शतक से ३२ शतक तक अवान्तर (पेटा)शतक नहीं हैं। तेतीसवें शतक से उनतालीसवें शतक तक अर्थात् सात शतकों में बारह बारह अवान्तर शतक हैं। चालीसवे शतक में २१ अवान्तर शतक हैं । इकतालीसवें शतक में अवान्तर शतक नहीं हैं। कुल मिला कर १३८ शतक है । इसके पठन पाठन के लिए समय की व्यवस्था इस प्रकार वतलाई गई है
पहले से तीसरे शतक तक दो दो उद्देशे प्रतिदिन, चौथे शतक के आठ उद्देशे एक दिन में और दूसरे दिन में दो उद्देशे पढ़ने चाहिए। नवें शतक से आगे प्रतिदिन शिष्य जितना ग्रहण कर सके उतना पढ़ाना चाहिए । उत्कृष्ट रूप से एक दिन में एक शतक, मध्यम रूप से एक शतक दो दिन में और जघन्य रूप से एक शतक तीन दिन में पढ़ाना चाहिए। पन्द्रहवाँ गोशालक का शतक, एक ही दिन में पढ़ाना चाहिए, यदि एक दिन में पूरा न हो तो दसरे दिन श्रायम्बिल करके उसे पूरा करना चाहिए। यदि दूसरे दिन भी पूरा न हो सके तो तीसरे दिन फिर आयम्बिल करके ही पूरा करना चाहिए। २१वं, २२ और २३ वेशक को एक एक दिन में पूरा करना चाहिए । चौवीसवें शतक को प्रतिदिन ६,
उद्देशे पढ़ाकर दोदिन में पूरा करना चाहिये। इसी तरह २५वें शतक को भी दो दिन में पूरा करना चाहिये । बन्ध शतक आदि
आठ शतक एक दिन में, श्रेणी शतक आदि चारह शतक एक 'दिन में, एकेन्दिय के बारह महायुग्मशतक एकदिन में पढ़ाने चाहिए।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
१८५
इसी तरह वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बारह बारह शतक तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के इक्कीस महायुग्म शतक और राशियुग्म शतक एक एक दिन में पढ़ने और पढ़ाने चाहिए ।
(६) श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र यह छठा अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं-ज्ञाता और धर्मकथा । पहले तस्कन्ध में उन्नीस अध्ययन हैं। प्रत्येक अध्ययन में एक एक कथा है और अन्त में उस कथा या दृष्टान्त से मिलने वाली शिक्षा बताई गई है। कथाओं में नगर, उद्यान, महल, शय्या, समुद्र, स्वप्न आदि का सुन्दर वर्णन है।
पहला श्रुतस्कन्ध (१) ध्ययन-मेघकुमार की कथा । (२) अध्ययन-धन्ना सार्थवाह और विजय चोर। (३) अध्ययन-शुद्ध समकित के लिए अण्डे का दृष्टान्त ।
(४) अध्ययन-इन्द्रियों को वश में रखने यास्वच्छद छोड़ने वाले साधु के लिए कछुए का दृष्टान्त ।
(५) अध्ययन-भूल के लिए पश्चात्ताप करके फिर संयम में दृढ होने के लिए शैलक राजर्पि का दृष्टान्त ।
(६) अध्ययन-आत्मा का गुरुत्व और लघुत्व दिखाने के लिए तुम्बे का दृष्टान्त।
(७) अध्ययन-आराधक और विराधक के लाभालाम बताने के लिए रोहिणी की कथा |
(८) अध्ययन-भगवान् मल्लिनाथ की कथा ।
(8) अध्ययन-कामभोगों में आसक्ति और विरक्ति के लिए जिनपाल और जिनरक्ष का दृष्टान्त ।
(१०) अध्ययन अमादी, अप्रमादी के लिए चांद का दृष्टान्त ।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
१६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (११) अध्ययन-धर्म की आराधना और विराधना के लिए दावदव का दृष्टान्त ।
(१२) अध्ययन-सद्गुरु सेवा के लिए उदकज्ञात का दृष्टान्त । (१६) अध्ययन सद्गुरु के अभाव में गुणों की हानि बताने के लिए ददुर का दृष्टान्त ।
(१४) अध्ययन-धर्म प्राप्ति के लिए अनुकूल सामग्री की आवश्यकता बताने के लिए तेतलीपुत्र का दृष्टान्त ।
(१५)अध्ययन-चीतराग के उपदेश से ही धर्म प्राप्त होता है, इसके लिए नंदीफल का दृष्टान्त ।
(१६) अध्ययन-विषयसुख का कड़वा फल बताने के लिए अपरका के राजा और द्रौपदी की कथा ।
(१७) अध्ययन-इन्द्रियों के विषयों में लिप्त रहने से होने वाले अनर्थों कोसमझाने के लिए आकीण जाति के घोड़े का दृष्टान्त ।
(१८) अध्ययन-संयमी जीवन के लिए शुद्ध और निर्दोष श्राहार निर्ममत्व भाव से करने के लिए सुषुमा कुमारी का दृष्टान्त ।
(१६) अध्ययन-उत्कृष्ट भाव से पालन किया गयाथोड़े समय का संयम भी अत्युपकारक होता है, इसके लिए पुंडरीक का दृष्टान्त । इन कथाओं को विस्तृत रूप से १६ वें बोल संग्रह में दिया जायगा।
दूसरा श्रुतस्कन्ध इसमें धर्म कथाओं के द्वारा धर्म का स्वरूप बतलाया गया है
(१) वर्ग-पहले वर्ग के पाँच अध्ययन हैं, जिनमें क्रमशः चमरेन्द्र की काली, राजी, रजनी, विद्युत और मेघा नाम की पॉच अग्रमहिषियों का वर्णन है।
प्रथम अध्ययन-इसमें काली अग्रमहिषी का वर्णन आता है। , चमरचश्वा राजधानी के कालावतंसक भवन में कालीदेवी अपने परिवार सहित काल नाम के आसन पर बैठी थी। उसो समय उसने
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग . १८७ अवधिज्ञान लगा कर देखा कि राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे हैं। शीघ्र ही वह अपने परिवार सहित भगवान् को वन्दना करने के लिए गई । वन्दना करने के पश्चात् सूर्याम देव की तरह नाट्य विधि दिखला कर अपने स्थान पर चली गई। श्री गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा कि हे भगवन ! काली देवी को यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई? तव भगवान् ने उसका पूर्व भव बतलाया कि इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अमलकल्पा नगरी में काल नाम का गाथापति रहता था। उसके कालश्री नाम की स्त्री थी। उसके फाली नाम की पुत्री थी। बड़ी उम्र की हो जाने पर भी उसका विवाह नहीं हुआ था ।उसे कोई पुरुप चाहता ही नहीं था। एक समय भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के पास धर्म श्रवण कर उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। माता पिता की आज्ञा लेकर उसने पुष्पचूला आर्या के पास प्रव्रज्या ग्रहण की । ग्यारह अङ्ग का ज्ञान पढ़ा। कुछ काल पश्चात् उसे शुचिधर्म पसन्द आया जिससे वह अपने शरीर के प्रत्येक अवयव को धोने लगी तथा सोने, बैठने आदि सभी स्थानों को भी धोने लगी। उसकी गुरुणी ने उसे बहुत समझाया और आलोचना करने के लिए कहा, परन्तु उस काली आर्या ने गुरुणी की एक भी बात नहीं मानी, तव उसे गच्छ से अलग कर दिया गया ।वह दूसरे उपाश्रय में रह कर शौच धर्म का पालन करने लगी। बहुत वर्षों तक वह इसी तरह करती रही । अन्त समय में आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही अनशन पूर्वक मरण प्राप्त कर काली देवी रूप से उत्पन्न हुई। वहाँ पर उसकी ढाई पन्योपम की स्थिति है। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी और वहीं से सिद्धपद को प्राप्त करेंगी। दूसरा अध्ययन-इसमें रानी देवी का वर्णन है। उसके पूर्व भव के
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग सेवा करने वाले उपासक कहे जाते है । दशा नाम'अध्ययन तथा चर्या का है। इस सत्र में दस श्रावकों के अध्ययन होने से यह उपासक दशा कहा जाता है । इसके प्रत्येक अध्ययन में एक एक श्रावक का वर्णन है । इस प्रकार दस अध्ययनों में दस भावकों का वर्णन है। इनमें श्रावकों के नगर, उद्यान वनखण्ड, भगवान के समवसरण, राजा, माता पिता, धर्माचार्य,धर्मकथा, इहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धि, मोग, भोगों का परित्याग, तप, बारह व्रत तथा उनके अतिचार, पन्द्रह कर्मादान, पडिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्त प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, स्वर्गगमन आदि विषयों का बहुत विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसमें एक हीथुतस्कन्ध है, दस अध्ययन हैं। जिनमें निग्न लिखित श्रावकों का जीवन है।
(१) आनन्द (२) कामदेव(३)चुलनिपिता (४)सुरादेव (५) चुल्लशतक (६) कुरडकोलिक (७) सद्दालपुत्र (८) महाशतक ६) नन्दिनीपिता (१०) शालेयिकापिता।
भगवान महावीर स्वामी के श्रावकवर्ग में ये दस श्रावक मुख्य रूप से गिनाए गए हैं। निग्रन्थ प्रवचनों में उनकी दृढ़ श्रद्धाथी। भगवान् पर उनकी अपूर्व भक्ति थी और प्रभु के वचनों पर उन्हें दृढ़ श्रद्धा थी। गृहस्थाश्रम में रहते हुए उन्होंने किस प्रकार धर्म, अर्थ और मोक्ष की साधना की थी और गृहस्थावास में रहता हुआ व्यक्ति किस प्रकार आत्मविकास करता हुआ मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। यह उनके जीवन से भली भांति मालूम हो सकता है।
इन श्रावकों के जीवन का विस्तृत वर्णन श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, तृतीय भाग के दसवें बोल संग्रह के बोल नं०६८५ में दिया गया है।
(८) अन्तगड दसांग सूत्र आठ कर्मों का नाश कर संसार रूपी समुद्र से पार उतरने वाले
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला अन्तकृत् कहलाते हैं अथवा जीवन के अन्तिम समय में केवलज्ञान और केवलदर्शन-उपार्जन कर मोक्ष जाने वाले जीव अन्तकृत् कहलाते हैं ।ऐसे जीवों का वर्णन इस सूत्र में है इस लिए यह सत्र अन्तकृदशा(अन्तगड़दसा) कहलाता है। अन्तगड़ अङ्ग स्त्रों में आठवाँ है। इसमें एक ही अतस्कन्ध है। पाठ वर्ग हैं। अध्ययन हैं जिनमें गौतमादि महर्षि और पद्मावती आदिसतियों के चरित्र हैं। प्रत्येक वर्ग में निम्न लिखित.अध्ययन हैं।
(१)वर्ग-इसमें दस अध्ययन हैं । पहले अध्ययन में गौतमकुमार का वर्णन है।द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे। उसी नगरी में अन्धविष्णु नामक राजा थे। उनकी रानी का नाम धारिणी था। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम गौतमकुमार था। उनका विवाह आठ राजकन्याओं के साथ, किया गया था। कुछ समय के पश्चात् भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेकर चारह वर्ष संयम का पालन किया।अन्तिम समय में केवलज्ञान, केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष पधारे।
आगे नौ अध्ययनों में क्रमशः समुद्रकुमार, सागर, गम्भीर, स्तिमित, अचल. कपिल, अक्षोभ, प्रसेनजित और विष्णु, इन नौ कुमारों का वर्णन है । ये सभी अन्धक विष्णु राजा और धारिणी रानी के पुत्र थे।समी का वर्णन गौतमकुमार सरीखा ही है ।समी ने दीचा लेकर बारह वर्ष संयम का पालन किया । अन्तिम समय में केवली होकर मोक्ष पधारे।
(२) वर्ग-इस वर्ग के आठ अध्ययन हैं। इनमें (१) अक्षोभ (२)सागर (३) समुद्रविजय (४) हिमवन्त (५)अचल (६) धरण (७) पूरण, और (८) अमीचन्द, इनका वर्णन है। इन आठों के . पिता का नाम अन्धकविष्णु और माता का नाम धारिणीरानीथा। इनका सारा वर्णन गौतमकुमार सरीखा ही है। सोलह वर्ष की
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
,
श्री जैन सिद्धान्त बोल समूह, चौथा भाग १३ दीत्ता पर्याय का पालन कर मोक्ष में पधारे।
(३) वर्ग-इस के तेरह अध्ययन है । (१) अनीकसेन (२) अनन्तसेन (३) अजितसेन (४) अनिहत रिप (१) देवसेन (६) शत्रुसेन (७) सारण (८) गजसुकुमाल (६) सुमुख.(१०) दुर्मुख (११) कुवेर (१२) दारुक (१३) अनादिट्टि (अनादृष्टि)।
इन में अनीकसेन, अनन्तसेन, अजितसेन, अनिहतारिप, देवसेन और शत्रुसेन इन छ: कुमारों का वर्णन एक सरीखा ही है। वे महिलपुर नगरनिवासी नाग गाथापति और सुलसा के पुत्र थे। ३२-३२ स्त्रियों के साथ विवाह हुआ था। भगवती स्त्र में कथित महावल कुमार की तरह ३२-३२ करोड़ सोनेयों का प्रीति दान दिया गया।चीस वर्ष दीक्षा पर्याय का पालन कर मोक्ष पधारे।
सातवें अध्ययन में सारणकुमार का वर्णन है। इनके पिता का नाम वसुदेव और माता का नाम धारिणी था। पचास कन्याओं के साथ विवाह और ५० करोड़ सोनयों का प्रीतिदान मिला। भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हुए। चौदह पूर्व का ज्ञानाध्ययन किया। बीस वर्ष संयम का पालन कर मोक्ष पधारे।।
आठवें अध्ययन में गजसुकुपाल का वर्णन है। इनके पिता वसुदेव राजा और माता देवकी थी । कृष्ण वासुदेव इनके बड़े भाई थे। पाल वय में गजसुकुमाल ने भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ले ली । जिस दिन दीक्षा ली उसी दिन बारहवीं मिक्खु-. पडिमा अङ्गीकार की और श्मशान भूमि में ध्यान धर कर खड़े रहे ।इसी समय सोमिल ब्राह्मण उघर से आ निकला । पूर्व पैर के जागृत हो जाने के कारण उसने गनसुकुमाल के शिर पर गीली मिट्टी की पाल पांघ कर खैर की लकड़ी के अंगारे रख दिये जिससे उनका सिर खिचड़ी की तरह सीझने लगा किन्तु गजसुकुमाल मुनि इस तीव्र वेदना को समभाव पूर्वक सहन करते रहे। परिणाग में किसी प्रकार की चंचलता एनं कलुषता न आने दी।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
परिणामों की विशुद्धता के कारण उनको तत्क्षण केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होगए और वे मोन में पधार गये।
इसी कथा के अन्तर्गत गजसुकुमाल से बड़े ६ पुत्रों का हरिणगमेषी देव द्वारा हरण, भदिलपुर नगरी में नाग गाथापति की धर्मपत्नी सुलसा के पास रखना, वहाँ उनका लालन पालन होकर दीक्षा लेना, द्वारिका में गोचरीजाने पर उन्हें देख कर देवकी का आश्चर्य्य करना, तथा भगवान के पास निर्णय करना, इत्यादि वर्णन बड़े ही रोचक शब्दों में विस्तार पूर्वक किया गया है । भगवान् को बन्दना नमस्कार करने के लिए श्रीकृष्ण वासुदेव का आना, अपने छोटे भाई गजसुकुमाल के लिए पूछना, श्रीकृष्ण को देखते ही सोमिल ब्राह्मण की जमीन पर गिर कर मृत्यु होना आदि विषय भी बहुत विस्तार के साथ वर्णित हैं।
नौ से ग्यारह अध्ययन तक सुमुख, दुर्मुख और कुबेर कुमार का वर्णन है। ये तीनों बलदेव राजा और धारिणी रानी के पुत्र थे। वीस वर्ष तक संयम का पालन कर मोक्ष पधारे। इनकी दीक्षा भगवान् नेमिनाथ के पास हुई थी।
चारहवें और तेरहवें अध्ययन में दारुणकुमार और अनाष्टि कुमार का वर्णन है । ये वसुदेव राजा और धारिणी रानी के पुत्र थे।शेष सारा वर्णन पहले की तरह ही है।
(४) वर्ग-इसमें दस अध्ययन हैं, यथा-जाली, मयाली, उवयाली, पुरुषसेन, वारिसेन, प्रद्युम्न, साम्ब, अनिरुद्ध, सत्यनेमि और दृढ़नेमि।
इन सब का अधिकार एक सरीखा ही है । गौतम कुमार के अध्ययन की इसमें भलामण दी गई है। सिर्फ इनके माता पिता ,आदि के नामों में फरफ है । वह इस प्रकार है
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम
जाली
मयाली
उवयाली
पुरुपसेन
वारिसेन
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
पिता
माता
नगरी
वसुदेव राजा धारिणी रानी द्वारिका
"
"
'
32
??
11
"1
19
"
11
प्रद्युम्न कुमार श्रीकृष्ण रुक्मिणी साम्य कुमार नम्बूवती अनिरुद्ध” प्रद्युम्नकुमार वैदर्भी सत्यनेमि समुद्र विजय शिवादेवी
"
*
11
"
31
99
11
19
11
१६५
संयम काल
१६ वर्ष
"
"
"
"
12
*
11
113
"
11.
ढ़ने म
"
"
19
17
इन सब ने सोलह वर्ष संयम का पालन किया और अन्तिम समय में केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष में पधारे ।
( ५ ) वर्ग- इसके दस अध्ययन हैं। यथा- पद्मावती, गौरी, गान्धारी, लक्ष्मणा, सुषमा, जम्बूवती, सत्यभामा, रुक्मिणी, मूलश्री, मूलदत्ता । इनमें से पहले की आठ कृष्ण महाराज की रानियाँ हैं । इन्होंने भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ली । ग्यारह अङ्ग का ज्ञान पढ़ा। बीस वर्ष तक संयम का पालन कर अन्तिम समय में केवल ज्ञान और केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष में पधारीं । इन सब में पद्मावती रानी का अध्ययन बहुत विस्तृत है । इसमें द्वारिका नगरी के विनाश का कारण, श्रीकृष्ण जी की मृत्यु का कारण, श्रीकृष्णजी का आगामी चौवीसी में तीर्थङ्कर होना आदि बातों का कथन भी बहुत विस्तार के साथ है।
मुलश्री और मूलदत्ता का सारा अधिकार पद्मावतीं रानी सरीखा ही है । ये दोनों कृष्ण वासुदेव के पुत्र और जम्बूवती रानी के अजात श्री साम्बकुमार की रानियाँ थीं। ये भी मोक्ष में गई 1
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (६) वर्ग-इसमें सोलह अध्ययन हैं। यथा-(१) मकाई (२)विक्रम (३)मुद्गरपाणि यक्ष (अर्जुन माली) (१)काश्यप (५) क्षेम (६) धृतिघर (७) कैलाश (क) हरिश्चन्द्र (8) विरत (१०) सुदर्शन (११) पूर्णभद्र (१२) सुमनभद्र (१३) सुप्रतिष्ठ (१४) मेष (१५) अतिमुक्त कुमार (१६) अलख राजा।।
राजगृही नगरी के अन्दर पकाई और विक्रम नाम के गाथापति रहते थे। दोनों ने श्रमण भगवान महावीर के पास दीक्षा ली। गुणरल संवत्सर तप किया। सोलह वर्ष संयम का पालन कर विपुलगिरि पर सिद्ध हुए।
तीसरे अध्ययन में अर्जुन माली का वर्णन है। उसकी भार्या कानाम बन्धुमती था।नगर के बाहर उसका एक बाग था। उसमें मुद्गरपाणि यच का यक्षायतन (देहरा)था।अर्जुन माली के वंशज परम्परा से उस यक्ष की पूजा करते आ रहे थे। न माली बचपन से ही उसका भक्त था।वह पुष्पादि से उसकी पूजा किया करता थाएक समय ललितादि छः गोठीले पुरुष उस बगीचे में आये
और देहरे में छिप कर बैठ गए । जव अर्जुन माली देहरे में आया, वे लोग एक दम उठे और उसको मुश्कें वाँध कर नीचे गिरा दिया और बन्धुमतीभार्या के साथ यथेच्छ कामभोग भोगने लगे। इस अवस्था को देख कर वह बहुत दुखित हुआ और यक्ष को धिक्कारने लगा कि वह ऐसे समय में भी मेरी सहायता नहीं करता है। उसी समय यक्ष ने उसके शरीर में प्रवेश किया। उसके बन्धन तोड़ डाले।वन्धन के टूटते ही एक हजार पल निष्पन मुद्गर को लेकर उसने अपनी स्त्री और छहों पुरुषों को मार डाला । तब से राजगृही नगरी के बाहर घूमता हुआ यक्षाधिष्ठित अर्जुन माली प्रतिदिन छ. पुरुष और एक स्त्री को मारने लगा । राजा श्रेणिक ने नगर के दरवाजे बन्द करवा दिए और शहर में ढिंढोरा पिटवा
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
१६७
।
दिया कि कोई पुरुष किसी काम के लिए शहर से बाहर न निकले। राजगृह नगर में सुदर्शन नाम का एक सेठ रहता था। वह नव तथ्य का ज्ञाता श्रावक था । राजगृह नगर के बाहर गुणशील चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का आगमन सुन कर सेठ सुदर्शन अपने माता पिता की आज्ञा लेकर भगवान् को वन्दना करने के लिए जाने लगा। मार्ग में अर्जुनमाली उसे मारने के लिए दौड़ कर श्रया । इसे उपसर्ग समझ कर सेठ सुदर्शन ने सागारी अनशन कर लिया । अर्जुन माली नजदीक आकर सेठ सुदर्शन पर अपना मुद्गर चलाने लगा किन्तु उसका हाथ ऊपर ही रुक गया, मुद्गर नीचे नहीं गिरा । उसने बहुत प्रयत्न किया किन्तु सुदर्शन के ऊपर मुद्गर I चलाने में समर्थ नहीं हुआ । इससे यह बहुत लज्जित हुआ और उसके शरीर से निकल कर भाग गया। अर्जुनमाली एक दम जमीन पर गिर पड़ा | सुदर्शन श्रावक ने अपना उपसर्ग दूर हुआ जान कर सागारी अनशन पार लिया। एक मुहूर्त के बाद अर्जुन माली को चेत श्राया । वह उठ कर सुदर्शन श्रावक के पास श्राया
यक्ष
और उसके साथ भगवान् को वन्दना करने के लिए जाने की इच्छा प्रगट की । सुदर्शन श्रावक उसे अपने साथ ले गया । भगवान् को वन्दना नमस्कार कर अर्जुनमाली बैठ गया । भगवान् ने धर्मकथा फरमाई जिससे उसे वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया और दीक्षा अडीकार कर बेले वेले पारणा करता हुआ विचरने लगा । अनगार हो कर वह भिक्षा के लिए राजगृही में गया, उसे देख कर कोई कहता इसने मेरे पिता को मारा, भाई को मारा, भगिनी को मारा, पुत्र को मारा, माता को मारा इत्यादि कह कर कोई निन्दा करता, कोई हल्के शब्दों का प्रयोग करता. कोई चपेटा मारता, कोई घूँसा मारता, किन्तु अर्जुनमाली अनगार इन सब को समभाव से सहन करते थे और विचार करते थे कि मैंने तो इनके सगे सम्ब-धियों को जान
-
り
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला से मार डाला है, ये लोग तो मुझे थोड़े ही में छुटकारा देते हैं। इस प्रकार समभाव पूर्वक उस वेदना को सहन करते हुए बेले बेले पारणा करते हुए विचरने लगे। मिक्षा में कमी आहार मिलता तोपानी नहीं और पानी मिलता तो आहार नहीं । जो कुछ मिलता उसी में संतोष कर वे अपनी आत्मा को धर्मध्यान में तल्लीन रखते किन्तु कभी भी अपने परिणामों में कलुषता नहीं आने देते। इस प्रकार छ: महीने तक बेले बेले पारणा करते रहे । अन्त में १५ दिन की संलेखना कर, केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन करके मोक्ष में पधारे। यह अध्ययन मूल सूत्र में बड़े ही रोचक एवं भावपूर्ण शब्दों में लिखा गया है। यहाँ तो बहुत संचित रूप से केवल कथा मात्र दी गई है।
चौथे अध्ययन से चौदहवें अध्ययन तक सब का अधिकार समान है किन्तु नगर, दीक्षा पर्याय आदि में फरक है
नाम नगर दीक्षापर्याय निर्वाणस्थान काश्यप
राजगृही सोलह वर्ष विपुलगिरि
काकन्दी धतिघर कैलाश साकेतपुर
क्षेम
"
चारह वर्ष
हरिश्चन्द्र
सुदर्शन
विरक्त राजगृही
वाणिज्यग्राम पाँच वर्ष पूर्णभद्र सुमनभद्र श्रावस्ती नगरी बहुत वर्ष सुप्रतिष्ठ " सत्ताईस वर्ष मेष
राजगृही बहुत वर्ष पन्द्रहवें अध्ययन में अतिसुल (एषन्ता) कुमार का वर्णन
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री जैन सिद्धान्त बोल संमह, चौथा भाग १ है। पोलासपुर नगर में विजय नाम का राजा राज्य करता था। उनकी रानी का नाम श्रीदेवी था। श्रीदेवी रानी का भात्मज अतिमुक्त (एवन्ता ) कुमार था । एक समय वह खेल रहा था। उसी समय गौतम स्वामी उधर से निकले । उन्हें देख कर अतिमुक्त कुमार उनके पास आया । वन्दना नमस्कार कर उनसे पूछने लगा, हे भगवन् ! आप किस लिए फिर रहे हैं ? गौतम स्वामी ने कहा मैं मिक्षा के लिए फिर रहा हूँ। तब अविमुक्त कुमार ने गौतम स्वामी की अङ्गुली पकड़ कर कहा पधारिये आप मेरे घर पधारें, मैं आपको मिक्षा दिलाऊँगा । घर आते हुए गौतम स्वामी को देख कर अतिमुक्त कुमार की मावा अपने श्रासन से उठ कर सात आठ कदम सामने आई । बन्दना नमस्कार कर गौतम स्वामी को आहार पानी बहराया। जव गौतम स्वामी वापिस लौटने लगे तो अतिमुक्त कुमार मी भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार करने के लिये उनके साथ आया । भगवान् ने धर्मकथा सुनाई। वापिस घर आकर अतिमुक कुमार अपने माता पिता से दीक्षा की आज्ञा मांगने लगा। माता पिता ने कहा हे पुत्र ! अभी त अवोध है । अभी तू धर्म में और साधुपने में क्या समझता है तब अतिमुक्त कुमार ने कहा कि हे मात पिताओ! मैं जो जानता हूँ उसे नहीं जानता और जिसे नहीं जानता है उसे जानता हूँ। माता पिता के पूछने पर अविमुक्त कुमार ने उपरोक्त वाक्य का स्पष्टीकरण किया कि मैं जानता हूँ कि जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा, किन्तु यह नहीं जानता हूँ कि कप और कैसे मरेगा ? मावपिताओ। मैं यह नहीं जानता हूँ कि कौन जीप किस कर्मवन्ध से नरक तिर्यञ्चादि गायों में उत्पन्न होता है, किन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि कर्मासक्त जीव ही नरकादि गतियों में उत्पन्न होता है । इस प्रकार जिसे मैं जानता हूँ उसे नहीं जानता और
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला जिसे नहीं जानता हूँ उसे जानता हूँ | माता पिता के आग्रह को न टालते हुए एक दिन राज्यश्री का उपभोग किया और फिर माता पिता की आज्ञा लेकर श्रमण भगवान महावीर के पास दीक्षा अङ्गीकार की। ग्यारह अङ्ग का ज्ञान पढ़ कर गुणरन संवत्सर तप किया । बहुत वर्षों तक संयम का पालन कर वे मोक्ष पधारे।
• गुणरत्न संवत्सर तप का यन्त्र तप के दिन पारणे के दिन
३२ १६।१६ २ ३० १५ १५२ २८ १४ १४२ २६ १३ १३२ २४ १२ १२२ ३३. ११ । ११ । ११ । ३ ३०१०१०।१०।३ २७/ TET/३ २४) ८८३
२१ ७ ७ ७३ २४] ६ । ६ । ६ । ६।४
--
२४ ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ ६
२४३ | ३ । ३ । ३।३।३।३ ।३।८ २०२ ।२ । २ । २ । २।२।२।२।२।२।१० ३० शशशशशश१।११।११।११।१५ ३० 1809
विधि-पहिले महीने एकान्तर उपवास करना, दूसरे महीने वेले बेले पारणा करना, तीसरे महीने तेले तेले पारणा करना। इस प्रकार बढ़ाते हुए सोलहवें महीने में सोलह सोलह उपवास कर के पारणा करना । दिन को उत्कटुक आसन से बैठ कर सूर्य की
आतापना लेना और रात्रि को वस्त्र रहित हो वीरासन से ध्यान करना । इसमें तप के सब दिन ४०७ और पारणे के दिन ७३ हैं।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
२०१
कुल मिला कर ४८० दिन होते है अर्थात् सोलह महीनों में यह तप पूर्ण होता है ।
नोट- मिट्टी की पाल चाँध कर वर्षा के पानी में अपने पात्र की नाव तिराने का अधिकार श्री भगवती सूत्र में है, यहां नहीं है।
सोलहवें अध्ययन में अलख राजा का वर्णन है। ये वाराणसी नगरी में राज्य करते थे । एक समय भ्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । अलख राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंप कर भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। ग्यारह भङ्ग का ज्ञान पढ़ा। बहुत वर्षों तक संयम का पालन कर मोक्ष पधारे।
(७) वर्ग - इसमें तेरह अध्ययन हैं। उनके नाम - (१) नन्दा (२) नन्दवती (३) नन्दोत्तरा (४) नन्दसेना (५) मरुता ( ६ ) सुमरुता (७) महामरुता (८) मरुदेवी (६) भद्रा (१०) सुभद्रा (११) सुजाता (१२) सुमति (१३) भूतदीना ।
उपरोक्त तेरह हो राजगृही के स्वामी श्रेणिक राजा की रानियाँ थीं । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्मोपदेश सुन कर वैराग्य उत्पन्न हुआ । श्रोणिक राजा की आज्ञा लेकर प्रव्रज्या अङ्गीकार की। ग्यारह अंग का ज्ञान पढ़ी। बीस वर्ष संयम का पालन कर मोच में पधारीं ।
(८) वर्ग - इसमें दस अध्ययन हैं। उनके नाम - (१) काली (२) सुकाली (३) महाकाली (४) कृष्णा (५) सुकृष्णा ( ६ ) महा कृष्णा (७) वीरकृष्णा (८) रामकृष्णा (६) प्रियसेन कृष्णा (१०) महासेनकृष्णा
ये सभी भणिक राजा की रानियाँ और कोणिक राजा की चुलमाताएं (छोटी माताएं ) थीं। इनका विस्तार पूर्वक वर्णन श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह तीसरे भाग के दसवें बोल संग्रह के बोल नं०६८६ में दिया गया है। यहाँ सिर्फ दीक्षा पर्याय और तप
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
का नाम दिया जाता हैनाम .
दीक्षा पर्याय
रत्नावली
काली सुकाली
आठ वर्षे नव वर्ष
तेरह वर्षे
कनकावली महाकाली लघुसिंहनिष्क्रीड़ित दस वर्ष कृष्णा महासिंह निष्क्रीडित ग्यारह वर्ष सुकृष्णा । भिक्खु पडिमा बारह वर्ष महाकृष्णा क्षुद्र सर्वतोभद्र वीरकृष्णा महा सर्वतोभद्र
चौदह वर्षे रामकृष्णा भद्रोत्तर पडिमा पन्द्रह वर्ष प्रियसेनकृष्णा मुक्तावली
सोलह वर्ष महासेनकृष्णा आयम्बिल वर्द्धमान सतरह वर्षे
इस प्रकार उग्र तप का आचरण कर अन्त में संलेखना की और केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन कर मोच पधारीं ।
उपरोक्त १० व्यक्तियों ने जीवन के अन्तिम समय में केवलज्ञान और केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष पद प्राप्त किया। . (8)अणुत्तरोववाइयदसांग सूत्र
अनुत्तर नाम प्रधान और उपपात नाम जन्म अर्थात् जिनका सर्वश्रेष्ठ देवलोकों में जन्म हुआ है वे अनुत्तरौपपातिक (अणुतरोववाइय) कहलाते हैं । इसी कारण यह सूत्र अनुत्तरौपपातिक कहलाता है। इस सूत्र में ऐसे व्यक्तियों का वर्णन है जो इस संसार में तप संयम आदि शुभ क्रियाओं का आचरण कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं और वहाँ से चव कर- उत्तम कुल में जन्म लेंगे और उसी भव में मोक्ष जायेंगे। इस सूत्र में कुल तीन वर्ग हैं। ..
(१)वर्ग इसमें दस अध्ययन हैं। यथा-(१).जाली (२) मयाली (३) उवयाली (४) पुरुषसेन (५)वारिसेन (६) दीर्घदन्त (७)
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
• श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २८३ लट्ठदन्त (८) विहन्तकुमार (8) विहांसकुमार (१०) अभयकुमार ।
राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा राज्य करते थे। उनके धारिणी नाम की रानी थी। उनके पुत्र का नाम जाली कुमार था । एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे। धर्मोपदेश सुन कर जाली कुमार को वैराग्य उत्पन्न होगया । माता पिता से आज्ञा लेकर जाली कुमार ने प्रव्रज्या अङ्गीकार की। भगवान् को वन्दना नमस्कार कर गुणरत्नसंवत्सर तप अङ्गीकार किया। सूत्रोक्त विधि से उसे पूर्ण कर और भी विचित्र प्रकार का तप करता हुआ विचाने लगा । सोलह वर्ष संयम का पालन कर अन्तिम समय में संलेखना संथारा कर विजय विमान में देवता रूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और वहाँ संयम ले कर उसी भव में मोक्ष जायगा।
मयाली अदि नव ही कुमारों का वर्णन जालीकुमार सरीखा ही है।दीक्षापर्याय और विमान आदि के नाम निम्न प्रकार हैनाम माता पिता दीक्षापर्याय विमान का नाम मयाली धारिणी श्रेणिक सोलह वर्ष वैजयन्त उवयाली , " "
जयन्त पुरुपसेन " .
अपराजित वारिसेन ,
सर्वार्थसिद्ध दीर्घदन्त " " , बारहवपं लठ्ठदन्त " " "
अपराजित विहल्लकुमार चेलणा " .. नयन्त विहांसकुमार , पाँच वर्ष वैजयन्त अभय , नन्दादेवी , विजय
ये सभी महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष पद प्राप्त करेंगे। (२)वर्ग-इसमें तेरह अध्ययन हैं। तेरह में तेरह व्यक्तियों
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
श्रो सेठिया जंन प्रन्थमाला
का वर्णन है। इन सब का वर्णन जालीकुमार जैसा ही है।नाम आदि में कुछ फरक है वह निम्न प्रकार हैनाम माता पिता दीक्षापर्याय विमान दीर्घसेन धारिणी श्रेणिक सोलहवर्ष विजय महासेन लड्दन्त गुददन्त शुद्धदन्त
जयन्त हलकुमार द्रुमकुमार
अपराजित
वैजयन्त ।
द्रुमसेन
महासेन
सर्वार्थसिद्ध सिंहकुमार " ॥ सिंहसेन , महासिंहसेन " " पुण्यसेन , " "
ये सभी अनुत्तर विमानों से चल कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म , लेंगे और वहाँ से मोक्ष में जायेंगे। .
(३)वर्ग-इसमें दस अध्ययन है। यथा-(१)धना (२) सुनवत्र (३) ऋषिदास (४) पेजकपुत्र (१) रामपुत्र (६) चन्द्रकुमार (७) पौष्ठिकपुत्र (6) पेढालपुत्र (इ) पोट्टिल (१०) विहल कुमार।
काकन्दी नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उस नगरी में भद्रा नाम की एक सार्थवाही रहती थी । उसके पास बहुत ऋद्धि थी। उसके धन्ना नाम का एक पुत्र था । वह बहुत ही सुन्दर ।
और सुरूप था।पांच धायमाताएं (दूध पिलाने वाली. मज्जन कराने वाली, भूषण पहनाने वाली, गोद में खिलाने वाली क्रीड़ा
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग २०५ कराने वाली) उसका पालन पोषण कर रही थीं । धन्ना कुमार ने वहत्तर कला का ज्ञान प्राप्त किया ।जब धन्ना कुमार यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ तव भद्रा सार्थवाही ने उसका बचीस बड़े पड़े सेठों की ३२ कन्याओं के साथ एक ही दिन एक ही साथ विवाह किया।बत्तीस ही पुत्रवधुओं के लिए बड़े ऊंचे (सात मझले) महल बनवाये और धन्ना कुमार के लिए उन ३२ महलों के बीच में अनेक स्तम्मों वाला और बहुत ही सुन्दर एक महल बनवाया। धन्नाकुमार बहुत आनन्द पूर्वक समय बिताने लगा।
एक समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी काकन्दी नगरी में पधारे । भगवान् का आगमन सुन कर धन्नाकुमार भगवान को वन्दना नमस्कार करने के लिए गया । भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर धन्नाकुमार की संसार से विरक्ति होगई । अपनी माता भद्रा सार्थवाही से आज्ञा प्राप्त कर भगवान् के पास दीक्षा अङ्गीकार की। निस दिन दीक्षा ली उसी दिन धना मुनि ने ऐसा अभिग्रह किया कि आज से मैं यावज्जीवन वेले वेले पारणा करूंगा । पारने में आयम्विल (रुक्ष आहार ) करूंगा। वह रूक्षाहार भी ऐसा हो जिसके घृतादि किसी प्रकार का लेप न लगा हो, घरवालों के खा लेने के पश्चात् वचा हुआ बाहर फैकने योग्य तथा वावा जोगी कृपण भिखारी आदि जिसकी वाञ्छा न करे ऐसे तुच्छ आहार की गवेपणा करता हुआ विचरूंगा । इस प्रकार कठोर अभिग्रह धारण कर महा दुष्कर तपस्या करते हुए धन्ना मुनि विचरने लगे। कभी आहार मिले तो पानी नहीं और पानी मिले तो आहार नहीं । जो कुछ आहार मिल जाता, धना मुनि चित्त की आकुलता व्याकुलता एवं उदासीनता रहित उसी में सन्तोष करते किन्तु
कभी भी मन में दीन भाव नहीं लाते । जिस प्रकार सर्प विल में • प्रवेश करते समय रगड़ लग जाने के डर से अपने शरीर का इधर
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
श्री सेठियाजेन प्रन्थमाला उधर स्पर्श नहीं होने देता किन्तु एक दम सीधा बिल में प्रवेश कर जाता है, धन्ना मुनि भी इसी प्रकार पाहार करते अर्थात् स्वाद लेने की दृष्टि से मुंह में इधर उधर न लगाते हुए सीधा गले के नीचे उतार लेते। __इस प्रकार उग्र तपस्या करने के कारण धना मुनि का शरीर अतिकश (बहुत दुबला) होगया। उनके पैर, पैरों की अङ्गलियाँ, घुटने, कमर, छाती, हाथ, हाथ की अङ्गुलियाँ, गरदन, नाक, कान, आँख श्रादि शरीर का प्रत्येक अवयव शुष्क हो गया ।शरीर की हड्डियाँ दिखाई देने लग गई । जिस प्रकार कोयलों से भरी हुई गाड़ी के चलने से शब्द होता है उसी प्रकार चलते समय और उठते बैठते समय धना मुनि की हड्डियाँ करड़ करड़ शब्द करती थीं। शरीर इतना सूख गया था कि उठते बैठते, चलते फिरते, और भाषा पोलते समय भी उन्हें खेद होता था । यद्यपि धन्ना मुनि का शरीर तो सूख गया था किन्तु तपस्या के तेज से वे सूर्य की तरह दीप्त थे।
ग्रामानुग्राम विचरते हुए भगवान् राजगृही नगरी में पधारे। वन्दना नमस्कार करने के पश्चात् श्रेणिक राजा ने भगवान से प्रश्न , किया कि हे भगवन् ! आपके पास इन्द्रभूति आदि सभी साधुओं में कौनसा साधु महादुष्कर क्रिया और महानिर्जरा का करने वाला है? तब भगवान ने फरमाया कि हे श्रेणिक! इन सभी साधुओं में धन्नामुनि महा दुष्कर क्रिया और महानिर्जरा करने वाला है । भगवान से ऐसा सुनकर श्रोणिक राजा धन्ना मुनि के पास आया, हाथ जोड़, तीन बार वन्दना नमस्कार कर यों कहने लगा कि हे देवानुप्रिय! तुम धन्य हो, तुम पुण्यवान हो, तुम कृतार्थ हो, मनुष्य जन्म प्राप्ति का फल तुमने प्राप्त किया है । तुम ऐसी दुष्कर क्रिया करने वाले हो कि भगवान ने अपने मुख से तुम्हारी प्रशंसा की है।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
at प्रातःकाल
सरे दिन प्राता माँगने लग
श्री जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २०७ एक वार अर्ध रात्रि के समय धर्म जागरणा करते हुए धन्ना मुनि को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मेरा शरीर तपस्या से सूख चुका है। अब इस शरीर से विशेष तपस्या नहीं हो सकती, इस लिए प्रातःकाल भगवान् से पूछ कर संलेखना संथारा करना ठीक है ।ऐसा विचार कर दूसरे दिन प्रातःकाल धन्ना मुनि भगवान् के. पास उपस्थित हो संलेखना करने की आज्ञा माँगने लगे। भगवान् से आज्ञा प्राप्त कर कड़ाही स्थविरों (संथारे में सहायता देने वाले साधुओं) के साथ धन्ना मुनि विपुलगिरि पर आए और स्थविरों की साक्षी से संलेखना संथारा किया ।एक महीने की संलेखना करके और नव महीने संयम पालन कर यथावसर काल कर गये। धन्ना मुनिकाल कर गए हैं यह जान कर कड़ाही स्थविरों ने काउसम्ग किया । तत्पश्चात् धन्ना मुनि के भएडोपकरण लेकर भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और भएडोपकरण रख दिए ।
गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् ने फरमाया कि धना मुनि यथावसर काल करके सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति से देव रूप से उत्पन्न हुआ है और वहाँ से चब कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और वहाँ से मोक्ष में जायगा।
आगे के नौ ही अध्ययनों का वर्णन एक सरीखा ही है सिर्फ नाम आदि का फरक है वह निम्न प्रकार है
नाम माता ग्राम विमान सुनक्षत्र भद्रा काकन्दी सर्वार्थसिद्ध ऋषिदास , राजगृही " पेल्लकपुत्र रोमपत्र
श्वेताम्विका चन्द्रकुमार पोष्टिकपुत्र .
वाणिज्यग्राम
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
नाम
माता ग्राम विमान पेढालकुमार भद्रा वाणिज्यग्राम सर्वार्थसिद्ध पोट्टिल
हस्तिनापुर , विहल्लकुमार , राजगृही
इन सबकी ऋद्धि सम्पत्ति धन्नाकुमार सरीखी थी ।सभी के ३२, ३२ स्त्रियाँ थीं ।ऐसी ऋद्धि को छोड़ कर सभी ने भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षा ली। सब का दीक्षा महोत्सव थावचों पुत्र की तरह हुआ । केवल विहल्लकुमार का दीक्षा महोत्सव उसके पिता ने किया सूत्र मे विहल्लकुमार के पिता और माता का नाम नहीं दिया हुआ है। धन्नाकुमार ने नौ महीने और विहल्लकुमार
ने छः महीने दीक्षापयर्याय का पालन किया।बाकी आठों ने बहुत , वर्षों तक दीक्षा पर्याय का पालन किया ।ये सभी सर्वार्थसिद्ध विमान में गए और महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष में जाएंगे।
(१०)प्रश्नव्याकरणसुत्र प्रश्न व्याकरण सूत्र दसवॉश्रङ्गमत्र है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। पहले श्रुतस्कन्ध का नाम श्राश्रव द्वार है जिसके पाँच अध्ययन हैं। पाँचों में क्रमशः हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का वर्णन है। दूसरे श्रुतस्कन्ध का नाम संवर द्वार है, इसके भी पॉच अध्ययन हैं । पाँचों में क्रमशः अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह का वर्णन है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध (१) प्राणातिपात अध्यपन-इसमें हिंसा का स्वरूप बतलाया गर्या है कि हिंसा प्राणियों को त्रासकारी और उद्वेगकारी है । हिंसा इस लोक में अपयश की देने वाली है और परमव में नरक और तिर्यश्च गति की देने वाली है। इसका वर्णन ३२ विशेषणों द्वारा
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री.जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग । २०६ किया गया है । हिंसा के प्राणिवध, चण्ड, रौद्र, क्षुद्र आदि गुणनिष्पन तीस नाम हैं। हिसा क्यो की जाती है ? इसके कारण वताएं गए हैं। हिंसा करन वाले पञ्चेन्द्रियो मे जलचर, स्थलचर आदि के नाम विस्तार पूर्वक दिए गए है। आगे चोरिन्द्रिय, तेइन्द्रिय, वइन्द्रिय जीवों के नाम दिए हैं। आगे पृथ्वीकाय आदि यांच स्थावर काय के प्रारम्भ का वणन दिया गया है । मदबाद्ध जीव स्ववश या परवश हाकर प्रयाजन से या विना प्रयोजन, सार्थक या निरर्थक धनोपाजन के लिए, धर्म के निमित्त ओर कामभोगी की प्राप्ति के लिए क्रोध, मान, माया ओर लोभ से प्राणियों की हिसा करता है। शकरदश, यवनदेश, वर्वरदेश आदि अनाये देशों में उत्पन्न हान वाले जीव प्रायः हिसक होते है । मर कर व जीव नरक में उत्पन्न होते हैं। वहाँ क्षेत्र वेदना और परमाधार्मिकों की घोर वेदना को सहन करना पड़ता है । परमाधामिक देवताओं द्वारा दी जाने वाली वेदना का वर्णन शास्त्र में बड़े ही रोमाञ्चकारी ढङ्ग से किया गया है । उनकी दो हुई वेदना से घवरा कर नरयिक अत्यन्त करुण विलाप करते हैं तब वे कहते हैं कि यह पूर्वभव में किये गये तेरे कर्मों का फल है। पाप कर्म करते समय तू वड़ा प्रसन्न होता था अन उन कुकृत्यों का फल भोगते समय क्यों घबराता है? इत्यादि वचन कह कर उसकी निर्भर्त्सना करते हैं। नगर के चारों ओर
आग लग जाने पर जिस प्रकार नगर में कोलाहल मचता है उसी तरह नरक में सदा काल निरन्तर कोलाहल और हाहाकार मचा रहता है। नैरयिक दीनता पूर्वक कहते हैं कि हमारा दम घुटता है हमें थोड़ा विश्राम लेने दो, हम दोनों पर दया करो किन्तु परमाधार्मिक देव उन्हें एक क्षण भर के लिए भी विश्राम नहीं लेने देते। प्यास से व्याकुल होकर वे कहते हैं हमें थोड़ा पानी पिलाओ तब वे देव उन्हें गरम किया हुआ सीसा पिला देते हैं
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१० श्री सेठिया जन प्रन्थमाला जिससे उन्हें अत्यन्त वेदना होती है। इस प्रकार अपने पूर्वकृत पापों का फल भोगते हुए बहुत लम्बे काल तक वहाँ रहते हैं। वहाँ से निकल कर प्रायः तिर्यश्च गति में जन्म लेते हैं। वहाँ परवश होकर वध बन्धन आदि अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। यदि कदाचित मनुष्य गति में जन्म ले ले तो ऐसा प्राणी या विरूप और हीन एवं विकृत अङ्ग वाला अन्धा, काना, खोड़ा, लला, वहगादि होता है। वह किसी को प्रिय नहीं लगता । जहाँ जाता है वहाँ निरादर पाता है। इस प्रकार हिंसा का महादुःखकारी फल भोगता है। इसके फल को जान कर हिंसा का त्याग करना चाहिए।
(२) मृषावाद अध्ययन इस में मृषावाद का कथन किया गया है। असत्य वचन, माया, कपट एवं अविश्वास का स्थान है। अलीक, माया, मृषा, शठ श्रादि इसके गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। यह असत्य वचन असंयती, अविरती, कपटी, क्रोधी आदि पुरुषों द्वारा घोला जाता है। कितनेक लोग अपने मत के प्रचार के लिए भी झूठे वचनों का प्रयोग करते हैं। परलोक को न मानने वाले तो यहाँ तक कह डालते हैं कि प्राणातिपात, मृषावाद, अश्चादान, परस्त्री गमन और परिग्रह इनके सेवन में कोई पाप नहीं लगता है क्योंकि स्वर्ग नरक श्रादि कुछ नहीं है। कितनों का कथन है कि यह जगत भएडे से उत्पन्न हुआ है और कितनेक कहते हैं कि स्वयंभू ने सृष्टि की रचना की है इत्यादि रूप से असत्य वचन का प्रयोग करते हैं। प्राणियों की बात करने वाला वचन सत्य शेते हुए भी असत्य ही है। इस प्रकार सूत्र में असत्य वचन को बहुत विस्तार के साथ मतलाया है। इसके आगे असत्य का फल बतलाया गया है। प्रसत्यवादी पुरुष को नरक वियञ्च भादि में जन्म लेकर अनेक दुख भोगने पड़ते हैं।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २११ (३) अदत्तादान अध्ययन-इसके प्रारम्भ में अदत्तादान (चोरी)का स्वरूप बतलाया गया है और उसके गुणनिष्पन तीस नाम दिये हैं। आगे य- बतलाया गया है कि चोरी करने वाले पुरुष समुद्र, जंगल अदि स्थानों में किस तरह लूटते हैं? इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार को समुद्र की उपमा दी गई है। भागे अदत्त का फल बताया गया है। श्रदत्चादान (चोरी) करने वाले प्राणियों को नरक और तिर्यश्चगति में जन्म लेकर अनेक दुःख उठाने पड़ते हैं।
(४) अब्रह्म अध्ययन-इसमें अब्रह्म का स्वरूप पतला कर कहा गया है कि इसे जीतना बड़ा कटिन है । इसके गुणनिष्पन तीस नाम हैं । अब्रह्म का सेवन कायर पुरुष ही करते हैं शूरवीर नहीं कितने ही समय तक इसका सेवन किया जाय किन्तु ताप्ति नहीं होती।जो राजा, महाराजा, चलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, इन्द्र, नरेन्द्र श्रादि इसमें फंसे हुए हैं वे अतृप्त अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। इससे निवृत्त होने पर ही सुख और संतोष प्राप्त होता है। इसमें फंसे रहने से प्राणियों को नरक और तिर्यश्च गति में जन्म लेकर अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। .
(५) परिग्रह अध्ययन-परिग्रह का स्वरूप । परिग्रह के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। लोम के वशीभूत होकर लोग कई प्रकार काअनर्थ करतेहैं । भवनपति से लेकर वैमानिक जाति तक के देवों में लोम की लालसा अधिक होती है। इसमें अधिक फंसने से सुख प्राप्त नहीं होता किन्तु संतोष से ही सुख की प्राप्ति होती है।
दूसरा श्रुतस्कन्ध (१) अहिंसा अध्ययन- इसमें अहिंसा का स्वरूप बतलाया गया है। अहिंसा सब प्राणियों का क्षेम कुशल चाहने वाली है। अहिंसा के दया, रक्षा, अभया, शान्ति प्रादि गुणनिष्पन्न ६. नाम
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला हैं।अहिंसा भगवती को पाठ उपमाएं दी गई है। अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए पाँच भावनाएं बतलाई गई हैं । अहिंसा का पालन मोक्ष सुखों का देनेवाला है।
(२) सत्य अध्ययन-इसमें सत्य वचन का स्वरूप बतला कर उसका प्रभाव बतलाया गया है । सत्य वचन के जनपद सत्य, सम्मत सत्य आदि दस मेद । भाषा के संस्कृत, प्राकृत आदि बारह भेद । एकवचन द्विवचन आदि की अपेक्षा वचन के सोलह मेद। सत्य व्रत की रक्षा के लिए पॉच भावनाएँ । सत्य व्रत के पालन से मोक्ष सुखों की प्राप्ति होती है।
(३) अस्तेय अध्ययन - इसमें अस्तेय व्रत का स्वरूप है। अस्तेय व्रत सुव्रत है। अपने स्वरूप को छिपा कर अन्य स्वरूप को 'प्रकट करने से अस्तेय व्रत का भङ्ग होता है। इस लिए इसके तप
चोर, वयचोर, रूपचोर, कुलचोर, आचारचोर और भाचोर ये छ भेद बतलाए गए हैं। इस व्रत की रक्षा के लिए पांच भावनाएं चवलाई गई हैं। इसका आराधक मोक्ष सुख का अधिकारी बनता है।
(४) ब्रह्मचर्य अध्ययन-ब्रह्मचर्य व्रत, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सब गुणों का मूल है। सब व्रतों में यह व्रत सर्वोत्कृष्ट और उत्तम है । पाँच समिति, तीन गुप्ति से अथवा नववाड़ से ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए । इस व्रत का आचरण धैर्यवान, शुरवीर और इन्द्रियों को जीतने वाला पुरुष ही कर सकता है। इस व्रत के मङ्ग से सब व्रतों का भङ्ग हो जाता है। संसार के अन्दर सर्वश्रेष्ठ पदार्थों के साथ तुलना करके इसको बत्तीस उपमाएं दी गई हैं। इस व्रत की रक्षा के लिए पाँच भावनाएँ चतलाई गइ हैं।
(५) अपरिग्रह अध्ययन-साधु को निष्परिग्रही होना चाहिए। उसे किन किन बातों का त्याग करना चाहिए और कौन कौन सी बातें अङ्गीकार करनी चाहिए इसके लिए एक बोल से लगाकर
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग २१३ ।। तेतीस बोल तक एक एक पदार्थ का संग्रह इस अध्ययन में किया गया है। साधु को कौनसा आहार कल्पता है और कौनसा नहीं, फितने पात्र और वस्त्र से अधिक नहीं रखना चाहिए इत्यादि वातों का कथन भी इस अध्ययन में दिया गया है। इस व्रत की रक्षा के लिए पॉच भावनाएँ वतलाई गई हैं।
उपरहार करते हुए बतलाया गया है कि उपरोक्त पाँच संवर द्वारों की सम्यक्प्रकार आगधना करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
(११)विपाक सूत्र ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों के शुभाशुभ परिणाम विपाक कहलाते हैं। ऐसे कर्मविपाक का वर्णन जिस सूत्र में हो वह विपाक सूत्र कहलाता है। यह ग्यारहवॉ अङ्गमत्र है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं।
' पहला श्रुतस्कन्ध इसका नाम दुःखविपाक है । इसमें दस अध्ययन हैं। इन में दस व्यक्तियों की कथाएँ हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) मृगापुत्र (२) उमितकुमार (३) अभन्नसेन चोर सेनापति (४) शकटकुमार (५) वृहस्पति कुमार (६)नन्दीवर्द्धन (७) उम्वरदत्त कुमार (८) सौर्यदत्त कुमार (6) देवदत्ता रानी (१०) अंजू कुमारी ।
इन कथाओं में यह बतलाया गया है कि इन व्यक्तियों ने पूर्व भव में किस किस प्रकार और कैसे कैसे पाप कर्म उपार्जन किए, जिससे आगामी भव में उन्हें किस प्रकार दुःखी होना पड़ा नरक
और तिर्यञ्च के अनेक भवों में दुःखमय कर्मविपाकों को भोगने के पश्चात् मोक्ष प्राप्त करेंगे। पाप कार्य करते समय तो अज्ञानतावश जीव प्रसन्न होता है और वे पापकारी कार्य सुखदायी प्रतीत होते हैं किन्तु उनका परिणाम कितना दुःखदायी होता है और जीव को कितने दुःख उठाने पड़ते हैं इन बातों का साक्षात् चित्र इन कथाओं में खींचा गया है।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
दूसरा श्रुतस्कन्ध इसका नाम सुखविपाक है। इसमें दस अध्ययन हैं। दसों में दस व्यक्तियों की कथाएँ हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) सुबाहुकुमार (२) भद्रनन्दीकुमार (३) सुजातकुमार (४) सुवासकुमार (५) जिनदासकुमार (६) वैश्रमणकुमार (७) महावलकुमार (0) भद्रनन्दीकुमार (8) महत्चन्द्रकुमार (१०) वरदचकुमार।
इन व्यक्तियों ने पूर्व भव में सुपात्र को दान दिया था जिसके फलस्वरूप इस भव में उत्कृष्ट ऋद्धि की प्राप्ति हुई और संसार परित्त (हल्का) किया। ऐसी ऋद्धि का त्याग करके इन सभी ने संयम अंगीकार किया और देवलोक में गए ।आगे मनुष्य और देवता के शुभ भव करते हुए महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष प्राप्त करेंगे।सुपात्र दान का ही यह माहात्म्य है, यह इन कथाओं से भली प्रकार ज्ञात होता है। इन सब में सुबाहुकुमार की कथा बहुत विस्तार के साथ दीगई है। शेष नौ कथाओं के केवल नाम दिए गए हैं । वर्णन के लिए सुबाहुकुमार के अध्ययन की भलामण दी गई है। पुण्य का फल कितना मधुर और सुखरूप होता है इसका परिचय इन कथाओं से मिलता है। प्रत्येक सुखाभिलाषी प्राणी के लिए इन कथाओं के अध्ययनों का स्वाध्याय करना परम आवश्यक है।
सुखविपाक और दुखविपाक दोनों की वीस कथाओं का विस्तृत वर्णन छठे भाग के बीसवें घोलसंग्रह बोल नम्बर ६१० में दिया गया है।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
बारहवां बोल संग्रह
1
२१५
७७७ - बारह उपांग
श्रङ्गों के विषयों को स्पष्ट करने के लिए श्रुतकेवली या पूर्वधर श्राचार्यों द्वारा रचे गए श्रागम उपांग कहलाते हैं । अंगों की तरह उपांग भी बारह हैं ।
(१) उबवाई सूत्र
यह सूत्र पहला उपाङ्ग है। यह पहले अङ्ग श्राचाराङ्ग का उपाङ्ग माना जाता है। अंग तथा उपाङ्ग प्रायः सभी सूत्रों में जहाँ नगर, उद्यान, यक्ष, राजा, रानी, समवसरण, प्रजा, सेठ आदि का दर्शनों के लिए जाना तथा परिपद आदि का वर्णन आता है वहाँ उबवाई सूत्र की भलामण दी जाती है, इस लिए यह सूत्र बहुत महत्व रखता है। इसके उत्तरार्द्ध में जीव किस करणी से किस गति में उत्पन्न होता है, नरक तथा देवलोक में जीव दस हजार वर्ष से लेकर तेतीस सागरोपम तक की आयुष्य किस करणी से प्राप्त करता है इत्यादि विस्तार पूर्वक बताया गया है। यह उत्कालिक सूत्र है। इसमें नीचे लिखे विषय वर्णित हैं
(१) समवसरणाधिकार - चम्मा नगरी, पूर्णभद्र यक्ष, पूर्णभद्र चैत्य, अशोकवृच, पृथ्वीशिला, कोणिक राजा, धारिणी रानी तथा समाचार देने वाले व्यक्ति का वर्णन । भगवान् महावीर स्वामी के गुण । सम्पूर्ण शरीर तथा नख से शिखा तक प्रत्येक अङ्ग का वर्णन |
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
श्री सेठियाजेन ग्रन्थमाला चौंतीस अतिशय। वाणी के पैंतीसगुण । भगवान महावीर का साधु साध्वी परिवार के साथ पधारना। भगवान् के पधारने की सूचना
और वधाई। नमुत्थुणं की विधि व पाठवधाई के लिए पारितोषिक। भगवान् का चम्पा नगरी में पधारना । साधु के गुणों का वर्णन । लब्धि तथा तपप्रतिमा का वर्णन । साधुओं के विशेष गुण । साधुओं की उपमा । बारह तप के ३५४ मेद। साधुओं द्वारा शास्त्र के पठन पाठन का वर्णन | संसार रूपी समुद्र तथा धर्म रूपी जहाज का वर्णन। देव तथा मनुष्यों की परिषदाएँ ।नगर तथा सेनाका सजना । कोणिक राजा का सजधज कर वन्दन के लिए जाना । वन्दना के लिए भगवान् के पास जाना, पाँच अभिगम और वन्दना की विधि । रानियों का तैयार होना। स्त्रियों द्वारा वन्दना की विधि। तीर्थङ्कर का धोपदेश । परिषद् द्वारा की गई प्रशंसा।
(२) औपपातिक अधिकार-गौतम स्वामी के गुण, संशय और प्रश्न । कर्मवन्ध, मोहवन्ध, कर्मवेद, नरकगमन, देवगमन श्रादि विषयक प्रश्न तथा उनके उत्तर । सुशील स्त्री और रस त्यागी का वर्णन तथा उनके लिए प्रश्नोत्तर । तापस, कंदी साधु, सन्यासी, अम्बडसन्यासी, दृढ़प्रतिज्ञ, प्रत्यनीक साधु, तिर्यश्च श्रावक, गोशालक मत, कौतुकी साधु, निह्नव, श्रावक, साधु तथा केवली के विषय में प्रश्न तथा उनके उत्तर ।
(३) सिद्धाधिकार केवली समघात। सिद्धों के विषय में प्रश्नोत्तर सिद्धों का वर्णन गाथा रूप में। सिद्धों के सुख का प्रमाण । जंगली का दृष्टान्त । सिद्धों के सुख ।
(२) रायपसेणी सूत्र उपाङ्ग सूत्रों में दूसरे सत्र का नाम 'रायपसेणी है। टीकाकार और वृत्तिकार आचार्यों का इस सूत्र के नाम के विषय
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग २७ में मतभेद है। कोई आचार्य इसे 'राजप्रसेनकीय' और कोई इसे 'राजप्रसेनजित' नाम से कहते हैं किन्तु इसका 'रायपसेणीय' यह नाम ही उपयुक्त प्रतीत होता है । इहमें राजा परदेशी के प्रश्नोत्तर होने से यही नाम सार्थक है। यह सत्र सूयगडांग सूत्र का उपाङ्ग है। सूयगडांग सूत्र में क्रियावादी अक्रियावादी आदि ३६३ पाखण्ड मतों का वर्णन है । राजा परदेशी भी अक्रियावाद को मानने वाला था और इसी के आधार पर उसने केशीश्रमण से जीवविषयक प्रश्न किये थे। अक्रियावाद का वर्णन सूयगडांग सूत्र में है उसी का दृष्टान्त द्वारा विशेष वर्णन रायपसेणी सूत्र मे है यह उत्कालिक सूत्र है।
इस सूत्र में मुख्य रूप से राजा परदेशी का वर्णन दिया गया है। इसके अतिरिक चित्त सारथि, भगवान महावीर, केशीकुमार श्रमण, राना जितशत्र, भामलकन्या नगरी का राजा सेय और उसकी रानी धारिणी, राजा परदेशी की रानी सूर्यकान्ता, उसका पुत्र सूर्यकान्त आदि व्यक्तियों का वर्णन है। श्रामलकल्या नगरी, श्रावस्ती नगरी, श्वेताम्बिका नमरी, केकय देश, कुणालदेश
आदि स्थलों का भी विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इस वर्णन से उस समय की नगर रचना, राना और प्रजा की स्थिति, देश की स्थिति आदि का भली प्रकार ज्ञान होजाता है। सूत्र में वर्णित कथा का सारांश इस प्रकार है
ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान महावीर स्वामी भामलकल्पा नगरी में पधारे । श्रात्रशाल वन में अशोक वृक्ष के नीचे एक विशाल पृथ्वीशिलापट्ट पर विराजे । देवताओं ने समवसरण की रचना की। जनता भगवान का धर्मोपदेश सुनने के लिये आई। सौधर्म कल्प के सूर्याम विमान में सूर्याम देव आनन्द पूर्वक बैठा हुआ था। उसके मन में भगवान को बन्दना करने के लिये जाने
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला का विचार उत्पन्न हुआ और अपने आमियोगिक देवों को लेकर भगवान् के समवसरण में पाया । भगवान् को वन्दना नमस्कार करके बैठ गया। बाद में उसने बत्तीस प्रकार के नाटक करके बतलाये और वापिस अपने स्थान पर चला गया। स्त्र में बतीस नाटकों का वर्णन बहुत विस्तार के साथ किया गया है।
सूर्याम देव की ऐसी उत्कृष्ट ऋद्धि को देख कर गौतम स्वामी ने भगवान् से उसके विमान आदि के बारे में पूछा। भगवान ने इसका विस्तार के साथ उत्तर दिया है । विमान, वनखण्ड, सभा मण्डप आदि का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। सूर्याभ देव को यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई ? गौतम स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने उसका पूर्वभव बतलाया। सूर्याम देव का जीव पूर्वमव में राजा परदेशी था।
-केकय देश की श्वेताम्बिका नगरी में राजा परदेशी राज्य करता था। उसकी रानी का नाम सूर्यकान्ता और पुत्र का नाम सूर्यकान्त था । राजा शरीर से मिल जीव को नहीं मानता था और बहुत क्रूरकर्मी था । चित्त सारथि की प्रार्थना स्वीकार कर केशीश्रमण वहाँ पधारे। घोड़ों की परीक्षा के पहाने चित्त सारथि राजा को केशीश्रमण के पास ले गया। राजा परदेशी ने जीव के विषय में छ. प्रश्न किए। केशीश्रमण ने उनका उचर बहुत युक्ति पूर्वक दिया। (श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह द्वितीय भाग के छठे बोल संग्रह के चोल नं०४६६ में राजा परदेशी के छः प्रश्न बहुत विस्तार के साथ दिए गए हैं) जिससे राजा की शकाओं का भली प्रकार समाधान होगया। राजा ने मुनि के पास श्रावक के व्रत अङ्गीकार किए और अपने राज्य एवं धन की सुव्यवस्था कर उसके चार भाग कर दिए अर्थात् अपने अधीन सात हजार गाँवों को चार भागों में विमक' कर दिया। एक विमाम राज्य की व्यवस्था के लिए, दूसरा भाग
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २१६ खजाने में, तीसरा अन्तःपुर की रक्षा के लिए और चौथा भाग अर्थात् पौने दो हजार गाँवों की आमदनी दानशाला आदि परोपकार के कार्यों के लिए इस प्रकार राज्य का विभाग कर राजा परदेशी अपनी पौषधशाला में उपवास पौषध आदि करता हुमा धर्म में तल्लीन रहने लगा।अपने विषयोपभोग में अन्तराय पड़ती देख रानी सूर्यकान्ता ने राजा को जहर दे दिया। जब राजा को इस बात का पता लगा तो वह पौषधशाला में पहुंचा । रानी पर किञ्चिन्मात्र द्वेष न करता हुमा राजा संलेखना संथारा कर धर्मध्यान ध्याने लगा ।समाधि पूर्वक मरण प्राप्त कर राजा प्रथम देवलोक के सूर्याम विमान में सूर्याम देव रूप से उत्पन हुआ। वहाँ चार पन्योपम की आयु पूरी करके महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। प्रव्रज्या अङ्गीकार कर मोक्ष में जायगा।
(३) जीवा जीवाभिगम सूत्र यह सूत्र तीसरे अङ्ग ठणांग का उपांग है । इसका नाम है जीवा जीवाभिगम। इसमें जीवों के चौवीस स्थान (दण्डक', अवगाहना, आयुष्य, अल्पबहुत्व, मुख्य रूप से ढाई द्वीप तथा सामान्य रूप से समी द्वीप समुद्रों का कथन है । ठाणांग सूत्र में संक्षेप से कही गई बहुत सी वस्तुएं यहाँ विस्तारपूर्वक बताई गई हैं। इसमें नीचे लिखे विषय हैं
(१)प्रतिपत्ति-नवकार मन्त्र । जिनवाणी जीव तथा अनीव के अभिगम अर्थात् स्वरूपविषयक प्रश्न | अरूपी और रूपी जीव के मेद । सिद्ध भगवान् के प्रकार व १५ मेद । संसारी जीवों की संक्षेप में नौ प्रतिपत्तियाँ । तीन स्थावरों के मेदानुमेद और उन पर अलग अलग तेईस द्वार।
(२)प्रतिपत्ति-तीनों वेदों के मेद प्रमेद स्त्रीवेद की स्थिति के विविध प्रकार स्त्रीवेद के अन्तर तथा अन्पबहुत्त । स्त्रीवेद रूप
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
श्री सेठिया जन प्रन्थमाला
मोहनीय कर्म की स्थिति व विषय | पुरुषवेद की स्थिति, अन्तर, पाँच प्रकार का अल्पबहुत्व, कर्मस्थिति व विषय । नपुंसकवेद के विषय में भी ऊपर लिखी सभी बातें। तीनों वेदों को मिला कर आठ प्रकार का अल्पबहुत्व |
1
1
(३) प्रतिपचि - चार प्रकार के जीव । चारों गतियों के मेद प्रमेद । नरकों के नाम, गौत्र, पिण्ड आदि का वर्णन | नारकों के 1 क्षेत्र आदि की वेदना का दृष्टान्तयुक्त वर्णन । सातों नरकों के पाथड़ों की अलग अलग अवगाहना तथा उनमें रहने वाले नारकी जीवों की स्थिति । नारकी के विषय में विविध वर्णन । तिर्यश्वों के भेद प्रभेद तथा विशेष भेद । अनगार, अवधि तथा लेश्या के लिए प्रश्नोत्तर । एक समय में दो क्रियाएँ मानने वाले अन्यतीर्थिक का मत । अन्तद्वीप के मनुष्यों का अधिकार । कर्मभूमि मनुष्यों का अधिकार । भवनपति देवों का विस्तारपूर्वक वर्णन | वाणव्यन्तर देवों का वर्णन । ज्योतिषी देवों का वर्णन । असंख्यात द्वीप समुद्र व जम्बूद्वीप का वर्णन | जम्बूद्वीप की जगती (परकोटा ) का विस्तार पूर्वक वर्णन | विजयद्वार का वर्णन । विजया राजधानी और विजय देवों का विस्तार | जम्बूद्वीप के शेष तीनों द्वारों का वर्णन । उत्तरकुरु तथा यमक पर्वत । उत्तरकुरु के नीलवन्त आदि द्रहों का वर्णन । कश्चनगिरि पर्वत का वर्णन । जम्बूसुदर्शन वृक्ष का विस्तार | जम्बूद्वीप में चन्द्र, सूर्य आदि की संख्या । लवणसमुद्र का अधिकार | पाताल कलशों का वर्णन । शिखाचित्र व नागदेव का अधिकार | गोस्तूम पर्वत तथा वेलंधर, अनुवेलंधर राजा का वर्णन । सुस्थित देव व गौतमद्वीप का वर्णन | चन्द्र व सूर्य के द्वीप का अधिकार। द्वीप समुद्रों के नाम । ढाई द्वीप से बाहर के ज्योतिषी । लवणसमुद्र सम्बन्धी प्रश्नोत्तर । धातकी खण्ड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्करवर द्वीप और मनुषोत्तर पर्वत का वर्णन । ढाई द्वीप तथा बाहर के ज्योतिषी । मानुषोत्तर पर्वत ।
1
1
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २२१ मनुष्य लोक का शाश्वतपना । इन्द्र के च्यवन का अधिकार । पुष्कर समुद्र । वरुण द्वीप और वरुप समुद्र । क्षीरद्वीप और क्षीरसमुद्र । घृत द्वीप व घृत समुद्र । इन द्वीप व इतु समुद्र नन्दीश्वर द्वीप व नन्दीथर समुद्र ।अनेक द्वीप समुद्रों का वर्णन । यावत् कह कर स्वयम्भूरमण समुद्र का वर्णन | असंख्यात् द्वीप समुद्रों के नाम । अलगअलग समुद्रों के पानी का स्वाद । समुद्रों में मत्स्यों का वर्णन। द्वीप समुद्रों की गिनती का प्रमाण व परिणाम । इन्द्रियों के विषय, पुगल परिणाम | चन्द्र और तारों की समानता । मेरु तथा समभूमि से अन्तर । आभ्यन्तर और वाह्य नक्षत्र | चन्द्र विमान का संस्थान तथा लम्बाई चौड़ाई । ज्योतिषी विमान उठाने वाले देवों का विस्तार । शीघ्र गति व मन्द गति । हीनाधिक ऋद्धि । परस्पर धन्तर वैमानिक देव तथा देवियों का विस्तार। (४) प्रतिपत्ति-एकेन्द्रिय आदि पाँच प्रकार के जीव । (५) प्रतिपत्ति-पृथ्वी आदि छकाय के जीवों का वर्णन । (६) प्रतिपत्ति-सात प्रकार के जीवों का वर्णन । (७) प्रतिपनि-आठ प्रकार के जीव । (८) प्रतिपत्ति-नौ प्रकार के जीवोंका संक्षिप्त वर्णन | (8) प्रतिपत्ति-दस प्रकार के जीव । समुचय जीवाभिगम -जीवों के दो से लेकर दस तक भेद ।
(४) पन्नवणासूत्र जीवानीवाभिगम सूत्र के बाद पनवणा सूत्र आता है। अंग सूत्रों में चौथे अंग सूत्र समवायांग का यह उपांग है। समवायोग में जीव, अजीव, स्वसमय, परसमय, लोक, अलोक आदि विषयों का वर्णन किया गया है । एक एक पदार्थ की वृद्धि करते हुँए सौ पदार्थों तक का वर्णनं समवायांग सूत्र में है। इन्हीं विषयों का
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला वर्यान विशेषरूप से पन्नवणा में किया गया है । इसमें ३६ पद हैं। एक एक पद में एक एक विषय का वर्णन है।
आगमों में चार प्रकार के अनुयोगों का निरूपण किया गया है। (१) द्रव्यानुयोग (२) गणितानुयोग (३) चरणकरणानुयोग (४)धर्मकथानुयोग द्रव्यानुयोग में जीव,पुद्गल,धर्म,अधर्म, आकाश, काल, द्रव्य आदि का वर्णन आता है ।गणितानुयोग में मनुष्य विर्यच, देव, नारक श्रादि की गिनती आदि का वर्णन होता है। चरणकरणानुयोग में चारित्रसम्बन्धी और धर्मकथानुयोग में कथा द्वारा धर्म के उपदेश आदि का वर्णन पाता है । पनवणा सूत्र में मुख्य रूप से द्रव्यानुयोग का वर्णन आता है। इसके सिवाय कहीं कहीं पर चरणकरणानुयोग और गणितानुयोग का विषय भी आया है। इसमें ३६ पद हैं।
पहले प्रज्ञापनापद के दो मेद है-अजीव प्रज्ञापना और जीव प्रज्ञापना। अजीव प्रज्ञापना में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय
आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय के भेद प्रमों का वर्णन है। जीव प्रज्ञापना में जीवों के सविस्तार मेदों का वर्णन है। मनुष्यों के मेदों में आर्य (जाति आर्य, कुल आर्य आदि) और म्लेच्छ आदि का भी विस्तारपूर्वक वर्णन है।दूसरे स्थानपद में पृथ्वीकायिक से लेकर सिद्धों तक के स्थान क वर्णन है। तीसरा अल्पवहुत्व पद है। इसमें दिशाद्वार, गतिद्वार, इन्द्रियद्वार, काय द्वार आदि २६ द्वारों से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है
और २७वें महादण्डक द्वार में सब जीवों का विस्तारपूर्वक अन्पबहुत्व कहा गया है। चौथे स्थितिपदद्वार में चौवीस दण्डकों की अपेक्षा सब जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट भायु का वर्णन किया गया है। पांचवें पद का नाम विशेष अथवा पर्याय पद है। इसमें जीव और अजीवों के पर्यायों का वर्णन है। छठे व्युत्क्रान्ति पद में जीवों
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
२२३
के उपपात, उपपातविरह, उर्द्धतना, उर्द्धतनाविरह, सान्तर और निरन्तर उपपात और उर्द्धतना, परभव का श्रायुबन्ध इत्यादि वातों का वर्णन किया गया है। सातवें उच्छासपद में चौबीस दण्डक के जीवों की अपेक्षा उच्छ्वास काल का परिमाण बतलाया गया है। आठवें संज्ञा पद में संज्ञा, उपयोग और अल्पबहुत्व का निरूपण 'किया गया है | नवा योनिपद है, इसमें शीत, उष्ण और शीतोष्ण तीन प्रकार की योनियों का वर्णन है तथा योनि के कूर्मोन्नता, शंखावर्ता और वंशीपत्रा आदि भेद किए गए हैं। किन जीवों के कौनसी योनि होती है और कौन से जीव किस योनि में पैदा होते हैं इत्यादि बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। दसवां चरमाचरम पद है, इसमें रत्नप्रभा पृथ्वी आदि तथा परमाणु और परिमण्डल आदि संस्थानों की अपेक्षा चरम और चरम का निरूपण है । ग्यारहवें पद का नाम भाषापद है, इसमें सत्य - भाषा, असत्यभाषा आदि भाषा सम्बन्धी मेदों का विचार किया गया है । भाषा के लिङ्ग, वचन, उत्पत्ति आदि का भी विचार किया 1 गया है । भाषा के दो भेद - पर्याप्तभाषा और अपर्याप्तभाषा | पर्याप्त सत्यभाषा के जनपद सत्य आदि दस भेद | पर्याप्त मृषाभापा के क्रोधनिश्चित आदि दस भेद । अपर्याप्त भाषा के दो भेद | पर्याप्त सत्यामृपा भाषा के दस मेद । अपर्याप्त असत्यामृषा भाषा के वारह मेद । भाषाद्रव्य, भाषा द्रव्य का ग्रहण, वचन के सोलह भेद, कैसी भाषा बोलने वाला आराधक और विराधक होता है, भाषा सम्बन्धी अल्पबहुत्व आदि विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
बारहवाँ शरीर पद है - इसमें श्रदारिकादि पाँच शरीरों का वर्णन है । तेरहवें परिणाम पद में जीव के दस परिणाम और अजीव के दस परिणामों का वर्णन किया गया है। चौदहवें कषाय पद में कपायों के भेद, उत्पत्तिस्थान, आठ कर्मों के चय, उपचय आदि का
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
-
-
-
निरूपण है। पन्दहवें इन्द्रय पद में इन्द्रयों के भेद, संस्थान, अवगाहना, प्रदेश, परिमाण, उपयोग और काल अदि का वर्णन है। सोलहवें प्रयोग पद में योग के पन्द्रह भेद, विहायोगति के सतरह भेद आदि का वर्णन पाया है। सवरहवें लेश्या पद में लेश्याओं का स्वरूप, जीवों का समान आहार, शरीर, उच्छास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना और क्रिया आदि का विचार है तथा लेश्याओं के परिणाम और वर्ण श्रादि का भी वर्णन है। अठारहवें पद में जीवों की कास्थिाति का वर्णन है । उन्नीसवें सम्यक्त्व पद में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यम्मिथ्यादृष्टि जीवों का वर्णन है । बीसवों अन्तक्रियापद है, इसमें अनन्तरागत, परम्परागत, अन्तक्रिया, केवलिकथित धर्म, असंयत भव्य देव आदि के उपपात सम्बन्धी विचार किये गए हैं। इक्कीसवाँ अवगाहना संस्थान पद है, इसमें पाँच शरीरों के संस्थान, परिमाण, पुद्गलों का चयोपचय, शरीरों का पारस्परिक सम्बन्ध, अल्पबहुत्व आदि का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। बाईसवें क्रियापद में कायिकी श्रादि क्रियाओं का वर्णन है । तेईसवें पद का नाम कर्मप्रकृति है। इसमें पाठ कर्मों की प्रकृतियाँ, वे कैसे और कितने स्थानों से बंधती हैं और किस प्रकार वेदी जाती हैं, प्रकृतियों का विपाक, स्थिति (जघन्य और उत्कृष्ट), वन्धस्वामित्व आदि का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। चौवीस .कर्मबन्ध पद में बतलाया गया है कि ज्ञानावरणीयादि कर्म चाँधते समय दूसरी कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है ? पञ्चीस कर्मवेद पद में बतलाया गया है कि ज्ञानावरणीयादि कर्म बाँधते समय जीव कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है ? छब्धीसवें पद में यह पतलाया गया है कि ज्ञानावरणीयादि कर्मप्रकृतियों का वेदन करता हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृतियाँ बाँधता है। सनाईसवें कर्मवेद पद में ज्ञानावरणीयादि कर्मों को वेदता हुआ जीव
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओ जैन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग अन्य कर्मों की कितनी प्रकृतियों को वेदता है। इसका निरूपण किया गया है। अट्ठाईसवें आहार पद में कौनसे जीव किस प्रकार का आहार लेते हैं ? आहारक अनाहारक आदि पातों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। उनतीसवाँ उपयोग पद है। इसमें साकार और अनाकार उपयोग का वर्णन है। तीसवे पद में भी उपयोग का ही विशद वर्णन है। उपयोग और पासणया (पश्यता) का पारस्परिक मेद, पश्यता के नव मेद । इकतीसवें पद में संज्ञा का विचार किया गया है । यत्तीसवें संयमपद में संयत, असंयत
और संयतासंयत आदि जीवों का वर्णन किया गया है। तेतीसवें पद का नाम अवधि पद है। इसमें अवधि ज्ञान के हीयमान और बर्द्धमान आदि मेदों का विस्तार पूर्वक वर्णन है । चौतीसवें प्रवीचार पद में मुख्य रूप से देवों के प्रवीचार ( विषय भोग) सम्बन्धी विचार किया गया है। पैतीसवाँ वेदनापद है, इसमें वेदना सम्बन्धी विचार है। किन जीवों को कौंन सी वेदना होती है, यह बतलाया गया है। छत्तीसवाँ समुद्घात पद है, इसमें समुद्घात का वर्णन है। समुद्घात का काल परिमाण, चौवीस दण्डक की अपेक्षा अतीत, अनागत और वर्तमान सम्बन्धी समुद्घात, फेवली समुद्घात करने का कारण, योगों का व्यापार आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। -
५ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति : यह कालिक,मंत्र है। इसमें जम्बूद्वीप के अन्दर रहे हुए भरत.. आदि क्षेत्र, वैताढ्य आदि पर्वत, पब आदिन्द्रह, गंगा आदि नदियाँ, ऋषम आदि कूट तथा ऋषभदेव और भरत- चक्रवर्ती का वर्णन , विस्तार से है। ज्योतिषी देव तथा उनके सुख आदिमी बताए। गए हैं। इसमें इस अधिकार हैं, जिनमें नीचे लिखें विषय वर्णित है ।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
श्री सेठिया जेन प्रम्णमाला
(१) भरत क्षेत्र का अधिकार-जम्बूद्वीप का संस्थान व जगती । द्वारों का अन्तर । भरत क्षेत्र, वैताढ्य पर्वत व ऋषभकूट का वर्णन । (२) काल का अधिकार- उत्सर्पिणी और श्रवसर्पिणी काल का वर्णन | काल का प्रमाण (गणितभाग) | समय से १६८ श्र तक का गणित । पहले, दूसरे तथा तीसरे आरे का वर्णन । भगवान् ऋषभदेव का अधिकार । निर्वाण महोत्सव । चौथे धारे का वर्णन | पाँचवें और छठे चारे का वर्णन । उत्सर्पिणी काल ।
1
1
(३) चक्रवर्त्यधिकार - विनीता नगरी का वर्णन । चक्रवर्ती के शरीर का वर्णन | चक्ररल की उत्पत्ति । दिग्विजय के लिए प्रस्थान । मागधदेव, वरदामदेद, प्रभासदेव और सिन्धु देवी का साधन । वैताढ्य गिरि के देव का साधन । दक्षिण सिन्धु खएड़ पर विजय । तिमिस्र गुफा के द्वारों का खुलना । गुफा प्रवेश, मण्डल लेखन | उन्मना और निमग्नजला नदियों का वर्णन । श्रापात नाम वाले किरात राजाओं पर विजय । चुल्लहिमवन्त पर्वत के देव का धाराधन । ऋषभकूट पर नामलेखन । नवमी तथा बेनवमी की आराधना । गङ्गा देवी का आराधन | खण्डप्रपात गुफा का नृत्य | मालदेव का आराधन । नौ निधियों का आराधन । विनीता नगरी में प्रवेश । राज्यारोहण महोत्सव | चक्रवर्ती की ऋद्धि । शीशमहल में अंगूठी का गिरना, वैराग्य और कैवल्य प्राप्ति ।
( ४ ) क्षेत्र वषधरों का अधिकार - चुम्न हिमवन्त पर्वत, हैमवत क्षेत्र, महाहिमवन्त पर्वत, हरिवर्ष क्षेत्र, निषध पर्वत, महाविदेह क्षेत्र गन्धमादन गजदन्ता पर्वत, उत्तरकुरु क्षेत्र, यमक पर्वत व राजधानी, जम्बूवृक्ष, मान्यवन्त पर्वत कच्छ आदि आठ विजय, सीतामुख च वच्छ यादि आठ विजय। सौमनस गंजदन्त, देवकुरु, विद्युत्प्रभ गजदन्त, पद्म आदि १६ विजय, मेरु पर्वत, नीलवन्त पर्वत, रम्यकवास क्षेत्र, रुकमी पर्वत, हैरण्यवत क्षेत्र, शिखरी पर्वत, ऐरावत क्षेत्र ।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रो जन सिखान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २२७ । तीथङ्करों का अभिषेक । दिशाकुमारियों द्वाग किया गया उत्सव । इन्द्रों द्वारा किया गया उत्सव । तीर्थङ्करों का स्वस्थान स्थापन ।
(५) वएडयोजनाधिकार-प्रदेश स्पर्शनाधिकार । खण्ड, योजन, क्षेत्र, पर्वत, कूट, तीर्थ, श्रेणी, विजय, द्रह और नदीद्वार।
(६) ज्योतिषीचक्राधिकार-चद्र सूर्य आदि की संख्या। सूर्यमण्डल की संख्या, क्षेत्र, अन्तर, लम्बाई,चौड़ाई,मेरु से अन्तर, हानि, धृद्धि, गतिपरिमाण, दिन रात्रि परिमाण, तापक्षेत्र, संस्थान, दृष्टिविषय, क्षेत्र गमन तथा ऊपर नीचे और तिचे ताप (गरमी)। ज्योतिषी देव की उत्पचि तथा इन्द्रों का च्यवन । चन्द्रमण्डलों का परिमाण, मण्डलों का क्षेत्र, मण्डलों में अन्तर, लम्बाई चौड़ाई और गतिपरिमाण निक्षत्र मण्डलों में परस्पर अन्तर, विष्कम्भ, मेल से दरी, लम्बाई चौड़ाई तथा गतिपरिमाण, चन्द्रगति का परिमाण -तथा उदय और अस्त की रीति ।।
(७) संवत्सरों का अधिकार-संवत्सरों के नाम व भेद । संवत्सर के महीनों के नाम । पन, तिथि तथा रात्रि के नाम । मुहर्त वकरण के नामाचर व स्थिर करण ।प्रथम संवत्सर आदि के नाम ।
(5) नक्षत्राधिकार-नक्षत्र के नाम व दिशा योग । देवता के नाम व तारों की संख्या नक्षत्रों के गोत्र व तारों की संख्या। नक्षत्र
और चन्द्र के द्वारा काल का परिमाण, कुल, उपकुल, कुलोपरात्रि पूर्ण करने वाले नक्षत्रों का पौरीषी परिमाण ।
(8) ज्योतिषी चक्र का अधिकार-नीचे तथा ऊपर के तारे तथा उनका परिवार । मेरु पर्वत से दूरी । लोकान्त तथा समतल भूमि से अन्तर । बाह्य और प्राभ्यन्तर तारे तथा उनमें अन्तर । संस्थान और परिमाण । विमान वाहक देवता । गति, अल्पमहत्व, ऋद्धि, परस्पर अन्तर तथा अग्रमहिषी । सभादोर । ८० ग्रहों के नाम | अल्पबहुत्व।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
- २२८ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
(१०).समुच्चय अधिकार-जम्बूद्वीप में होने वाले उत्तम पुरुष। जम्बूद्वीप में निधानारनों की संख्या जम्बूद्वीप की लम्बाई चौड़ाई। नम्बूद्वीप की स्थिति । जम्बूद्वीप में क्या अधिक है ? इसका नाम - जम्बूद्वीप क्यों है ? इत्यादि का वर्णन ।
(६) चन्द्र प्रज्ञप्ति यह कालिक सूत्र है। चन्द्र की ऋद्धि, मंडल, गति, गमन, संवत्सर, वर्ष, पच, महीने, तिथि, नक्षत्रों का कालमान, कुल और उपकुल के नक्षत्र, ज्योतिषियों के सुख वगैरह का वर्णन इस सत्र में बहुत विस्तार से है । इस सत्र का विषय गणितानुयोग है। बहुत गहन होने के कारण यह.सरलतापूर्वक समझ में नहीं पाता। इस में नीचे लिखे विषय प्रतिपादित है:
(१) प्रामृत-मङ्गलाचरण । २० प्राभूतों का संक्षिप्त वर्णन। प्रामृत और प्रतिप्रामृत में प्रतिपत्तियाँ, सर्वाभ्यन्तर प्राभत । पहला प्रतिप्राभूत-मंडल का परिमाण । द्वितीय प्रतियोभृत-मंडल संस्थान । तृतीय प्रतिप्रामृत-मंडल क्षेत्र। चतुर्थ प्रतिप्रामत-ज्योतिषी अन्तर। पाँचवां प्रतिमामत-द्वीपादि में गति का अन्तर छठा प्रतिप्राभतअहर्निश क्षेत्र पर्शासावयाँ प्रतिप्रामत-मंडल संस्थान पाठवाँ प्रतिप्रामृत-मंडल-परिमाण ।
(२) प्राभूत-प्रथम, प्रतिभाभृत-तिब्धीमति परिमाणं । द्वितीय प्रतिप्रामृत-मंडल संक्रमण हत्तीय प्रतिप्रमित-मुहर्त गतिपरिमाण ।
प्रामृत-क्षेत्र परिमाण १४. प्रामृत वाप, चित्र संस्थान
प्रामृत लेश्या मतियात (६)प्राभूत प्रकाश कथना (७)प्रामृत प्रकाश संशेष।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २९६ (८) प्रामृत-उदय मस्त परिमाण । (६) प्राभूत-पुरुष छाया परिमाण।
(१०) प्रामत-इसमें वाईस प्रतिप्राभूत हैं। उनमें नीचे लिखे विषय हैं-(१)नक्षत्रों का योगा(२)नक्षत्र मुहूर्त गति। सूर्य और चन्द्र के साथ नक्षत्रों का काल ।(३) नक्षत्र दिशा भाग। (१) युगादि के नक्षत्र और उनका योग । चन्द्र के साथ नक्षत्रों का योग। (५) कुल और उपकुल नक्षत्र । (६) पूर्णिमा और अमावस्या । पूर्णिमा में नक्षत्रों का योग । पर्व, तिथि तथा नक्षत्र निकालने की विधि | सभी नक्षत्रों के मुहूर्त । पाँच संवत्सरों की पूर्णिमा के नक्षत्र । बारह अमावस्याओं के नक्षत्र । अमावस्या के कुल आदि नक्षत्र । पाँच संवत्सरों की अमावस्याएं। (७) नक्षत्रों का सभिपात | अमावास्या और पूर्णिमा केकुल तथा उपकुल में नक्षत्र । , (८)नक्षत्रों के संस्थान (ब) नक्षत्रों के तारों की संख्या (१०) अहोरात्रि में पूर्ण नक्षत्र नक्षत्रों के महीने और दिनों का यन्त्र । (११) चन्द्र नक्षत्र मार्ग । सूर्यमण्डल के नक्षत्र । सूर्यमण्डल के ऊपर के नक्षत्र । (१२) नक्षत्रों के अधिष्ठाता देव । (१३) तीस मुहूर्त के नाम । (१४)तिथियों के नाम । (१५) तिथि निकालने की विधि । (१६)नक्षत्रों के गोत्र । (१७) नक्षत्रों में भोजन । (१८) चन्द्र सूर्य की गति । (११) बारह महीनों के नाम (२०) पाँच संवत्सरों का वर्णन | (२१) चारों दिशाओं के नक्षत्र । (२२) नक्षत्रों का योग वथा वियोग । नक्षत्रों के भोग का परिमाण। .
(११) प्राभत-संवत्सर के श्रादि और अन्त ।
(१२) प्राभृत- संवत्सर का परिमाण । पाँच संवत्सरों के महीने, दिन और मुहूर्त । पाँच संवत्सरों के-संयोग के २६ भांगे । ऋतुनक्षत्र का परिमाण । शेष रहने वाले चन्द्र, नक्षत्र तथा उनकी आवृत्ति आदि का वर्णन ।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३० श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला , (१३) प्राभूत-चन्द्र की वृद्धि और अपवृद्धि ।
(१४) प्रामृत-शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष।
(१५) प्रामृत-ज्योतिषियों की शीघ्र और मन्द गति । नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास और आदित्यमास में चलने वाले मण्डलों की संख्या आदि का वर्णन । (१६) प्रामृत-उद्योत के लक्षण । (१७) प्रामृत-चन्द्र और सूर्य का च्यवन । (१८) प्रामृत-ज्योतिषियों की ऊंचाई। (१६) प्रामृत-चन्द्र और सूर्यों की संख्या।
(२०) प्राभूत-चन्द्र और सूर्य का अनुभाव । ज्योतिषियों के भोग की उत्तमता का दृष्टान्त ! ८८ ग्रहों के नाम ।
(७) सूर्य प्रज्ञप्ति सूत्र यह सातवाँ उपाङ्ग है। यह उत्कालिक सूत्र है। इसमें सूर्य की गति, स्वरूप, प्रकाश आदि विषयों का वर्णन है। सूर्यप्राप्ति में २० प्राभूत हैं । विषयों का क्रम नीचे लिखे अनुसार है।
(१) प्राभृत-प्रथम प्रतिप्रामृत-सूर्यमण्डल का परिमाण । द्वितीय प्रतिप्रामृत-मंडल का संस्थान । तृतीय प्रतिप्राभूत मण्डल का क्षेत्र । चतुर्थ प्रतिप्रामृत--ज्योतिषियों में परस्पर अन्तर । पंचम प्रतिप्रामृत-द्वीप आदि में गति का अन्तर ।छठा प्रविप्रामृत--दिन और रात में ग्रहों का स्पर्श । सातवाँ प्रतिप्रामृत- मण्डलों का संस्थान । आठवाँ प्रतिप्राभूत-मण्डलों का परिमाण ।
(२) प्रामृत-प्रथम प्रतिप्राभृत-विी गति का परिमाण । द्वितीय प्रतिप्रामृत-मण्डल संक्रमण । तृतीय प्रतिप्राभृत-मुहूर्त में गति का परिमाण । - (३) प्रामृत--क्षेत्र का परिमाण ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग (४) प्राभृत - क्षेत्र का संस्थान । (५) प्रामृत - लेश्या (ताप) का प्रतिघात । (६) प्राभृत- सूर्य के प्रकाश का वर्णन | (७) प्रामृत - प्रकाश का संकोच -1 (८) प्राभृत- उदय और अस्त का परिमाण ।
२३१
I
(१०) प्रामृत - (१) प्रतिप्रामृत - नक्षत्रों का योग । (२) प्रति प्राभृत-नक्षत्रों की मुहूर्तगति । सूर्य और चाँद के साथ नक्षत्र का काल । (३) प्रतिप्राभृत-- नक्षत्रों का दिशाभाग । (४) प्रतिप्राभृतI युगादि में नक्षत्रों के साथ योग । (५) कुल और उपकुल नक्षत्र । (६) पूर्णिमा और श्रमावास्या । पर्व, तिथि तथा नक्षत्र निकालने । की विधि | बारह श्रमावास्याच्चों के नक्षत्र । श्रमावास्या के कुलादि नक्षत्र । पाँच संवत्सरों की अमावास्याएं ।७ नक्षत्रों का सन्निपात । (८) नक्षत्रों के संस्थान | (8) नक्षत्रों में तारों की संख्या । (१०) अहोरात्र में पूर्ण नक्षत्र । नक्षत्रों के महीने और दिन । (११) चन्द्र का नक्षत्र मार्ग | सूर्यमण्डल के नक्षत्र । सूर्यमण्डल से ऊपर के नक्षत्र । (१२) नक्षत्रों के अधिष्ठाता । (१३) तीस मुहूर्तों के नाम । (१४) तिथियों के नाम । (१५) तिथि निकालने की विधि | (१६) नक्षत्रों के गोत्र । (१७) नक्षत्रों में भोजन 1 (१८) चन्द्र और सूर्य की गति । (१६) वारह महीनों के नाम । ( २० ) पाँच संवत्सरों का वर्णन । (२१) चारों दिशाओं के नक्षत्र । (२२) नक्षत्रों का योग, भोग और परिमाण ।
(११) प्रामृत - संवत्सर के आदि और अन्त ।
(१२) प्रामृत -- संवत्सर का परिमाण । पाँच संवत्सर के महीने, दिन और मुहूर्त । पाँच संवत्सरों के संयोग से २६ भांगे । ऋतु और नक्षत्रों का परिमाण । चन्द्र नक्षत्र के शेष रहने पर आवृत्ति ।
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
श्री सेठिया जेन प्रन्थमाला
(१३) प्राभृत - चन्द्र की वृद्धि और अपवृद्धि । (१४) प्राभृत - कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष ।
(१५) प्राभृत-- ज्योतिषियों की शीघ्र और मन्द गति । नक्षत्र मास, चन्द्रमास, ॠतुमास और आदित्यमास में चलने वाले नक्षत्रों की संख्या आदि का वर्णन ।
(१६) प्राभृत- उद्योत के लक्षण | (१७) प्रामृत - चन्द्र और सूर्य का व्यवन । (१८) प्राभृत- ज्योतिषियों की ऊँचाई ।
(१६) प्रामृत - चन्द्र और सूर्य की संख्या ।
(२०) प्रामृत - चन्द्र और सूर्य का अनुमान । ज्योतिषियों के भोग की उत्तमता के लिए दृष्टान्त । अठासी ग्रहों के नाम ।
(८) निरयावल्लिया सूत्र
निरयावलिया, कप्पवडंसिया, पुल्फिया, पुष्फचूलिया, वरिहदसा इन पाँच सूत्रों का एक ही समूह है । निरयाबलिया सूत्र कालिक है। इसके दस अध्ययन हैं। यथा-
(१) काली कुमार (२) सुकाली कुमार (३) महाकाली कुमार (४) कृष्ण कुमार (५) सुकृष्ण कुमार (६) महाकृष्ण कुमार (७) वीर कृष्ण कुमार (८) रामकृष्ण कुमार (8) प्रियसेनकृष्ण कुमार (१०) महासेनकृष्ण कुमार |
ये सभी राजगृही के राजा श्रेणिक के पुत्र थे । अपने बड़े भाई कोणिक के साथ संग्राम में युद्ध करने के लिए गए। इनका सामना करने के लिए चेड़ा राजा अठारह देशों के राजाओं को साथ ले कर युद्ध में आया । चेड़ा राजा ने दस दिन में दसों ही कुमारों को मार डाला | कुमारों की मृत्यु का वृत्तान्त सुन कर उनकी माताओं को वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने भगवान् महावीर स्वामी से दीक्षा ग्रहण यात्म कल्याण किया । रथमृसल संग्राम और
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग २३३ शिलाकण्टक संग्राम में एक करोड़ अस्सी लाख आदमी पारे गये। इनमें से एक देवगति में, एक मनुष्य गति में और शेष सभी नरक और तिर्यञ्च गति में गये । इस संग्राम में कोणिक राजा की जय और चेड़ा राजा की पराजय हुई।
इस अध्ययन में कोणिक राजा का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है। कोणिक का चेलना रानी के गर्भ में आना, चेलनारानी का दोहद (दोहला), दोहले की पूर्ति, कोणिक का जन्म, राजा श्रेणिक की मृत्यु आदि का वर्णन है।
दूसरे अध्ययन से दसवें अध्ययन तक समुच्चय रूप से रथमूसल और शिला कण्टक संग्राम का भगवती सूत्र के अनुसार संक्षेप में वर्णन किया गया है।
(8) कप्पपडसिया सूत्र यह सूत्र कालिक है । इसके दस अध्ययन हैं-- (१) पद्म कुमार (२) महापद्म कुमार (३) भद्र कुमार(४) सुभद्र कुमार (५) पद्मभद्र कुमार (६) पद्मसेन कुमार (७) पद्मगुल्म कुमार (5) नलिनी कुमार (8) आनन्दकुमार (१०) नन्द कुमार । । ये सभी कोणिक राजा के पुत्र काली कुमार के लड़के थे। इनकी माताओं के नाम इन कुमारों के नाम सरीखे ही हैं। सभी ने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली थी। श्रमण पर्याय का पालन कर ये सभी देवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्मलेंगे और वहाँ से मुक्ति प्राप्त करेंगे।
(१०) पुफिया सूत्र यह सूत्र कालिक है। इसके दस अध्ययन हैं--
(१) चन्द्र (२) सूर्य (३) शुक्र (8) बहुपुत्रिका देवी (५) पूर्णभद्र (६) मणिभद्र (७) दत्त (८) शिव (९)वल (१०) अनादृष्टि।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला ये सब देव हैं। भगवान महावीर के समवसरण में आकर उन्होंने विविध प्रकार के नाटक करके दिखलाये । उनकी ऐसी उत्कृष्ट ऋद्धि को देख कर गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किया कि इनको यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई ? तब भगवान ने इन के पूर्व भव बतलाये। नसब ने पूर्वभव में दीक्षा ली थी किन्तु ये विराधक होगये, इसी कारण ज्योतिषी देवों में उत्पन्न हुए । वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और दीक्षा लेकर मोक्ष में जायेंगे।
(११) पुप्फचूलिया सूत्र यह सूत्र कालिक है । इसके दस अध्ययन है-- - (१) श्री देवी (२) ही देवी (३) धृति (४) कीति (५) बुद्धि (६) लक्ष्मी देवी (७) इला देवी (5) सुरा देवी (8) रस देवी (१०) गन्ध देवी।
इन सभी देवियों ने भगवान महावीर के समवसरण में उपेस्थित होकर विविध प्रकार के नाटक दिखलाये गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् ने इनका पूर्वभव बतलाया । पूर्वभव में सभी ने दीक्षा ली थी। विराधक होकर यहाँ देवीरूप से उत्पन्न हुई । यहाँ से चन कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगी और वहीं से मोक्ष प्राप्त करेंगी।
(१२) वाणिहदसा सूत्र यह सूत्र कालिक है। इसके बारह अध्ययन है(१)निषध कुमार (२) अनिय कुमार (३) वहकुमार (४) वहे कुमार (५) प्रगति कुमार (६) मुक्ति कुमार (७) दशरथ कुमार (6) दृढरथ कुमार (६). महाधनुष कुमार (१०) समधनुष कुमार (११). दसधनुष कुमार (१२) शतधनुष कुमार।।
द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे। उसी नगरी में बलदेव राजा रहते थे। उनकी रानी का नाम रेवती था। उनके
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३५
श्री जैन सिद्धान्त वोल संघह, चोथा माग पुत्र निपध कुमार ने भगवान् अरिष्ट नेमि के पास दीक्षा ली। नौ वर्ष तक शुद्ध संयम का पालन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। शेष ग्यारह अध्ययनों का वर्णन पहले अध्ययन के समान ही है। ७७८-सूत्र के बारह भेद
अल्पाक्षरमसन्दिग्धं, सारवद्विश्वतो मुखं ।
अस्तोभमनवयं च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः॥ अर्थात्-जो थोड़े अक्षरों वाला, सन्देह रहित, सारयुक्त, सब अर्थों की अपेक्षा रखने वाला, बहुत विस्तार से रहित (निरर्थक पदों से रहित) और निर्दोष हो उसे सूत्र कहते हैं । सूत्र के वारह भेद निम्न प्रकार है।
(१) संज्ञा स्त्र-- किसी के नाम आदि को संज्ञा कहते हैं । जैसे आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन पाँच के पहले उद्देशे में कहा गया है कि
__ 'जे छेए से सागरियं न सेवे' ' अर्थाद-जो पण्डित पुरुष है वह मैथुन सेवन नहीं करे । अथवा दूसरा उदाहरण और दिया गया है
'प्रारं दुगुणेणं पारं एग गुणेण यं'। अर्थात् राग और द्वेष इन दो से संसार की वृद्धि होती है और राग द्वेप के त्याग से निर्वाण की प्राप्ति होती है।
(२) स्वसमय सूत्र-अपने सिद्धान्त में प्रसिद्ध सूत्र स्वसमय सूत्र कहलाता है। जैसे
'करेमि भंते!सामाइयं (३) परसमय सूत्र-अपने सिद्वान्त के अतिरिक्त दूसरों के सिद्धान्त को परसमय सूत्र कहते हैं। जैसे
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६
श्री सेठिया जेन अन्यमाला.
'पंच खंधे क्यंतेगे बाला उ खणजोइणो' अर्थात-कोई अज्ञानी क्षणमात्र स्थित रहने वाले पाँच स्कन्धों को बतलाते हैं। स्कन्धों से भिन्न आत्मा को वे नहीं मानते।।
(४) उत्सर्ग सूत्र-सामान्य नियम का प्रतिपादन करने वाला सूत्र उत्सर्ग स्त्र कहलाता है। जैसे
'अभिक्खणं निविगई गया य अर्थात्- साधु को सदा विगय रहित आहार करना चाहिए। (५) अपवाद सूत्र-विशेष नियम का प्रतिपादन करने वाला सूत्र अपवाद सा कहलाता है। जैसे
तिहमन्नयरागस्स, निसिजा जस्स कप्पई।
जराए अभिभूयस्स, वाहियस्स तवस्सिो ॥ अर्थात्-अत्यन्त वृद्ध, रोगी और तपस्वी इन तीन व्यक्तियों में से कोई एक कारण होने पर गृहस्थ के घर बैठ सकता है।
दशकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में इस गाथा से पहले की गाथा में बतलाया गया है- साधु को गृहस्थ के घर में नहीं बैठना चाहिए। यह उत्सर्ग सूत्र (सामान्य नियम) है। इसका अपवाद सूत्र (विशेष नियम) इस गाथा में बतलाया गया है।
(६) हीनावर सूत्र-जिस सूत्र में किसी अक्षर की कमी हो अर्थात् किसी एक अक्षर के बिना सूत्र का अर्थ ठीक नहीं पैठता हो उसे हीनाक्षर सूत्र कहते हैं।।
(७) अधिकार सूत्र-जिस सूत्र में एक आध अक्षर अधिक हो उसे अधिकार सूत्र कहते हैं।
(८) जिनफल्पिक सूत्र-जिनकल्पी साधुओं के लिए बना हुआ सूत्र जिन कल्पिक सूत्र कहलाता है। जैसे
तेगिच्छं नाभिनंदिज्जा, संचिक्वात्तगवसए,। एवं खु तस्स सामण्णं, ज न कुज्जा न कारवे ।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जेन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग
२३७ अर्थात्-मिनु अपने शरीर में उत्पन्न हुए रोग के इलाज के लिए औपधि सेवन की इच्छा न करे किन्तु श्रात्म-शोधक बन कर शान्त चिन से समाधि भाव में संलग्न रहे । साधु स्वयं चिकित्सा न करे और न दूसरों से करावे, इसी में उसका सच्चा साधुत्व है।
उपरोक्त नियम जिनकल्पी साधुओं के लिए है स्थविर कल्पिों के लिये नहीं क्योंकि स्थिविर कल्पी साधु अपने कल्पानुसार निरवध औषधि का सेवन कर सकते हैं।
(8) स्थविरकल्पिक सूत्र-स्थविरकल्पी साधुओं के लिए नो नियम हो वह स्थविरकल्पिक सूत्र कहलाता है। यथा'भिक्खु अ इच्छिज्जा अन्नयरि तेगिच्छि आउंटित्तए' । अर्थात्-स्थविरकल्पी साधु निरवध औषधि का सेवन करे । अथवा जो जिनकल्पी और स्थविर कल्पी साधुओं के लिए एक सरीखा सामान्य नियम हो । यथा
'संसह कप्पण चरिज्ज भिक्खू अर्थाद-साधु भिक्षा योग्य पदार्थ से संसृष्ट (खरड़े हुए) हाथ या कड़छी से दिया जाने वाला आहार ग्रहण करे।
(१०) आर्या सूत्र-साध्वियों के लिए नियम बतलाने वाला सूत्र आर्या सूत्र कहलाता है । यथाकप्पइ निग्गंधीणं अन्तोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए । अर्थात्-साध्वियों को लघुनीति आदि परठने के लिये अन्दर से लीपा हुआ मिट्टी का वर्तन रखना कल्पता है।
(११) काल सूत्र-भूत,भविष्यत् और वर्तमान काल में से किसी एक काल के लिये बनाया गया स्त्र कालस्त्र कहलाता है। यथानवालभेज्जानिउणं सहायं,गुणाहियं वागुणोसमंवा। इक्कोविपावाईविवजयंतो,विहरिजकामेसुअसजमाणो॥
अर्थात्-यदि अपने से गुणों में अधिक अथवा गुणों में तुल्य
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला एवं संथप क्रिया में निपुण कोई साधु न मिले तो साधु शुद्ध संयम का पालन करता हुआ अकेला ही विचरे किन्तु शिथिलाचारी साधु के संग में न रहे।
(१२) वचन सूत्र-जिस सूत्र में एक वचन, द्विवचन और बहु - वचन का पतिपादन किया गया हो उसे वचन सूत्र कहते हैं। जैसे--
'एगवयणं वयमाणे एगवयणं वएजा, दुवयणं वयमाणे दुवयणं वएज्जा, बहुवयणं वयमाणे बहुवयणं वएज्जा, इत्थीवयणं वयमाणे इत्थीवयणं वएज्जा' ___ अर्थात्-एक वचन के स्थान में एकवचन, द्विवचन के स्थान में . द्विवचन, बहुवचन के स्थान में बहुवचन और स्त्रीवचन के स्थान में स्त्रीवचन का कथन करना चाहिए।(बहत्कल्प उद्देशा १ भष्यगाया १२२१ ) ७७६-भाषा के बारह भेद
जिसे वोल कर या लिख कर अपने भाव प्रकट किए जायें उसे -भाषा कहते हैं। इसके बारह भेद हैं
(१) प्राकृत (२) संस्कृत (३) मागधी (४) पैशाची (५) शौरसेनी और (६) अपनश। इन छहों के गद्य और पद्य के भेद से बारह भेद हो जाते हैं।
(प्रश्नव्याकरण टीका संवरद्वार, सत्यवत) ७८०- अननुयोग के दृष्टान्त बारह
द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव आदि के द्वारा सत्र और अर्थ के सम्बन्ध को ठीक ठीक बैठाना अनुयोग कहलाता है। अपनी इच्छानुसार विना किसी नियम के मनमाना अर्थ करना अननुयोग कहा जाता है। अननुयोग से शब्द का अर्थ पूरा और यथार्थ रूप से नहीं , निकलता और न निकलने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसके लिए बारह दृष्टान्त है
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री नैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २३६ (१) द्रव्य के अननुयोग तथा अनुयोग के लिए गाय और बछड़े का उदाहरण__यदि कोई ग्वाला लाल गाय के बछड़े को चितकबरी गाय के स्तनों में और चितकवरी गाय के बछड़े को लाल के स्तनों में छोड़ दे तो वह अननुयोग कहा जायगा क्योंकि जिस गाय का जो बछड़ा हो उसे उसी के स्तनों में लगाना चाहिए । अननुयोग करने से दूध रूप इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं होती। ___ इसी प्रकार अगर साधु जीव के लक्षण द्वारा अजीव की प्ररूपणा करता है अथवा अजीव के लक्षण द्वारा जीव की प्ररूपणा करता है तो वह अननुयोग है। इस प्रकार प्ररूपणा करने से वस्तु का विपरीत ज्ञान होता है | अर्थ के ज्ञान में विसंवाद अर्थात भ्रम हो जाता है। अर्थ के भ्रम से चारित्र में दोष भाने लगते हैं। चारित्र में दोप पाने से मोक्ष प्राप्ति नहीं होती । मोक्ष प्राप्त न होने पर दीक्षा व्यर्थ हो जाती है।
यदिग्वाला बछड़े को ठीक गाय के स्तनों में लगाता है तोद्ध रूप इष्ट कार्य की सिद्धि हो जाती है । इसी प्रकार जो साधु जीव के लक्षण से जीव की तथा अजीव के लक्षण से अजीव की प्ररूपणा करता है उसे मोक्ष रूप प्रयोजन की प्राप्ति होती है।
(२) क्षेत्र से अननुयोग और अनुयोग के लिए कुब्जा का उदाहरण
प्रतिष्ठान नाम के नगर में शालिवाहन नाम का राजा रहता था। वह प्रतिवर्ष भृगु कच्छ देश के राजा नभोवाहन पर चढाई करके उस के नगर को घेर लेता था। वर्षा का समय आने पर वापिस लौट आता था।
एक बार राजा घेरे के बाद वापिस लौटना चाहता था।अपने सभामण्डप में उसने थूकने के वर्तन को छोड़ कर जमीन पर थूक
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
श्री सेठिया जेन प्रन्थमाला - दिया । राजा के पास थूकने के बर्तन आदि को उठाने वाली एक कुब्जा दासी थी । इशारे और हृदय के भावों को समझने में वह बहुत चतुर थी जमीन पर थूकने से वह समझ गई कि राजा अब इस स्थान को छोड़ देना चाहता है। कुब्जा ने राजा के दिल कीवात स्कन्धावार (सेना) के अध्यक्ष को कह दी । वह कुब्जा को बहुत मानता था। राजा के जाने के लिए तैयार होने से पहले ही उसने हाथी घोड़े रथ आदि सवारियाँ सामने लाकर खड़ी कर दी। पीछे सारा स्कन्धावार चलने के लिए तैयार हो कर भागया। सेना के कारण उड़ी हुई धूल से सारा आकाश भर गया।
राजा ने सोचा- मैंने अपने जाने की बात किसी से नहीं कही थी। मेरा विचार था, थोड़े से नौकर चाकरों को लेकर सेना के आगे आगे चल, जिस से धूल से बच जाऊँ। किन्तु यह तो उन्टी बात होगई। सेना में इस बात का पता कैसे चला ? ढूंढने पर पता चला कि यह सब कुब्जा ने किया है। उससे पूछने पर कुब्जा ने थूकने आदि का सारा हाल सुना दिया।
रहने के स्थान में थूकना अननुयोग है। इसी कारण राजा की इच्छा पूरी न हुई। ऐसे स्थान में न थूकना, उसे लीपना तथा साफ रखना आदि अनुयोग है।।
इसी प्रकार भरत आदि क्षेत्रों के परिमाण को गलत बताना, जीवा, धनु पृष्ठ आदि के गणित को उल्टा सीधा करना क्षेत्र का अननुयोग है। इन्हीं बातों को ठीक ठीक वताना अनुयोग है,अथवा प्रकाश प्रदेश आदिको एकान्त नित्य या अनित्य बताना अननुयोग है। नित्यानित्य रूप चताना अनुयोग है।
(३) काल के अननुयोग तथा अनुयोग के लिए स्वाध्याय का उदाहरणएक.साधु किसी कालिक सूत्र की स्वाध्याय उस का समय
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २४१ चीतने पर भी कर रहा था। एक सम्यग्दृष्टि देव ने सोचा किसी मिथ्याप्टिदेव द्वारा उपद्रव न हो इस लिए इसे चेता देना चाहिए। यह सोच कर वह गूजरनी का रूप धारण कर के सिर पर छाछ का घड़ा लेकर साधु के पास आकर जोर जोर से चिल्लाने लगालो मट्ठा, लो मट्ठा। उसके कर्णकटु शब्द को सुन कर साधु ने पूछा-क्या यह मढे का समय है? देव ने कहा-जैसे तुम्हारे लिए यह समय सज्झाय का है उसी तरह मेरे लिए मढे का है। साधु को समय का खयाल आगया और उसने 'मिच्छामि दुकाई कहा। देव ने उसे समझाया और कहा-मिथ्यादृष्टि देव के उपद्रव से बचाने के लिए मैंने तुम्हें चेताया है, फिर कभी अकाल में स्वाध्याय मत करना।
सूत्र की सन्झाय अकाल में फरना काल से अननुयोग है। कालिक सूत्र की सज्झाय ठीक समय पर करना काल का अनुयोग है।
वचन के अनुयोग तथा अननुयोग के लिए दो उदाहरण हैबधिरोल्लाप और ग्रामेयक।
(४) वधिरोल्लाप का उदाहरण-किसी गाँव में एक वहरों का परिवार रहता था। उस में चार व्यक्ति थे-वृद्धा, बुढ़िया, उनका बेटा और बेटे की बहू । एक दिन वेटा खेत में हल चला रहा था। कुछ मुसाफिरों ने उससे रास्ता पूछा । उसने समझा ये बैलों के विषय में पूछ रहे हैं, इस लिए उत्तर दिया-य चल मेरे घर में ही पैदा हुए हैं। किसी दूसरे के नहीं हैं। मुसाफिर उसे बहरा समझ कर आगे चले गए । इतने में उस की स्त्री गेटी देने के लिए आई। उस ने अपनी स्त्री से कहा- 'मुसाफिर मुझे चैलों के विषय में पूछते थे मैंने उत्तर दिया कि ये मेरे घर पैदा हुए हैं। स्त्री भी. वहरी थी। वह समझी मुझे भोजन में अधिक नमक पड़ने के विषय में पूछा जा रहा है । उस ने उत्तर दिया-भोजन खारा है या
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
विना नमक का है, यह मुझे मालूम नहीं । तुम्हारी मां ने बनाया है। पुत्रवधू ने नमक की बात बुढ़िया से कही । बुढ़िया उस समय कपड़ा काट रही थी। वह बोली--कपड़ा चाहे पतला हो या मोटा। बूढ़े का कुर्ता तो बन ही जायगा । बूढ़े के घर आने पर बुदिया ने पुत्रवधू के पूछने की बात कही । बूढा सूखने के लिए डाले हुए तिलों की रक्षा कर रहा था। इस लिए डरते हुए कहा-तुम्हारी सौगन्ध, अगर मैंने एक भी विल खाया हो। ___ इसी प्रकार जहाँ एक वचन हो वहाँ द्विवचन का अर्थ करना, जहाँ द्विवचन हो वहाँ एक वचन का अर्थ करना वचन से अननुयोग है।
(५) ग्रामेयक का उदाहरण--किसी नगर में एक महिला रहती थी। उसके पति का देहान्त हो गया। नगर में ईंधन, जल
आदि का कष्ट होने से वह अपने छोटे बच्चे को लेकर गाँव में चली गई । उसका पुत्र जब बड़ा हुआ तो उसने पूछा-मां! मेरे पिता क्या काम किया करते थे? 'राजा की नौकरी। मां ने जवाब दिया। 'मैं भी उसे ही करूँगा। पुत्र ने उत्सुकता से कहा।
मां ने कहा-बेटा ! नौकरी करना बड़ा कठिन है । उसके लिए पड़े विनय की आवश्यकता है।
विनय किसे कहते हैं ? पुत्र ने पूछा। । जो कोई सामने मिले, उसे प्रणाम करना । सदा नम्र बने रहना। प्रत्येक कार्य दूसरे की इच्छानुसार करना। यही सब विनय की बातें है। माता ने उसे समझाते हुए कहा। ___'मैं ऐसा ही करूंगा।' यह कह कर वह नौकरी करने के लिए राजधानी की ओर चला।
मार्ग में चलते हुए उसने कुछ शिकारियों को देखा। वे वृक्षों की ओट में छिपे हुए थे। वहाँ पाए हुए कुछ हिरणों पर निशाना
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग
२४३
ताक कर धनुष खींचे हुए वैठे थे। उन्हें देख कर वह जोर से जय जय कहने लगा। उसे सुन कर सभी हिरण डर गए और भाग गए। शिकारियों ने उसे पीट कर वॉध दिया। इसके बाद उसने कहा-मुझे माँ ने सिखाया था कि जो कोई मिले उसे जय जय कहना । इसी लिए मैने ऐसा किया था। शिकारियों ने उसे भोला समझ कर छोड़ दिया और कहा-ऐसी जगह चुपचाप, सिर मुका कर विना शब्द किए धीरे धीरे आना चाहिए।
उनकी बात मानकर वह आगे बढ़ा । कुछ दूर जाने पर उसे धोवी मिले । नित्यप्रति उनके कपड़े चोरी चले जाते थे, इस लिए उस दिन लाठियों लेकर छिपे बैठे थे। इतने में वह ग्रामीण धीरे धीरे, सिर नीचा करके चुपचाप वहाँ पाया । घोषियों ने उसे चोर समझ कर बहुत पीटा और रस्सी से बाँध दिया । उसकी बात सुनने पर धोपियों को विश्वास हो गया। उन्होंने उसे छोड़ दिया और कहा-ऐसी जगह कहना चाहिए कि खार पड़े और सफाई हो।
ग्रामीण आगे बढ़ा । एक जगह बहुत से किसान विविध प्रकार के मङ्गलों के बाद पहले पहल हल चलाने का मुहूर्व कर रहे थे। उसने वहाँ जाकर कहा-खार पड़े और सफाई हो। किसानों ने उसे पीट कर बाँध दिया । उसकी बात से भोला समझ कर उन्होंने उसे छोड़ दिया और कहा-ऐसे स्थान पर यह कहना चाहिए कि खूप गाडियाँ मरें । बहुत ज्यादह हो । सदा इसी प्रकार होता रहे । उनकी वात मंजूर करके वह आगे बढ़ा।
सामने कुछ जोग मुर्दे को लेना रहे थे । ग्रामीण ने किसानों की सिखाई हुई वात कही। उन लोगों ने उसे पीटा और भोला जान कर छोड़ते हुए कहा-ऐसी जगह कहना चाहिए कि ऐसा कभी न हो । इस प्रकार का वियोग किसी को न हो। यही बात उसने आगे जाकर एक विवाह में कहदी। पीटने के बाद उन लोगों ने सिखाया
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ऐसी जगह कहना चाहिए, आप लोग सदा ऐसा ही देखें। यह सम्बन्ध सदा बना रहे । यहाँ कभी वियोग न हो। आगे बढ़ने पर उसने बेड़ी में बंधे हुए एक राजा को देख कर ऊपर वाली वात कही। पीटने के बाद उसे सिखाया गया-ऐसी जगह कहना चाहिए कि इससे शीघ्र छुटकारा मिले। ऐसा कभी न हो । यही बात उसने आगे जाकर कही । वहाँ दो राजा बैठे हुए सन्धि की बातचीत कर रहे थे। उन्होंने भी उसे पीटा।
इस प्रकार जगह जगह मार खाता हुआ ग्रामीण नगर में पहुँचा। वहाँ किसी ठाकुर के यहाँ नौकरी करने लगा। ठाकुर की सम्पत्ति तोनष्ट हो चुकी थी किन्तु पुराना श्रादर सन्मान अवश्य था। एक दिन ठाकुर साहेब किसी सभा में गए हुए थे। ठकुरानी ने घर में खट्टी राव तैयार की और ठाकुर को बुलाने के लिए उसे कहाठाकुर को जाकर कहो कि राव ठण्डी हो रही है । फिर खाने लायक नहीं रहेगी। ग्रामीण ने सभा में जाकर जोर से चिल्ला कर कहाठाकुर साहेब ! घर चलो । राव ठण्डी हो रही है । जन्दी से खालो।
ठाकुर साहेव सभा में बैठे हुए थे, इम लिए उन्हें बहुत क्रोध आया |घर श्राकर ग्रामीण को पीटा और उसे सिखाया कि जब ' सभा में बैठे हों तो घर की बातें इस प्रकार न कहनी चाहिये। घर की वात मुँह पर कपड़ा रख कर कुछ देर ठहर कर धीरे धीरे कान में कही जाती है। कुछ दिनों के बाद ठाकुर के घर में भाग लग गई। ठाकुर सभा में गया हुआ था । ग्रामीण वहाँ जाकर खड़ा हो गया। काफी देर खड़े रहने के बाद उसने धीरे से ठाकुर के कान में कहा- घर में आग लग गई।ठाकुर घर की तरफ दौड़ा । उसका सारा घर जल चुका था । ग्रामीण को बहुत अधिक पीटने के बाद उसने कहा-मूर्ख ! जब धुंबा निकलना शुरू हुआ तभी तुमने उस पर पानी, धूल या राख वगैरह क्यों नहीं डाली? उसी समय
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २४५ जोर से क्यों नहीं चिल्लाया १ ग्रामीण ने उसकी बात मान ली और कहा-आगे से ऐसा ही करूंगा।
एक दिन ठाकुर साहेव स्नान के बाद धूप देने के लिए बैठे थे। ओढ़ने के वस्त्र के ऊपर अगरवची का धुंआ निकलते हुए देख कर ग्रामीण ने समझा, आग लग गई । उसने पास में पड़ी हुई दूध से भरी देगची उस पर डाल दी। दौड़ दौड़ कर पानी, धूल
और राख भी डालने लगा। साथ में 'आग. आग' कह कर जोर से चिल्लाने लगा। ठाकुर ने उसे अयोग्य समझ कर घर से निकाल दिया। ___ इसी प्रकार जो शिष्य गुरु द्वारा बताई गई बात को उतनी की उसनी कह देता है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि का ध्यान नहीं रखता, यों ही कुछ वोल देता है उसका कहना वचन से अननुयोग है।जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि समझ कर ठीक ठीक बोलता है उसका कथन वचन से अनुयोग है।
भाव के अननुयोग तथा अनुयोग के लिए नीचे लिखे सात उदाहरण है:
(६) श्रावक भार्या का उदाहरण-एक श्रावक ने किसी दूसरे श्रावक की रूपवती भार्या को देखा । उसे देख कर वह उस पर मोहित हो गया । लजा के कारण उसने अपनी इच्छा किसी पर प्रकट नहीं की । इच्छा के बहुत प्रबल होने के कारण वह दिन प्रति दिन दुर्वल होने लगा | अपनी स्त्री द्वारा आग्रह पूर्वक शपथ खिला कर दुर्बलता का कारण पूछने पर उसने सच्ची सच्ची बात कह दी। ___ उसकी स्त्री ने कहा-इस में क्या कठिनता है? वह मेरी सहेली है। उससे कह दूंगी तो आज ही आ जाएगी। यह कह कर वह स्त्री अपनी सहेली से वे ही कपड़े मांग लाई जिन्हें पहने हुए उसे श्रावक ने देखा था। कपड़े लाकर उसने अपने पति से कह दिया कि आज शाम को वह आएगी। उसे बहुत शर्य श्राती है। इस
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
२४६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला लिए आते ही दीपक को वुझा देगी। श्रावक ने उसकी बात मान ली।
शाम के समय श्रावक की स्त्री ने अपनी सखी के लाए हुए कपड़े पहिन कर उसी के समान अपना श्रृङ्गार कर लिया | गुटिका
आदि के द्वारा अपनी आवाज भी उसी के समान बना ली। इसके बाद प्रतीक्षा में बैठे हुए अपने पति के पास चली गई।
दूसरे दिन श्रावक को बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने समझा मैंने अपनाशील बनखण्डित कर दिया । भगवान ने शील का बहुत महत्व बताया है। उसे खोकर मैंने बहुत बुरा किया। पश्चाचाप के कारण वह फिर दुर्वल होने लगा। उसकी स्त्री ने इस बात को जान कर सच्ची सच्ची बात कह दी। श्रावक इससे बहुत प्रसन्न हुआ'
और उसका चित्त स्वस्थ हो गया। __ अपनी स्त्री को भी दूसरी समझने के कारण यह भाव से अननुयोग है। अपनी को अपनी समझना भाव से अनुयोग है।
इसी प्रकार प्रौदयिक आदि भावों को उनके स्वरूप से उल्टा समझना भाव से अननुयोग है । उनको ठीक ठीक समझना अनुयोग है।
(७) साप्तपदिक का उदाहरण-किसी गाँव में एक पुरुष रहता। था । वह सेवा करके अपनी आजीविका चलाता था।धर्म की बातें कभी न सुनता | साधुओं के दर्शन करने कभी न जता और न उन्हें ठहरने के लिए जगह देता था। वह कहता था-साधु परधन
और परस्त्री आदि के त्याग का उपदेश देते हैं। मैं उन नियमों को नहीं पाल सकता । इस लिए उनके पास जाना व्यर्थ है।
एक बार कुछ साधु चौमासा करने के लिए वर्षाकाल शुरू होने से पहले उस गांव में आए। उस सेवक के मित्र कुछ गाँव वालों ने मजाक करने के लिए साधुओं से कहा- उस घर में साधुओं का भन एक श्रावक रहता है। उसके पास जाने पर आप को स्थान
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओ जैन सिद्धान्त बोक्ष साह, चौथा भाग २४७ आदि किसी वात की कमीन रहेगी । इस लिए आप वहीं पधारिए।
साधु उम सेवक के घर आए । साधुओं को देखते ही उसने मुंह फेर लिया। यह देख कर उनमें से एक साधु ने दूसरे साधुओं से कहा-यह वह श्रावक नहीं है, अथवा गाँव वालों ने हमारे साथ मजाक किया है।
साधु की बात सुन कर वह चकित होकर वोला-आप क्या कह रहे हैं ? साधुओं ने उसे सारा हाल सुना दिया। वह सोचने लगा-वे लोग मुझ से भी नीच हैं, जिन्होंने साधुओं के साथ मजाक किया ।अब अगर इन्हें स्थान न दिया तो मेरी भी सी होगी और इन साधुओं की भी । इस लिए बुरे लगने पर भी इन्हें ठहरा लेना चाहिए। यह सोच कर उसने साधुओं से कहा-विघ्न बाधा रहित इस स्थान में आप ठहर सकते हैं किन्तु मुझे धर्म की कोई वात मत कहिएगा। साधुओं ने इस बात को मंजूर कर लिया और चतुर्मास पीतने तक वहीं ठहर गए।
विहार के समय वह साधुओं को पहुँचाने आया। साधु बड़े ज्ञानी और परोपकारी थे। उन्होंने सोचा-इसने हमें ठहरने के लिए स्थान दिया इस लिए कोई ऐसी बात करनी चाहिए जिससे इस का जीवन सुधर जाय । यद्यपि वह मांस, मदिरा, परस्त्री आदि किसी पाप का त्याग नहीं कर सकता था फिर भी साधुओं ने ज्ञान द्वारा जान लिया कि यह सुलभवोधी है और भविष्य में प्रतिवोध प्राप्त करेगा! यह सोच कर उन्होंने उसे साप्तपदिक व्रत दिया और कहा जव किसी पञ्चेन्द्रिय जीव को मारो तो जितनी देर में सात कदम चला जाता है उतनी देर कर जाना । फिर तुम्हारी इच्छानुसार करना । सेवक ने वह व्रत ले लिया । साधु विहार कर गए ।
एक दिन वह सेवक पुरुषकहीं चोरी करने के लिए रवाना हुआ। मार्ग में अपशकुन दिखाई देने के कारण वह वापिस लौट आया
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २५१ नारदजी वहाँ से सीधे कमलामेला के पास गए। उसने भी जब उसी तरह आश्चर्य के विषय में पूछो तो नारदजी बोले-मैंने.. दो आश्चर्य देखे हैं । सागरचन्द्र का रूप और नमासेन का कुरूप। कमलामेला नभासेन से विरत और सागरचन्द्र में अनुरत हो गई । उसे प्राप्त करने के लिए व्याकुल होती हुई कमलामेला को देख कर नारद ने कहा-बेटी! धैर्य रखो! तुम्हारा मनोरथ शीघ पूरा होने वाला है । यह कह कर नारदजी सागरचन्द्र के पास पाए और उसे यह कह कर चले गए कि कमलामेला भी तुम्हें चाहती है।
सागरचन्द्र की उस अवस्था को देख कर उसके माता पिता तथा कुटुम्ब के सभी लोग चिन्तित रहने लगे । एक दिन उसके पास शम्पकुमार पाया। पीछे से आकर उसने सागरचन्द्र की आखें चन्द कर ली ! सागरचन्द्र के मुंह से निकला-कमलामेला आगई ! शम्ब ने उत्तर दिया-मैं कमलामेल हूँ, कमलामेला नहीं । सागर ने कहा-ठीक है, तुम्हीं कमला का मेल कराने वाले हो । तुम्हारे सिवाय कौन ऐसा कर सकता है ? दूसरे यादव कुमारों ने भी शम्ब को मदिरा पिला कर उससे कमलामेला को लाने की प्रतिज्ञा करवा ली। नशा उतरने पर शम्ब ने सोचा-मैंने बड़ी कठोर प्रतिज्ञा कर ली। इसे कैसे पूरा किया जायगा ? उसने प्रद्युम्नकुमार से प्रज्ञप्ति नाम की विद्या मांग ली।
विवाह के दिन एक सुरङ्ग खोद कर वह कमलामेला को उस के पिता के घर से एक उद्यान में ले आया और नारद को साक्षी करके उसका विवाह सागरचन्द्र के साथ कर दिया। सभी लोग विद्याधरों का रूप धारण करके उसी उद्यान में क्रीड़ाएं करने लगे।
कमलामेला के पिता और श्वसुर के आदमियों ने उसे खोजना शुरू किया और विद्याधरी के रूप में उसे उद्यान में देखा। उन्होंने वासुदेव के पास जाकर कहा कि विद्याधरों ने कमलामेला का अप
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
}
हरण करके उसके साथ विवाह कर लिया है । वासुदेव ने सेना के साथ विद्याधरों पर चढ़ाई कर दी। दोनों ओर भीषण संग्राम खड़ा हो गया । इतने में शम्ब अपना असली रूप धारण कर अपने पिता कृष्ण वासुदेव के पैरों में गिर पड़ा और सारा हाल ठीक ठीक कह दिया । युद्ध बन्द हो गया। कृष्ण महाराज ने कमलामेला सागरचन्द्र को दे दी। सभी अपने अपने स्थान को चले गए ।
सागरचन्द्र का शम्ब को कमलामेला समझना अननुयोग है। शम्ब' द्वारा 'मैं कमलामेला नहीं हूँ' यह कहा जाना अनुयोग है । (११) शम्ब के साहस का उदाहरण -- शम्य की माँ का नाम जाम्बवती था । कृष्ण तथा दूसरे लोग उसे नित्यप्रति कहा करते थे कि तुम्हारा पुत्र सभी सखियों के मन्दिरों में जाता है । जाम्बवती ने कृष्ण से कहा- मैंने तो अपने पुत्र के साथ एक भी सखी नहीं देखी । कृष्ण ने उत्तर दिया- आज मेरे साथ चलना, तब बताऊँगा । कृष्ण ने जाम्बवती को अहीरनी के कपड़े पहना दिए । वह बहुत ही सुन्दर अहीरनी दीखने लगी । कृष्ण ने उसके सिर पर दही का घड़ा रख कर उसे आगे आगे खाना किया और स्वयं अहीर के कपड़े पहन कर हाथ में डण्डा लेकर उसके पीछे पीछे हो लिया । वे दोनों बाजार में पहुँच गए। शम्ब ने जाम्बवती को देखा। उसे सुन्दर अहीरनी समझ कर उसने कहा- मेरे घर चलो ! तुम्हारे सारे दही का जितना मूल्य कहोगी, चुका दूँगा | आगे आगे वह हो लिया, उसके पीछे अहीरनी थी और सब से पीछे अहीर |
1
किसी सूने देवल में जाकर शम्ब ने कहा--दही अन्दर रख आयो । श्रीरंनी ने उसका बुरा अभिप्राय समझ कर उत्तर दिया- मैं अन्दर नहीं जाऊँगी । यहीं से दही ले लो और कीमत दे दो । 'मैं जबर्दस्ती मन्दर ले चलूँगा ।' यह कह कर शम्प ने उसकी एक चाँह पकड़ ली । अहीर दौड़ कर दूसरी बाँह पकड़ कर खींचने लगा ।
}
ܕ
1
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
मी जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग दोनों की खींचातानी में दही का घड़ा फूट गया। इसके बाद जाम्बवती और कृष्ण ने अपना स्वाभाविक रूप धारण कर लिया। यह देख कर शम्भ भाग गया और उत्सव बादि अवसरों पर भी राजपरिवार में पाना छोड़ दिया।
एक पर कृष्ण ने कुछ बड़े आदमियों को उसे मना कर लाने के लिए कहा । वह बड़ी कठिनता से हाथ में बाँस ले कर चाकू से उसकी कील घड़ता हुआ दरवार में श्राया।प्रणाम करने पर कृष्ण ने पूछा-यह क्या पड़ रहे हो? उसने उत्तर दिया-यह कील है। जो बीती हुई बात को कहेगा उसके मुंह में ठोकने के लिए पड़ रहा हूँ।
शम्ब का अपनी माता को अहीरनी समझना अननुयोग है। पाद में ठीक ठीक जानना अनुयोग है।
(१२) श्रेणिक के कोप का उदाहरण-एक.वार भमण भगवान् महावीर राजगृह नगर में पधारे। श्रेणिक महाराज अपनी रानी चेलना के साथ भगवान् को वन्दना करने गए। उन दिनों माष महीने की भयङ्कर सर्दी पड़ रही थी। ओस के कारण वह और बढ़ गई थी। लौटते समय मार्ग में चेलना ने कायोत्सर्ग किए हुए किसी पडिमाधारी साधु को देखा। तप के कारण कश बने हुए उनके शरीर पर कोई पस्न न था, फिर भी वे मेरु के समान निश्चल खड़े थे। चेलना उन्हें देख कर आश्चर्य करने लगी और मन में उन्हीं का ध्यान करती हुई घर गई।
रात को सर्दी दूर करने के लिए पेजना रजाई आदि बहुत से गरम तथा कोमल वन भोढ़ कर पलंग पर सोई । सोते सोते उसका एक हाथ रजाई से बाहर निकल गया । सर्दी के कारण हाथ सुम । हो गया। सारे शरीर में सर्दी पहुँचने के कारण चेलना की नींद खुल गई । उसने हाथ को रजाई के अन्दर कर लिया। उसी समय उसे मुनि का ध्यान भाया। उनके गुण और कठोर तपश्चर्या पर
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाना
चकित होकर उसने कहा-वह तपस्वी क्या करेगा १ चेलना का अभिप्राय था कि जब एक हाथ बाहर निकलने से मुझे इतनी सर्दी मालूम पड़ने लगी तो उस तपस्वी का क्या हाल होगा जिसके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं है । विना किसी प्रोट के जंगल में खड़ा है। शरीर तपस्या से सूख कर कांटा हो रहा है। ऐसी भयङ्कर सर्दी में वे क्या करेंगे? चेलना के वाक्य का अभिप्राय श्रीणिक ने दूसरा ही समझा । उस के मन में आया-चेलना ने किसी को संकेत दे रक्खा है। मेरे पास में होने के कारण यह उस के पास नहीं जा सकती, इस लिए दुखी हो रही है। मन में यही विचारते हुए श्रेणिक राजा की रात बड़ी कठिनता से पीतो । सुबह होते ही वह भगवान् के पास चला। सामने अभयकुमार दिखाई दिया। श्रोणिक ने क्रोधावेश में उसे आज्ञा दी-सभी रानियों के साथ अन्तःपुर को जला दो। अभयकुमार ने सोचा-क्रोधावेश में महाराज ऐसी आज्ञा देरहे हैं। क्रोध में निकले हुए वचन के अनुसार किया जाय वो उसका परिणाम अच्छा नहीं होता, किन्तु बड़े की
आज्ञा का पालन भी अवश्य करना चाहिए। यह सोच कर उसने एक सूनी पड़ी हुई हस्तिशाला के भाग लगवा दी। प्राग का धूंश्रा ऊपर उठने लगा | अभयकुमार भी भगवान को वन्दना करने के 'लिए चल दिया।
भगवान् के समवसरण में पहुँच कर श्रोणिक राजा ने पूछाभगवन! चेलना एक की पत्नी है या अनेक की १ मगवान् ने उत्तर दिया- एक की श्रोणिक राजा अभयकुमार को मना करने के लिए जन्दी से घर की तरफ लौटे। मार्ग में सामने आते हुए अभयकुमार को देख कर उन्होंने पूछा-क्या अन्तःपुर को जला दिया ? उसने कहा- जला दिया । राजा ने क्रोधित होकर कहा- उसमें पड़ कर तू स्वयं भी क्यों नहीं जल गया? अभयकुमार ने उचर दिया
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
२५५
जलने से क्या होगा ? मैं दीक्षा ले लेता हूँ । श्रेणिक को अधिक दुःख न हो, इस उद्देश्य से अभयकुमार ने सारी बातें ठीक र कह दीं। शीलवती चेलना को दुर्धारित्र समझना भाव से अननुयोग है। बाद में सचरित्र समझना भाव से धनुयोग है।
इसी प्रकार औदयिक आदि भावों की विपरीत प्ररूपणा करना ननुयोग है। उन्हें ठीक ठीक समझना अनुयोग है । ( हरिभद्रयावश्यक गाथा १३४) (बृहत्क्ल्य नियुक्ति पूर्वपाठिका गाथा १७१-१७२)
७८१ - जैन जैन साधु के लिए मार्ग प्रदर्शक चारह गाथाएं
उत्तराध्ययन सूत्र के इक्कीसवें अध्ययन का नाम 'समुद्र पालीय'
1
है । इसमें समुद्रपाल मुनि का वर्णन किया गया है । इस अध्ययन मैं कुल २४ गाथाएं हैं। पहले की बारह गाथाओं में समुद्रपाल के जन्म और वैराग्योत्पत्ति के कारण आदि का कथानक दिया गया है। तेरह से चौवीस तक की गाथाओं में जैन साधु के उद्दिष्ट मार्ग का कथन किया गया है। यहाँ पर पहले की बारह गाथाओं में वर्णित समुद्रपाल का कथानक लिख कर आगे की बारह गाथाओं का क्रमशः भावार्थ दिया जायगा ।
चम्पा नाम की नगरी में पालित नाम का एक व्यापारी रहता था। वह श्रमण भगवान् महावीर का श्रावक था । वह जीव जीव आदि नौ तत्वों का ज्ञाता और निर्ग्रन्थ प्रवचनों (शास्त्रों) में बहुत कुशल कोविद (पण्डित) था। एक बार व्यापार करने के लिए जहाज द्वारा पिहुएड नामक नगर में आया । पिहुण्ड नगर में चाकर उसने अपना व्यापार शुरू किया । न्याय नीति एवं सचाई और ईमानदारी के साथ व्यापार करने से उसका व्यापार बहुत चमक उठा । सारे शहर मे उसका यश और कीर्ति फैल गई । पिहुएड
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमालानगर में रहते हुए उसे कई वर्ष बीत गये। उस के गुणों से धाकृष्ट होकर पिहुण्ड नगर निवासी एक महाजन ने रूप लावण्य सम्पन अपनी कन्या का विवाह पालित के साथ कर दिया। अब वे दोनों दम्पति आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ समय पश्चात् वह कन्या गर्भवती हुई अपनी गर्भवतीपत्नी को साथ लेकर पालित श्रावक जहाज द्वारा अपने घर चम्पा नगरी पाने के लिए रवाना हुआ |आसनप्रसवा होने से पालित की पत्नी ने समुद्र में ही पुत्र को जन्म दिया। समुद्र में पैदा होने के कारण उस बालक का नाम समुद्रपाल रक्खा गया । अपने नवजात पुत्र और स्त्री के साथ पालित सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर पहुँच गया । सव को प्रिय लगने वाला, सौम्य और कान्तिधारी वह पालक वहाँ सुखपूर्वक बढ़ने लगा। योग्य वय होने पर उसे शिक्षागुरु के पास भेजा गया। विलक्षण बुद्धि होने के कारण शीघ्र ही वह वहचर कलाओं तथा नीति शास्त्र में पारङ्गत हो गया। जब वह यौवन वय को प्राप्त हुआ तब उसके पिता ने अप्सरा जैसी सुन्दर एक महा रूपवती कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। विवाह हो जाने के पश्चात् समुद्रपाल उस कन्या के साथ रमणीय महल में रहने लगा और दोगुन्दक देव (एक उत्तम जाति का देव) के समान कामभोग मोगता हुमा सुखपूर्वक समय बिताने लगा।
एक दिन वह अपने महल की खिड़की में से नगरचर्या देख रहा था कि इतने ही में फाँसी पर चढ़ाने के लिए वध्य भूमि की तरफ मृत्युदण्ड के चिन्ह सहित लेजाए जाते हुए एक चोर पर उसकी दृष्टि पड़ी। उस चोर को देख कर उसके हृदय में कई तरह के विचार उठने लगे। वह सोचने लगा कि अशुभ कर्मों के कैसे कड़वे फल भोगने पड़ते हैं। इस चोर के अशुभ कर्मों का उदय है इसी से इसको यह कड़वा फल भोगना पड़ रहा है। यह मैं प्रत्यक्ष देख रहा है। जो
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल सपह, चौथा भाग २५७ जैसा करता है वह वैसा भोगता है यह अटल सिद्धान्त समुद्रपाल के प्रत्येक अंग में व्याप्त हो गया । कर्मों के इस भटल नियम ने उसके हृदय को कंपा दिया । वह विचारने लगा कि मेरे लिए इन भोग जन्य सुखों के कैसे दुःखदायी परिणाम होगे। मैं क्या कर रहा हूँ? यहाँ आने का मेरा कारण क्या है ? इत्यादि अनेक प्रकार के तर्क वितर्क उसके मन में पैदा होने लगे। इस प्रकार गहरे चिन्तन के परिणाम स्वरूप उसको जाति रमरण ज्ञान पैदा हो गया। अपने पूर्वमन को देख कर उसे वैराग्य माव उत्पन्न हो गया ।भपने माता पिता के पास जाफर दीक्षा लेने की प्राज्ञा मांगने लगा। माता पिता की आज्ञा प्राप्त करे उसने दीक्षा अङ्गीकार की और संयम धारण कर साधु बन गया। महाक्लेश, महाभय, महामोह स्था आसक्ति के मूल कारण रूपी धन, वैभव तथा कुटुम्मी जनों के मोह सम्बन्ध फो छोड़ कर उन्होंने रुचिपूर्वक त्याग धर्म स्वीकार कर लिया। वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महावतों कांवथा सदाचारों का पालन करने लगा और माने वाले परीषदों को जीतने लगा। इस प्रकार वह विद्वान मुनीश्वर जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित धर्म पर दृढ़ बन कर जैन साधु के उदिष्ट मार्ग पर गमन करने लगा। इस मार्ग काकथन चारह गाथाओं में किया गया है। उन बारह गाथाओं का भावार्थ क्रमशः नीचे दिया जाता है
(१: साधु का कर्तव्य है कि वह संसार के समस्त जीवों पर दया भाव रखे अर्थात् 'सत्वेषु मैत्री' का भाव सखे और जो जो कष्ट उस पर पार्ने उनको समभाव पूर्वक सहन करे । सदा प्रखंड प्रमचर्य और संयम का पालन करे । इन्द्रियों को अपने वश में रक्खे
और योगों की अशुभ प्रवृचि का सर्वथा त्याग कर समाधिपूर्वक मितु धर्म में प्रवृत्ति करता रहे। ,
(२)जिस समय जो क्रिया करनी चाहिए उस समय वही करे।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
देश विदेश में विचरता रहे अर्थात् साधु किसी भी क्षेत्र में क्यों न विचरेवह अपनी जीवनचर्या के अनुसार ही आचरण रखे। मिक्षा के समय स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के समय सो जाना इत्यादि प्रकार की अकाल क्रियाएं न करे किन्तु अपना सारा कार्य शास्त्रानुसार नियमित समय पर करे । कोई भी कार्य करने से पहले अपनी शक्ति को भाप ले अर्थात् अमुक कार्य को पूर्ण करने की मेरी शशि है या नहीं इस का विचार कर कार्य प्रारम्म करे। यदि कोई उसे कठोर या असभ्य शब्द भी कहे तो भी वह सिंह के समान निडर रहे किन्तु वापिस असभ्य शब्द न कहे।
(३) साधु का कर्तव्य है कि प्रिय अथवा अप्रिय जो कुछ भी हो उसमें तटस्थ रहे । यदि कोई कष्ट भी पा पड़े तो उसकी उपेक्षा कर समभाव से उसे सह ले और यही भावना रक्खे कि जो कुछ होता है अपने कर्मों के कारण ही होता है, इस लिए कभी भी निरुत्साह न हो। अपनी निन्दा या प्रशंसा की तरफ ध्यान न दे।
(४) 'मनुष्यों के तरह तरह के अभिप्राय होते हैं, इसलिए यदि कोई मेरी निन्दा करता है तो यह उसकी इच्छा की बात है इसमें मेरी क्या बुराई है। इस प्रकार साधु अपने मन को सान्त्वना दे। मनुष्य, लियच अथवा देव द्वारा दिए गए उपसर्ग शान्तिपूर्वक सहन करे। (५)जब दुःसख परीपह आते हैं तव कायर साधक शिथिल होजाते हैं किन्तु युद्धभूमि में सब से भागे रहने वाले हाथी की तरह वे वीर श्रेषण निर्ग्रन्थ खेदखिन्न नहीं होते, अपितु उत्साह के साथ संयम मार्ग में आगे बढ़ते जाते हैं।
(६)शुद्ध संयमी पुरुष शीत, उष्ण, देश, मशक, रोग आदिपरीपहों को समभावपूर्वक सहन करे और उन परीपहों को अपने पूर्व कर्मों का परिणाम जान कर सहे और अपने कर्मों का नाश करे। ' (७) विचक्षण साधु हमेशा राग, देष तथा मोह को छोड़ कर
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग जिस तरह वायु से मेरु कम्पित नहीं होता, उसी तरह परीपहों से कम्पित एवं भयभीत न हो। अपने मन को वश में रख कर सब कुछ समभाव पूर्वक सहन करता रहे।
(८) साधु कमी घमण्ड न करे और न कायर ही पने । कभी अपनी पूजा प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा की इच्छा न करे । सरल भाव धारण करे और राग द्वेष से विरत होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा मोक्षमार्ग की उपासना करे।
(8) साधु को यदि कभी संयम में अरुचि अथवा असंयम में रुचि पैदा हो तो उनको दूर करे । आसक्ति भाव से दूर रहे और यात्मचिन्तन में लीन रहे। शोक, ममता तथा परिग्रह की तृष्णा छोड़ फर समाधिपूर्वक परमार्थ मार्ग में प्रात्मा को स्थिर करे। "
(१०) छ: काय जीवों के रक्षक साधु उपलेप रहित तथा परनिमित्तक (दसरों के निमित्त बनाये गये) एकान्त स्थानों में अर्थात् स्त्री, पशु पार नपुंसक से रहित स्थानों में रहे। यशस्वी महपियों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया था उसी मार्ग का वह भी अनुसरण करे । परीपह उपसर्गों को शान्ति पूर्वक सहन करे। समुद्रपाल योगीश्वर भी इस प्रकार आचरणं करने लगे।
(११) उपरोक्त गुणों से युक्त यशस्वी तथा ज्ञानी समुद्रपाल महर्षि निरन्तर संयम मार्ग में आगे बढ़ते गये । उत्तम संयम धर्म का पालन कर अन्त में केवल ज्ञान रूपी अनन्त लक्ष्मी के स्वामी हुएं । जिस प्रकार आकाश मण्डल में सूर्य शोभित होता है उसी प्रकार वे मुनीश्वर भी इस महीमंडल पर अपने प्रात्म-प्रकाश से दीप्त होने लगे।
(१२)पुण्य और पाप इन दोनों प्रकार के कर्मों का सर्वथा नाश कर, वे समुद्रपाल मुनि शरीर के मोह से सर्वथा छूट गये। शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए और इस संसार रूपी समुद्र से विर
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रथमाता
कर वे महामुनि अपुनरागति (वह गति जहाँ जाकर फिर कभी लौटना न पड़े) अर्थात् मोक्षगति को प्राप्त हुए।
सरल भाव, कष्ट सहिष्णुता, निरभिमानता, मनासकि, निन्दा और प्रशंसा में समभाव, प्राणी मात्र पर मैत्री भाव, एकान्त वृत्ति तथा सतत अप्रमत्तता ये आठ गुण त्याग धर्म रूपी महल की नींव हैं। यह नींव जितनी हद तथा मजबूत होगी उतना ही त्यागी जीवन उच्च तथा श्रेष्ठ और सुवासित होगा । इस सुवास में अनन्त भवों की वासना रूपी दुर्गन्ध नष्ट भ्रष्ट होजाती है और मात्मा ऊंची उठते उठते अन्तिम ध्येय को प्राप्त कर लेती है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २१) ७८२-अरिहन्त भगवान् के बारह गुण
(१) अशोक वृक्ष (२) देवकत अचित्त पुष्पवृष्टि (३) दिव्य ध्वनि (४) चँवर (1) सिंहासन (६) मामण्डल (७) देव दुन्दुमि (ब)चत्र (ह)भपायापगमातिशय (दानान्तराय आदि१-दोषों से रहित)। (१०) ज्ञानातिशय- सम्पूर्ण, अव्यावाघ, भप्रतिपाती केवल. ज्ञान को धारण करना ज्ञानातिशय है। (११) पूजातिशय-तीनों लोकों द्वारा पूज्य होना तथा इन्द्रकत अष्ट महापातिहार्यादि रूप पूजा से युक्त होना पूजातिशय है। (१२) वागतिशय-पैंतीस अतिशयों से युक्त सत्य और परस्पर पाधारहित वाणी का बोलना वागतिशय (वचनातिशय) है।
(समवायांग ३४ वाँ चौतीस अतिशयों में से ) (हरिभद्रकृत सम्बोषमतरी) ७८३- चक्रवर्ती बारह परत के धारक लाध्य पुरुष चक्रवर्ती कहलाते हैं। वैयार है
(१) भरत (२) सगर (३) मघवान् (१) सनकुमार (५) शान्तिनाथ (६) कुन्थुनाथ (७) भरनाथ (e) अभ्य (९) महापथ
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
(१०) हरिपेण (११) जय (१२) ब्रह्मदत्त ।
चक्रवर्तियों का भोजन - चक्रवतियों का भोजन कल्याण भोजन कहलाता है। उसके विषय में ऐसा कथन पाता है-रोग रहित एक लाख गायों का दूध निकाल कर वह दूध पचास हजार गायों को पिला दिया जाय। फिर उन पचास हजार गायों का दूध निकाल कर पच्चीस हजार गायों को पिला दिया जाय । इस प्रकार क्रमशः करते हुए अन्त में वह दूध एक गाय को पिला दिया जाय । फिर उस एक गाय का दूध निकाल कर उत्तम जाति के चावल डाल कर उसकी खीर बनाई जाय और उत्तमोत्तम पदार्थ डाल कर उसे संस्कारित किया जाय । ऐसी खीर का भोजन कल्याण भोजन कहलाता है। चक्रवर्ती और उसकी पटरानी के अतिरिक्त यदि दसरा कोई व्यक्ति उस खीर का भोजन कर ले तो वह उसको पचा नहीं 'सकता और उससे उसको महान उन्माद पैदा हो जाता है।'
चक्रवर्ती का काकिणीरत-प्रत्येक चक्रवर्ती के पास एक एक काकिणी रत्न होता है। वह अष्टसुवर्ण परिमाण होता है। सुवर्ण परिमाण इस प्रकार बताया गया है- चार कोमल तणों की एक सफेद सरसों होती है। सोलह सफेद सरसों का एक धान्यमाषफल कहलाता है। दो धान्यमापफलों की एक गुजा (चिरमी) होती है। पाँच गुजाओं (चिरमियों) का एक कर्ममाप होता है और सोलह कर्ममापों का एक सुवर्ण होता है। सब चक्रवर्तियों के काकिणी रत्नों का परिमाण एक समान होता है। वह रत्न छः खण्ड, बारह कोटि (धार) तथा आठ कोण वाला होता है । इसका श्राकार लुहार के एरण सरीखा होता है। (ठाणाग सूत्र ठाणा सत्र ६३३)
चक्रवर्तीयों की गति-बारह चक्रवतियों में से दस चक्रवर्ति मोक्ष में गए हैं। सुभूम और ब्रह्मदत्त दोनों चक्रवर्ती काम भोगों में फंसे रहने के कारण सातनी नरक में गए । (ठगांग र उ०४ सू.-११२)
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
भी सेठिया जैन प्रन्थमाला चक्रवर्तियों के ग्राम-प्रत्येक चक्रवर्ती के ६६-६६करोड़ ग्राम उनकी अभीनता में होते हैं। चक्रवर्तियों में से कितनेक तो राज्यलक्ष्मी
और कामभोगों को छोड़ कर दीक्षा लेते हैं और कितनेक नहीं। - भरतक्षेत्र का चक्रवर्ती पहजे किस खण्ड को साधता है ? उत्तर में कहा जाता है कि पहले मध्यखएड को साधता है अर्थात् अपने अधीन करता है, फिर सेनानी रत्न द्वारा सिन्धु खण्ड को जीतता है। इसके पश्चात् गुहानुप्रवेश नामक रत्न से वैतादय पर्वत का उल्लंघन कर उधर के मध्यखण्ड को विजय करता है। बाद में सिन्धुखएड और गंगाखण्ड को साध कर वापिस इधर चला आता है। इधर पाने पर गंगाखएड को साध कर अपनी राजधानी में चला जाता है।
चक्रवर्तियों के पिताओं के नाम-बारह चक्रवर्तियों के पिताओं के नाम क्रमश: इस प्रकार है(१) ऋषभदेव स्वामी (२) सुमति विजय (३) समुद्र विजय । (४)अश्वसेन (1) विश्वसेन(६)सूर्य (७) सुदर्शन (८) कृतवीर्य () पयोत्तर (१०) महाहरि (११) विजय (१२) ब्रह्म ।
चक्रवतियों की माताओं के नाम-(१)सुमंगला (२) यशस्वती (३) भद्रा(४)सहदेवी(५) अचिरा(६)श्री(७) देवी (८)तारा (8)जाला (१०)मेरा (१शवप्रा(१२) चुल्लगी। (समवायाग १५८)
चक्रवर्तियों के जन्म स्थान-(१)चनिता (२) अयोध्या (३) श्रावस्ती (४-८) हस्तिनापुर (इस नगर में पाँच चक्रवर्तियों का जन्म हुआ था) (8) बनारस (१०) कम्पिलपुर (११) राजगृह (१२) कम्पिलपुर। (समवायांग १५८) (आवश्यक प्रथम विभाग श्र०१)
चक्रवतियों का वन-वीयान्तराय कर्म के क्षयोपशम से चक्रबर्दियों में बहुत बल होता है । कुए आदि के तट पर बैठे हुए चक्रनों को ऋडला (सांकल) में बांध कर हाथी घोडे, रथ और पैदल
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
को जैन सिद्धान्त बोल संपह, चौथा भाग २६३ आदि सारी सेना सहित पत्तीस हजार राना उस जंजीर को खींचने लगें तो भी वे एक चक्रवर्ती को नहीं खींच सकते किन्तु उसी जंजीर को बाएं हाथ से पकड़ कर चक्रवर्ती अपनी तरफ उन सब को बड़ी आसानी से खींच सकता है।
चक्रवर्तियों का हार-प्रत्येक चक्रवर्ती के पास श्रेष्ठ मोती और मणियों अर्थात् चन्द्रकान्त आदि रनों से जड़ा हुआ चौंसठ लड़ियों वाला हार होता है।
(समवायाग ६४) चक्रवतियों के एकेन्द्रिय रन-प्रत्येक चक्रवर्ती के पास सात मात एकेन्द्रिय रल होते हैं। अपनी अपनी जाति में जो सर्वोत्कृष्ट होता है वह रन कहलाता है। ये हैं-(१) चकरन (२) छत्ररन (३) चर्मरल (४) दण्डरत्न (५) असिरल (६) मणिरत्न (७) काकिणीरत्न ।ये सातों पार्थिव अर्थात् पृथ्वी रूप होते हैं। __ चक्रवर्ती के पञ्चेन्द्रिय रल-प्रत्येक चक्रवर्ती के पास सात सात पञ्चेन्द्रिय रत्न होते हैं । (१) सेनापति (२) गृहपति (भंडारी) (३) बहई (8) शान्तिकर्म कराने वाला पुरोहित (५) स्त्रीरल (६) अश्वरत्न (७) हस्विरत्न । इन चौदह ही रत्नों की एक एक हजार यक्षदेव सेवा करते हैं
चक्रवर्तियों का वर्ण आदि-शुद्ध निर्मल सोने की प्रमाके समान उनके शरीर का वर्ण होता है।
चक्रवतियों की स्थिति और अवमाहना जानने के लिए नीचे . तालिका दी जाती है
नाम स्थिति अवगाहना (१) भरत ८४ लाख पूर्व ५०.धनुष (२) सगर ७२" " ४५० ॥ (३)मनवान् ५लाख वर्ष ४२॥ " (४)सनत्कुमार ३॥ " ४१॥ "
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
नाम
( ५ ) शान्तिनाथ
(६) कुन्थुनाथ
(७) अरनाथ
(८) सुभूम
(8) महापद्म
(१०) हरिषेण
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
स्थिति
१ लाख वर्ष
६५ हजार वर्ष
८४
99 27
६० " "
३० १ १
१०,, "
e
(११) जय (१२) ब्रह्मदत्त
'अवगाहना
४० धनुष
३५ "
३० "
२८ "
२० ”
१५
2 #1 11
१२ "
७
"
७०० वर्ष (हरिभद्रीयावश्यक प्रथम विभाग गाथा ३६२-६३) (त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र ) चक्रवर्तियों के खीरत्नों के नाम - (१) सुभद्रा (२) भद्रा (३) सुनन्दा (४) जया (५) विजया (६) कृष्णश्री (७) सूर्यश्री (८) पद्मश्री (१) वसुन्धरा (१०) देवी (११) लक्ष्मीमती (१२) कुरुमती । (समवायाग १५८) चक्रवर्तियों की सन्तान - चक्रवर्ती अपना वैक्रय रूप छोड़ कर जब सम्भोग करता है तो उसके सन्तान होती है या नहीं ? इसका उत्तर यह है कि चक्रवर्ती के वैक्रिय शरीर से तो सन्तानोत्यत्ति नहीं हो सकती है किन्तु केवल चौदारिक शरीर से हो सकती है । वैक्रिय शरीर द्वारा बनाये गये रूप तो पुनः श्रदारिक शरीर में ही प्रवेश कर जाते हैं इसलिए वे गर्भाधान के कारण नहीं हो सकते, ऐसा पनवा सूत्र' की वृत्ति में कहा गया है।
ये चक्रवर्ती सर्वोत्कृष्ट शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श रूप कामभोगों का भोग करतें हैं । जो इन को छोड़ कर दीक्षा अङ्गीकार कर लेते हैं वे मोक्ष में अथवा ऊँचे देवलोकों में जाते हैं। जो इन काम भोगों को नहीं छोड़ते हैं और इन्हीं में गृद्ध बने रहते हैं वे सैकड़ों वर्षों
>>
·
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
WWWMMMom
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग २६५ तक इनका सेवन करने पर भी इन में अतृप्त ही मृत्यु के मुँह में चले जाते हैं और भयङ्कर वेदना वाली नरकों में उत्पन्न होते हैं। ___ चक्रवतियों की प्रव्रज्या-पहले और दूसरे चक्रवर्ती अर्थान भरत और सगर ने विनीता (अयोध्या, साकेत ) नगरी में दीक्षा ली थी। मघवान् श्रावस्ती में, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ हस्तिनागपुर में, महापम बनारस में, हरिपेण कम्पिलपुर में और जय राजगृह में दीक्षित हुए थे। सुभूम और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने दीक्षा नहीं ली थी। ये दोनों हस्तिनागपुर और कम्पिलपुर नगर के अन्दर उत्पन्न हुए थे। आवश्यक सूत्र में वतलाया है कि जो चक्रवर्ती जहाँ उत्पन्न हुए थे उन्होंने उसी नगरी के अन्दर दीक्षा ली थी किन्तु निशीथ भाष्य में बतलाया गया है कि चम्पा, मथुरा आदि दस नगरियों में बारह चन्द्रवर्ती उत्पन्न हुए थे अर्थात् नौ नगरियों में तो एक एक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ था और एक नगरी में तीन चक्रवर्ती पैदा हुए थे अर्थात् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ (जो कि क्रमशः सोलहवें, सतरहवें
और अठारहवें तीर्थङ्कर भी है) एक ही नगरी में उत्पन्न हुए थे। एक नगरी में कई चक्रवर्ती उत्पन्न हो सकते हैं किन्तु एक क्षेत्र में एक साथ दो चक्रवर्ती नहीं हो सकते।
राज्यलक्ष्मी और कामभोगों को छोड़ कर जो चक्रवर्ती दीक्षा ले लेते हैं वे उसी भव में मोक्ष में या श्रेष्ठ देवलोक में जाते हैं। जो चक्रवर्ती दीक्षा नहीं लेते वे भी ज्यादा से ज्यादा कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परावर्तन के याद अवश्य मोक्ष में जाते हैं।
(परिभद्रीयावश्यक अध्ययन १) (त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्र ७८४-अगामी उत्सर्पिणी के चक्रवर्ती निम्न लिखित चक्रवर्ती आगामी उत्सर्पिणी में होगे-- (१) भरत (२) दीर्घदन्त (३) गूढदन्त (8) शुद्धदन्त (५) श्रीपुत्र
कथ
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (६) श्रीभूति (७) श्रीसोम (6) पत्र () महापद्म (१०) विमल वाहन (११) विपुल वाहन (१२) अरिष्ट । (समवायाग १५६) ७८५-आर्य के बारह भेद निम्न लिखित बारह तरह से प्रार्य पद का निक्षेप किया गया है। (१) नामार्य-किसी पुरुष या वस्तु आदि का नाम आर्य रख देना नामार्य कहलाता है।
(२) स्थापनार्य-गुणों की विवक्षा न करके किसी पुरुष या स्थान आदि में आर्य पद की स्थापना कर देना स्थापनार्य कहलाता है।
(३) द्रव्यार्य-झुकाये जाने के योग्य वृक्ष अदि द्रव्यार्य कहलाते हैं। जैसे विनिश वृक्ष प्रादि।
(४)क्षेत्रार्य-मगध आदि साढे पच्चीस देशों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य आदि क्षेत्रार्य कहलाते हैं।
(५) जात्यार्य--अम्बष्ठ, कलिन्द, विदेह आदि श्रेष्ठ जातियों में उत्पन्न होने वाले जात्यार्य कहलाते हैं।
(६) कुलार्य-उग्र, भोग, राजन्य आदि श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न होने वाले कुलार्य कहलाते हैं।
(७) कार्य--महा प्रारम्भ के कार्यों में प्रवृत्ति न करने वाले कार्य कहलाते हैं। • (८) भाषाय-अर्ध मागधी आदि आर्य भाषाओं को बोलने वाले भाषार्य कहलाते हैं। ' (६) शिल्पार्य-रूई धुनना, कपड़े धुनना आदि से अपनी भाजीविका चलाने वाले शिल्पार्य कहलाते हैं।
(१०) ज्ञानार्य-ज्ञान की अपेक्षा नो आर्य हों वे ज्ञानार्थ कहलाते हैं । ज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पाँच मेद हैं।इन पाँच ज्ञानों की अपेक्षा ज्ञानार्य के भी पाँच मेद हो जाते हैं।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग (११) दर्शनार्य--दर्शन की अपेक्षा जो भार्य हों उन्हें दर्शनार्य कहते हैं। इनके दो भेद है-'सराग दर्शनार्य और वीतराग दर्शनार्य । बायोपशमिक सम्यग्दृष्टि और औपशामिक सम्यगदृष्टि के भेद से सरोग दर्शनार्य के दो भेद हैं।
(१२) चारित्रार्य-चारित्र की अपेक्षा जो आर्य हों वे चारित्रार्य कहलाते हैं। चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापनीय धादि पाँच भेद होने से चारित्रार्य के भी पाँच मेद हैं।
(बहलल्प निकि उद्देशक १ गाथा ३२६३) ७८६- उपयोगबारह
जिसके द्वारा सामान्य या विशेष रूप से वस्तु का ज्ञान किया जाय उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग के दो भेद हैं-साकारोपयोग
और निराकारोपयोग (अनाकारोपयोग)। जिसके द्वारा पदार्थों के विशेष धर्मों का अर्थात् जाति, गुण, क्रिया आदि का ज्ञान हो वह साकारोपयोग है। अर्थात् सचेतन और अचेतन पदार्थों को पर्याय सहित जाननासाकारोपयोगहै, इसे ज्ञानोपयोग भी कहते हैं । जिस के द्वारा पदार्थों के सामान्य धर्म सचा आदि का ज्ञान किया जाय उसे निराकारोपयोग कहते हैं, यह दर्शनोपयोग भी कहा जाता है।
छद्मस्थों की अपेक्षा साकारोपयोग का समय अन्तर्महर्त है और केवली की अपेक्षा एक समय है। अनाकारोपयोग का समय छद्मस्थों की अपेक्षा अन्तर्मुह है किन्तु साकारोपयोग का समय इससे संख्यात गुणा अधिक है क्योंकि आकार (पर्याय ) सहित वस्तु का ज्ञान करने में बहुत समय लगता है । केवली की अपेक्षा अनाकारोपयोग का समय एक समय मात्र है। साकारोपयोग के पाठ भेद
(१) आमिनियोधिक साकारोपयोग-इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य स्थान में रहे हुए पदार्थों को स्पष्ट रूप से विषय
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला करने वाला प्राभिनियोधिक साकारोपयोग है। यह पतिज्ञान भी कहलाता है।
(२) अ तज्ञान साकारोपयोग-- वाव्यवाचकभाव सम्बन्ध पूर्वक शब्द के साथ सम्बन्ध रखने वाले अर्थ का ग्रहण करने वाला श्रु तज्ञान कहलाता है। जैसे-- कम्युग्रीवादि आकार वाली, जल धारणादि क्रिया में समर्थ वस्तु घट शब्दवाच्य है अर्थात् घट शब्द से कही जाती है । श्र तज्ञान भी इन्द्रियमनोनिमित्तक होता है और इन्द्रिय तथा मन की सहायता से ही पदार्थ को विषय करता है।
(३) अवधिज्ञान साकारोपयोग--मर्यादापूर्वक रूपी द्रव्यों को विषय करने वाला अवधिज्ञान साकारोपयोग कहलाता है। यह ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के विना ही रूपी पदार्थों को विषय करता है।
(१) मनःपर्यवज्ञान साकारोपयोग-ढाई द्वीप और समुद्रों में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला मनापर्यवज्ञान साकारोपयोग कहलाता है। इसे मनःपर्यय और मनःपर्याय भी कहते हैं।
(५) केवलज्ञान साकारोपयोग--मति आदि ज्ञानों की अपेक्षा (सहायता) के बिना भूत, भविष्यत् और वर्तमान तथा तीनों लोकवर्ती समस्त पदार्थों को विषय करने वाला केवलज्ञान साकारोपयोग है। इसका विषय अनन्त है।
मरिज्ञान, श्रुतज्ञान और उपविज्ञान जब मिथ्यात्व मोहनीय से संयुक्त हो जाते हैं तव वेमलिन हो जाते हैं। उस दशा में वे अनुकम से (६) मत्यहान साकारोपयोग (७) ताज्ञान साकारोपयोग और (८) विमङ्गज्ञान साकारोपयोग कहलाते हैं।
अनाकारोपयोग के चार भेद(६) चक्षुदर्शन अनाकारोपयोग-आँख द्वारा पदार्थों का जो
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २६६ सामान्य ज्ञान होता है उसे चतुदर्शन अनाकारोपयोग कहते हैं। (१०) अचतुदर्शन अनाकारोपयोग-चतु इन्द्रिय को छोड़ कर शेष चारों इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाला पदार्थों का सामान्य ज्ञान अचनुदर्शन अनाकारोपयोग है।
(११) अवधिदर्शन अनाकारोपयोग-मर्यादित क्षेत्र में रूपी द्रव्यों का सामान्य ज्ञान अवधिदर्शन अनाकारोपयोग है।
(१२) केवलदर्शन अनाकारोपयोग-दूमरे ज्ञान की अपेक्षा विना सम्पूर्ण संसार के पदार्थों का सामान्य ज्ञान रूप दर्शन केवल दर्शन अनाकारोपयोग कहलाता है। (पन्नवणा २६ वा उपयोग पद) ७८७-अवग्रह के बारह भेद
नाम, जाति आदि की विशेष कल्पना से रहित वस्तु का सामान्य ज्ञान अवग्रह कहलाता है। जैसे गाढ़ अन्धकार में किसी वस्तु का स्पर्श होने पर 'किमिदम, यह क्या है इस प्रकार का ज्ञान होता है । यह ज्ञान अव्यक्त (अस्पष्ट) है। इसमें किसी भी पदार्थ का विशेष ज्ञान नहीं होता । इसके बारह मेद हैं।
(१) पहुग्राही-बहु अर्थात् अनेक पदार्थों का सामान्य ज्ञान बहुग्राही अवग्रह है।
(२) अल्पग्राही-एक पदार्थ का ज्ञान अल्पग्राही अवग्रह है। (३) बहुविधाही-किसी पदार्थ के श्राकार, प्रकार, रूप रंग आदि विविधता का ज्ञान बहुविधग्राही अवग्रह है।
(४) एकविधग्राही--एक ही प्रकार के पदार्थ का ज्ञान एकविधग्राही अवग्रह है।
बहु और अल्प का अर्थ व्यक्तियों की संख्या से है और बहुविध तथा एकविध का अर्थ प्रकार (किस्म) अथवा जाति की संख्या से है। यही इन दोनों में फरक है।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (५) क्षिप्रग्राही-पदार्थ का शीघ्र ज्ञान कराने वाला क्षिप्रणाही अवग्रह है।
(६) अधिप्रयाही-विलम्ब से ज्ञान कराने वाला अक्षिप्र-- ग्राही अवग्रह है । जन्दी या देरी से ज्ञान होना व्यक्ति के क्षयोपशम पर निर्भर है । बाह्य सारी सामग्री बरावर होने पर भी एक व्यक्ति क्षयोपशम की पटुता के कारण शीघ्र ज्ञान कर लेता है और दूसरा व्यक्ति क्षयोपशम की मंदता के कारण विलम्ब से ज्ञान करता है।
(७) निश्रितग्राही-- हेतु द्वारा निर्णीत निश्रित कहलाता है। जैसे-किसी व्यक्ति ने पहले जुही आदि के फूलों को देख रखा है और उसके शीत कोमल स्पर्श तथा सुगन्ध आदि का अनुभव कर रखा है उसके स्पर्श से होने वाला ज्ञान निश्रितग्राही है। .
(८) अनिश्रितग्राही हेतु द्वारा अनिर्णीत अनिश्रित कहलाता है। पहले अनुमान किए हुए पदार्थ का ज्ञान अनिश्रितग्राही है।
निश्रित प्रार अनिश्रित शब्दों का अर्थ ऊपर-बताया गया है। नन्दी सूत्र की टीका में भी यही अर्थ दिया गया है परन्तु वहाँ पर इन शब्दों का दूसरा अर्थ भी दिया हुआ है। वहाँ पर परधर्मों से मिश्रित ग्रहण को निश्रित अवग्रह और परधर्मों से अमिश्रित ग्रहण को भनिश्रित अवग्रह बताया गया है।
राजवार्तिक में बताया गया है कि सम्पूर्ण एवं स्पष्ट रीति से उच्चारण नहीं किये गए शब्दों का ग्रहण अनिःसृतावग्रह है और सम्पूर्ण एवं स्पष्ट रीति से उच्चारण किये गये शब्दों का ग्रहण निस्तावग्राही है।
(8)संदिग्धग्राही--अनिश्चित अर्थ को ग्रहण करने वाला अबप्रह संदिग्धग्राही है।
(१०) असंदिग्धग्राही निश्चित अर्थ को ग्रहण करने वाला शवग्रह असंदिग्धग्राही कहलाता है, जैसे किसी पदार्थ का स्पर्श
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २१ होने पर कहना कि यह फूज का स्पर्श नहीं किन्तु चन्दन का है। ___ संदिग्धग्राही और असंदिग्धग्राही की जगह कहीं कहीं उपग्राही और अनुलग्राही ऐसा पाठ है । इन का अर्थ राजवार्तिक में इस प्रकार किया गया है___ वक्ता कोई बात कहना चाहता है किन्तु अभी उसके मुंह से पूरा शब्द नहीं निकला। केवल शब्द का पहला एक अक्षर उच्चारण किया गया है । ऐसी अवस्था में वक्ता के अभिप्राय को जान कर यह कह देना कि तुम अमुक शब्द बोलने वाले हो, इस प्रकारका अवग्रह अनुनावग्रह कहलाता है, अथवा गाने के लिए तैयार हुए पुरुष के गाना शुरू करने के पहले ही उसके वीणा आदि के स्वर को सुन कर ही यह बतला देना कि यह पुरुष अमुक गाना गाने वाला है। इस प्रकार का अवग्रह अनुनावग्रह है। इससे विपरीत अर्थात् वक्ता के शब्दों को सुन कर होने वाला अवग्रह उसावग्रह है।
(११) ध्रुवग्राही-अवश्यम्भावी अर्थ को ग्रहण करने वाला अवग्रह ध्रुवग्राही है।
(१२) अध्रुवग्राही-कदाचिद्भावी अर्थ का ग्राहक अवग्रह अधु वग्राही है।
समान सामग्री होने पर भी किसी व्यक्ति को उस पदार्थ का अवश्य ज्ञान हो जाता है और किसी को क्षयोपशम की मन्दता के कारण कभी तो ज्ञान हो जाता है और कभी नहीं। ऐसा ज्ञान क्रमशः ध्रुवग्राही भवग्रह और अध्र वनाही अवग्रह कहलाता है।
उपरोक्ष बारह मेदों में से चार भेद अर्थात् बहु, अन्प, बहुविध और अल्पविध (एकविध) विषय की विविधता पर अवलम्बित हैं। शेष पाठ मेद क्षयोपशम की विविधता पर अवलम्वित है।
शङ्का- उपरोक्त बहु, अल्प-श्रादि पारह मेद तो पदार्थ की विशेषता का ज्ञान कराते हैं। अवग्रह का विषय तो सामान्य ज्ञान
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
२७२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला . मात्र है। इस लिए उसमें ये बारह भेद कैसे घटित हो सकेंगे ?
समाधान-अर्थावग्रह के दो भेद माने गए हैं-व्यावहारिक और नैश्चयिक । उपरोक्त मेद व्यावहारिक अर्थावग्रह के समझने चाहिये। नैश्चयिक अर्थावग्रह के नहीं, क्योंकि इसमें जाति, गुण, क्रिया आदि से शून्य मात्र सामान्य प्रतिभास होता है, इस लिए इसमें बहु, अल्प आदि विशेषताओं का ग्रहण नहीं हो सकता।
व्यावहारिक अर्थावग्रह और नैश्चयिक अर्थावग्रह में सिर्फ यही फरक है कि सामान्य मात्र का ग्रहण करने वाला नैश्चयिक अर्थावग्रह है और विषयों की विविधता सहित सामान्य और विशेष दोनों को ग्रहण करने वाला व्यावहारिक अर्थावग्रह है।
अवग्रह की तरह ईहा, अवाय और धारणा, प्रत्येक के बारह बारह भेद होते हैं। (तत्वार्थाधिगम माष्य अध्ययन १ सूत्र १६)
(ठाणांग, स्त्र ५१०) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १७८ ) ७८८-असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा के
बारह भेद सत्या, असत्या, सत्यामृषा और असत्यापृषा इस प्रकार भाषा के चार भेद हैं । पहले की तीन भाषाओं के लक्षण से रहित होने के कारण चौथी असत्यामृषा का इनमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता। केवल लौकिक व्यवहार की प्रवृत्ति का कारण होने से यह व्यवहार भाषा या असत्यामृषा भाषा कहलाती है। इसके बारह भेद हैं
(१) भामंतणी (पाणी )-आमन्त्रणा करना । जैसे-हे भगवन् ! हे देवदत्त । इत्यादि।
(२) प्राणमणी (आज्ञापनी)-दूसरे को किसी कार्य में प्रेरित करने वाली भाषा प्राणमयी कहलाती है, यथा- जामो, लामो, अमुक कार्य करो, इत्यादि।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
२७३
(३) जायणी ( यावनी ) - याचना करने के लिए कही जाने बाली भाषा याचनी है |
(४) पुच्छणी (पृच्छनी ) - अज्ञात तथा संदिग्ध पदार्थों को जानने के लिये प्रयुक्त भाषा पृच्छनी कहलाती है ।
(५) पण्णवणी (प्रज्ञापनी ) - विनीत शिष्य को उपदेश देने रूप भाषा प्रज्ञापनी है । यथा - प्राणियों की हिंसा से निवृत्त पुरुष भवान्तर में दीर्घायु और नीरोग शरीर वाले होते हैं।
ww
(६) पचक्खाणी ( प्रत्याख्यानी ) - निषेधात्मक भाषा | (७) इच्छा गुलोमा ( इच्छानुलोमा ) - दूसरे की इच्छा का अनुसरण करना । जैसे - किसी के द्वारा पूछा जाने पर उत्तर देना कि जो तुम करते हो वह मुझे भी अभीष्ट है।
/
(८) अभिगहिया (अनभिगृहीता ) - प्रतिनियत ( निश्चित ) अर्थ का ज्ञान न होने पर उसके लिए पूछना ।
(६) श्रभिग्गहिया ( अभिगृहीता ) - प्रतिनियत अर्थ का बोध कराने वाली भाषा अभिगृहीता है।
- (१०) संशयकरणी -- अनेक अर्थों के वाचक शब्दों का जहाँ पर प्रयोग किया गया हो और जिसे सुन कर श्रोता संशय में पड़ जाय वह भाषा संशयकरणी है। जैसे सैन्धव शब्द को सुन कर श्रोता संशय में पड़ जाता है कि नमक लाया जाय या घोड़ा । (११) बोगडा ( व्याकृता ) - स्पष्ट अर्थ वाली भाषा व्याकृता कहलाती हैं ।
(१२) अन्चोगडा (अव्याकृता ) -- अति गम्भीर अर्थ वाली अथवा अस्पष्ट उच्चारण वाली भाषा अव्याकृता कहलाती है ।
(पनवा ११ वी भाषापद )
७८६ - काया के बारह दोष
सामायिक में निषिद्ध आसन से बैठना काया का दोष है । इसके
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनप्रन्थमाला
बारह मेद हैं
कुआसण चलासणं चलविट्ठी, सावजकिरियालंषणाकुंचणपसारणं। पालस्स मोडण मल विमासणं, निदा वैयावच त्ति बारस काय दोसा।
(१) कुमासन-कुआसन से बैठना, जैसे पाँव पर पाँव चढ़ा कर बैठना श्रादि 'कुशासन' दोष है।
(२) चलासन-स्थिर आसन से न बैठ कर बार वार श्रासन बदलना, 'चलासन' दोष है।
(३) चलदृष्टि-दृष्टि को स्थिर न रखना, विना प्रयोजन पार पार इधर उधर देखना 'चलदृष्टि' दोप है।
(४) सावधक्रिया-शरीर से सावध क्रिया करना, इशारा करना या घर की रखवाली करना 'सावध क्रिया' दोष है।
(५) आलम्बन-विना किसी कारण के दीवाल आदि का सहारा लेकर बैठना 'आलम्बन' दोष है।
(६)आश्चन प्रसारण-बिना प्रयोजन ही हाथ पाँव फैलाना, समेटना 'आकुञ्चन प्रसारण' दोष है।
(७) आलस्य-सामायिक में आलस्य से अंगों को मोड़ना 'पालस्य' दोष है।
(८) मोडण -सामायिक में बैठे हुए हाथ पैर की अङ्गुलियाँ चटकाना 'मोडण' दोष है। (8)मल दोष-सामायिक में शरीर का मैल उतारना'मल' दोष है।
(१०) विमासन-गाल पर हाथ लगा कर शोकस्त की तरह बैठना, अथवा विना पूजे शरीर खुजलाना या हलन चलन करना 'विमासन दोष है।
(११) निद्रा--सामायिक में निद्रा लेना 'निद्रा दोष है।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७५
श्री जैनसिद्धान्त बोल संग्रह) चौथा भाग (१२) यावत्य अथवा कम्पन--सामायिक में बैठे हुए निष्कारण ही दूसरे से वैयावच कराना 'वैयावत्य दोष है और स्वाध्याय करते हुए घूमना यानी हिलना या विना कारण शरीर को कंपाना 'कम्पन दोष है । श्रावक के चार शिक्षाप्रत, पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज कृत) ७६०-मान के बारह नाम
अपने आप को दूसरों से उत्कृष्ट बवाना मान है । इसके समानार्थक वारह नाम है(१) मान-- मान के परिणाम को उत्पन्न करने वाले कपाय को मान कहते हैं। (२) मद-मद करना या हर्ष करना। (३) दर्प (मता) घमण्ड में चूर होना।-- (४) स्तम्म-- नम्र न होना, स्तम्भ की तरह कठोर बने रहना। (५)ग-अकार। (६)अत्युल्क्रोश -अपने को दूसरों से उत्कृष्ट पताना। (७)परपरिवाद-दमरे की निन्दा करना। (८) उत्कर्ष - अभिमान पूर्वक अपनी समृद्धि प्रकट करना या दूसरे की क्रिया से अपनी क्रिया को उत्दृष्ट बताना। (8)अपकर्ष-अपने से दूसरे को तुच्छ बताना । (१०)उन्नत-विनय का त्याग कर देना। (११) उन्नाम-वन्दन योग्य पुरुष को भी बन्दना न करना। (१२)दुर्नाम-वन्दना करने के योग्य पुरुष को भी अभिमान पूर्वक धुरी तरह से वन्दना करना । (मावती शतक १२ उ०५) ७६१-अप्रशस्त मन विनय के बारह भेद
असंयती पुरुषों के मन (चित्त) की प्रवृत्ति प्रशस्त मन विनय कहलाती है । इसके बारह भेद है
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
२७६ (१) सावद्य--गर्हित (निन्दित) कार्य से युन, अथवा हिंसादि कार्य से युक्त मन की प्रवृत्ति।
(२) सक्रिय-कायिकी श्रादि क्रियाओं से युक्त मन की प्रवृत्ति। (३) सर्कश-कर्कश (कठोर) मावों से युक्त मान की प्रवृत्ति। (४) कटुक-अपनी आत्मा के लिये और दूसरे प्राणियों के लिए अनिष्टकारी मन की प्रवृत्ति । (५) निष्ठुर-मृदुता (कोमलता) रहित मन की प्रवृत्ति । (६) परुष-कठोर अर्थात् स्नेह रहित मन की प्रवृत्ति ।
(७) माधवकारी-जिससे अशुभ कर्मों का भागमन हो, ऐसी मन की प्रवृति।
(८) छेदकारी-अमुक पुरुष के हाथ पैर आदि अवयव काट डाले जायँ इत्यादि मन की दुष्ट प्रवृत्ति।
(8) भेदकारी-अमुक पुरुष के नाक कान आदि का भेदन कर दिया जाय ऐसी मन की प्रवृत्ति ।
(१०) परितापनाकारी-प्राणियों को संताप उपजाना, इत्यादि मन की प्रवृत्ति।
(११) उपद्रवकारी-अमुक पुरुष को ऐसी वेदना हो कि उसके प्राण छूट जाय या अमुक पुरुष के धन को चोर चुग ले जाय, इस प्रकार मन में चिन्तन करना। (१२) भूतोपपातकारी-जीवों की विनाशकारी मन की प्रवृश्चि।
(उपवाई सूत्र २०) ७६२- कम्मिया बुद्धि के बारह दृष्टान्त
किसी कार्य में उपयोग लगा कर उसके नतीजे को जान लेने वाली, सज्जन पुरुषों द्वारा प्रशंसित, कार्य करते हुए अभ्यास से उत्पन्न होने . वाली बुद्धि कम्मिया (कर्मजा) कहलाती है। बारह प्रकार के पुरुष ऐसे हैं जिन्हें काम करते करते एक विलक्षण बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग २७७ (१) हैरण्यक (सुनार)- सुनार के कार्य में प्रवीण पुरुष रात्रि के गाढ़ अन्धकार में भी हाथ के स्पर्शमात्र से सोना चॉदी भादि को यथावस्थित जान लेता है।
(२) करिसए (कृपक)-किसी चोर ने एक बनिये के घर में ऐसी चतुराई से सांघ लगाई कि उसका श्राकार कमल के सरीखा बना दिया। प्रातः काल उसे देख कर बहुत लोग घोर की चतुराई की प्रशंसा करने लगे। चोर भी वहाँ आकर चुपके से अपनी प्रशंसा सुनने लगा। वहाँ एक किसान खड़ा था, उसने कहा कि शिक्षित श्रादमी के लिए क्या मुश्किल है ? किसी एक कार्य में प्रवीण व्यक्ति यदि उस कार्य को विशेष चतुराई के साथ करता है तो इसमें क्या आश्चर्य है ? किसान की बात को सुन कर चोर को बड़ा गुस्सा आया। उसने उस किसान का नाम और पता पूछा। इसके बाद एक समय वह हाथ में तलवार लेकर उस किसान के पास पहुंचा और कहने लगा कि मैं तुझे अभी मार देता है। किसान ने इसका कारण पूछा। तब चोर ने कहा कि तूने उस दिन मेरे द्वारा लगाई गई पद्माकार सान्ध की प्रशंसा क्यों नहीं की ? निर्भय होकर किसान ने जवाब दिया कि मैंने जो बात कही थी वह ठीक थी क्योंकि जो व्यक्ति जिस विषय में अभ्यस्त होता है वह उस कार्य में अधिक उत्कर्पता को प्राप्त हो जाता है। इस विषय में मैं स्वयं उदाहरण रूप हूँ। मेरे हाथ में मूंग के ये दाने हैं। यदि तुम कहो
तो मैं इनको इस तरह से जमीन पर डाल सकता हूँ कि इन सब . का मुंह ऊपर, नीचे, दाएं या बाएं किसी एक तरफ रह जाय ।
तब चोर ने कहा कि इन मूंगों को इस तरह डालो कि सब का मुंह नीचे की तरफ रह जाय । जमीन पर एक कपड़ा बिछा दिया गया
और किसान ने उन दानों को इस तरह डाला कि सब अधोमुख गिर गये । यह देख कर चोर बड़ा विस्मित हुआ और किसान
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना की कुशलता की वारवार प्रशंसा करने लगा और कहने लगा कि यदि तूने इन कोअधोमुख न गिराया होता तो मैं तुझे अवश्य मार देता। ऐसा कहता हुआ चोर अपने घर चला पाया।
पयाकार सांध लगाना और मग के दानों को अधोमुख डाल देना ये दोनों कम्मिया (कर्मजा) बुद्धि के दृष्टान्त हैं। बहुत दिनों तक कार्य करते रहने के कारण चोर और किसान को यह कुशलता प्राप्त होगई थी।
(३) कौलिक-अपने अभ्यास के कारण जुलाहा अपनी मुट्टी में तन्तुओं को लेकर यह पतला सकता है कि इतने तन्तुओं से कपड़ा बन जायगा।
(४) दर्वी-चाटु बनाने वाला यह बतला सकता है कि इस चाटु में इतना अन समायेगा।
(५) मौक्तिक-मणिहार (मणियों को पिरोने वाला) मोती को आकाश में ऊपर फेंक कर नीचे सूबर के बाल को या तार आदि को इस तरह खड़ा रख सकता है कि ऊपर से आते हुए मोती के छेद में वह पिरोया जा सके।
(६) घृतविक्रयी-घी बेचने वाला अभ्यस्त पुरुष चाहे वो गाड़ी में बैठा हुआ ही इस तरह से घी को नीचे डाल सकता है कि वह घी गाड़ी के कुण्डिकानाल में ही जाकर गिरे।
(७) प्लवक-उछलने में कुशल व्यति आकाश में उछलना आदि क्रियाएं कर सकता है।
(८) तुन्नाग-सीने के कार्य में चतुर दर्जी कपड़े को इस तरह सी सकता है कि दूसरे को पता ही न चले कि यह सीया हुआ है यानहीं।
(६) वर्द्धकि-पढ़ई अपने कार्य में विशेष अभ्यस्त होने से विना नापे ही वतला सकता है कि गाड़ी बनाने में इतनी लकड़ी
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाय २७१ लगेगी। अथवा वस्तु शास्त्र के अनुसार भूमि आदि का ठीक परि. णाम किया जा सकता है।
(१०) आपूपिक-हलवाई अपूप (मालपूर) यादि को विना गिने ही उनका परिमाण या गिनती बता सकता है। .
(११) घटकार-घड़े बनाने में निपुण कुम्हार पहले से इतनी ही प्रमाणयुक्त मिट्टी उठा कर चाक पर रखता है कि जितने से घड़ा वन जाय ।
(१२)चित्रकार-नाटक की भूमिका को विना देखे ही नाटक के प्रमाण को जान सकता है अथवा कुञ्चिका के अन्दर इवना ही रंग लेता है जितने से उसका कार्य पूर्ण हो जाय अर्थात् चित्र अच्छी तरह रंगा जा सके।
ये उपरोक्त बारह व्यक्ति अपने अपने कार्य में इतने निपुण हो जाते हैं-कि इनकी कार्य कुशलता को देखकर लोग आश्चर्य करने लगते है। बहुत समय तक अपने कार्य में अभ्यास करते रहने के कारण हनको ऐसी कुशलता प्राप्त हो जाती है। इस लिए यह कम्मिया (कर्मजा) घुद्धि कहलाती है। (नन्दीपत्र) (आवश्यक नियुक्ति दीपिका) ७६३-आजीवक के बारह श्रमणोपासक
(१)ताल (२) तालप्रलम्ब (३) उद्विद्ध (४) संविद्ध (१) अवविद्ध (६) उदय (७) नामोदय (5) नर्मोदय (8) अनुपालक (१०) शंख पालक (११) अयबुल (१२) कातर।
इनका देव गोशालक था माता पिता की सेवा करना ये श्रेष्ठ समझते थे। ये उंचर, बड़, बेर,सतर और पीपल के फलों और प्याज, लहसुन और कन्द मूल के त्यागी होते थे। अनिलोच्छित ।
और विना नाथे हुए वैलों से त्रस प्राणियों की हिंसारहित व्यापार करके अपनी आजीविका चलाते थे। (भगवती शतक ८ उद्देशा ५)
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला ७६४-निश्चय और व्यवहार से श्रावक के
बारह भाव व्रत चारित्र के दो भेद हैं-निश्चय चारित्र और व्यवहार चारित्र । व्यवहार चारित्र के दो भेद हैं-सर्वविरति और देशविरतिप्राणातिपात विरमण आदि पाँच महाव्रतों को सर्वविरति कहते हैं । पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिवावत रूप श्रावक के बारह व्रतों को देशविरति कहते हैं । व्यवहार चारित्र पुण्य रूप सुख का कारण है। इससे देवगति की प्राति होती है और यह व्यवहार चारित्र अभव्य जीवों के भी हो सकता है, किन्तु इससे सकाम निर्जरा नहीं होती और न यह मोक्ष का ही कारण है । निश्चय सहित व्यवहार चारित्र मोक्ष का कारण बताया गया है, इस लिए मुमुक्षु आत्मा कोनिश्चय और व्यवहार दोनों चारित्रों का पालन करना चाहिए। शरीर, इन्द्रिय, विषय, कषाय और योग को आत्मा से मिल जान कर छोड़ना, आत्मा अपौद्गलिक और अनाहारी है, आहार पौद्गलिक है और वह प्रात्मा के योग्य है ऐसा जान कर पौद्गलिक
हार का त्याग करना और तप का सेवन करना निश्चय चारित्र है। देशविरति के बारह व्रतों का स्वरूप निश्चय और व्यवहार से निम्नलिखितानुसार है- .
(१) प्राणातिपात विरमण प्रत-दूसरे जीवों को प्रात्मतुल्य समझना, उन्हें दुःख न पहुँचाना और उनकी रक्षा करना, उन पर दया भाव रखना व्यवहार प्राणातिपात विरमण व्रत है।
कर्मवश अपना आत्मा दुखी हो रहा है, उसे कर्मों से छुड़ाना, आत्मगुणों की रक्षा करना और उन्हें बढ़ाना यह स्वदया है । बन्ध हेतु के परिणामों को रोक कर आत्मगुणों के स्वरूप को प्रकट करना एवं प्रकट हुए गुणों को स्थिर रखना, इस प्रकार भात्मस्वरूप में
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८१
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग तन्मय होकर रमण करना, यह निश्चय प्राणातिपात विरमण व्रत है।
(२) मृपावाद विरमण व्रत-असत्य वचन न बोलना व्यवहार मृपावाद विरमण व्रत है। पुद्गलादिक परवस्तुओं को अपनी कहना, जीव को अजीव और अजीव को जीव कहना एवं सिद्धान्तों का झूठा अर्थ करना, यह निश्चय मृषावाद है और इसका न्याग करना निश्चय मपावाद विरपण व्रत है। अदत्तादान विरमण आदि व्रतों फा भंग करने से केवल नारित्र का भंग होता है, समकित और ज्ञान का भंग नहीं होता किन्तु म्षावाद विरमण नत का भंग चारित्र के साथ समकित और ज्ञान को भी दर्पित कर देता है। इस लिए सिद्धान्तों में कहा गया है कि चौथे महावत का खंडन करने वाला साधुमालोचना और प्रायश्चिच से शुद्ध हो जाता है परन्तु सिद्धान्तों फै मपा उपदेश द्वारा दूसरे महावत का भंग करने वाला साधु पालोचना और प्रायश्चित्त द्वारा भी शुद्ध नहीं होता । इसका यही कारण प्रतीत शेता है कि दूसरे व्रतों को दपित करने वाले अपनी आत्मा को ही मलिन करते हैं किन्तु सिद्धान्तों का स्पा उपदेश देने वाले अपने साथ दूसरे जीवों की आत्माओं को भी उन्मार्ग में ले जाते हैं और उन्हें मलिन करते हैं।
(३) अदत्तादान विरमण व्रत-दूसरे की धन धान्यादि वस्तुओं को स्वामी की आज्ञा विना लेना, विशाना या चोरी और ठगाई करके लेना व्यवहार श्रदत्तादान है। इसका त्याग करना व्यवहार अदत्तादान विरमण व्रत है। पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय, पाठ कर्मों की वर्गणा इत्यादि प्रात्मभिन्न वस्तुओं को ग्रहण करना निश्चय अदत्तादान है। उपरोक्त परवस्तुएं श्रात्मा के लिए अग्राह्य हैं। उन्हें ग्रहण करने की इच्छा भी मुमुनु आत्मा को न होनी चाहिए। जो लोग पुण्योपार्जन के लिए शुभ क्रियाएं करते हैं और उन्हें आदरणीय समझते हैं वे व्यवहार भदत्तादान से विरत होते हुए
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्थमाला
२८२
भी निश्चय अदत्तादान के सेवी हैं क्योंकि वे आत्ममित्र पुण्यकर्मों को ग्रहण करते हैं । मोक्षाभिलापी श्रात्मा की क्रियाएं केवल निर्जरा के उद्देश्य से होनी चाहिए। इस प्रकार निश्चय श्रदत्तादान से निवृत्त होकर निष्काम हो धर्म का पालन करना निश्चय श्रदचादान विरमण व्रत कहलाता हैं ।
(४) मैथुन विरमण व्रत - पुरुष के लिए परखी का त्याग करना और स्त्री के लिए परपुरुष का त्याग करना व्यवहार मैथुन विरमण व्रत है । साधु सर्वथा स्त्री का त्याग करते हैं और गृहस्थ विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त शेष सभी स्त्रियों का त्याग करते हैं ।
विषय की अभिलाषा न रखना, ममता, तृष्णा का त्याग करना, परभाव वर्णादि एवं पर द्रव्य स्वामित्वादि का त्याग करना, पुद्गल स्कन्धों को अनन्त जीवों की झूठण समझ कर उन्हें अभोग्य समझना एवं ज्ञानादि श्रात्मगुणों में रमण करना निश्चय मैथुन विश्मण व्रत है । जिसने वाह्य विषयों का त्याग कर दिया है पर जिसकी अन्तरंग विपयाभिलाषा छूटी नहीं है उसे मैथुनजन्य कर्मों का बन्ध होता है ।
(५) परिग्रह परिमाण व्रत- धन, धान्य, दास, दासी, चतुष्पद घर, जमीन, वस्त्र, आभरण आदि परिग्रह हैं । साधु सवथा परिग्रह का त्याग करते हैं और श्रावक इच्छानुसार मर्यादा रख कर शेष परिग्रह का त्याग करते हैं । यह व्यवहार परिग्रह परिमाण व्रत है । राग द्वेष अज्ञान रूप भावकर्म एवं ज्ञानावरणीयादि श्राठ द्रव्यकर्मों को आत्मभाव से भिन्न समझ कर छोड़ना और बाह्य वस्तुओं मैं मूर्च्छा ममता का त्याग करना निश्चय परिग्रह परिमाण व्रत है ।
(६) दिशा परिमाण व्रत - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, अघः (नीची) और ऊर्ध्व (ऊँची) इन छः दिशा के क्षेत्रों की मर्यादा करना और आगे के क्षेत्रों में जाना आना आदि क्रियाओं का त्याग करना व्यवहार दिशा परिमाण व्रत है। चार गांत को कर्म की परिणति
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त घोह संग्रह, चौथा भाग
२८३
__ २८३
समझ कर इनमें उदासीन भाव रखना और सिद्धावस्था को उपा. देय समझना निश्चय दिशा परिमाण व्रत है।
(७)उपभोग परिभोग परिमाण व्रत - एक बार और अनेक पार भोगी जाने वाली वस्तु क्रमशः उपभोग और परिमोग कही जाती है। भोजन आदि उपभोग है और वस्त्र धामरण श्रादि परिमोग हैं। उपभोग परिभोग की वस्तुओं की इच्छानुसार मर्यादा रखना और मर्यादा उपरान्त सभी वस्तुओं के उपभोग परिभोग का त्याग करना व्यवहार उपभोग परिमोग परिमाण व्रत है।
व्यवहार से कर्मों का कर्ता और भोला जीव है परन्तु निश्चय में फचर्चा और भोजा कम ही हैं। अनादि काल से यह आत्मा प्रज्ञान.
शपर-भावों को भोग रहा है, उन्हें ग्रहण कर रहा है एवं उनकी रक्षा कर रहा है और इसी से उसकी कतूल शक्ति भी विकृत हो गई है। इसी विकृति के कारण.वह पर-भावों में पानन्द मानता हुधा पाठ कर्मों का कर्चा भी चन गया है। वास्तव में वह अपने स्वभाव का ही कर्चा है किन्तु उपकरणों (जिनके द्वारा वह वास्तविक स्वक्रिया करता है। के श्रावृत्त होने के कारण वह स्वकार्य न करके विमावों को करने में लगा हुआ है। जीव का उपयोग गुण प्रात्मा से अभिन्न होते हुए भी कर्मवश वह कथञ्चित् भिन्न हो रहा है । प्रात्मा ही निश्चय से ज्ञानादि स्वगुणों का कर्जा और भोक्ता है । इस प्रकार के श्रात्मस्वरूपानुगामी परिणाम को निश्चय उपभोग परिमोग परिमाण वत कहते हैं।
() अनर्थदण्ड विरमण बत-निष्प्रयोजन अपनी आत्मा को पाप आरम्भ में लगाना अनर्थदण्ड है। व्यर्थ ही दूसरों के लिए प्रारम्भ भादि करने की आज्ञा देना आदि व्यवहार अनर्थदण्ड है। इसका त्याग करना व्यवहार अनर्थएड विरमण व्रत है । मिथ्यात्व, भविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जिन शुभाशुभ कर्मों का बंध
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४.
श्री खेठिया जैन ग्रन्थमाल होता है उनमें अपनापन रखना निश्चय अनर्थदण्ड है। इन्हें श्रात्मा से, मिन्न समझ कर इनसे एवं इनके कारणों से श्रात्मा को बचाना निश्चय अनर्थदण्ड विरमण, व्रत है।
(8) सामायिक व्रत-मन वचन और काया को प्रारम्भ से हटाना और आरम्म न हो इस प्रकार उनकी प्रवृत्ति करना व्यवहार सामायिक है। जीव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणों का विचार करना और यात्मगुणों की अपेक्षा सर्वजीवों को एक सरीखा समझ कर उनमें समता-भाव धारण करना निश्चय सामायिक व्रत है।
(१०) देशावकाशिक व्रत-मन, वचन और काया के योगों को स्थिर करना और एक जगह बैठ कर धर्मध्यान करना मर्यादित दिशाओं से बाहर पाश्रवों का सेवन न करना । व्यवहार देशावकाशिक व्रत है। श्रुतज्ञान द्वाराषः द्रव्य का स्वरूप जान कर पाँचद्रव्यों का त्याग करना और ज्ञान स्वरूप जीव द्रव्य का ध्यान करना, उसी में रमण करना निश्चय देशावकाशिक व्रत है।
(११) पौषध व्रत-चार पहर से लेकर आठ पहर तक सावध व्यापार का त्याग कर समता परिणाम को धारण करना और स्वाध्याय तथा ध्यान में प्रवृचि करना व्यवहार पौपध व्रत है। अपनी श्रात्मा को ज्ञान ध्यान द्वारा पुष्ट करना निश्चय पौषध व्रत है।
(१२) अतिथि विभाग त-हमेशा और विशेष कर पौषध के पारणे के दिन पंच महाव्रतधारी साधु एवं स्वधर्मी बन्धु को यथाशक्ति भोजनादि देना व्यवहार अतिथिसंविभाग व्रत है। अपनी प्रात्मा एवं शिष्य को ज्ञान दान देना अर्थात् स्वयं पढ़ना, शिष्य को पढ़ाना तथा सिद्धान्त का श्रवण करना और कराना निश्चय अतिथिसंविभाग व्रत है। (देवचन्दबी कुत आगमसार)
नोट-प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार का लक्ष्य निश्चय व्रतों का स्वरूप बताना ही रहा है। यही कारण है कि उन्होंने व्यवहार व्रत बहुत स्थूल रूप में दिये हैं। व्यवहार व्रतों का स्वरूप
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग २८५ इसके प्रथम भाग में बोल नं १२८ (क) पृष्ठ ११ (तीन गुणव्रत), बोल १८६ पृष्ठ १४०(चार शिक्षा व्रत) और बोल ३०० पृष्ठ २८८ (पॉच अणुव्रत) में दिया जो चुका है। यहॉ आगमसार के अनुसार हो उनका संक्षिप्त स्वरूप दिया गया है। ७६४ (क) श्रावक के बारह व्रतों की संक्षिप्त टीप
___ इसी पुस्तक के परिशिष्ट पृष्ठ ४६३ पर है। ७६५-भिक्खु पडिमा बारह साधु के अभिग्रह विशेष को मिक्खुपडिमा कहते हैं। वे वारह हैंएक मास से लेकर सात मास तक सात पडिमाएं हैं। पाटवी, नवी
और दसवीं पडिमाओं में प्रत्येक सात दिन रात्रि की होती है। ग्यारहवीं एक अहोरात्र की और बारहवीं केवल एक रात्रि की होती है।
पडिमाधारी मुनि अपने शारीरिक संस्कारों को तथा शरीर के ममत्व भाव को छोड़ देता है ओर दैन्य भाव न दिखाते हुए देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करता है । वह अज्ञात कुल से और थोड़े परिमाण से गोचरी लेता है। गृहस्थ के घर पर मनुष्य, पशु, श्रमण,ब्राह्मण, भिखारी आदि भिक्षार्थ खडे हों तो उसके घर नहीं जाता क्योंकि उन दान में अन्तराय पड़ती है। अतः उनके चले जाने पर जाता है।
(१) पहली पडिमाधारी साधु को एक दति अन्नकी और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। साधु के पात्र में दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और पानी की जब तक धारा अखएड बनी रहे उसका नाम दत्ति है । धाग खण्डित होने पर दचि की समाप्ति हो जाती है। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वही से मिक्षा लेना चाहिए। किन्तु जहाँ दो, तीन, चार, पॉच या अधिक व्यक्तियों के लिए भोजन बना हो वहाँ से भिक्षा न लेनी चाहिए। इसी प्रकार गर्भवती और छोटे बच्चे वाली स्त्री के लिए बना हुआ भोजन या शे स्त्री बच्चे को दूध पिला रहो हो वह बच्चे को अलग रख कर.
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
श्री सेठिया जैन प्रम्थमाला
wwwww now o
wwwww www
भिक्षा दे या प्रसवा (जिसका गर्भ पूरे मास प्राप्त कर चुका हो) स्त्री अपने श्रासन से उठ कर भिक्षा दे तो वह भोजन मुनि को नहीं कल्पता । जिसके दोनों पैर देहली के भीतर हों या बाहर हों उससे भी मिक्षा न लेनी चाहिए किन्तु जिसका एक पैर देहली के भीतर हो और एक बाहर हो उसी से भिक्षा लेना कल्पता है ।
पडिमाधारी मुनि के लिए गोचरी के लिए तीन समय बतलाये गए हैं। दिन का श्रादि भाग, मध्यभाग और चरमभाग | यदि - कोई साधु दिन के प्रथम भाग में गोचरी जाय तो मध्यभाग और अन्तिमभाग में न जाय । इसी तरह यदि मध्यभाग में जाय तो आदि भाग और अन्तिमभाग में न जाय और अन्तिमभाग में गोचरी जाय तो प्रथम भाग और मध्यभाग में न जाय । श्रर्थात् उसे दिन के किसी एक भाग में गोचरी जाना चाहिए, शेष दो भागों में नहीं । . पडिमाधारी साधु को छः प्रकार की गोचरी करनी चाहिए । यथा- पेठा, श्रद्धपेटा, गोमूत्रिका, पतङ्गवीथिका, शंखावर्ती और गतप्रत्यागता । छः प्रकार की गोचरी का विस्तृत स्वरूप जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग दूसरे के छठे बोल संग्रह नं ४४६ में दिया गया है।
जहाँ उसे कोई जानता हो वहाँ एक रात रह सकता है और जहाँ उसे कोई नहीं जानता हो वहाँ एक या दो रात रह सकता है । किन्तु इस से अधिक नहीं | इससे अधिक जो साधु जितने दिन रहे उसे उतने ही दिनों के छेद या तप का प्रायश्चित आता है।
उसे चार प्रकार की भाषा बोलनी चाहिये
(१) याचनी - आहार आदि के लिये याचना करने की । (२) पृच्छनी - मार्ग आदि पूछने के लिए। (३) अनुज्ञापनी - स्थान आदि के लिए श्राज्ञा लेने की । (४) पुडु वागरणी - प्रश्नों का उत्तर देने के लिये ।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग २८७ उपाश्रय के स्वामी की आज्ञा लेकर पडिमाधारी मुनि को तीन प्रकार के स्थानों में ठहरना चाहिये
(१) अधाश्रारामगृह-ऐसा स्थान जिसके चारों ओर वाग हो।
(२) अधोविकटगृह-ऐसा स्थान जो चारों ओर से खुला हो सिर्फ ऊपर से ढका हुआ हो।।
(३) अधः वृक्षमूलगृह- वृक्ष के नीचे बना हुअास्थान या वृक्ष का मूल।
उपरोक्त उपाश्रय में ठहर कर मुनि को तीन प्रकार के संस्तारक श्राज्ञा लेकर ग्रहण करने चाहिये । (१) पृथ्वी शिला (२) काष्ठ शिला (३) उपाश्रय में पहले से विछा हुआ संस्तारक ।
शुद्ध उपाश्रय देख कर मुनि के वहाँ ठहर जाने पर यदि कोई स्त्री या पुरुप आजाय तो उन्हें देख कर मुनि को उपाश्रय से बाहर जाना या अन्दर आना उचित नहीं अर्थात् मुनि यदि उपाश्रय के बाहर हो तो बाहर ही रहना चाहिए और यदि उपाश्रय के अन्दर हो तो अन्दर ही रहना चाहिए। आये हुए उन स्त्री पुरुषों की ओर ध्यान न देते हुए अपने स्वाध्याय ध्यान आदि में लीन रहना चाहिए। ऐसे समय में यदि कोई पुरुष उस उपाय को आग लगा दे तो अग्नि के कारण मुनि को उपाश्रय से बाहर नहीं निकलना चाहिए और यदि उपाश्रय के बाहर हो तो भीतर नहीं जाना चाहिए। उपाश्रय के चारों तरफ आग लगी हुई जान कर यदि कोई व्यक्ति मुनि की सुजा पकड़ कर वाहर खीचे तो मुनि को हठपूर्वक वहाँ ठहरना भी न चाहिए किन्तु उसका आलम्बन न लेते हुए ईर्यासमिति पूर्वक गमन करना चाहिए।
विहार करते हुए मार्ग में मुनि के पैर में यदि कंकर, पत्थर या कांटा आदि लग जाय तो भी उसे उन्हें न निकालना चाहिये। इसी प्रकार आँखों में कोई मच्छर प्रादि नीच, वीज या धूल पड़
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला बाय तो भी न निकालना चाहिए किन्तु किसी प्राणी की मृत्यु हो जाने का भय हो तो उसे निकाल देना चाहिए।
विहार करते हुए जहाँ सूर्य अस्त हो जाय वहीं पर ठहर जाना चाहिए। चाहे वहाँ जल हो (जल का किनारा हो या सूखा हुआ जलाशय हो), स्थल हो, दुर्गम स्थान हो, निम्न (नीचा) स्थान हो, पर्वत हो, विषम स्थान हो, खड्डा हो या गुफा हो, सारी रात वहीं व्यतीत करनी चाहिए। सूर्यास्त के बाद एक कदम भी आगे बढ़ना उचित नहीं। रात्रि समास होने पर सूर्योदय के पश्चात् अपनी इच्छानुसार किसी भी दिशा की ओर ईर्यासमिति पूर्वक विहार कर दे। सचित्त पृथ्वी पर निद्रा न लेनी चाहिए । सचित्त पृथ्वी का स्पर्श करने से हिंसा होगी जो कि कर्मबन्ध का कारण है। यदि रात्रि ' में लधुनीति या पडीनीति की शंका उत्पन्न हो जाय तो पहले से
देखी हुई भूमि में जाकर उनकी निचि करे और वापिस अपने स्थान पर पाकर कायोत्सर्ग आदि क्रिया करे।
किसी कारण से शरीर पर सचित्त रज लग जाय तो जब तक प्रस्वेद (पसीना) आदि से वह रज दूर न हो जाय तब तक मुनि को पानी प्रादि लाने के लिये गृहस्थ के घर न जाना चाहिए । इसी प्रकार प्रासुक जल से हाथ, पैर, दांत, आँख या मुख आदि नहीं धोने चाहिएं किन्तु यदि किसी अशुद्ध वस्तु से शरीर का कोई अलिप्त होगया हो तो उसको प्रामुक पानी से शुद्ध कर सकता है अर्थात् मलादि से शरीर लिप्त हो गया हो और स्वाध्यायादि में पाधा पड़ती हो तो पानी से अशुचि को दूर कर देना चाहिए।
विहार करते समय मुनि के सामने यदि कोई मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, चैत, महिष (मसा), सूअर, कुचा या सिंह आदि भाजाय बोउनसे डर कर मुनि को एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिए, . किन्तु यदि कोई हरिण श्रादि भद्र जीव सामने अजाय और वह
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८९
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग मुनि से डरता होतो मुनि को चार हाथ तक पीछे हट जाना चाहिये अर्थात् उन प्राणियों को किसी प्रकार भय उत्पन्न न हो इस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिए।
पडिमाधारी मुनि शीतकाल में किसी ठण्डे स्थान पर बैठा हो तोशीत निवारण के लिए उसे धूप युक्त गरम स्थानों पर न जाना चाहिए । इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में गरम स्थान से उठ कर ठण्डे स्थान में न जाना चाहिए किन्तु जिस समय जिस स्थान पर बैठा हो उसी स्थान पर अपनी मर्यादा पूर्वक बैठे रहना चाहिये।
उपरोक्त विधि से भिक्षु की पहली पडिमा यथासूत्र, यथाफम्प, यथामार्ग, यथातच, काया द्वारा स्पर्श कर, पालन कर, अविचारों से शुद्ध कर, समास टर, कीर्तन कर, भाराधन कर भगवान् की आज्ञानुसार पालन की जाती है। इसका समय एक महीना है। (२-७) दूसरी पडिमा का समय एक मास है। इसमें उन सब नियमों का पालन किया जाता है जो पहली पडिमा में पताये गये हैं। पहली पडिमा में एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी.की ग्रहण की जाती है। दूसरी पडिमा में दो दचि अन की और दो दति पानी की ग्रहण की जाती है । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवीं पडिमाओं में क्रमशः तीन चार पाँच छ। और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही पानी की ग्रहण की जाती है। प्रत्येक पडिमा का समय एक एक मास है, केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही ये क्रमशः द्विमासिकी, त्रिमासिकी, चतुर्मासिकी, पञ्चमासिकी, पाएमासिकी और सप्तमासिकी पडिमाएं कहलाती है। इन सब पडिमाओं में पहली पडिमा में बताये गये सब नियमों का पालन किया जाता है।
(८)आठवीं पडिमा का समय सात दिन राव है। इसमें अपानक उपवास किया जाता है अर्थात् एकान्तर चौविहार उपवास करना
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
चाहिए। ग्राम, नगर या राजधानी के बाहर जाकर उत्तानासन ( आकाश की ओर मुँह करके लेटना), पाश्र्वासन ( एक पसवाडे से लेटना) अथवा निषद्यासन (पैरों को बराबर रख कर बैठना ) से ध्यान लगा कर समय व्यतीत करना चाहिए। ध्यान करते समय देवता, मनुष्य अथवा तिर्यश्व सम्बन्धी कोई उपसर्ग उत्पन्न हो तो ध्यान से विचलित नहीं होना चाहिए किन्तु अपने स्थान पर निश्चल रूप से बैठे रह कर ध्यान में दृढ़ बने रहना चाहिए । यदि मल मूत्र आदि की शंका उत्पन्न हो जाय तो रोकना न चाहिए किन्तु पहले से देखे हुए स्थान पर जाकर उनकी निवृत्ति कर लेनी चाहिये । आहार पानी की दत्तियों के अतिरिक्त इस पडिमा में पूर्वोक्त सब नियमों का पालन करना चाहिए । इस पडिमा का नाम प्रथम सप्त रात्रिदिवस की भिक्खु पडिमा है ।
(६) नवीं का नाम द्वितीय सप्त रात्रिदिवस पडिमा है । इसका समय सात दिन रात है। इसमें चौविहार बेले बेले पारणा किया जाता है। ग्राम अथवा नगर आदि के बाहर जाकर दण्डासन, लगुडासन और उत्कटुकासन से ध्यान किया जाता है ।
(१०) दसवीं का नाम तृतीय सप्त रात्रिदिवस पडिमा है । इसकी अवधि सात दिन रात है । इसमें चौविहार तेले तेले पारणा किया जाता है और ग्राम अथवा नगर के बाहर जाकर गोदोहनासन, धीरासन और श्राग्रकुब्जासन मे ध्यान किया जाता है। आठवीं, नवीं और दसवीं पडिमाओं में आहार पानी की दत्तियों के अतिरिक्त शेष सभी पूर्वोक्त नियमों का पालन किया जाता है। इन तीनों पडिमाओं का समय इक्कीस दिन रात है ।
(११) ग्यारहवीं पडिमा का नाम श्रहोरात्रिकी है। इसका समय एक दिन रात है अर्थात् यह पडिमा आठ पहर की होती है। चौविहार बेला करके इस पडिमा का श्राराधन किया जाता है। नगर आदि
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग - २६१ - के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग किया जाता है। पूर्वोक्त पडिमाओं के शेप सभी नियमों का पालन किया जाता है।
(१२) धाहरवीं पडिमा का नाम एक रात्रिकी है। इसका समय केवल एक रात है। इसका अाराधन वेले को चढ़ा कर चौविहार तेला करके किया जाता है। इसके बाराधक को ग्राम आदि के बाहर जाकर शरीर को थोड़ा सा आगे की ओर झुका कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए अनिमेष नेत्रों से निचलता पूर्वक सब इन्द्रियों को गुप्त रख कर दोनों पैरों को संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग करना चाहिए । कायोत्सर्ग करते समय देव, मनुष्य या तिर्यश्च सम्बन्धी कोई उपसर्व उत्पन्न हो तो दृढ़ होकर समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। यदि उसको मल मूत्र की शंका उत्पन्न हो जाय तो उसे रोकना नहीं चाहिए, किन्तु पहले से देखे हुए स्थान में उनकी निवृत्ति कर वापिस अपने स्थान पर पाकर विधिपूर्वक कायोत्सर्ग में लग जाना चाहिए।
इस पडिमा का सम्यक् पालन न करने से तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षमा, अमोच तथा आगामी काल में दुःख के लिए होते हैं-(१)देवादि द्वारा किये गये अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्गादि को समभाव पूर्वक सहन न करने से उन्माद की प्राप्ति हो जाती है। (२) लम्बे समय तक रहने वाले रोगादिक की प्राप्ति हो जाती है। (३)अथवा वह केवलिप्रतिपादित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है अर्थात अपनी प्रतिज्ञा से विचलित हो जाने से वह श्रुत चारित्र रूप धर्म से भी पतित हो जाता है।
इस पडिमा का सम्यग्रूप से पालन करने से तीन. अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है अर्थात् अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और . केवखवान इन तीनों में से एक गुण को अवश्य प्राप्त कर लेता है,
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला क्योंकि इस पडिमा में महान कर्म समूह का क्षय होता है। यह पडिमा हित के लिये, शुभ कर्म के लिए, शक्ति के लिये, मोक्ष के लिये या ज्ञानादि प्राप्ति के लिए होती है।
इस पडिमा का यथासूत्र,यथाकल्प, यथातच सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर, पालन कर, अतिचारों से शुद्ध कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर, पाराधन कर भगवान् की आज्ञानुसार पालन किया जाता है। (दशाभुवस्कन्ध सातवीं दशा) (भगवती शतक र उद्देशा ) (समवायाग १२) ७६६-सम्भोग बारह .
समान समाचारी वाले साधुओं के सम्मिलित आहार प्रादि व्यवहार कोसम्भोग कहते हैं। सम्भोग के मुख्य रूप से छः भेद हैं(१)ोषत् उपधि प्रादि (२) अमिग्रह (३)दान और ग्रहण (४)अनुपालना (५) उपपात (६) संवास उपधि आदि सामान्य विषयों में होने वाले संम्भोग को ओष सम्भोग कहते हैं। इसके पारह भेद है-(१) उपधि विषयक (२)श्रत विषयक (३) मक्कपान विषयक(४)अञ्जलिप्रग्रह विषयक (५) दापना विषयक (६) निमन्त्रण विषयक (७)अभ्युत्थान विषयक (८)कृतिकर्म अर्थात् बन्दना विषयक (8)वैद्मावच्च विषयक (१०)समवसरण विषयक (११) सभिषधा विषयक (१२)कथाप्रवन्ध विषयक।।
(१) उपधि विषयक-वस्त्र पात्र आदि उपधि को परस्पर लेने के लिए बने हुए नियम को उपधि विषयक सम्मोग कहते हैं। इसके छ मेद हैं
' (१)उद्गम शुद्ध (२) उत्पादना शुद्ध (३) एषणाशुद्ध(४)परिकर्मणासंभोग(५)परिहरणा संभोग(६)संयोग विषयक संमोग । प्राधाकर्म आदि उद्गम के सोलह दोषों से रहित वस्त्र पात्र आदि उपधि को प्राप्त करना उद्गम शुद्ध उपधि संभोग है। आषाकर्मादि' किसी दोष के लगने पर उस दोष के लिए विधान किया गया,
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग २६३ प्रायश्चित्त आता है । अशुद्ध उपधि लेने वाला सांभोगिक साधु किसी दोष के लगने पर यदि पायश्चित्त अंगीकार नहीं करता तो विरंभोगी हो जाता है। प्रायश्चित्त लेने पर भी चौथी बार दोष लगने पर साधु विसंभोगी कर दिया जाता है अर्थात् तीसरी बार तक तो प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध करके उसे अपने साथ रखा जा सकता है, किन्तु चौथी वार दोप लगने पर प्रायश्चित्त लेकर भी वह शुद्ध नहीं हो सकता, इस लिए विसंभोगी कर दिया जाता है। इसी प्रकार विना किसी कारण के अन्यसंभोगी के साथ उपधि आदि लेने देने का व्यवहार करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रायः श्चित्त न लेने पर वह पहली बार ही विसंभोगी हो जाता है। प्रायश्चित्त ले लेने परतीमरी बार तक शुद्ध हो सकता है, इससे आगे नहीं। चौथी बार प्रायश्चित्त लेने पर भी वह विमभोगी कर दिया जाता है तीन पार तक उसे मासलघु (दोपोरिसी) का प्रायश्चित्त आता है। किसी कारण के उपस्थित होने पर अन्यसंभोगी के साथ उपधि आदि का व्यवहार करता हुआ शुद्ध ही है। इसी प्रकार पासस्था, गृहस्थ और स्वच्छन्द विचरने वालों के साथ भी जानना चाहिए। स्वच्छन्द विचरने वाले के साथ व्यवहार करने से मासगुरु (कासन) का प्रायश्चित्त पाता है। जो साधु पासत्थे श्रादि से
आहार या उपधि लेकर 'घाड़े को दे देता है उसे भी मासलघु प्रायश्चित पाता है। इसी प्रकार साध्वियों के लिए भी जानना चाहिए।
उद्गम की तरह उत्पादना के १६ दोष तथाएषणा के १० दोषों से रहित श्रतएव शुद्ध उपधि को संभोगी के साथ रह कर ग्रहण करने वाला उत्पादन शुद्ध तथा एषणाशुद्ध कहा जाता है। दोष लगने पर प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था पहले सरीखी जाननी चाहिए।
AHENDRA वस्त्र आदि उपधि को उचित परिमाण वाली करके स्थती के काम में आने योग्य बनाना परिकर्मणा है। इसमें चार मांगे होते
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला हैं-(१) कारण के उपस्थित होने पर विधि पूर्वक की गई । (२) कारण के उपस्थित होने पर प्रविधि पूर्वक की गई । (३) बिना कारण के विधि पूर्वक की गई । (४) विना कारण प्रविधि से की गई । इन चार भागों में पहला शुद्ध है। शेष अंग दोष वाले हैं। इन तीन अशुद्ध भंगों का सेवन करने वाला साधु प्रायश्चित्त लेकर तीसरी बार तक शुद्ध हो सकता है, इससे आगे नहीं।
बन पात्रादि उपधि को काम में लाना परिहरणा है । इसमें भी पहले सरीखे चार भंग हैं। उनमें पहला शुद्ध है, शेष के लिए प्रायश्चित्त भादि की व्यवस्था पहले सरीखी है।
उद्गम शुद्ध, उत्पादनाशुद्ध आदिसंभोगों को मिलाने से संयोग होता है। इसमें २६ मांगे हैं। दो के संयोग से दस भांगे होते हैं। तीन के संयोग से दस । चार के संय ग से पाँच । पाँचों के संयोग से एक । इन छब्बीस भंगों में केवल साम्भोगिक वाले शुद्ध हैं। असांभोगिक वाले अशुद्ध हैं । इनका विस्तार निशीथ सूत्र में है।
(२) तसंभोग-पास में आए हुए सांभोगिक अथवा अन्य सांभोगिक साधु को विधिपूर्वक शास्त्र पढ़ाना अथवा दूसरे के पास जाकर पढ़ना श्रुतम्भोग है । विना विधि अथवा पामत्थे आदि को वाचनादि देने वाला तीन बार तक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध हो सकता है। प्रायश्चित्त न लेने पर अथवा चौथी बार दोष लगने पर अशुद्ध मान लिया जाता है।
(३) भक्तपान-शुद्ध आहार पानी का सेवन करना अथवा देना भक्तपान संभोग है।
.(४) अनलिप्रग्रह-सम्भोगी अथवा अन्यसम्भोगी साधुओं के साथ वन्दना, आलोचना आदि करना अञ्चलिप्रग्रह है। पासत्थे
आदि के साथ वन्दनादि व्यवहार करने वाला पहले की तरह तीन चार तक प्रायश्चिच लेने पर शुद्ध होता है। चौथी पार या विना
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१
श्री जैन सिद्धान्त योल संग्रह, चौथा भाग प्रायश्चित्त लिए अशुद्ध माना जाता है।
(५) दान-साम्भोगिक माधु द्वारा साम्मोगिक को अथवा कारण विशेष से अन्य साम्भोगिक को शिष्यादि देना दानसंभोग है । विना कारण विमम्भोगी को, पासत्थे आदि को देता हुआ दोप का भागी है । वह ऊपर लिखे अनुसार शुद्ध अथवा अशुद्ध होता है।
(६' निमन्त्रण शय्या, उपधि, आहार, शिष्यप्रदान अथवा स्वाध्याय आदि के लिए यदि साम्भोगिक साधु साम्भोगिक को निमन्त्रण देता है तो शुद्ध है, शेष अवस्थाओं में पहले की तरह जानना चाहिए।
(७) अभ्युन्थान-किसी बड़े साधु को आते देख कर भासन से उठना अभ्युत्थान है । सम्भोगी के लिए अभ्युत्थान शुद्ध है, बाकी के लिए पहले की तरह जानना चाहिए । इसी प्रकार किसी पाहुने या ग्लान आदि की सेवा करने में, अभ्यास तथा धर्म से गिरते हुए को फिर से स्थिर करने में और मेलजोल रखने में संभोगी तथा अभोगी समझना चाहिए अर्थात् इन्हें, आगम के अनुसार, करने वाला शुद्ध है और सम्भोगी है, आगम के विपरीत करने वाला अशुद्ध और विसम्भोगी है।
(क) कृतिकर्म- वन्दना आदि विधि से करने वाला शुद्ध है दूसरा अशुद्ध है । वात आदि रोग के कारण शरीर कड़ा हो जाने से जो न उठ सकता है, न हाथ आदि को हिला सकता है वह केवल पाठ का उच्चारण करता है। जो पावन प्रदक्षिणा), सिर झुकाना
आदि कर सकता हो उसे विधिपूर्वक ही वन्दन करना चाहिए। विधिपूर्वक वन्दन करने वाला शुद्ध तथा दूसरा अशुद्ध होता है।
(६) यावच्च-आहार उपधि आदि देना, मल मूत्रादि का परिठवणा, वृद्ध आदि साधुओं की सेवा करना यावृत्य संभोग है।
(१०) समवसरण- व्याख्यान आदि के समय, वर्षा या
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
MAMANNAPA
M
PRAMPA
२६६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला स्थरिकल्प आदि में इकठ्ठ होकर रहना समवसरण संभोग है।
(११)सभिषधा-श्रासन आदि का देना । साम्भोगिक साधु यदिएकपासन पर बैठ कर शास्त्र चर्चा करें तो वह शुद्ध है। ढीले पासत्थे और साध्वी आदि के साथ एक आसन पर बैठना अशुद्ध है।
(१२) कथाप्रबन्ध-पाँच प्रकार की कथा के लिए एक जगह चैठ कर व्यवहार करना कथाप्रबन्ध संभोग है। कथा के पाँच भेद निम्न लिखित है-(१)वाद-पाँच अथवा तीन अवयव वाले अनुमान वाक्य द्वारा छल और जाति आदि को छोड़ कर किसी मत का समर्थन करना वाद है। वाद कथा में सत्य बात को जानने का प्रयत्न ही मुख्य रहता है, दूसरे को हराने का ध्येय नहीं रहता । (२ जल्पकथा- दूसरे को हराने के लिए जिस कथा में छल, जाति
और निग्रहस्थान का प्रयोग हो उसे जल्प कहते हैं। ३) वितण्डाकथा स्वयं किसी पक्ष का अवलम्बन किए बिना जिस कथा में वादी या प्रतिवादी केवल दूसरे का दोष बता कर खएडन करता है उसे वितण्डा कथा कहते हैं । (४) प्रकीर्ण कथा- साधारण बातों की चर्चा करना प्रकीर्ण कथा है। यह उत्सर्ग कथा अथवा द्रव्यास्तिकनय कथा भी कही जाती है . ५. निश्चय कथा-अपवाद बातों की चर्चा करना निश्चय कथा है। इसे अपवाद कथा अथवा पर्यायास्तिक नय कथा भी कहा जाता है। इन में पहली तीन कथाएं साध्वियों को छोड़ कर चाकी सब के साथ कर सकता है । साध्वियों के साथ करने पर प्रायश्चित्त का भागी होता है। तीसरी बार तक आलोचना से शुद्ध हो सकता है, चौथी बार करने पर वि भोगी कर दिया जाता है।
इस विषय में विस्तारपूर्वक निशीथचूर्णी और भाष्य के पाँचवें उद्दयो से जानना चाहिए। (व्यवहार सूत्र उद्देशा ५)
(समवायाग १२ वा समवाय) (निशीथ चूर्णी उद्देशा५)
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोन साह चौथा भाग २९७ ७६७-ग्लानप्रतिचारी बारह
बीमारी या तपस्था आदि के कारण अशक्त साधु को ग्लान कहते हैं । ग्लान साधु की सेवा के लिए नियत साधु को ग्लान प्रतिचारी कहते हैं । ढीला, पासत्था, संयम में दोष लगाने वाला या भगीतार्थ साधु सेवा के लिए ठीक नहीं है । जो साधु गीतार्थ आदि गुणों वाला तथा संयम में दृढ़ है, वैयावन के लिए हर तरह से उद्यत है वही इसके लिए योग्य है। ग्लानप्रतिचारी के बारह मेद हैं
(१' उद्वर्ष प्रतिचारी-ग्लान साधु का पसवाड़ा भादि बदलने वाले । सामान्य रूप से अनशन आदि अङ्गीकार किए हुए साधु को उद्वर्तन (पसवाड़ा लेना) आदि स्वयं ही करना चाहिए। जो अशक्ति के कारण शरीर को न हिला डुला सके उसका चार साधु पसवाड़ा शादि बदल देते हैं। सीधा या उल्टा उसकी इच्छानुसार लेटा देते हैं । उठाना, बैठाना, बाहर ले जाना, भीतर लाना, वन पात्रादि उपधि की पडिलेहणा करना आदि सभी प्रकार से उसकी सेवा करते हैं। .
(२) द्वारप्रतिचारी-जिस कमरे में ग्लान साधु लेट रहा हो उसके द्वार पर बैठने वाले साधु द्वारप्रतिचारी कहे जाते हैं। ये साधु ग्लान के पास से भीड़ हटाने के लिए बैठे रहते हैं क्योंकि , भीड़ से ग्लान को असमाधि उत्पन्न होती है।
(३) स्तार प्रतिधारी -लान या तपस्खी के लिए साताकारी शय्या विछाने वाले साधु संस्कार प्रविचारी कहलाते हैं।
(४) कथक विचारी-उपदेश देने अथवा धर्म कथा करने की विशेष लब्धि वाले साधु जोग्लान साधु को धर्म कथा सुनाते हैं तथा उसे संयम में दृढ करते हैं।
(५) वादि प्रतिचारी-बाद शक्ति वाले साधु जो भावरणकता पड़ने पर प्रतिवादी को जीत ले तथा खान साधु को धर्म से
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्माला
२६८
विचलित न होने दें ।
(६) अग्रद्वार प्रतिचारी - प्रत्यनीक आदि को अन्दर आने से रोकने के लिए उपाश्रय के मुख्य द्वार पर बैठे रहने वाले साधु । (७) भक्त प्रतिचारी - जो साधु आवश्यकता पड़ने पर माहार लाकर देते हैं वे भक्त प्रतिचारी कहलाते हैं ।
(८) पान प्रतिचारी - श्रावश्यकता पड़ने पर पानी की व्यवस्था करने वाले साधु पान प्रतिचारी कहलाते हैं ।
(६) पुरीष प्रतिचारी - जो ग्लान साधु को शौच बैठाते हैं तथा पुरीष (बड़ी नीति) वगैरह को परठाते हैं ।
(१०) प्रावण प्रतिचारी - प्रस्रवण (लघु नीति) परठाने वाले । (११) वहिः कथक - वाहर लोगों को धर्मकथा सुनाने वाले, जिससे तपस्या और संयम के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़े ।
(१२) दिशासमर्थ - ऐसे बलवान् साधु जो छोटे मोटे चाकस्मिक उपद्रवों को दूर कर सकें।
इन में प्रत्येक कार्य के लिए चार चार साधु होते हैं। इस लिए ग्लान प्रतिचारियों की उत्कृष्ट संख्या ४८ है । (प्रवचनसारोद्धार ७१ वां द्वार गाथा ६२९) (नवपद प्रकरण सलेखना द्वार गाथा १२९)
७६८ - बालमरण के बारह भेद
असमाधि पूर्वक जो मरण होता है वह बालमरण कहलाता है । इसके बारह भेद हैं
(१) वलन्मरण - तीत्र भूख और प्यास से छटपटाते हुए प्राणी का मरण वलन्मरण कहलाता है अथवा संयम से भ्रष्ट प्राणी का मरण वलन्मरण कहलाता है ।
(२) वसहमरण - इन्द्रियों के वशीभूत दुखी प्राणी का मरण वसडमरण कहलाता है। जैसे दीप की शिखा पर गिर कर प्राय देने वाले पतंगिये का मरण ।
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २ (३) अन्नोसल्ल मरण (अन्तःशल्य मरण)-इसके द्रव्य और भाव दो भेद हैं । शरीर में वाण या तोमर (एक प्रकार का शत्र)
आदि के घुस जाने से और उनके वापिस न निकलने से जो मरण होता है वह द्रव्य अन्तः शल्य मरण है। अविचारों की शुद्धि किये विना ही जो मरण होता है वह भाव अन्तः शल्य मरण है क्योंकि अतिचार आन्तरिक शन्य हैं।
(४) तद्भव मरण-मनुष्य आदि ने शरीर को छोड़ कर फिर मनुष्य आदि के ही शरीर को प्राप्त करना तद्भव मरण है। यह मरण मनुष्य और तिर्यञ्चों में ही हो सकता है किन्तु देव और नारकी जोवों में नहीं क्योंकि मनुष्य पर कर मनुष्य और तिर्यश्च मर कर तिर्यच हो सकता है किन्तु देव मर कर फिर देव र नैयिक मर कर फिर नैरयिक नहीं हो सका।
(५) गिरिपडण गिरिपतन) मरण-पर्वत आदि से गिर कर मरना गिरिपडण मरण है।
(६) तरुपडण (तरुपतन)- वृत आदि से गिर कर मरना । (७) जलप्पवेस (जलप्रवेश)-जल में डूब कर मरना। (८) जलगप्पवेस (ज्वलनप्रवेश)- अग्नि में गिर कर मरना।
(8) विसमक्खण (विष भक्षण) मरण-जहर आदि प्राणघातक पदार्थ खाकर मरना विष भक्षण मरण कहलाता है।
(१०) सत्थोवाडणे (शस्त्रावपाटन)-दुरी,तलवार आदि शस्त्र द्वारा होने वाना मरण शस्त्रावपाटन मरण है।
(११) विहाणस (वैहानस) मरण-गले में फांसी लगाकर वृक्ष आदि की डाल पर लटकने से होने वाला मरण विहाणस मरण है।
(१२) गिद्धप? (गृध्रस्पृष्ट)-हाथी, ऊँट या गदहे आदि के भव में गीध पक्षियों द्वारा यामास लोलुप भृगाल आदिजंगली जानवरों द्वारा शरीर के विदारण (चीरने) से होने वाला मरण गृध्र
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
-
स्पृष्ट या गृद्धस्पृष्ट मरण कहलाता है, अथवा पीठ श्रादि शरीर के अवयवों का मांस गीध आदि पक्षियों द्वारा खाया जाने पर होने वाला मरण गृध्रपृष्ट मरण कहलाता है। उपरोक्त दोनों व्याख्याएं क्रमशः तिर्यश्च और मनुष्य के मरण की अपेक्षा से हैं।
उपरोक्त बारह प्रकार के पाल मरणों में से किसी भी मरण से मरने वाले प्राणी का संसार बढ़ता है और वह बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है। (भगवती शतक २ उद्देशा १) ७६६-चन्द्र और सूर्यों की संख्या
चन्द्र और सूर्य कितने हैं, इस विषय में अन्य तीर्थियों की पारह मान्यताए हैं, वे नीचे लिखे अनुसार हैं
(१) सारे लोक में एक चन्द्र तथा एक ही सूर्य है। (२) तीन चन्द्र तथा तीन सूर्य। (३) आठ चन्द्र तथा पाठ सूर्य । (४) सात चन्द्र तथा सात सूर्य। (५) दस चन्द्र तथा दस सूर्य। (६) बारह चन्द्र तथा पारह सूर्य । (७) बयालीस चन्द्र तथा बयालीस पर्य। () पहचर चन्द्र तथा बहत्तर सूर्य । (8) बयालीस सौ चन्द्र क्या क्यालीस सौ सूर्य। (१०) बहचर सौ चन्द्र तथा बहत्तर सौ सूर्य । ' (११) पयालीस हजार चन्द्र तथा बयालीस हजार सूर्य । (१२) वहचर हजार चन्द्र तथा वहत्तर हजार सूर्य ।
जैन मान्यता के अनुसार एक लाख योजन लम्बे तथा एक लाख योजन चौड़े जम्बूद्वीप में दो चन्द्र तथा दो सूर्य प्रकाश करते हैं। इनके साथ १७६ ग्रह और ५६ नक्षत्र हैं। एक लाख तेतीस
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग
३०१
हजार नौ सौ पचास कोड़ाकोड़ी तारे हैं।
जम्बूद्वीप को घेरे हुए दो लाख योजन विस्तार वाला लवण समुद्र है । यह वर्तुल चूड़ी के आकार तथा सम चक्रवाल संस्थान वाला है। इसकी परिधि १५८१९३६ योजन है । इसमें ४ चन्द्र, ४ सूर्य,३५२ ग्रह,११२ नक्षत्र और २६७६०० कोडाकोड़ी तारे हैं। __लवण समुद्र के चारों तरफ वर्तुल प्राकार तथा सम चक्रवाल संस्थान 'बाला घातकीखंड है। इसकी चौड़ाई चार लाख योजन है। परिधि ४११०९६० योजन से कुछ अधिक है। इसमें १२ चन्द्र, १२ सूर्य, १०५६ ग्रह,३३७ नक्षत्र और ८०३७०० कोड़ा कोड़ी तारे हैं। ___ धातकीखण्ड को धेरै हुए कालोदधि समुद्र है। यह भी वर्तुल
आकार तथा सम चक्रवाल संस्थान वाला है । इसकी चौड़ाई पाठ लाख योजन तथा परिधि ६१७०६०५ योजन से कुछ अधिक है। इसमें ४२ चन्द्र, ४२ सूर्य, ३६९६ ग्रह, ११७६ नक्षत्र और २८१२६५० कोडाकोड़ी नारे हैं।
कालोदधि समुद्र के चारों तरफ पुष्करवर द्वीप है। यह भी वर्तुल तथा सम चक्रवाल संस्थान वाला है। इसकी चौड़ाई १६ लाख योजन तथा परिधि १९२८४८६३ योजन से कुछ अधिक है। इसमें १४४ चन्द्र, १४४ सूर्य, १२६७२ ग्रह, ४०३२ नक्षत्र
और १६४५४०० कोडाकोड़ी तारे हैं। इनमें से ७२ चन्द्र, ७२ सूर्य, ६३३६ ग्रह, २०१६ नक्षत्र और ४८२२२०० कोडाकोड़ी तारे चल हैं और इतने ही स्थिर हैं । पुष्करवर द्वीप के बीचोबीच मानुष्योचर पर्वत है। इस द्वीप के दो भाग हो जाते हैं-आभ्यन्तर पुष्करवर द्वीप और वाह्य पुष्करवर द्वीप । दोनों की चौड़ाई पाठ आठ लाख योजन की है । प्रत्येक में ७२ सूर्य तथा ७२ चन्द्र आदि हैं। ग्राम्यन्वर पुष्करवर द्वीप के चन्द्र भादि चल तथा वाह्य
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला के स्थिर है। जम्बूद्वीप, धातकीखएड और आधे पुष्करवर द्वीप (आभ्यन्तर) को मिला कर पढ़ाई द्वीप कहा जाता है। इसी को मनुष्य क्षेत्र कहते हैं। अदाई द्वीप के अन्दर वाले सूर्यादि चल तथा बाहर के स्थिर हैं।
मनुष्य क्षेत्र ४५ लाख योजन लम्बा तथा इतना ही चौड़ा है। इसकी परिधि १४२३०२४६ योजन से कुछ अधिक है। सारे अढाई द्वीप में १३२ चन्द्र, १३२ सूर्य, ११६१६ग्रह,३६६६ नक्षत्र और ८८४०७०० कोडाकोडी तारे हैं।१३२ चन्द्रों की दो पंक्तियाँ हैं। ६६ चन्द्रों की पंक्ति नैऋत्य कोण में है.और ६६ चन्द्रों की पंक्ति ईशान कोण में है। १४२ सूर्यों में भी दो पंक्तियाँ हैं-६६ अनि कोण में और ६६ वायव्य कोण में। सभी ज्योतिषी मेरु के चारों तरफ घूमते रहते हैं। एकत्चन्द्र के परिवार में ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र और ६६६७५ कोडाकोड़ी तारे हैं।
पुष्करवरद्वीपको घेरे हुए पुष्करोदधि समुद्र है। इसकी चौड़ाई ३२ लाख योजन तथा परिधि ३६५२८४७० योजन से कुछ अधिक है। इसमें ४६२ चन्द्र, ४६२ सूर्य, ४३२९६ ग्रह,१३७७६ नक्षत्र
और ३२६५१७०० कोडाकोड़ी तारे हैं । इसी प्रकार स्वयम्भूरमण तक असंख्यात द्वीप तथा समुद्रों में असंख्यात ज्योतिषी हैं। वे सभी स्थिर हैं। द्वीप समुद्रों का विशेष विस्तार जीवाभिगम सत्र से जानना चाहिए।
(सूर्यप्रज्ञप्ति १६ वा प्रामृत) ८००- पूर्णिमा बारह
जिस रात में चन्द्रमा अपनी पूरी सोलह कलाओं से उदित होता है उसे पूर्णिमा कहते हैं। एक वर्ष में चारह पूर्णिमाएं होती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-
. (१) श्राविष्ठा-श्रावण मास की पूर्णिमा। (२) पौष्टवती--भाद्रपद मास की पूर्णिमा ।
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग । (३) आश्विनी-आसोज मास की पूर्णिमा । (४) कार्तिकी-कार्तिक मास की पूर्णिमा । (५) मृगशिरा-मिगसर मास की पूर्णिमा । (६) पोपी-पौष मास की पूर्णिमा। (७) माघी-माघ मास की पूर्णिमा । (८) फाल्गुनी-फाल्गुन मास की पूर्णिमा । (8) चैत्री-चैत्र मास की पूर्णिमा । (१०) वैशाखी-वैशाख मास की पूर्णिमा। (११) ज्येष्ठामूली-ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा । (१२) आषाढी-आपाढ मास की पूर्णिमा ।
श्रावणी पूर्णिमा में चन्द्र के साथ तीन नक्षत्रों का योग होता है-अभिजिक, श्रवणा और धनिष्ठा । भाद्रपद की पूर्णिमा में शतभिपक्, पूर्वभाद्रपद और उत्तरमाद्रपद । आश्विनी में रेवती और अश्विनी । कार्तिकी में भरणी और कृचिका । मृगशिरा में रोहिणी और मृगशिर। पौपी में आर्द्रा, पुनर्वसु और पुष्य । माघी में अश्लेषा और पपा। फाल्गुनी में पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी । चैत्री में हस्त और चित्रा वैशाखी में स्वाति और विशाखा । ज्येष्ठामूली में अनुराधा, ज्येष्ठा और मूना आषाढी में पूर्वाषाढा और उत्तरापाटा।
(सूर्य प्राप्ति प्राभूत १०, प्रतिप्राभूत ६) ८०१-अमावास्या बारह ।
जिस रात्रि में सूर्य और चन्द्र एक ही साथ रहते हैं अर्थात रात्रि में चन्द्र का विल्कुल उदय नहीं होता उसे अमावास्या कहते हैं। इसके भी वारह भेद पूर्णिमा की तरह जानने चाहिएं।
(सूर्य प्रति प्रामृत १०, प्रतिप्राभूत ६) ८०२-मास बारह
लगभग तीस दिन की कालमर्यादा को मास कहते हैं । एक
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
वर्ष में १२ मास होते हैं । उनके नाम दो प्रकार के हैं- लौकिक और लोकोत्तर | वे इस प्रकार हैं
-
(१) श्रावण -- अभिनन्दन । (२) भाद्रपद -- सुप्रतिष्ठित । (३) श्राश्विन - विजय । ( ४ ) कार्तिक - प्रीतिवर्द्धन । (५) मिगसर - श्रयः यस । (६) पौष - श्वेत। (७) माघ - शैशिरेय । (८) फाल्गुनहिमवान् । (६) चैत्र -- वसन्त । ( १ ) वैशाख -- कुसुमसम्भव । (११) ज्येष्ठ - निदाघ । ( १२ ) आषाढ- वनविरोध । (सूर्यं प्रति प्राभृत १०, प्रतिप्राभृत १६ )
८०३ - बारह महीनों में पोरिसी का परिमाण
दिन या रात्रि के चौथे पहर को पोरिसी कहते हैं । शीतकाल मैं दिन छोटे होते हैं और रातें बड़ी । जब रातें लगभग पौने चौदह घन्टे की हो जाती हैं तो दिन सवा दस घन्टे का रह जाता है । उष्णफाल में दिन बड़े होते हैं और रातें छोटा । जब दिन लगभग पौने चौदह घंटे के होते हैं तो रात सवा दस घंटे की रह जाती है। तदनुसार शीतकाल में रात्रि की पोरिसी बड़ी होती है और दिन की छोटी । उष्यकाल में दिन की पोरिसी बड़ी होती है और रात की छोटी ।
पोरिसी का परिमाण घुटने की छाया से जाना जाता है। पौष की पूर्णिमा अथवा सब से छोटे दिन को जब घुटने की छाया चार पैर हो तब पोरिसी समझनी चाहिए। इस के बाद प्रति सप्ताह एक अंगुल छाया घटती जाती है। बारह अंगुल का एक पैर होता है | इस प्रकार आषाढ़ी पूर्णिमा अर्थात् सब से बड़े दिन को छाया दो पैर रह जाती है । इसके बाद प्रतिसप्ताह एक अंगुल छाया बढ़ती जाती है। इस प्रकार पौषी पूर्णिमा के दिन छाया दो पैर रह जाती है। जब सूर्य उत्तरायण होता है अर्थात् मकर संक्रान्ति के दिन से छाया बढ़नी शुरू होती है और सूर्य के दक्षिणायन होने पर अर्थात् कर्क संक्रान्ति से छाया घटनी शुरू होती है। बारह
"
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ३०५ महीनों के प्रत्येक सप्ताह में पोरिसी की छाया जानने के लिए तालिका नीचे दी जाती है
(१) श्रावण मास (२) भाद्रपद मास सप्ताह रे - अंगुल
र अगुल
7
or
द्वि० २ २ . तृ. २३
9
(३)प्राधिन मास सप्ताह पैर अंगुल
प्र. २
(४) कार्तिक मास
पैर अंगुल
तु०
२
११
mr My
.
(५) मार्गशीर्ष मास सप्ताह पैर अंगुल
प्र० ३ ५ द्वि. ३ ६
(६) पौष मास
पैर अंगुल ३ ४
३ १०
س س س سے
च० ३८४०
(७) माघ मास () फाल्गुन मास सप्ताह पैर अंगुल पैर. अंगुल
प्र० ३ ११
ก
'Mr
cccm
ก
wu
mr
ก
mr
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्माना
(8) चैत्र मास सप्ताह पैर
प्र० ३ द्वि. ३
अंगुल
(१० वैशाख मास .
पैर अंगुल
२
२
१०
- auv
(१०) ज्येष्ठ मास (१२) आषाढ मास सप्ताह पैर अंगुल पैर अंगुल
प्र. २ ७ २ ३ द्वि० २६ २ २ त० २५.
२१
नोट-पोरिसी का परिमाण चन्द्रसंवत्सर के अनुपार गिना जाता है । इस में ३५४ दिन होते हैं । आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख का कृष्ण पक्ष चौदह दिन का होता है। इस लिए इन्हें अवमरात्र कहा जाता है। इन पदों के सिवाय बाकी पक्षों में एक सप्ताह साढ़े सात दिन का समझना चाहिए।
अगर पौन पोरिसी की छाया का परिमाण जानना हो तो पहिले बताई हुई पोरिसी की छाया में नीचे लिखे अनुसार अंगुल मिला देने चाहिए-ज्येष्ठ, आपाढ़ और श्रावण मास में छ: अंगुल । भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक में आठ अंगुल । मार्गशीर्ष, पौष और माघ में दस अंगुल । फाल्गुन, चैत्र और वैशाख में आठ अंगुल ।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २६ गाथा १३-१४) ८०४-धर्म के बारह विशेषण ' दुर्गतिपतनात् धारयतीति धर्म जो दुर्गति में पड़ते हुए प्राणियों
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
३०७
का उद्धार कर सुगति की ओर प्रवृत्त करे उसे धर्म कहते हैं। अहिसा, संयम और तप ये तीन धर्म के मुख्य अङ्ग हैं। इनका श्राचरण करने वाला पुरुष मंगलमय बन जाता है और यहाँ तक कि वह देवों का वन्दनीय बन जाता है। ऐसे धर्म के लिये बारह विशेषण दिये गये हैं । वे इस प्रकार हैं
I
(१) मंगल कमलाकेलि निकेतन - धर्मं मंगलरूप लक्ष्मी का क्रीड़ास्थान है अर्थात् धर्म सदा मंगलरूप है और जहाँ धर्म होता है वहाँ सदा आनन्द रहता है।
(२) करुणाकेतन - सब जीवों पर करुणा करना, मरते प्राणी को अभयदान देना यही धर्म का सार है। धर्म रूपी मन्दिर पर करुणा का सफेद झंडा सदा फहराता है। जो प्राणी धर्म रूपी मन्दिर में प्रविष्ट हो जाता है वह सदा के लिये निर्भय हो जाता है।
(३) धीर - अविचलित और अक्षुब्ध होने के कारण समुद्र को धीर की उपमा दी जाती है। इसी प्रकार अविचलित और अक्षुब्ध होने के कारण धर्म के लिये भी धीर विशेषण दिया जाता है। धर्म को धारण करने वाले पुरुष में परोपकारपरायणता, स्थिरचित्तता, विवेकशीलता और विचक्षणता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं ।
(४) शिवसुखसाधन - अनन्त, अक्षय और धन्याबाध सुख रूप मोक्ष का देने वाला धर्म ही है अर्थात् धर्म की यथावत् साधना करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
( ५ ) भवभय चाघन - जन्म जरा और मरण के भयों से मुक्त कराने वाला एक धर्म ही है। जो धर्म की शरण में चला जाता है उसे संयोग वियोग रूपी दुःखों से दुखी नहीं होना पड़ता । धर्म 1 में स्थिर पुरुष संसार के सब भयों से मुक्त होकर तथा संसार चक्र का अन्त कर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है ।
(६) जगदाधार - धर्म तीनों लोकों के प्राणियों के लिये
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३११ साधु अपने तप रूपी तेज से दीस एवं शोमित होवे ।।
(४) सागर-समुद्र में अगाध जल होता है । समुद्र कभी भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता । उसी प्रकार साधु ज्ञान रूपी अगाध जल का धारक बने । कभी भी तीर्थकर की आज्ञा का उल्लंघन न करे । समुद्र के समान सदा गम्भीर बना रहे। छोटी छोटी बातों में कुपित न हो।
(५) नभस्तल (आकाश)-जिस प्रकार आकाश को ठहराने के लिए कोई स्तम्भ नहीं है किन्तु वह निराधार स्थित है, उसी प्रकार साधु को गृहस्थ आदि के आलम्बन रहित होना चाहिये। उसे किसी के श्राश्रय पर अवलम्बित न रहना चाहिए किन्तु निरालम्बन होकर ग्राम नगर आदि में यथेच्छ विहार करना चाहिए।
(६) तरु (वृक्ष)-जैसे वृक्ष शीत और तापादि दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है और उसके आश्रय में श्राने वाले मनुष्य, पशु, पक्षीश्रादिको शीतल छाया से सुख पहुंचाता है उसी प्रकार साधु समभाव पूर्वक कष्टों को सहन करे और धर्मोपदेश द्वारा संसार के प्राणियों को मुक्ति का मार्ग पतला कर उनका उद्धार करे। फल आने पर जैसे वृक्ष नम्र बन जाता है अर्थात् नीचे की ओर भुक जाता है, अपने मीठे फलों द्वारा लोगों को आराम पहुँचाता है, उसी प्रकार साधु को चाहिए कि ज्यों ज्यों वह ज्ञान रूपी फल से संयुक्त होता जाय त्यों त्यों विशेष विनयवान् और नम्र बनता जाय । विद्या पढ़ कर अमिमान करना तो ज्ञान गुण के विल्कुल विपरीत है क्योंकि ज्ञान तो विनय और नम्रता सिखलाता है। अपने ऊपर पत्थर फैंकने वाले पुरुष को भी वृक्ष मीठे और स्वादु फल देता है, उसी प्रकार साधु को चाहिए कि कोई उसकी प्रशंसा करे या निन्दा करे, सत्कार करे या तिरस्कार करे उस पर किसी प्रकार से राग द्वेष न करे । साधु को कोई अपशब्द भी कह दे तो
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला उस पर कुपित न होवे किन्तु समभाव रखे। समभाव के कारण ही मुनि को 'चासीचन्दनकल्प' कहा गया है। यथा
जो चंदणेण बाहुं आलिंपड़, वासिणा वा तच्छेह । संथुणइ जोव निंदा, महरिसिणो तत्थ समभावा॥ अर्थात्- यदि कोई व्यक्ति मुनि के शरीर को चन्दन चर्चित करे अथवा बसोले से उनके शरीर को छील डाले। कोई उनकी स्तुति करेया निन्दा करेमहर्षि लोग सब जगह समभाव रखते हैं। , (७) भ्रमर-जिस प्रकार भ्रमर फूल से रस ग्रहण करता है किन्तु फूल को किसी प्रकार पीड़ा नही पहुँचाता, उसी प्रकार साधु-गृहस्थों के घर से थोड़ा थोड़ा श्राहार ग्रहण करे जिससे उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ न हो और फिर से नया भोजन बनाना न पड़े। दशकालिक सूत्र के पहले अध्ययन में भी साधु को भ्रमर की उमाप दी गई है। यथा
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो श्रावियह रसं। ए य पुष्फ किलामेह, सो य पीणेइ अप्पयं ।। एमे ए समणा मुत्ता, जे लोए सन्ति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेस, दाण भवेसणे रया।
अर्थात्-जिस प्रकार भ्रमर फूल को पीड़ा पहुँचाए बिना ही उससे रस पीकर अपनी तृप्ति कर लेता है, उसी प्रकार प्रारम्भ
और परिग्रह के त्यागी साधु भी दाता के दिए हुए प्रासुक आहार पानी में सन्तुष्ट रहते हैं। जिस प्रकार भ्रमर अनियतं वृत्ति वाला होता है अर्थात् प्रमर के लिए यह निश्चित नहीं होता कि वह अमुक फूल से ही रस ग्रहण करेगा, इसी तरह साधु भी अनियत वृत्ति वाला होवे अर्थात् साधु को प्रतिदिन नियत (निश्चित) घर से ही गोचरी न लेनी चाहिए किन्तु मधुकरी वृत्ति से अनियत घरों से गोचरी करनी चाहिए।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ३१३ (८) मृग (हरिण)-जिस प्रकार सिंह को देख कर मृग भाग जाता है, एक क्षण भर भी वहाँ नहीं ठहरता, उसी प्रकार साधु को पाप कार्यों से सदा डरते रहना चाहिए । पापस्थानों पर उसे एक क्षण भर भी न ठहरना चाहिए।
(8) पृथ्वी-जिस प्रकार पृथ्वी शीत, ताप, छेदन, मेदन आदि सब कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करती है, उमी प्रकार साधु को सव परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए । जिस प्रकार पृथ्वी अपने अपकारी और उपकारी तथा मले और बुरे सभी को समान रूप से श्राश्रय देती है, इसी प्रकार साधु को चाहिए कि वह अपने उपकारी और अपकारी तथा अपनी निन्दा करने वाले और प्रशंसा करने वाले सभी को समान भाव से शान्ति मार्ग का उपदेश दे, किसी पर राग द्वेष न करे । शत्रु मित्र पर समभाव रखता हुआ सहिष्णु वने।
(१०) जलरुह (कमल)-कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है और जल से वृद्धि पाता है, किन्तु वह कीचड़ और जल से लिप्त न होता हुआ जल से ऊपर रहता है। इसी प्रकार साधु को चाहिए कि इस शरीर की उत्पत्ति और वृद्धि काम और भोगों से होने पर भी वह कामभोगों में लिप्तन होता हुआ सदा इनसे दूर रहे । कामभोगों को संसार वृद्धि का कारण जान कर साधु इनका सर्वथा त्याग कर दे।
(११) रवि (सूर्य)-जैसे सूर्य अपने प्रकाश से अन्धकार का नाश कर संसार के पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार साधु जीवाजीवादि नव तत्वों का स्वयं ज्ञाता बने और धर्मोपदेश द्वारा भव्य जीवों के अज्ञानान्धकार को दूर कर उन्हें नौ तत्वों का यथार्थ स्वरूप समझा कर मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त करे।
(१२) पवन (वायु)-वायु की गति प्रतिबद्ध होती है अर्थात्
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
वायु अपनी इच्छानुसार पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण किसी भी दिशा में बहती है, उसी प्रकार साधु अप्रतिबद्ध विहारी होवे अर्थात् साधु किसी गृहस्थादि के प्रतिबन्ध में बंधा हुआ न रहे किन्तु अपनी इच्छानुसार ग्राम, नगर आदि में विहार करे और धर्मोपदेश द्वारा जनता को कल्याण का मार्ग बतलावे ।
( अनुयोग द्वार, सूत्र १५० गाथा १२७ -- १३२ )
८०६ - सापेक्ष यतिधर्म के बारह विशेषण
स्थविर कल्प धर्म सापेचयविधर्म कहलाता है। इस धर्म को अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति का गृहस्थों के साथ सम्पर्क रहता है, इस लिए यह सामेच यतिधर्म कहलाता है । इसे अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति में निम्न लिखित बारह बातों के होने से वह प्रशस्त माना जाता है। वे बारह बातें ये हैं
(१) कल्याणाशय - सापेक्ष यतिधर्म को अङ्गीकार करने वाले व्यक्ति का आशय कल्याणकारी होना चाहिए । उसका आशय केवल मुक्ति रूप नगर को प्राप्त करने का होना चाहिए ।
(२) तरल महोदधि - सापेक्ष यतिधर्म के धारक व्यक्ति को अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए। शास्त्रों का ज्ञाता मुनि ही धर्मोपदेश द्वारा लोगों का उपकार कर सकता है । बहुश्रुत ज्ञानी साधु सर्वत्र पूज्य होता है । उत्तराध्ययन सूत्र के ग्यारहवें अध्ययन में बहुश्र ुत ज्ञानी को सोलह श्रेष्ठ उपमाएं दी गई हैं ।
(३) उपशमादि लब्धिमान् - साधु के क्रोध, मान, माया, लोभ यदि कषाय उपशान्त होने चाहिएं। क्रोधादि के वशीभूत हो जाने से साधु के श्रात्मिक गुणों का हास होता है।
(४) परहितोधत - साधु छः काया का रक्षक कहा जाता है । उसे मन, वचन और काया से किसी भी प्राणी की हिंसा स्वयं न करनी चाहिए, न करानी चाहिए और हिंसा करने वाले का अनु
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
३१५
मोदन मी न करना चाहिए । यथाकल्प साधु को सब जीवों के हित साधन और रक्षा के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए ।
( ५ ) अत्यन्त गम्भीर चेता- संयम धर्म का पालन करते हुए साधु को अनेक प्रकार से अनुकूल और प्रतिकूल परीषह उत्पन्न होते हैं। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में हर्ष विषाद न करते हुए चित में किसी प्रकार का विकार पैदा न होने देना साधु का परम धर्म है । साधु को अत्यन्त गम्भीर चित्त वाला और शान्त 1 होना चाहिए ।
(६) प्रधान परिणति - सांसारिक अन्य सब कंझटों को छोड़ कर श्रात्मभाव में लीन रहना साधु के लिए प्रशस्त कार्य है । (७) विधुतमोह - मोह एवं राग भाव से निवृत होकर साधु को संयम मार्ग में दत्तचित्त रहना चाहिए ।
1
(८) परम सत्त्वार्थ कर्चा - साधु को मोक्ष प्राप्ति के साधनभूत सम्यक्त्व में दृढ़ श्रद्धा वाला होना चाहिए ।
(६) सामायिकवान् - साधु में मध्यस्थभाव का होना परमावश्यक है । शत्रु और मित्र, स्वजन या परजन सभी पर उसे समभाव रखना चाहिए । समभाव का होना ही सामायिक है । साधु के यावजीव की सामायिक होती है। इस लिए समता भाव के धारण करने से ही साधु की सामायिक सार्थक होती है ।
(१०) विशुद्धाशय - जिस प्रकार चन्द्रमा का प्रकाश स्वच्छ और निर्मल होता है, उसी प्रकार साधु का आशय विशुद्ध एवं निर्मल होना चाहिए ।
(११) यथोचित प्रवृत्ति - साधु को अवसरज्ञ होना चाहिए अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव देख कर प्रवृत्ति करनी चाहिए। इसके विपरीत प्रवृत्ति करने से संयम धर्म में बाधा पहुँचती है और लोक में निन्दा भी होती है।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६
श्री सेठिया जैन प्रन्माला
(१२) सात्मीभूत शुभ योग-जिस प्रकार लोहे के गोले को अग्नि में तपाने पर अग्नि उसके अन्दर प्रवेश कर जाती है और लोहे के साथ अनि एकरूप हो जाती है, उसी तरह साधु को शुभ योगों के साथ एकरूप हो जाना चाहिए। साधु की प्रवृत्ति सदा शुभ योगों में ही होनी चाहिए। उपरोक्त वारह गुण सम्पन्न साधु प्रशस्त गिना जाता है
(धर्मबिन्दु प्रकरण, सूत्र ३६६) ८०७-कायोत्सर्ग के आगार बारह
सांसारिक प्राणियों को गमनागमनादि क्रियाओं से पाप का बन्ध होता है, इसी कारण श्रात्मा मलिन हो जाती है। उसकी शुद्धि के लिए तथा परिणामों को पूर्ण शुद्ध और अधिक निर्मल बनाने के लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। परिणामों की विशुद्धि के सिवाय पात्मशुद्धि हो नहीं सकती। परिणामों की विशुद्धता के लिये माया (कपट), निदान (फल कामना) और मिथ्यात्व (कदाग्रह) रूप तीन शल्यों का त्याग करना जरूरी है। शन्यों का त्याग और अन्य सब पापकर्मों का नाश कायोत्सर्ग से ही हो सकता है। शरीर के ममत्व को त्याग कर निश्चित समय के लिए निश्चलता पूर्वक ध्यान करना काउसग्ग (कायोत्सर्ग) कहलाता है। इसके बारह आगार हैं
(१) ऊससिएणं-उच्छास (ऊंचा श्वास) लेना। (२)नीससिएणं-निश्वास अर्थात् श्वास को बाहर निकालना। (३) खासिएणं-खांसी आना। (४)छीएणं-छींक आना। (५) जमाइएगां-जमुहाई (उवासी) श्रीना। (६) उड्डएणं-डकार पाना । (७) वायनिसग्गेणं-अपान वायु (अधो वायु) का सरना।
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१७
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग (८) भमलिए- चक्कर आना अर्थात् सिर का घूमना । (8) पित्तमुच्छाए-पित्त के विकार से मूर्छा आना। (१०) सुहुमेहि अङ्ग संचालेहि-शरीर का सूक्ष्म हलन चलन । (११) सुहुमेहि खेल संचालेहि--कफ, थूक आदि का सूक्ष्म संचार होना या नाक का झरना। (१२) सुहुमेहिं दिहि संचालेहि-दृष्टि का सूक्ष्म संचलन ।
उपरोक्त बारह प्रागार तथा इनके सदृश अन्य क्रियाएं जो स्वयमेव हुआ करती हैं और जिन क्रियाओं के रोकने से शरीर में रोगादि होने की तथा अशान्ति पैदा होने की सम्भावना रहती है। उनके
होते रहने पर भी कायोत्सर्गभन (अखण्डित) रहता है। इनके . सिवाय दूसरी क्रियाएं जो आप हो,आप नहीं होती, जिनका रोकना
अपनी इच्छा के अधीन है उन क्रियाओं को कायोत्सर्ग के समय नहीं करना चाहिए अर्थात् अपवाद भूत क्रियाओं के सिवाय अन्य कोई भी क्रिया न करनी चाहिए।
इन चारह आगारों के वाद आदि शब्द दिया है। आदि शब्द से नीचे लिखे चार आगार हरिभद्रीयावश्यक कायोत्सर्गाध्ययन गाथा १५१६ में और दिये गये हैं
अगणीभोछिदिल्लवबोहिय खोभाइ दीहडक्कोवा। श्रागारहिं अभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं॥ अर्थात् -(१) आग आदि के उपद्रव से दूसरी जगह जाना (२) बिल्ली चूहे आदि का उपद्रव या किसी पञ्चेन्द्रिय जीव के छेदन भेदन होने के कारण अन्य स्थान में जाना (३) अस्मात् डकैती पड़ने या राजा आदि के सताने से स्थान वदलना (४) सिह आदि के भय से, साँप, विच्छू आदि विले जन्तुओं के डंक से या दिवाल शादि गिर पड़ने की शङ्का से दूसरे स्थान पर जाना।
कायोत्सर्ग करने के समय उपरोक्त श्रागार इसलिये रखे
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
जाते हैं कि सब जीवों की शक्ति एक सरीखी नहीं होती । जो कम ताकत या डरपोक हैं वे ऐसे मौके पर इतने घबरा जाते हैं कि धर्मध्यान के बदले श्रध्यान करने लग जाते हैं। ऐसे अधिकारियों की अपेक्षा आगारों का रखा जाना आवश्यक है | आगार । रखने में अधिकारी मेद ही मुख्य कारण है ।
( श्रावश्यक कायोत्सर्गाध्ययन )
बारह
I
८०८ - कल्पोपपन्न देव वैमानिक देवों के दो भेद हैं- कल्पोपपन और कल्पातीव । कल्प का अर्थ है मर्यादा । जिन देवों में इन्द्र, सामानिक आदि की मर्यादा बंधी हुई है, उन्हें कल्पोपपन्न कहते हैं। जिन देवों में छोटे बड़े का भाव नहीं है, सभी अहमिन्द्र हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। समुदान, सन्निवेश (गांव) या विमान जितनी फैली हुई पृथ्वी को कल्प कहते हैं, कल्प का अर्थ है आचार, जिन देवों में इन्द्र, सामानिक श्रादि की व्यवस्था रूप आचार है, उन्हें कल्पोपपन्न कहते हैं । इनके बारह भेद हैं
(१) सौधर्म देवलोक (२) ईशान देवलोक (३) सनत्कुमार देवलोक (४) माहेन्द्र देवलोक ( ५ ) ब्रह्म देवलोक (६) लान्तक देवलोक (७) महाशुक्र देवलोक (८) सहस्रार देवलोक ( 8 ) आणत देवलोक (१०) प्राणत देवलोक (११) आरण देवलोक (१२) अच्युत देवलोक । इन सौधर्मादि विमानों में वैमानिक देव रहते हैं ।
रत्नप्रभा के समतल भाग से १|| राजू की ऊँचाई पर सौधर्म और ईशान देवलोक हैं | २|| राजू पर सनत्कुमार और माहेन्द्र | ३| राज् पर ब्रह्म देवलोक । ३॥ राजू पर लान्तक | ३ ||| राजू पर महाशुक्र । ४ राजू पर सहस्रार | ४ || राजू पर श्राखत और प्राणत । ५ राजू पर चारण और अच्युत देवलोक हैं । ७ राजू को ऊँचाई पर लोक का अन्त है । ये धावास तारामण्डल या चन्द्रमण्ड यदि ज्योतिषी विमानों
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग ३१६ के ऊपर कई करोड़, कई लाख, कई हजार, कई सौ योजन दूरी पर हैं। बारह देवलोकों के विमान ८४६६७०० हैं। सौधर्म से सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त सब देवलोकों के विमान ८४९७०२३ हैं। सभी विमान रत्नों के बने हुए, स्वच्छ, कोमल, स्निग्ध, घिसे हुए, साफ किए हुए रज रहित, निर्मल, निष्पंक, विना आवरण की दीप्ति वाले, प्रभा सहित, शोभासहित, उद्योतसहित, प्रसन्नता देने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। इनमें सौधर्म देव रहते हैं। सौधर्म देवलोक के देवताओं के मुकुट में मृग का चिह्न रहता है। ईशान में महिप (भैंसा)। सनत्कुमार में वराह (सुन्धर)। माहेन्द्र में सिंह । 'ब्रह्म देवलोक में चकरा | लान्तक में मेंढक । महाशुक्र में घोड़ा। सहस्रार में हाथी । आणत में भुजंग(सर्प) प्राणत में मेंढा | पारण में चैल । अच्युत में विडिम (एक प्रकार का मृग)। इस प्रकार के मुकुटों को धारण करने वाले, उत्तम कुण्डलों से जाज्वल्यमान मुख वाले, मुकुटों की शोभा को चारों तरफ फैलाने वाले, लाल प्रभा चाले. पन की तरह गौर, शुभवर्ण,शुभ गन्ध और शुभ स्पर्श वाले, उत्तम चैक्रिय शरीर वाले, श्रेष्ठ वस्त्र, गन्ध, माला और विलेपन को धारण करने वाले, महाऋद्ध वाले देव उन विमानों में रहते हैं।
(१) सौधर्म देवलोक-मेरु पर्वत के दक्षिण की ओर रनप्रभा के समतल भाग से असंख्यात योजन ऊपर अर्थात् शाराजू परिमाण क्षेत्र में सौधर्म नाम का देव नोक पाता है। वह पूर्व से पश्चिम लम्बा तथा उत्तर से दक्षिण चौड़ा है। अर्धचन्द्र की आकृति वाला है। किरणमाला अथवा कान्तिपुञ्ज के समान प्रभा वाला है । असंख्यात कोड़ाकोडी योजन लम्बा तथा विस्तृत है। उसकी परिधि असंख्यात योजन है। सारा रनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है। उन में सौधर्म देवों के ३२ लाख विमान हैं। वे विमान भी रत्नमय तथा स्वच्छ प्रभा वाले हैं। उन विमानों में पाँच अवतंसक अर्थात् मुख्य विमान
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२० श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला हैं। पूर्व दिशा में अशोकावतंसक, दक्षिण में सप्तपर्णावतंसक, पश्चिम में चम्पकावतंसक और उत्तर में चूतावतंसक । सब के बीच में सौधर्मावतंसक है। वे सभी अवतंसक रत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। यहीं पर्याप्त तथा अपर्याप्त सौधर्म देवों के स्थान हैं। उपपात, समुद्घात
और स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्याता भाग में हैं। वहीं सौधर्म देव रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले यावत् स्वच्छ प्रभा वाले हैं। सौधर्म दैवलोक का इन्द्र, वहाँ रहे हुए लाखों विमान, हजारों सामानिक, त्रायस्त्रिंश, सामान्य देव यावत् आत्मरक्षक देवों के अतिरिक्ष बहुत से वैमानिक देव तथा देवियों का स्वामी है। सौधर्म देवलोक का राजा शक है। वह हाथ में वज्र धारण किए रहता है। वही पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन और लोक के दक्षिणार्ध का स्वामी है । वह बत्तीस लाख विमानों का अधिपति, ऐरावण वाहन वाला, देवों का इन्द्र, आकाश के समान निर्मल वस्त्रों को धारण करने वाला, माला और मुकुट पहने हुए, नए सुवर्ण केसमान सुन्दर, अद्भुत और चञ्चल कुण्डलों से सुशोभित, महाऋद्धि से सम्पन्न, दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला, ३२ लाख विमान, चौरासी हजार सामानिक देव, तेतीस गुरुस्थानीय त्रायस्त्रिंश देव, चार लोकपाल, दास दासी आदि परिवार के साथ ।
आठ अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों (सेनाओं), सात अनीकाधिपतियों और तीन लाख छत्तीस हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा बहुत से दूसरे वैमानिक देवों और देवियों का अधिपति है। । (२) ईशान देवलोक-रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूभाग से बहुत ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रों से बहुत ऊपर जाने पर मेरु पर्वत के उत्तर में ईशानकल्प है । वह पूर्व से पश्चिम लम्बा और उत्तर से दक्षिण चौड़ा है, असंख्यात योजन विस्तीर्ण है, इत्यादि सारी बातें सौधर्म देवलोक सरीखी जाननी चाहिएं । इस में २८
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग लाख विमान हैं। उनके मध्य भाग में पॉच अवतंसक हैं-अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक, जातरूपावतंसक और मध्य में ईशानावतंसक । यहाँ ईशान नाम का देवेन्द्र है। वह हाथ में शूल धारण करता है। इसका वाहन वृषम है। वह लोक के उत्तरीय प्राधे माग का अधिपति है।
ईशानेन्द्र अठाईस लाख विमान, अस्सी हजार सामानिक देव, तेतीस त्रायस्त्रिंश देव, चार लोकपाल, परिवार सहित आठ मनमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात प्रकार की सेना, सात सेनाधिपतियों, तीन लाख बीस हजार प्रात्मरक्षकों तथा दूसरे बहुत से देवी देवताओं का स्वामी है.।।
(३) सनत्कुमार देवलोक-सौधर्ष देवलोक से असंख्यात हजार योजन ऊपर सनत्कुमार देवलोक है। लम्बाई, चौड़ाई, आकार आदि में सौधम देवलोक के समान है। वह पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर दक्षिण चौड़ा है। वहाँ सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान हैं। बीच में पॉच अवतंसक है- अशोकावतंसक, सप्ताणवतंसक, चंपकावतंसक, चूतावतंसक और मध्य भाग में सनत्कुमारावतंसक । वे अवतंसक रनमय, स्वच्छ थावत् अतिरूप हैं। वहाँ बहुत देव रहते हैं। सभी विशाल ऋद्धि वाले यावद दसों दिशाओं को सुशोमित करने वाले हैं। वहाँ अग्रमहिषियाँ नहीं होती। वहाँ देवों का इन्द्र देवराज सनत्कुमार है। वह रन रहित
आकाश के समान शुन्न वस्त्रों को धारण करता है। उसके बारह लाख विमान, बहत्तर हजार सामानिक देव आदि शवेन्द्र की तरह जानने चाहिएं । केवल वहाँ पर अग्रमहिषियाँ नहीं होतीं तथा दो लाख अट्ठासी हजार आत्मरक्षक देव होते हैं।
(१)माहेन्द्र कल्प देवलोक-ईशान देवलोक से कई कोडाकोड़ी योजन ऊपर माहेन्द्र कल्प है। वह पूर्व पश्चिम लम्बा है और उसर
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
दक्षिण चौड़ा है। उसमें आठ लाख विमान हैं। मध्य में माहेन्द्रावतंसक है। बाकी चार अवतंसक ईशान कल्प के समान हैं । वहाँ माहेन्द्र नामक देवेन्द्र है । वह आठ लाख विमान, सचर हजार सामानिक देव तथा २८०००० अंगरक्षक देवों का स्वामी है। बाकी सब सनत्कुमार की तरह जानना चाहिए ।
(५) ब्रह्म देवलोक - सनत्कुमार और माहेन्द्र के ऊपर असंख्यात योजन जाने पर ब्रह्म नाम का देवलोक आता है । वह पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर दक्षिण चौड़ा है। पूर्ण चन्द्र के आकार वाला है । किरण माला या कान्तिपुन की तरह दीप्त है । इसमें चार लाख विमान हैं । अवतंसक सौधर्म कल्प के समान हैं, केवल बीच में ब्रह्मलोकावतंसक है । वहाँ ब्रह्म नामक देवों का इन्द्र रहता है । वह चार लाख विमान, साठ हजार सामानिक देव, २४०००० अंगरक्षक तथा दूसरे बहुत से देवों का अधिपति है |
(६) लान्तक देवलोक - ब्रह्म लोक से असंख्यात योजन ऊपर उसी के समान लम्बाई, चौड़ाई तथा श्राकार वाला लान्तक देवलोक है। वहाँ पचास हजार विमान हैं । अवर्तक ईशान कल्प के समान हैं। मध्य में लान्तक नाम का अवतंसक है। वहाँ लान्तक नामक देवों का इन्द्र है । वह पचास हजार विमान, पचास हजार सामानिक, दो लाख आत्मरक्षक तथा दूसरे बहुत से देवों का स्वामी है।
(७) महाशुक्र - लान्तक कल्प के ऊपर उसी के समान लम्बाई चौड़ाई तथा आकार वाला महाशुक्र देवलोक है। वहाँ चालीस हजार विमान हैं। मध्य में महाशुक्रावतंसक है। बाकी चार अवतंसक सौधर्मावतंसकों के समान जानने चाहिएं। इन्द्र का नाम महाशुक्र
J
। वह चालीस हजार विमान, चालीस हजार सामानिक देव, एक लाख सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा दूसरे बहुत से देवों का अधिपति है ।
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला श्राभ्यन्तर पदा में छह हजार देव हैं। मध्यम में आठ हजार और बाह्य में दस हजार । स्थिति सनत्कुमार के समान है। ब्रह्मदेवलोक की प्राभ्यन्तर पर्षदा में चारमध्यम में छह और बाह्य में आठ हजार देव हैं । आभ्यन्तर में साढ़े आठ सागरोपम और पाँच पल्योपम, मध्यम में साढ़े आठ सागरोपम और चार पन्योपम, वाह्य में साढ़े पाठ सागरोपम और तीन पल्योपम की स्थिति है। लान्तक कल्प की प्राभ्यन्तर पर्षदा में दो हजार, मध्यम में चार हजार और बाह्य पर्षदा में छह हजार देव हैं। प्राभ्यन्तर में बारह
सागरोपम और सात पन्योपम, मध्यम में बारह सागरोपम और . छह पल्योपम तथा बाह्य में बारह सागरोपम और पाँच पल्योपम
की स्थिति है । महाशुक्र कल्प की पाभ्यन्तर पर्षदा में एक हजार, मध्यम में दो हजार और पाय में चार हजार देव हैं। आभ्यन्तर में साढ़े पन्द्रह सागरोपम और पाँच पल्योपम, मध्यम में साढ़े पन्द्रह सागरोपम और चार पन्योपा और बाह्य में साढ़े पन्द्रह सागरोपम तथा तीन पल्योपम की स्थिति है । सहस्रार कल्प की आभ्यन्तर पर्षदा में पाँच सौ, मध्यम में एक हजार तथा बाह्य में दो हजार देव हैं। आभ्यन्तर में साढ़े सतरह सागरोपम तथा सात पल्योपम, मध्यम में साढ़े सतरह सागरोपम तथा छह पल्योपम, बाह्य में साढ़े 'सतरह सागरोपम तथा पाँच पल्योपम की स्थिति है। प्राणत और प्राणत देवलोकों की प्राभ्यन्तर पर्षदा में ढाई सौ, मध्यम में पॉच सौ और पाह्य में एक हजार देव हैं। आभ्यन्तर में साढ़े अठारह सागरोपम और पाँच पल्योपम, मध्यम में साढ़े अठारह सागरोपम
और चार पन्योपम तथा बाह्य में साढ़े अठारह सागरोपम और तीन पन्योपम की स्थिति है। प्रारण और अच्युत देवलोक की श्राभ्यन्तर पर्षदा में सवा सौं, ध्यम में ढाई सौ और वाह्य में पाँच सौ देव हैं। आभ्यन्तर पर्षदा में इकीस सागरोपम और सात
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा माग ३२७ पल्योपम, मध्यम में इक्कीस सागरोपम और छह पन्योपम, वाह्य में इक्कीस सागरोपम और पाँच पल्योपम की स्थिति है।
(जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ वैमानिकाधिकार, सूत्र २०८) सौधर्म और ईशान कल्पों में विमान घनोदधि पर ठहरे हुए हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में धनबात पर । लान्तक में दोनों पर । महाशुक्र और सहस्रार में भी दोनों पर । आणत, प्राणत, श्रारण और अच्युत में आकाश पर।
मोटाई और ऊँचाई-सौधर्म और ईशान कल्प में विमानों की मोटाई सचाईस सौ योजनं और ऊँचाई पाँच सौ योजन की है अर्थात् महल ५०० योजन ऊंचे हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में मोटाई छब्बीस सौ तथा ऊँचाई छह सौ योजन की है। ब्रह्म
और लान्तक में मोटाई पच्चीस सौ योजन और ऊँचाई सात सौ योजन की है। महाशुक्र और सहस्रार कन्प में मोटाई चौबीस सौ
और ऊँचाई आठ सौ योजन है । आणत, प्राणत, पारण और अच्युतं देवलोक में मोटाई तेईस सौ योजन और ऊँचाई नौ सौ योजन है।
संस्थान-सौधर्मादि कन्यों में विमान दो तरह के हैं-श्रावलिकाप्रविष्ट और पावलिका वाह्य । आवलिका प्रविष्ट तीन संस्थानों वाले हैं। वृत्त (गोल), व्यत्र (त्रिकोण) और चतुरन (चार कोण वाले) पावलिका वाह्य अनेक संस्थानों वाले हैं।
विस्तार-इनमें से बहुत से विमान संख्यात योजन विस्तृत है, बहुत से असंख्यात योजन । संख्यात योजन विस्तार वाले विमान जघन्य जम्बूद्वीप जितने बड़े हैं । मध्यम ढाई द्वीप जितने बड़े हैं और उत्कृष्ट असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं।
वर्ण-सौधर्म और ईशान कम्प में विमान पाँचों रंग वाले हैंकाले, नीले, लाल, पीले और सफेद । सनत्कुमार और माहेन्द्र
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८
श्री सेठिया जैन प्रन्थसाला कल्प में काले नहीं है। ब्रह्मलोक और लान्तक में काले और नीले नहीं हैं । महाशुक्र और सहसार देवलोक में पीले और सफेद दो ही रंगों वाले हैं। प्राणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक में सफेद हैं। सभी विमान नित्यालोक, नित्य उद्योत तथा स्वयं प्रभा वाले हैं। मनुष्य लोक में गुलाव, चमेली, चम्पा, मालती
आदि सभी फूलों की गन्ध से भी उन विमानों की गन्ध बहुत उत्तम है। रूई, मक्खन आदि कोमल स्पर्श वाली सभी वस्तुओं से उन विमानों का स्पर्श बहुत अधिक कोमल है। जो देव एक लाख योजन लम्बे तथा एक लाख योजन चौड़े जम्बूद्वीप की इक्कीस प्रदक्षिणाएं तीन चुटकियों में कर सकता है वह अगर उसी गति से सौधर्म और ईशान कल्प के विमानों को पार करने लगे तो कर महीनों में किसी को पार कर सकेगा, किसी को नहीं । वे सभी विमान रत्नों के बने हुए हैं। पृथ्वीकाय के रूप में विमानों के जीव उत्पन्न होते तथा मरते रहते हैं किन्तु विमान शाश्वत हैं। । गतागत- देव गति से चव कर जीव मनुष्य या तिर्यञ्च रूप में उत्पन्न होता है, नरक में नहीं जाता । इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यच ही देवगति में जा साते हैं, नारकी जीव नहीं । तिर्यञ्च पाठ देवलोक सहस्रार कल्प से आगे नहीं जा सकते।
सहस्रार कल्प तक देवलोक में एक समय एक, दो, तीन, संख्यात या असंख्यात तक जीव उपक हो सकते हैं। प्राणत, प्राणत, पारण
और अच्युत में जघन्य एक, दो तथा उत्कृष्ट संख्यात ही उत्पन्न हो सकते हैं, असंख्यात नहीं, क्योंकि आणत श्रादि देवलोकों में मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं और मनुष्यों की संख्या संख्यात है।
संख्या-यदि प्रत्येक समय असंख्यात देवों का अपहार हो तो सौधर्म और ईशान कल्प को खाली होने में असंख्यात उत्स. पिणी तथा अवसर्पिणी काल लग जाय । इसी प्रकार सहसार कन्प
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग - ३२१ तक नानना चाहिए । सूक्ष्म क्षेत्र पन्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, आणत प्राणत, पारण और अच्युत देवलोक में उतने देव हैं।
अवगाहना-देवों की अवगाहना दो तरह की है- भवधार -पीया और उत्तर वैक्रिया । सौधर्म और ईशान देवलोक में भवधारणीया अवगाहनाजघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग, उत्कृष्ट सात रनियाँ (मुंड हाथ) हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र में छा, ब्रह्मलोक
और लान्तक में पॉच, महाशुक्र और सहस्रार में चार, प्राणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक में तीन । उत्तर वैक्रिया अव गाहना सभी देवलोकों में जघन्य अंगुल का संख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन है।
संहनन-हड्डियों की रचना विशेष को संहनन कहते हैं। देवों का शरीर क्रियक होने के कारण का संहननों में से उनके कोई संहनन नहीं होता । संसार में जो पुद्गल इट, कान्त, मनोज्ञ, प्रिय तथा श्रेष्ठ है, वे ही उनके संहनन या संघात रूप में परिणत होते हैं।
संस्थान- सौधर्म, ईशान आदि देवलोकों में भवधारणीय समचतुरस्त्र संस्थान होता है । उचर विक्रिया के कारण वहाँ संस्थान हो सकते हैं, क्योंकि वे अपनी इच्छानुसार रूप बना सकते हैं।
वर्ण-सौधर्म और ईशान कल्प में देवों के शरीर का वर्ण तपे हुए सोने के समान होता है। सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पलकेसर के समान गौर । उसके पश्चात् आगे के देवलोकों में उत्तरोतर अधिकाधिक शुक्ल वर्ण होता है।
स्पर्श- उनका स्पर्श स्थिर, मृदु और स्निग्ध होता है। उच्छवास-संसार में जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन को प्रीति करने वाले हैं वे ही उनके श्वासोच्छवास के रूप में परिणव होते हैं।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०
श्री सेठिया जेन प्रन्थमाला
लेश्या - सौधर्म और ईशान कल्प में मुख्य रूप से तेजोलेश्या रहती है । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या । लान्तक से अच्युत देवलोक तक शुक्ल लेश्या
I
दृष्टि - सौधर्म आदि चारों देवलोकों में सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि तीनों प्रकार के देव होते हैं ।
/
ARAN
ज्ञान- सौधर्म आदि कल्पों में सम्यग्दृष्टि देवों के तीन ज्ञान होते हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान । मिध्यादृष्टि देवों के तीन अज्ञान होते हैं- मत्यज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग ज्ञान । अवधि ज्ञान - सौधर्म और ईशान कल्प में जघन्य अवधि ज्ञान अंगुल का असंख्यातवाँ भाग होता है ।
शङ्का - अङ्गुल के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र परिमाण वाला अवधिज्ञान सब से जघन्य है । सर्वजघन्य अवधि ज्ञान मनुष्य और तिर्यश्चों में ही होता है । देव और नारकी जीवों में नहीं । इस लिए देवों में अंगुल के श्रसंख्यातवें भाग रूप सर्वजधन्य अवधि ज्ञान का बताना ठीक नहीं है ।
समाधान- उपपात अर्थात् जन्म के समय देवों के पूर्वभव का वधि ज्ञान रहता है। ऐसी दशा में किसी जघन्य अवधि ज्ञान वाले मनुष्य या विर्यश्व के देव रूप में उत्पन्न होते समय जघन्य अवधि ज्ञान हो सकता है ।
सौधर्म और ईशान में उत्कृष्ट अवधिज्ञान नीचे रत्नप्रभा के अधोभाग तक, मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और समुद्रों तक तथा ऊर्ध्वलोक में अपने विमान के शिखर तक होता है। ऊपर तथा मध्यभाग में सभी देवलोकों में अवधिज्ञान इसी प्रकार होता है। नीचे सनत् - कुमार और माहेन्द्र कल्प में दूसरी पृथ्वी के अधोभाग तक । ब्रह्मलोक और लान्तक में तीसरी पृथ्वी के अधोभाग तक । शुक्र और सहखार कल्प में चौथी तक । श्राथत, प्राणत, चारण और अच्युत कल्पों
।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३३१ में पाँचवी तक । इसके लिए नीचे लिखी गाथाएं उपयोगी है. सकीसाणा पढम,दोचं य सणकुमार माहिंदा। तचं य बंभलंतग, सुषसहस्सारग चउत्थी॥
आणयपाणयकप्पे देवा,पासंति पंचमि पुढवीं। तं चेव आरणच्चुय, ओहिनाणेण पासंति॥
समुद्घात-सौधर्म ईशान आदि धारहों कल्पों में देवों के पाँच समुद्घात होते हैं-वेदनीय समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात और तैजस समुद्घात ।
नुघा और पिपासा-सौधर्म आदि देवलोकों के देव नुधा और प्यास का अनुभव नहीं करते हैं।
विकुर्वणा-सौधर्म आदि देव एक, अनेक, संख्यात, असंख्यात अपने सदृश तथा विसदृश, सब प्रकार की विकुर्वणाएं कर सकते हैं। अनेक प्रकार की विकुणाएं करते हुए वे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सब प्रकार के रूप धारण कर सकते हैं।
साता(सुख)-सौधर्म धादि कल्पों में मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ स्पर्श, पावत् सभी विपय मनोज्ञ और साताकारी हैं। ऋद्धि-सौधर्म आदि सभी देव महा ऋद्धि वाले होते हैं।
वेशभूषा-सौधर्म ईशान आदि देवों की वेशभूषा दो प्रकार की होती है-भवधारणीया और उत्तर विक्रिया रूप । भवधारणीया वेशभूषा श्राभरण और वस्त्रों से रहित होती है। उसमें कोई भी वाह्य उपाधि नहीं होती । उत्तर विक्रिया रूप वेशभूषा नीचे लिखे अनुसार होती है-उनका वक्षस्थल हार से सुशोभित होता है। वे विविध प्रकार के दिव्य आभूषणों से सुशोभित होते हैं । यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। देवियाँ सोने की झालरों से सुशोमित वस्त्र पहिनती हैं। विविध प्रकार के रत्नजटित नूपुर बथा दूसरे आभूषण पहिनती हैं। चाँदनी के समान शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं।
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला कामभोग-सौधर्मादिकल्पों में देव इष्ट शब्द, इष्ट रूप, इष्ट स्पर्श श्रादि सभी मनोज्ञ कामभोगों को भोगते हैं।
(ोवाभिगम प्रतिपत्ति ३ उद्देशा २, सूत्र २०७-२२३) उपपात विरह और उद्वर्तना विरह-सौधर्म और ईशान कल्प में उपपात विरह काल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट २४ मुहूर्त है अर्थात् चौवीस मुहूर्त में वहाँ कोई न कोई जीव पाकर अवश्य उत्पन्न होता है। सनत्कुमार में उत्कृष्ट नौ दिन और वीस मुहूर्त । माहेन्द्र में बारह दिन और दस मुहूर्त । ब्रह्मलोक में साढ़े वाईस दिन । लान्तक में पैंतालीस दिन । महाशुक्र में अस्सी दिन । सहसार में सौ दिन । प्राणत और प्राणत में संख्यात मास । इन में प्राणत की अपेक्षा प्राणव में अधिक जानने चाहिएं किन्तु वे एक वर्ष से कम ही रहते हैं। पारण और अच्युत में संख्यात वर्ष । पारण की अपेक्षा अच्युत में अधिक वर्ष जानने चाहिएं किन्तु वे सौ वर्ष से कम ही रहते हैं। जघन्य सभी में एक समय है।
देव गति से चव कर जीवों का दूसरी गति में उत्पन्न होना उदतना है । उद्वर्तना का विरह काल भी उपपात जितना ही है।
गतागत-सामान्य रूप से देवलोक से चवा हुआ जीव पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय तथा गर्मज पयोप्त और संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य या तिर्यञ्चों में ही उत्पन्न होता है। वह तेउकाय, वायुकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय,चौरिन्द्रिय सम्मृच्छिम, अपर्याप्त या असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यश्च और मनुष्यों में, देवलोक में तथा नरक में उत्पन्न नहीं होता। पृथ्वीकाय, अष्काय और वनस्पतिकाय में भी बादर तथा पर्याप्त रूप से ही उत्पन्न होता है। सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, साधारण वनस्पतिकाय तथा अपर्याप्त पृथ्वी आदि में उत्पन नहीं होता। सौधर्म और ईशान कल्प तक के देव ही पृथ्वीकाय आदि में उत्पन्न होते हैं । सनत्
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३३
। श्री सेठिया जैन प्रन्माला कुमार से सहस्रार कल्प तक के देव पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्यों में ही उत्पन होते हैं। आणत से लेकर ऊपर के देव मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं।
मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ही देवलोक में उत्पन्न होते हैं, नारकी, देवता या एकेन्द्रिय आदि नहीं हो सकते। तिर्यश्च भी पाठवें देवलोक सहस्रार कल्प तक जा सकते हैं अगे नहीं। (पनवणा ६ व्युत्क्रान्ति पद) (प्रवचन सरोद्धार द्वार १९९-२००)
भावान्तर मेद सौधर्म कल्प से लेकर अच्युत देवलोक तक देवों के दरजे अथवा पद की अपेक्षा दस भेद हैं-(१) इन्द्र (२) सामानिक (३)पायनिश (४) पारिपन (५) आत्मरक्षक (६) लोकपाल (७) अनीक (८) प्रकीर्णक (8) भाभियोग्य (१०) किल्विषिक ।
प्रवीचार-दूसरे ईशान देवलोक तक के देव मनुष्यों की तरह प्रवीचार (मैथुन सेचन) करते हैं। तीसरे देवलोक सनत्कुमार से लेकर आगे के वैमानिक देव मनुष्यों की तरह सर्वांग स्पर्श द्वारा काम सुख नहीं भोगते, वे मिन्न भिन्न प्रकार से विषय सुख का अनुभव करते हैं। तीसरे और चौथे देवलोक में देवियों के स्पर्श मात्र से काम तृष्णा की शान्ति कर लेते हैं और सुख का अनुभव करते हैं। पाँचवे और छठे देवलोक के देव केवल देवियों के सुसजित रूप को देख कर तृप्त हो जाते हैं। सातवें और आठवें देवलोक में देवों की कामवासना देवियों के मधुर शब्द सुनने मात्र से शान्त हो जाती है और उन्हें विषय सुख के अनुभव का आनन्द मिलता है। नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारह देवलोक में देवियों के चिन्तन मात्र से विषय सुख की वृप्ति हो जाती है। इसके लिए इन्हें देवियों फोछूने,देखने या उनका स्वर सुनने की आवश्यकता नहीं रहती।
देवियों की उत्पत्ति दूसरे देवलोक तक ही होती है । जब ऊपर
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल समह, चौथा भाग के स्वर्ग में रहने वाले देवों को विषय सुख की इच्छा होती है तो देवियाँ देवों की उत्सुकता जान कर स्वयं उनके पास पहुंच जाती हैं। ऊपर ऊपर के देवलोकों में स्पर्श, रूप, शब्द तथा चिन्तन मात्र से तृप्ति होने पर भी उत्तरोत्तर सुख अधिक होता है। इसका कारण स्पष्ट है-जैसे जैसे कामवासना की प्रबलता होती है, चित्त में अधिकाधिक आवेग होता है। श्रावेग जितना अधिक होता है उसे मिटाने के लिए विषयभोग भी उतना ही चाहिए । दूसरे देवलोक की अपेक्षा तीसरे में, तीसरे की अपेक्षा चौथे में, चौथे से पाँचवें में, इसी प्रकार उत्तरोत्तर कामवासना मन्द होती जाती है। इससे इनके चित्तसंक्लेश की मात्रा भी कम होती है । इसी लिए इन्हें विषयप्ति के लिए अल्प साधनों की आवश्यकता होती है।
सौधर्म आदि देवों में नीचे लिखी सात वाते उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है
(१) स्थिति- सभी देवों की आयु पहले पत्ताई जा चुकी है। (२) प्रभाव-निग्रह और अनुग्रह करने का सामर्थ्य । अणिपा, लघिमा आदि सिद्धियाँ और बलपूर्वक दूसरे से काम लेने की शक्ति। ये सभी वातें भाव में भाती हैं । इस प्रकार का प्रभाव यद्यपि ऊपर वाले देवों में अधिक होता है तो भी उनमें अभिमान
और संक्लेश की मात्रा कम है। इस लिए वे अपने प्रभाव को काम में नहीं लाते।
(३-४) सुख और द्युति-इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य इष्ट विपयों का अनुभव करना सुख है । वन, आमरण आदि का तेज धुति है।
ऊपर ऊपर के देवलोकों में क्षेत्र स्वभावजन्य शुम पुद्गलपरिणाम की प्रकृष्टता के कारण उत्तरोत्तर सुख और पति अधिक होती है।
(५) लेश्या की विशुद्धि-सौधर्म देवलोक से लेकर ऊपर ऊपर के देवलोकों में लेश्यापरिणाम अधिकाधिक शुद्ध होते हैं।
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोज समा, बौथा भाग ३३५ (६) इन्द्रियविषय-इष्ट विषयों को दूर से ग्रहण करने की शक्ति भी उत्तरोतर देवों में अधिक होती है।
(७) अवधिज्ञान-अवधिचान भी ऊपर ऊपर अधिक होता है, यह पहले बताया जा चुका है।
नीचे लिखी चार वातों में देव उत्तरोत्तर हीन होते हैं
(१) गति-गमनक्रिया की शक्ति और प्रवृत्ति दोनों ऊपर ऊपर के देवलोकों में कम है। ऊपर ऊपर के देवों में महानुमावता, उदासीनता और गम्भीरता अधिक होने के कारण देशान्तर में जाकर क्रीड़ा करने की उनको इच्छा कम होती है।
(२) शरीर परिमाण-शरीर का परिमाण भी ऊपर के देवलोकों में कम होता है । यह अवगाहना द्वार में बताया जा चुका है।
(३) परिग्रह-विमान, पर्पदाओं का परिवार आदि परिग्रह भी उत्तरोत्तर कम होता जाता है।
(४) अभिमान-अहङ्कार । स्थान, परिवार, शक्ति, विषय, विभृति, स्थिति आदि में अभिमान करना । कषाय कम होने के कारण ऊपर ऊपर के देवलोकों में अभिमान कम होता है।
इन के सिवाय नीचे लिखी पाँच पाते भी जानने योग्य है
(१) उच्छ्वास--जैसे जैसे देवों की स्थिति बढ़ती जाती है उसी प्रकार उच्छ्वास का कालमान भी बढ़ता जाता है। जैसे दस हजार वर्ष की आयु वाले देवों का एक उच्छवास सात स्तोक परिमाण होता है । एक पल्यापम आयुष्य वाले देवों का एक उच्छवास एक मुहूर्त का होता है। सागरोपम आयुष्य वाले देवों में जितने सागरोपम की भायु होती है उतने पखवाड़ों का एक उपचास होता है।
(२) आहार-दस हजार वर्ष की आयु वाले देव एक दिन बीच में छोड़ कर आहार करते हैं। पन्योपम की श्रायुष्य वाले देव दिन पृथक्त्व भर्थात् दो दिन से लेकर नौ दिन तक के अन्तर पर।
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्थमाला सागरोपम श्रायुष्य वाले देव जितने सागरोपम की आयु होती है उतने हजार वर्ष बाद पाहार ग्रहण करते हैं।
(३)वेदना-- देवों को प्रायः सातावेदनीय का ही उदय रहता है। कभी असातावेदनीय का उदय होने पर भी वह अन्तर्गत से अधिक नहीं ठहरता । सातावेदनीय भी अधिक से अधिक छह महीने रह कर फिर बदल जाता है।
(४) उपपात-अन्यलिङ्गी पाँचवे देवलोक तक उत्पन होते हैं।गृहलिङ्गी(श्रावक) वारह देवलोक तक और स्वलिङ्गी (दर्शन भ्रष्ट) नवग्रैवेयक तक उत्पन्न होते हैं । सम्यग्दृष्टि साधु सर्वार्थ सिद्ध तक उत्पन्न हो सकते हैं। चौदह पूर्वधारी संयमी पाँचवें देवलोक के ऊपर हो उत्पन्न होते हैं। (उनवाई, सत्र ३८)
(५) अनुभव- इसका अर्थ है लोकस्वभाव अर्थात् जगद्वर्ग। इसी कारण से विमान तथा सिद्धशिला आदि आकाश में विना आलम्बन ठहरे हुए है।
तीर्थङ्कर के जन्माभिषेक आदि प्रसंगों पर देवों का आसन कम्पित होना भी लोकानुभाव का ही कार्य है। आसन कॉपने पर अवधिज्ञान से उनकी महिमा जान कर बहुत से देव तीर्थङ्कर की वन्दना, स्तुति, उपासना आदि करने के लिए भगवान के पास आते हैं। कुछ देव अपने ही स्थान में बैठे हुए अभ्युत्थान, अञ्जलिकर्म, प्रणिपात नमस्कार आदि से तीर्थक्कर की भक्ति करते हैं। यह सब लोकानुमा का कार्य है ।।
(तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, अध्याय ४०) (पन्नवणा)(जीवाभिगम) ८०६-कर्मप्रकृतियों के बारह बार
आठ कर्मों के कारण जीव चार गतियों में भ्रमण करता है। इनसे छूटते ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। पाठ कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों का स्वरूप जानने के लिए नीचे लिखे बारह द्वार हैं
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह. चौथा भाग
३३७
(१)घ्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ (२)अध्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ। (३) ध्रु वोदया प्रकृतियाँ (४) अध्रु वोदया प्रकृतियाँ। (५) ध्रुवसत्ताक प्रकृतियों (६) अध्रुवसत्ताक प्रकृतियाँ । (७) सर्व-देशघातिनी प्रकृतियॉ (८) अघातिनी प्रकृतियों। (६) पुण्य प्रकृतियाँ (१०) पाप प्रकृतियाँ । (११) परावर्तमान प्रकृतियाँ (१२) अपरावर्तमान प्रकृतियाँ।
(१) ध्र ववन्धिनी प्रकृतियों-मिथ्यात्व आदि कारणों के होने पर जिन प्रकृतियों का चन्ध अवश्य होता है उन्हें ध्रुववन्धिनी प्रकृतियाँकहते हैं। पीसे हुए अञ्जन से भरे सन्दूक के समान सारा लोक कर्मवर्गणा के पुद्गलों से भरा है। मिथ्यात्व आदि वन्धकारणों के उपस्थित होने पर कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ द्ध पानी या भाग
और लोहे के गोले के समान जो सम्बन्ध होता है उसे वन्ध कहते हैं। आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध तादात्म्य होता है अर्थात् दोनों एक दूसरे के स्वरूप में मिल जाते हैं । जहाँ आत्मा रहता है वहाँ कर्म रहते हैं और जहाँ कर्म वहाँ आत्मा। मोक्ष प्राति से पहले तक जीव और कर्मों का यह सम्बन्ध बना रहता है । ध्रुववन्धिनी प्रक- तियाँ सैतालीस हैं-ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच । दर्शनावरणीय की नौ । मोहनीय की उन्नीस-अनन्तानुवन्धी आदि सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा और मिथ्यात्व । नाम कर्म की नौ-वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, तेजस, कार्मण, गुरुलघु, निर्माण और उपघात । अन्तराय कमकी पाँच । ऊपर लिखी ४७ प्रकृतियाँ अपने अपने वन्ध हेतुओं के होने पर अवश्य बंधती हैं। इस लिये ध्रु ववन्धिनी कहलाती हैं।
(२) अध्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ-वन्ध हेतुओं के होने पर भी जो प्रकृतियाँ नियम से नहीं बँधतीं उन्हें अध्र ववन्धिनी प्रतियाँ कहा जाता है। कारण होने पर भी ये प्रकृतियों कमी बंधती हैं और कमी नहीं बँधतीं। इनके ७३ मेद हैं-३ शरीर-औदारिक, वैक्रियक,
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
और आहारक ।३ अंगोपाङ्ग। ६ संस्थान । ६ संहनन. ५ जाति । ४ गति । २ विहायोगति । ४ आनुपूर्वी । तीर्थङ्करनाम, श्वासनाम, उद्योतनाम, आतपनाम, पराघातनाम । १० सदशक । १० स्थावर दशक । २ गोत्र । २ वेदनीय । ७ नोकषाय-हास्य, रति, परति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । ४ आयु । कुल मिला कर७३ प्रकृतियाँ अध्रु वयन्धिनी हैं । पराघात और उच्लास नामकर्म का बन्ध पर्याप्त नामकर्म के साथ ही होता है। अपर्याप्त के साथ नहीं होता, इसी लिए ये प्रकृतियाँ अध्रु वन्धिनी कहलाती हैं । श्रातप नामकर्म एकेन्द्रिय जाति के साथ ही बंधता है। उद्योत नाम तिर्यश्च गति के साथ ही वन्धता है। श्राहारक शरीर और आहारक अंगोपाङ्ग नामकर्म का बन्ध संयमपूर्वक ही होता है और तीर्थङ्कर नामकर्म सम्यक्त्व के होने पर ही वन्धता है। दूसरी छयासठ प्रकृतियों का बन्ध कारण होने पर भी अवश्य रूप से नहीं होता । इसीलिए ये सब अध्रु ववन्धिनी कहलाती हैं।
सभी प्रकृतियों के चार मांगे होते हैं-अनादि अनन्त, अनादि . सान्त, सादि अनन्त, सादि सान्त । जो प्रकृतियाँ सन्तान परम्परा रूप में अनादि काल से चली आ रही हैं और अनन्त काल तक सदा विद्यमान रहेंगी उन्हें अनादि अनन्त कहा जाता है । इस भंग में ध्रु बोदया प्रकृतियाँ ली जाती हैं। वे २७ हैं-निर्माण,स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, ५ ज्ञानावरणीय, ५ अन्तराय और चार दर्शनावरणीय-चतु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन, केवल दर्शन और मिथ्यात्व मोहनीय, ये प्रकृतियाँ अभव्य जीवों के सदा उदय में रहती हैं, इसलिए अनादि अनन्त कही जाती हैं। मोक्षगामी भव्य जीवों की अपेक्षा ये अनादि सान्त हैं। इनमें से ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की ४ और अन्तराय की ५, ये १४ प्रकृतियाँ अनादि काल, से लगी होने पर भी चारहवें क्षीणमोहनीय गुणस्थान के
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग अन्त में छूट जाती हैं। इस लिए अनादि सान्त हैं। पाकी चारह प्रकृतियाँ तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान के अन्त में छूट जाती हैं। इस लिए ये भी अनादि सान्त हैं। पहले कही हुई ४७ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त रूप तीन भंग ही होते हैं, तीसरा सादि अनन्त भंग नहीं होता। जो वन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है, चीच में कभी विच्छिन्न नहीं हुआ, अनन्त काल तक सन्तान परम्परा से चलता रहेगा वह अनादि अनन्त है । यह भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से है। अनादि काल से चला पाने पर भी जो वन्ध विच्छिन हो जायगा वह अनादि सान्त है, यह मोक्षगामी भव्य जीवों की अपेक्षा से है । सादि अनन्त भंग पन्ध में नहीं होता, क्योंकि जिन प्रकृतियों का बन्ध सादि है उनका अन्त अवश्य होता है । जो प्रकृतियाँ एक या अधिक चार अलग होकर फिर आत्मा से वन्धती हैं उनका अन्त अवश्य होता है। ऐसी प्रकृतियाँ सादि सान्त कही जाती हैं। इस प्रकार ध्र ववन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे सांदि अनन्त भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग होते हैं।।
घ्र वन्धिनी प्रकृतियों में पहला भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से है। दूसराभंग भव्य के ज्ञानावरणीय, ४ दर्शनावरणीय और ५ अन्तराय,इन चौदह प्रकृतियों की अपेक्षा से है। इन प्रकृतियों का बन्ध अनादिपरम्परा से होने पर भी दसर्वे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान के चरम समय में छूट जाता है। उपशम श्रेणी वाले जीव की अपेक्षा से वे ही . चौदह प्रकृतियाँ सादि सान्त हो जाती हैं अर्थात् उपशम श्रेणी करते हुए जी के दसवें गुणस्थान में उपरोक १४ प्रकृतियों का वन्ध छट जाता है, वहाँ से गिर जाने पर फिर होने लगता है। इस लिए उनकी अपेक्षा यह बन्ध सादि है । क्षपक श्रेणी से सदा के लिए नाश हो जाने से वह वन्ध सान्त है। इस प्रकार सादि सान्त
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
३४०
नामक चौथा भंग होता है। तीसरा भंग चौदह प्रकृतियों में नहीं होता । संज्वलन की चौकड़ी का बन्ध अनादि काल से चला आता है किन्तु नवें अनिवृत्ति चादर गुणस्थान में रुक जाता है, इस लिए इसमें दूसरा अनादि सान्त भंग होता है । उपशम श्रेणी वाले जीव की अपेक्षा चौथा सादि सान्त भंग भी होता है। निद्रा, प्रचला, तैजस कार्मण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, भय और जुगुप्सा इन तेरह प्रकृतियों का बन्ध अनादि है, किन्तु पूर्वकरण के समय जब रुक जाता है, तब दूसरा भंग होता है । पूर्वकरण से गिर कर जीव जब दुबारा उपरोक्त प्रकृतियों को बाँधता है और पूर्वकरण को प्राप्त कर फिर रोक देता है तो उनका बन्ध सादि सान्त हो जाता है । इस प्रकार चौथा भंग होता है ।
प्रत्याख्यानावरण चौकड़ी का बन्ध अनादि होता हुआ पाँचवें देशविरति गुणस्थान तक रहता है। इस प्रकार दूसरा भंग हुआ । वहाँ से गिरने पर दुबारा होने वाला बन्ध सादि सान्त है। इस तरह चौथा भंग है ।
।
प्रत्याख्यान चौकड़ी का बन्ध अनादि है किन्तु चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक रहता है। इस प्रकार दूसरा भंग है । चौथा भंग पहले सरीखा है ।
मिथ्यात्व, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि और अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का बन्ध मिथ्यादृष्टि जीव के अनादि काल से होता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने पर इनका बन्ध नहीं होता है । इस प्रकार अनादि सान्त दूसरा भंग है। दुबारा मिथ्यात्व प्राप्त होने पर होने वाला बन्ध सादि सान्त है ।
इस प्रकार ध्रुववन्धिनी प्रकृतियों में भंगप्ररूपणा है । इन में पहला भंग भव्य की अपेक्षा से है। दूसरा सम्यक्त्व प्राप्त करनेवाले अनादि मिध्यादृष्टि जीव की अपेक्षा से और चौथा सम्यक्त्व
"
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३४१ प्राप्ति के बाद पतित होकर दुवारा उत्तरोत्तर गुणस्थानों को प्राप्त करने वाले की अपेक्षा से । तीसरा भंग इन प्रकृतियों में नहीं होता।
अघ्र ववन्धिनी और अध्र वोदया प्रकृतियों में चौथा भंगही होता है क्योंकि ऊपर बताई ७३ अध्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ कभी बंधती है, कभी नहीं। इस लिए इनका नन्ध सादि सान्त है । इसी प्रकार इनका उदय भी सादि सान्त है। बाकी तीन मंगअघ्र ववन्धिनी और अध्र वोदया प्रकृतियों में नहीं होते।
(३) ५ वोदया प्रकृतियॉ-विच्छेद होने से पहले जो प्रकृतियाँ सदा उदय में रहती हैं वे ध्रुवोदया कही जाती हैं । ऐसी प्रकृतियाँ २७ हैं-निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श। ज्ञानावरणीय की ५ । दर्शनावरणीय की ४ । अन्तराय की ५ और मिथ्यात्वाये प्रकृतियॉविच्छेद से पहले सदा उदय में रहती हैं।
(४) अध्र वोदया प्रकृतिया- विच्छेद न होने पर भी जिन प्रकृतियों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल,माव और भव इन पाँचों बातों की अपेक्षा रखता है अर्थात् इन सब के मिलने पर ही जिन प्रकृतियों का उदय हो वे अध्रु बोदया कहलाती हैं । अध्रुवोदया प्रकृतियाँ ६५ है- अघ्र ववन्धिनी ७३ प्रकृतियों पहले गिनाई जा चुकी हैं। उनमें से स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ ये चार कम हो जाती हैं। वाकीदप्रकृतियॉ अधं वोदया है। ध्रुवन्धिनी प्रकृतियों में मोहनीय. कर्म की १६ प्रकृतियॉगिनाई गई हैं। उन में मिथ्यात्व को छोड़ कर शेष १८ अध्रौंदया है । ६६ और १८ मिलकर ८७ हुई । इन में निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलामचला, स्त्यानगृद्धि, उपघात नाम, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय इन आठ को मिलाने से १५ प्रकृतियॉहो जाती है। ये प्रकृतियाँसदाउदय में नहीं रहतीं। दूसरेनिमित्तों को प्राप्त करके ही उदय में आती हैं,इसी लिए अघ्र गो-,
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
३४२
दया कही जाती है ।
मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का उदय यद्यपि एक बार विच्छिन्न होकर फिर शुरू हो जाता है, फिर भी उन्हें अध वोदया नहीं कहा जाता क्योंकि उनका अनुदय उपशम के कारण होता है और जितनी देर उपशम रहता है उदय नहीं होता । उपशम न होने पर जब उदय होता है तो वह क्षय या उपशम से पहले प्रत्येक समय बना रहता है ।
निद्रा आदि प्रकृतियों उपशम या क्षय न होने पर भी सदा उदय में नहीं रहतीं । जैसे नींद लेते समय ही निद्रा का उदय होता है, जागते समय नहीं ।
1
गुणस्थानों की अपेक्षा भी इनका भेद जाना जा सकता है जैसे चौथे गुणस्थान में निद्रा और मनः पर्यय ज्ञानावरणीय दोनों प्रकृतियों का उदय होता है । उन में मनःपर्यय ज्ञानावरणीय का उदय हमेशा रहता है । निद्रा का उदय तभी होता है जब जीत्र 1 नींद लेता है । यही इन दोनों का भेद है ।
(५) ध्रुवसत्ताक प्रकृतियों - जो प्रकृतियाँ सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों की प्राप्ति से पहले सभी जीवों को होती हैं, वे ध्रुवसत्ताक कहलाती हैं । ध्रुवसत्ताक प्रकृतियाँ १३० हैं । त्रसदशक - त्रस बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, यशः कीर्ति । स्थावरद राक - स्थादर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति । इन दोनों को मिला कर सविशति भी कहा जाता है। वर्णविंशति- ५ वर्ण, ५ ररा २ गन्ध, ८ स्पर्श । तैजस कार्मणसप्तक - तेजस शरीर, कार्मण शरीर, तेजस तैजस बन्धन, तैजस कार्मण बन्धन, कार्मण कार्मण बन्धन, तैजस सङ्घातनं, कार्मण संघातन । ४७ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में से वर्ण चतुष्क, तैजस और कार्मण इन छःप्रकृतियों को कम कर देने पर बाकी ४१ - अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, भय, जुगुप्सा, मिथ्याल,
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोक्ष संग्रह, चौथा भाग
३४३
१६ कषाय, ५ ज्ञानावरणीय, ६ दर्शनावरणीय और ५ अन्तराय । ३ वेद । ६ संहनन । ६ संस्थान । ५ जातियों । २ वेदनीय । ४ हास्यादिहास्य, रति, अरति, शोक । ७ श्रदारिकादि - श्रदारिक शरीर, प्रौढारिक गोपाङ्ग, दारिक संघातन, औदारिक चौदारिक बन्धन, औदारिक तैजस बन्धन, श्रदारिक कार्मण बन्धन, चौदारिक तैजस कार्मण बन्धन । ४ उच्छ्वासादि - उच्छ्वास, उद्योत,
तप, पराघात । २ विहायोगति - प्रशस्त, अप्रशस्त । २ तिर्यक - तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी । नीच गोत्र । कुल मिला कर १३० हुई । सम्यक्त्व से पहले प्रत्येक जीव के इन प्रकृतियों की सच्चा रहती है, इस लिए इन्हें बसचाक प्रकृतियों कहा जाता है।
(६) अ वसत्ताक प्रकृतियों - सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों की प्राप्ति से पहले भी जो प्रकृतियाँ कभी सत्ता में रहती हैं और कभी नहीं रहतीं उन्हें अ वसत्ताक कहा जाता है । अध वसत्ताक प्रकृतियों २८ हैं- सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय, मनुष्यानुपूर्वी । वैक्रियैकादशक - (१) देवगति (२) देवानुपूर्वी (३) नरक गति (४) नरकानुपूर्वी (५) वैक्रिय शरीर (६) वैक्रियाङ्गोपाङ्ग (७) वैक्रिय संघातन (८) वैक्रिय वैक्रिय बन्धन (8) वैक्रिय तैजस चन्धन (१०) वैक्रिय कार्मण बन्धन (११) वैक्रिय तैजस कार्मण बन्धन | तीर्थङ्कर नाम कर्म । चार आयु- नरकायु, तिर्यश्चायु, मनुध्यायु और देवायु । श्राहारकसप्तक - (१) आहारक शरीर (२) आहारक अङ्गोपाङ्ग (३) आहारक संघातन (४) आहारकाहारक बन्धन - (५) आहारक तैजस. बन्धन (६) आहारक कार्मण चन्धन (७) आहारक तैजस कार्मण बन्धन । उच्च गोत्र । उपरोक्त २८ प्रकृतियाँ अवसचाक हैं। इन में से सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय भन्यों के सर्वथा नहीं होतीं । बहुत से भव्य भी इन प्रकृतियों के बिना होते हैं । मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी और ११ वैक्रियैकादश, ये१३
1
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४
श्री सेठिया जैन पन्थमाला प्रकृतियाँ तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव के उद्वर्तना प्रयोग के समय उदय में नहीं रहती। बाकी जीवों के रहती हैं। जो जीत्र प्रस नहीं है उसके क्रियैकादशक का बन्ध नहीं होता। त्रस अवस्था में इन प्रकृतियों को बाँध कर मृत्यु हो जाने पर जो जीव स्थावर रूप से उत्पन्न होता है उसके भी स्थिति पूरी हो जाने से इनका क्षय हो जाता है। इस लिए स्थावर जीव के इन ११ प्रकृतियों की सत्ता नहीं होती । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी तीर्थवर नाम कर्म बहुत थोड़े महापुरुषों को होता है । स्थावर जीवों के देव और नरकायु, अहमिन्द्रों के अर्थात् नव अवेयक से लेकर ऊपर के देवों के . तिर्यश्च श्रायु तथा तेजस्काय, वायुकाय और सातवीं नरक के जीवों के मनुष्यायु का बन्ध नहीं होता । इस लिए ये प्रकृतियाँ उन के सचा रूप से भी नहीं रहतीं। दूसरों के होने की भजना है। संयम होने पर भी श्राहारकसमक किसी जीव के बन्ध होने पर ही सत्ता । में होता है, बिना पन्ध वाले जीवों के नहीं होता । उच्च गोत्र का बन्ध त्रस जीवों के ही होता है। वन्ध हो जाने के बाद स्थावरपना प्राप्त होने पर भी स्थिति पूरी होने से उसका क्षय हो जाता है । इस प्रकार वह सत्ता में नहीं रहता। तेजस्काय और वायुकाय जीवों के उद्वर्तना प्रयोग में भी नहीं रहता । इस प्रकार ये सभी प्रकृतियों अध्रुव अर्थात् अनिश्चित सत्ता वाली हैं । गुणस्थानों में ध्रुवसत्ता और अध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों का विवरण नीचे लिखे अनुसार है-पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व मोहनीय नियम से सत्ता में रहती है। चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मजना है। औपशमिक सम्यक्त्व वालों के मिथ्यात्व प्रकृति सत्ता में रहती है और क्षायिक सम्यक्त्व वालों के नहीं। दूसरे सास्वादन गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय नियम से रहती है। दूसरे को छोड़ कर ग्यारहवें तक दस गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की भजना है।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
३४५
अनादि मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यक्त्व का वमन करने वाले प्रथम गुणस्थानवी जीव में, सम्यक्त्व का वमन करने वाले तृतीय मिश्र गुणस्थानवी जीव में, चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें तक क्षायिक सम्यक्त्व वालों के सम्यक्त्व मोहनीय सचा में नहीं होती। इन्हें छोड़ कर चाकी सब जगह रहती है। दूसरे सास्वादन गुणस्थान में नियम से २८ प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं। तीसरे मिश्र गुणस्थान में साधारणतया २८, सम्यक्त्व वमन करने वाले के २७ तथा अनन्तानुवन्धी चौकड़ी छोड़ने वाले के २४ प्रकतियाँ सत्ता में रहती हैं। मिश्रमोहनीय प्रकृति की सत्ता था उदय के विना तीसरे गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती । इस लिए तीसरे गुणस्थान में किसी भी अपेक्षा से २६ प्रकृतियों की सत्ता नहीं होती। दसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़ पहले से लेकर ग्यारहवें तक नौ गुणस्थानों में मिश्रमोहनीय की मजना है। प्रथम गुणस्थान में जिस मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त मोहनीय तथा मिश्रमोहनीय को छोड़ कर वाकी २६ प्रकृतियों की सत्ता है, उसके तथा अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर ग्यारहवें उपशान्त मोहनीय गुणस्थान राक क्षायिक सम्यक्त्व वाले जीवों के मिश्रमोहनीय सत्ता में नहीं होती, पाकी के होती है। प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में अनन्तानुवन्धी चौकड़ी नियम से सत्ता में होती है । ग्यारहवें तक पाकी नौ गुणस्थानों में भजना है। अनन्तानुवन्धी का चय करके तीसरे गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीव के,अनन्तानुवन्धीचार तथा मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय का क्षय करके अथवा अनन्तानुवन्धी का क्षय तथा वाकी तीन का उपशम करके चौथे गुणस्थान
को प्राप्त करने वाले जीव के अनन्तानुवन्धी चौकड़ी सचा में नहीं । रहती । इसी प्रकार जो जीव क्रमशः प्रकृतियों का क्षय करके ऊपर ' के गुणस्थानों में जाता है उसके अनन्तानुबन्धी सत्ता में नहीं रहती।
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
1
बाकी जीवों के रहती है । यह मान्यता कर्मग्रन्थों के अनुसार है कर्मप्रकृति में नीचे लिखे अनुसार बताया गया है- अनन्तानुबन्धी कषाय प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में नियम से सचारूप में रहती है । तीसरे से लेकर श्रप्रमत्त संयत अर्थात् सातवें गुणस्थान तक भजना है। उनका क्षय कर देने पर नहीं होती, नहीं तो होती है। इससे ऊपर अनन्तानुबन्धी की सत्ता बिल्कुल नहीं होती, क्योंकि अनन्तानुवन्धी को अलग किए बिना जीव आठवें गुणस्थान में उपशम श्रेणी को भी प्राप्त नहीं कर सकता ।
1
श्राहारकसप्तक - आहारक शरीर, आहारक अंगोपाङ्ग, आहारक संघातन, श्राहारकाहारक बन्धन, आहारक तैजस बन्धन, आहारक कार्मण बन्धन, आहारक तैजस कार्मण बन्धन, इन सात प्रकृतियों की सत्ता सभी गुणस्थानों में विकल्प अर्थात् भजना से है। श्रप्रमत्त संयत यदि गुणस्थानों में जो जीव इन सात प्रकृतियों को बाँध लेता है उसके ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ने पर अथवा नीचे गिरने पर इनकी सत्ता रहती है। 'जिस जीव ने इन प्रकृतियों को नहीं बाँधा उसके नहीं रहतीं । तीर्थङ्कर नामकर्म द्वितीय और तृतीय को छोड़ कर बाकी सभी गुणस्थानों में सत्ता में रहता है। चौथे अविरत सम्यग्दष्टि गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक जो जीव तीर्थङ्कर नाम को बाँन लेता है वह ऊपर के गुणस्थानों में भी चढ़ सकता है और अविशुद्धि के कारण मिथ्यात्व को भी प्राप्त कर सकता है किन्तु दूसरे और तीसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता । इसी अपेक्षा से तीर्थङ्कर नाम की सत्ता दूसरे और तीसरे को छोड़ कर - सभी गुणस्थानों में होती है। जो जीव तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध नहीं करता उसके किसी गुणस्थान में तीर्थङ्कर नाम की सत्ता नहीं होती।
जिस जीव के आहारक सप्तक और तीर्थङ्कर नाम इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता हो वह मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता । तीर्थङ्कर नाम
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
३४७
वाला जीव भी अन्तर्मुहूर्त के लिए ही मिथ्यात्व प्राप्त करता है । जो नरकायु बाँध कर वेदक सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थङ्कर गोत्र बाँधता है वह नरक में उत्पन्न होते समय सम्यक्त्व को छोड़ देता है । वहाँ पहुँच कर पर्याप्तियों पूरी होने के बाद फिर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है ।
-
(७) सर्व देशघाती प्रकृतियाँ - (क) जो प्रकृतियाँ अपने विपय का पूर्ण रूप से घात अर्थात् आवरण करती हैं वे सर्वघाती हैं। (ख) जो अपने विषय का चात एक देश से करती हैं वे देशघाती हैं।
(क) सर्वघाती प्रकृतियों बीस हैं- केवल ज्ञानावरणीय, केवल दर्शनावरणीय, ५ निद्रादि, संज्वलन चौकड़ी को छोड़ कर १२ कपाय और मिथ्यात्व । ये प्रकृतियाँ अपने द्वारा श्रावृत होने वाले श्रात्मा के गुण का पूर्ण रूप से श्रावरण करती हैं।
यद्यपि सभी जीवों के केवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग सदा अनावृत रहता है फिर भी केवलज्ञानावरणीय को सर्वघाती इस लिए कहा जाता है कि जीव का केवलज्ञान गुण जितना श्रावृत किया जा सकता है उसे केवलज्ञानावरणीय प्रकृति श्रावृत कर लेती है । जिसे थावृत करना इस की शक्ति से बाहर है वह अनावृत ही रहता है । प्रतिज्ञानावरण वगैरह प्रकृतियों में तारतम्य रहता है अर्थात् मतिज्ञानावरणीय का उदय होने पर भी किसी जीव का मतिज्ञान अधिक प्रवृत होता है और किसी का कम । श्रावरण करने वाले कर्म के न्यूनाधिक क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान में न्यूनाधिकता हो जाती है । केवलज्ञानावरणीय में यह बात नहीं होती। उसके उदय में होने पर सभी जीवों का केवलज्ञान गुण समान रूप से आवृत होता है तथा उसके चय हो जाने पर समान रूप से प्रकट होता है। सर्वघाती और देशघाती प्रकृतियों में यही अन्तर है ।
आकाश में घने बादल छा जाने पर यह कहा जाता है कि श्राकाश
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला इन्होंने सूर्य या चन्द्र की प्रभा को सर्वथा ढक लिया। उस समय मन्द प्रकाश होने पर भी सर्वथा ढक लेने का व्यवहार होता है। उसी प्रकार अनन्तवाँ भाग खुला रहने पर भी सर्वथा श्रावृत कर लेने का व्यवहार होता है। वह अनन्तवाँ भाग भी मतिज्ञानावरणीय श्रादि के द्वारा श्रावृत होता हुआ थोड़ा सा अनावृत बच जाता है। इसी प्रकार केवलदर्शनावरणीय सामान्य ज्ञान रूप दर्शन गुण को आवृत करता है। बचा हुआ अनन्तवाँ भाग चतुदर्शन आदि के द्वारा श्रावृत होता है, फिर भी थोड़ा सा अनावृत बच जाता है।
निद्रा आदि पाँच का उदय होने पर जीव को बिल्कुल भान नहीं . रहता । इस लिए ये भी सर्वघाती हैं। निद्रा में भी जो सूक्ष्म अनुभव रहता है। उसे बादलों से आच्छादित सूर्य चन्द्र की सूक्ष्म प्रभा के समान समझना चाहिए। अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानावरण की चौकड़ियाँ भी क्रमशः जीव के सम्यक्त्व, देशविरति चारित्र और सर्वविरति चारित्र का सर्वथा घात करती हैं । मिथ्यात्व प्रकृति तत्त्व श्रद्धान रूप सम्यक्त्व का सर्वथा घाव करती है। इन प्रकृतियों का प्रबल उदय होने पर भी जीव अयोग्य
आहार आदि का त्याग करता है और मनुष्य, पशु आदि वस्तुओं पर श्रद्धा भी करता है। इन बातों को पादल से निकलती हुई सूर्य की प्रभा के समान जानना चाहिए।
देशघाती प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ जीव के गुणों को एक देश से आवृत करती हैं वे देशघाती हैं। वे पच्चीस हैं-केवल ज्ञानावरणीय को छोड़ कर ज्ञानावरणीय चार, केवल दर्शनावरणीय को छोड़ कर दर्शनावरणीय नीन, संज्वलन कषाय चार, नोकषाय नौ और अन्तराय की पाँच।
मतिज्ञानावरण आदि चार केवलज्ञानावरण द्वारा अनावृत छोड़े हुए ज्ञान के देश का घात करती हैं। इसी प्रकार चक्षुदर्शनावरण
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग
३४६
आदि केवलदर्शनावरण के द्वारा अनावृत छोड़े हुए सामान्य ज्ञान के देश का घात करती हैं, इस लिए ये देशघाती हैं। संज्वलन और नोकपायों से चारित्रगुण के देश का घात होता है अर्थात् उन के रहने से मूलगुण और उत्तर गुणों में अतिचार लगते हैं, सर्वथा घात नहीं होता । श्रावश्यक नियुक्ति गाथा ११२ में लिखा है
सव्वे वि य इयारा, संजलणाएं तु उदयत्र हुंति । मूलच्छिनं पुण होइ, बारसहं कसायाणं ॥
अर्थात् -संज्वलन प्रकृतियों के उदय से केवल अतिचार लगते हैं किन्तु अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायों के उदय से मूलगुणों का घात होता है ।
दानान्तराय आदि पाँच प्रकृतियाँ भी देशघाती हैं । दान, लाभ, भोग और उपभोग का विषय वे ही वस्तुएं हैं जिन्हें ग्रहण या धारण किया जा सकता है । ऐसी वस्तुएं पुद्गलास्तिकाय के अनन्तवें भाग रूप देश में रही हुई हैं । अन्तराय की प्रकृतियाँ उन्हीं वस्तुओं के दान आदि में बाधा डालती हैं, इस लिए देशघाती हैं। अगर जीव सारे लोक की वस्तुओं का दान, लाभ, भोग या उपभोग नहीं करता तो इस में अन्तराय कर्म कारण नहीं है किन्तु ग्रहण और धारण का विषय होने के कारण उन वस्तुओं के दान आदि हो ही नहीं सकते । अन्तराय कर्म का सर्वथा नाश हो जाने पर भी कोई जीव उन वस्तुओं को दान आदि के काम में नहीं ला सकता, क्योंकि दान आदि के लिए काम में आने की उनकी योग्यता ही नहीं है । अन्तराय कर्म सिर्फ उन्हीं वस्तुओं के दान आदि में बाधा डालता है जो ग्रहण या धारण के योग्य होने से दान यादि के काम आ सकती हैं । बीर्यान्तराय कर्म भी देशघाती है। वीर्य अर्थात् आत्मा की शक्ति का पूर्ण रूप से घात नहीं करता । सूक्ष्मनिगोद में वीर्यान्तराय का प्रबल उदय रहता है । वहाँ के जीवों में भी आहार पचाने, कर्म
Į
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला दलिकों को ग्रहण करने और दूसरी गति में जाने की शक्ति रहती है। वीर्यान्तराय के चयोपशम से ही उन जीवों के वीर्य का वारवम्य होता है । वीर्यान्तराय के क्षय होने से केवलियों को प्रात्मा के पूर्ण वीर्य की प्राप्ति होती है। इसे सर्वघाती मान लेने पर मिथ्यात्व के उदय होने पर सम्यक्त्व के सर्वथा अभाव की तरह वीर्य का भी सर्वथा अभाव हो जायगा।
(८) अघाती प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ आत्मा के ज्ञान आदि गुणों का घात नहीं करतीं उन्हें अपाती कहा जाता है। जैसे स्वयं चोरन होने पर भी चोरों के साथ रहने वाला पुरुष चोर कहा जाता है उसी प्रकार, घाती प्रकृतियों के साथ वेदी जाने से ये भी बुरी कही जाती हैं । जैसे रस पड़ने के कारण घाती प्रकृतियाँ अवश्य वेदनी पड़ती हैं उसी प्रकार प्रघाती भी वेदनी पड़ती हैं।
अघाती प्रकृतियाँ पचहत्तर हैं-प्रत्येक प्रकृतियाँ पाठ-पराघात, उच्छवास, पातप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थङ्कर, निर्माण, उपघात । शरीर पाँच | अङ्गोपाङ्गवीन । छः संस्थान । छः संहनन । जातियाँ पाँच। गतियाँ चार। भानुपूर्वी चार। विहायोगति दो।आयुष्य चार। अस प्रकृतियाँ दस। स्थावर प्रकृतियाँ दस । गोत्र दो । वेदनीय दो। वर्णादि चार । ये पचहत्तर प्रकृतियाँ आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं, इसीलिए अघाती कही जाती हैं। घाती प्रकृतियों के साथ वेदी जाने पर ये घाती के समान फल देती हैं और देशघाती के साथ वेदी जाने पर देशघाती के समान। वे स्वयं अघाती हैं।
(8) पुण्य प्रकृतियाँ-जिन के उदय से जीव को सुख प्रास होता है वे पुण्य प्रकृतियाँ कही जाती हैं। पुण्य प्रकृतियाँ षयालीस हैं। ३ देवत्रिक, देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु । ३ मनुष्यत्रिकमनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु । १ उच्चगोत्र । १ सातावेदनीय १० त्रसदशक | ५ शरीर।३अंगोपाङ्ग।१ वजऋषभनाराच संह
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग नन । १ समचतुरस्र संस्थान | ७ पराघातसप्तक-पराघात, उच्छवास, श्रातप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थकर, निर्माण।१ शुभदीर्घ तिर्यश्चायु । ४ वर्णादि (शुभ)। पञ्चेन्द्रिय जाति।
(१०) पाप प्रकृतियॉ-जिन के उदय से जीव को दुःख प्राप्त होता है वे पाप प्रकृतियाँ हैं । वे वयासो हैं-वज्रऋषभ को छोड़ कर ५ संहनन । सपचतुरस्र को छोड़ कर ५ संस्थान । १ अप्रशस्त विहायोगति । १तिर्यश्च गति । तिर्यश्चानुपूर्वी । असाता वेदनीय । नीच गोत्र । उपघात । पञ्चेन्द्रिय को छोड़ कर चार जातियों ।३ नरकत्रिक-नरक गति, नरकानुपूर्वी, नरकायु । १० स्थावरदशक । .४ वर्णचतुष्क (अशुभ)।२० देशघाती प्रकृतियाँ । २५ सर्वघाती प्रकृतियाँ। कुल मिला कर पाप प्रकृतियाँ ८२ हैं । वर्णादि चार प्रकृतियाँशुभ और अशुभ रूप होने से पुण्य तथा पाप दोनों प्रकतियों में गिनी जाती है।
(११) अपरावर्तमान प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ अपने वन्ध, उदय या दोनों के लिए दूसरी प्रकृतियों के चन्धादि को नहीं रोकती उन्हें अपरावर्तमान प्रकृतियों कहा जाता है । अपरावर्तमान प्रकृतियाँ २६ हैं- ४ वर्णादि । तैजस । कार्मण । अगुरुलघु । निर्माण । उपघात । ४ दर्शनावरणीय । ५ ज्ञानावरणीय । अन्तराय । पराघात । भय ।जुगुप्सा पिथ्यात्र। उच्छ्वास । तीर्थङ्करनाम । ये २६ प्रकृतियाँ अपनेवन्ध या उदय के समय दूसरी प्रकृतियों के वन्ध या उदय का विरोध नहीं करतीं। इसी लिए अपरावर्तमान कही जाती हैं।
(१२) परावर्तमान प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ अपने वन्ध, उदय या दोनों के लिए दूसरी प्रकृतियों के वन्ध आदि को रोक देती हैं उन्हें परावर्तमान प्रकृतियाँ कहा जाता है । वे इक्यानवे हैं-तीन
शरीर--औदारिक, वैक्रियक, आहारक । ३ उपांग । ६ संस्थान । ६ 'संहनन । जाति। ४ गति।२ विहायोगति। ४ भानुपूर्वी । ३ वेद ।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६
-
-
-
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला तैयार हो इस लिये मोक्षाभिलाषी प्रात्मा इसका वारवार चिन्तन करते हैं और इस लिये इसका नाम भावना रक्खा है। वाचक संख्य श्री उमास्वाति ने भावना को अनुप्रेक्षा के नाम से कहा है। अनुप्रेक्षा का अर्थ आत्मावलोकन है।
भावनाएं मुमुक्षु के जीवन पर कैसा असर करती हैं यह बात भरत चक्रवर्ती, अनाथी मुनि, नमिराजर्षि श्रादि महापुरुषों के जीवन का अध्ययन करने से जानी जा सकती है। भावनाओं ने इनके जीवन की दिशा को ही बदल दिया, उन्हें बहिरात्मा से अन्तरात्मा बना दिया। चित्त शुद्धि के लिए एवं आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख करने के लिए ये भावनाएं परम सहायक सिद्ध हुई हैं।
बारह भावनाएं ये हैं-(१) अनित्य भावना (२) अशरण भावना (३) संसार भावना (४) एकत्व भावना (५) अन्यत्व भावना (६) अशुचि भावना (७) आश्रव भावना(८) संवर भावना (8) निर्जरा भावना (१०) लोक भावना (११) बोधिदुर्लभ भावना (१२) धर्म भावना।
(१) अनित्य भावना-संसार अनित्य है । यहाँ सभी वस्तुएं परिवर्तनशील एवं नश्वर है। कोई भी वस्तु शाश्वत दिखाई नहीं देती। जो पदार्थ सुबह दिखाई देते हैं, सन्ध्या समय उनके अस्तित्व का पता नहीं मिलता। जहाँ प्रभात समय मंगल गान हो रहे थे, शाम को वहीं रोना पीटना-सुनाई देता है। जिस व्यक्ति का सुबह राज्याभिषेक हो रहा था, शाम को उसकी चिता का धुंआ दिखाई देता है । यह जीवन भङ्गुरता पद पद पर देखते हुए भी मानव अपने को अमर समझता है और ऐसी प्रवृत्तियाँ करता है मानो उसे यहाँ से कमी जाना ही न हो, यह उसकी कितनी अज्ञानता है। यह शरीर रोगों का घर है, यौवन के साथ बुढ़ापा जुड़ा हुआ है, ऐश्वर्य विनाशशील है और जीवन के साथ मृत्यु है। महात्मा पुरुष
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ५७ उन श्रात्माओं पर दया प्रकट करते हैं, जिनका शरीर क्षीण होता जाता है पर आशा तृष्णा बढ़ती रहती है। जिनका आयु वल घटता जाता है परन्तु पाप वुद्धि बढ़ती जाती है। जिनमें प्रतिदिन मोह प्रवल होता जाता है परन्तु आत्म कल्याण की भावना जागृत नहीं होती । वस्तुतः संसार में कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिस पर सदा के लिये विश्वास किया जा सके। यौवन जल बुबुद् की तरह क्षणिक है, लक्ष्मी सन्ध्या के बादलों की तरह अस्थिर है। स्त्री, परिवार अक्षिनिमेष की तरह क्षणस्थायी हैं। स्वामित्व स्वम तुल्य है। यों संसार के सभी पदार्थ विनश्वर हैं। संयोग वियोग के लिए है। अनित्य मावना पर उपाध्याय श्रीविनयविनयजी का एक श्लोक यहाँ उद्धृत किया जाता है :
आयुर्वायु तरचरङ्ग तरलं लग्नापदः संपदः । सर्वेऽपीन्द्रियगोचराश्च चटुलाःसन्ध्यानरागदिवत्।। मित्र स्त्री स्वजनादि संगम सुखं स्वमेन्द्रजालोपमं। ततिक वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ॥
भावार्थ-आयु वायु से प्रेरित तरंगों की तरह चञ्चल है। सम्पत्ति के साथ आपत्तियाँ रही हुई हैं। सन्ध्याकालीन वादलों की लालिमा की तरह सभी इन्द्रियों के विषय अस्थिर हैं। मित्र, स्त्री और स्वजन वर्ग का सम्बन्ध स्वप्न एवं इन्द्रजाल की तरह क्षणस्थायी है। अव संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है जो सज्जनों के प्रानन्द का आधार हो। जिसे प्राप्त करके चिरशान्ति मिल सके।
इस प्रकार अनित्यता का विचार करने से सभी वस्तुओं से मोह हट जाता है एवं तद्विषयक आसक्ति कम होती जाती है। जब वस्तु का स्वभाव ही विनाश है फिर उसके लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है। मुरझाई हुई फूलों की माला का त्याग करने
खेद जैसी क्या बात है?
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
( २ ) अशरण भावना - मानव आत्मरक्षा के लिए अपने शरीर को समर्थ और बलवान बनाता है। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री आदि स्वजन एवं मित्रों से आपत्तिकाल में सहायता की आशा रखता है। सुख पूर्वक जीवन व्यतीत हो इसलिए दुःख उठा कर धन का सश्चय करता है । अपनी रक्षा के लिए कोई प्रयत्न उठा नहीं रखता परन्तु रोग और आतंक आने पर कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते । उत्तराध्ययन सूत्र के महानिग्रन्थीय अध्ययन में अनाथी मुनि मगधदेश वे अधिपति महाराज श्रेणिक को, जो अपने को सर्वविध समर्थ समझते थे और अनाथी मुनि के नाथ बन रहे थे, सम्बोधन करते हुए कहते हैं -
अपणा व अाहोऽसि, सेपिया ! मगहाहिबा । अपणा अणाहो संतो, कहं पाहो भविस्ससि ॥ अर्थात् - मगधदेश के अधिपति महाराज श्र ेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो । स्वयं अनाथ होकर तुम किस प्रकार मेरे नाथ हो सकोगे ?
मेरे हाथी घोड़े हैं, दास दासी हैं। मेरे नगर हैं, अन्तःपुर है । मनुष्य सम्बन्धी भोग मेरे अधीन हैं। मेरा शासन चलता है और मेरे पास ऐश्वर्य है। ऐसी सभी मनोरथों को पूरा करने वाली सम्पत्ति के होते हुए मैं अनाथ कैसे कहा जा सकता हूँ ? महाराज श्रेणिक के यह कहने पर अनाथ मुनि ने अनाथता (अशरणता) का स्वरूप इस तरह बताया
महाराज ! प्रसिद्ध कोशाम्बी नगरी में मेरे पिता रहते थे। उनके पास असीम धन सम्पत्ति थी । यौवन अवस्था में मेरी आँखों में प्रबल वेदना हो गई। सारे शरीर में आग लग गई हो ऐसा प्रचण्ड दाह होने लगा । वह वेदना परम दारुण थी । कमर, छाती और सिर सभी जगह दर्द होता था । इस रुग्णावस्था में वैद्यक शास्त्र में प्रवीण, जड़ी बूटी, मूल और मन्त्र विद्या में विशारद, शास्त्रविचक्षण
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३ चिकित्सा करने में दक्ष, एक एक से बढ़कर वैध बुलाए गए। उन्होंने शास्त्रोक्त चिकित्सा की, बहुत परिश्रम किया परन्तु वे मुझे वेदना से मुक्त न कर सके। मेरे पिता मेरे लिए सभी धन सम्पत्ति देने को तैयार थे परन्तु वे दुःख से मेरी रक्षा न कर सके । पुत्र शोक से दुखित मेरी ममताभरी माता रोती थी परन्तु वह भी कुछ न कर सकी । मेरे सगे छोटे और बड़े भाई भी थे परन्तु वे भी मुझे दुःख से न बचा सके। छोटी बड़ी सगी बहिनें भी अपनी विवशता को कोसने के सिवाय कुछ न कर सकी । मेरी पत्नी, जो मुझ से बड़ा प्रेम करती थी और पतिव्रता थी, मेरे पास बैठी रोया करती थी। उसने खाना, पीना, स्नान, गन्ध, माल्य, विलेपन प्रादि सभी छोड़ दिए । क्षण भर के लिए भी वह मेरे पास से हटती न थी परन्तु वह भी कुछ न कर सकी। मेरी वेदनाज्यों की त्यों रही।चाहते हुए भी सभी स्वजन मेरी पीड़ा को कम न कर सके। राजन् ! बस, यही मेरी अनाथता है और यही हाल समीजीवात्माओं का है । नाथता का निरा अभिमान है।
रोग से जिस प्रकार प्राणी की कोई रक्षा नहीं कर सकता उसी प्रकार काल के भागे भी किसी का वश नहीं चलवा । तीनों लोक में इसका प्रखण्ड राज्य है । देवेन्द्र, असुरेन्द्र, तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव जैसे समर्थ श्रात्मा भी काल के पंजे से अपने को नहीं बचा सके । काल से बचने के सभी प्रयत्न बेकार सिद्ध हुए हैं। फिर सामान्य प्राणी का स्वजन, धन और शारीरिक बल आदि का अमिमान करना और अपने को उनसे समर्थ और सुरक्षित समझना किवनाप्रविचार पूर्ण है। सिंह के पंजे में फंसे हुए मृगशावक की तरह सभी प्राणी काल के आगे विवश हैं। उत्तराध्ययन सूत्र से इसी श्राशय की एक गाथा यहाँ दी जाती है
जहेह सीहोव्व मियंगहाय,मच्चूणरंगेइ हु अंतकाले। नतस्समायावपियवभाया,कालम्मितम्मं सहराभवंति
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
३६०
भावार्थ - जैसे हिरण को पकड़ कर सिंह ले जाता है, उसी तरह अन्त समय में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। उसके माता, पिता, भाई, आदि में से कोई भी उसकी सहायता नहीं करता ।
इस प्रकार संसार में कोई भी वस्तु शरण रूप नहीं है । केवल एक धर्म अवश्य शरण रूप है। मरने पर भी यह जीव के साथ रहता है और संसारिक रोग, व्याधि, जरा, मृत्यु आदि के दुःखों से प्राणी की रक्षा करता है। यही बात स्वर्गीय शतावधानी पण्डित मुनि श्री रत्नचन्द्रजी स्वामी ने अपने भावना शतक में यों कही है
संसारेऽस्मिन् जनिम्मृतिजरातापतप्ता मनुष्याः । सम्प्रेक्षन्ते शरणमनघं दुःखतो रक्षणार्थम् । नो तद्द्रव्यं न च नरपतिर्नापि चत्री सुरेन्द्रो । किन्त्वेकोयं सकलसुखदो धर्म एवास्ति नान्यः ॥ भावार्थ - इस संसार में जन्म मरण और जरा के ताप से संतप्त मनुष्य अपनी रक्षा करने के लिए निर्दोष शरण की ओर ताकते हैं परन्तु धन, राजा, चक्रवर्ती और इन्द्र कोई भी रोगादि से जीव को नहीं बचा सकते । सकल सुख के देने वाले एक धर्म के सिवाय दूसरा कोई भी इस संसार में शरण रूप नहीं है ।
1
धर्ममात्र सत्य है और जीव के लिए शरण (आधार भूत ) है - इस संस्कार को दृढ़ करने के लिए सांसारिक वस्तुओं में शरणता का विचार करना चाहिए। जिस जीव का हृदय अशरण- भावना द्वारा भावित है वह किसी से सुख और रक्षा की श्राशा नहीं करता । धर्म पर उसकी दृढ़ श्रद्धा होजाती है ।
( ३ ) संसार भावना - इस संसार में जीव अनादि काल से जन्म मरण आदि विविध दुःखों को सह रहा है । कर्मवश परिभ्रमण करते हुए उसने लोकाकाश के एक एक प्रदेश को अनन्ती बार व्याप्त किया परन्तु उसका अन्त न आया । नरक गति में जाकर इस जीव
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त योन संग्रह, चौथा भाग १ को वहाँ होने वाली स्वाभाविक शीत उष्ण वेदना सहन करनी पड़ती है, परमाधामी द्वारा दिए गए दुःख सहता है और परस्पर लड़ कर भी कष्ट उठाता है। क्षुधा, प्यास, रोग, वध, बन्धन, ताड़न, मारारोपण चादि तिर्यश्च गति के दुःख प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विविध सुखों की सामग्री होते हुए भी देव शोक, भय, ईर्ष्या भादि दुःखों से दुखित है । मनुष्य गति के दुःख तो यह मानव स्वयं अनुभव कर रहा है। गर्म से लेकर जरा यावत् मृत्यु पर्यन्त मनुष्य दुखी है। कोई रोगपीड़ित है तो कोई धन जन के अभाव में चिन्तित है। कोई पुत्र स्त्री के विरह से संतप्त है तो दूसरा दारिद्रय दुःख से दवा हुआ है। संमार में एक जगह भीषण युद्ध चल रहा है तो दूसरी जगह रोग फैले हुए हैं। एक जगह वृष्टि न होने से जीव त्राहि त्राहि फरते हैं तो दूसरी जगह अतिवृष्टि से हाहाकार मचा हुभा है। घर घर कलह का अखाड़ा हो रहा है। स्वार्थवश भाई भाई का खून पीने के लिए तैयार है। माता पिता सन्तान को नहीं चाहते, पति पत्नी एक दूसरे के प्राणों के प्यासे हैं। इस तरह सारा संसार दुःख
और इंन्द्र से पूर्ण है, कहीं भी शान्ति दिखाई नहीं देती।। ___ यह संसार एक रंगमञ्च है और जीव नट है । कर्म से प्रेरित यह जीव नाना प्रकार के शरीर धारण करता है। यह जीप पिता होकर भाई , पुत्र और पौत्र हो जाता है। माता पन कर स्त्री और पुत्री हो जाता है। स्वामी दास बन जाता है और दास स्वामी बन जाता है। यह संसार की विचित्रता है। एक ही जन्म में राजा से रंक और रंक से राजा होते हुए भी कितने ही प्राणी देखे जाते हैं। जीव इस संसार के सभी क्षेत्रों में रहा है, सभी जाति और कुलों में इसने जन्म लिया और प्रत्येक जीव के साथ नाता जोड़ा है । अनन्त काल से परिभ्रमण करते हुए इसे कहीं विश्राम नहीं मिला ।
'संसार में कोई सुख नहीं है। इस आशय को बताते हुए स्वर्गीय
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२
श्री सेठिया जैन प्रस्थानाला
शतावधानी पण्डित मुनि श्री रनचन्द्रजी स्वामी ने भावनाशतक में कहा है
तनोर्दुःख भुक्ते विविधगदर्ज कश्चन, जनः। तदन्यः पुत्र स्त्री विरह जनितं मानसमिदम् । परो दारिद्रयोत्थं विषसमविपत्तिं च सहते। नसंसारे कश्चित्सकलसुख भोक्तास्ति मनुजः॥ क्वचिद्राज्ञां युद्धं प्रचलति जनोच्छेद जनकं । क्वचित् क्रूरा मारी बहुजन विनाशं विदधती। क्वचिद् दुर्भिक्षण तुधित.पशुमादिमरणं । विपद्वह्निज्वालाज्वलितजगति क्वास्ति शमनम् ॥
भावार्थ- कोई पुरुष विविध रोगों से पैदा होने वाले शारीरिक कष्ट को भोगता है तो दूसरा पुत्र, स्त्री आदि के विरह जनित मानसिक दुःख से दुखी है। कोई दरिद्रता के दुःख और विष जैसी विपत्ति को सहता है । संसार में ऐसा कोई मनुष्य दिखाई नहीं देता जो समी सुखों का भोगने वाला हो।
कहीं पर जनसंहारक राजाओं का युद्ध चल रहा है और कहीं पर अनेक मनुष्यों का नाश करती हुई क्रूर मारी फैली हुई है। कहीं पर दुष्काल पड़ा हुआ है और भूख के मारे पशु और मनुष्य मर रहे हैं। विपत्ति रूप भमि की ज्वाला से जलते हुऐ इस संसार में शान्ति कहाँ है ? अर्थात् कहीं भी शान्ति नहीं है।।
इस प्रकार संसार भावना का चिन्तन करने से आत्मा को संसार में मोह नहीं होता । संसार को दुःख द्वन्द्व मय समझ कर वह निर्वेद प्राप्त करता है एवं संसार के भय का नाश करने वाले और वास्तविक सुख देने वाले जिन वचनों की ओर उन्मुख होता है।
(४) एकत्व भावना- यह आत्मा अकेला उत्पन्न होता है और अकेला मरता है । कर्मों का सञ्चय भी यह अकेला करता है और उन्हें
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
३६३
भोगता भी अकेला ही है । स्वजन मित्र आदि कोई भी व्याधि, जरा और मृत्यु से पैदा होने वाले दुःख दूर नहीं कर सकते । वस्तुतः स्वजन कोई भी नहीं है । मृत्यु के समय स्त्री विलाप करती हुई घर के कोने में बैठ जाती है, स्नेह और ममता की मूर्ति माता भी घर के दरवाजे तक शव को पहुंचा देती है । स्वजन और मित्र समुदाय श्मशान तक साथ आते हैं, शरीर भी चिता में आग लगने पर भस्म
जाता है परन्तु साथ कोई नहीं जाता । मानव अपने प्रियजनों के लिए बड़े बड़े पापकार्य करता है, उनके सुख और श्रानन्द के लिए दूसरों पर अन्याय और अत्याचार करते उसे संकोच नहीं होता । पापकर्म जनित धनादि सुख सामग्री को प्रियजन आनन्द पूर्वक भोगते हैं और उसमें अपना हक समझते हैं, किन्तु पापकर्मों के फल भोगने के समय उनमें से कोई भी साथ नहीं देता और पापकर्ता को अकेले ही उनका दुःखमय फल भोगना पड़ता है। जन्म और मृत्यु के समय आत्मा की एकता को प्रत्यक्ष करते हुए भी जीव परवस्तुओं को अपनी समझता है यह देख कर ज्ञानी पुरुषों को बड़ा श्रार्य होता है। सुख के साधन रूप पाँच इन्द्रियों के विषयों में ममत्व रखना, उनका संयोग होने पर हर्षित होना और वियोग होने पर दुखी होना मोह की विडम्बना मात्र है। एकत्व भावना का वर्णन करते हुए श्रीशुभचन्द्राचार्य कहते हैं
एक: स्वर्गी भवति विबुधः स्त्रीमुखाम्भोज भृंगः । एकः श्वात्रं पिवति कलिलं छिद्यमानैः कृपापैः ॥ एकः क्रोधाद्यनलकलितः कर्म बध्नाति विद्वान् । एकः सर्वावरणविगमे ज्ञानराज्यं भुनक्ति ॥ भावार्थ - यह जीव अकेला ही अप्सरात्रों के मुख रूपी कमल के लिये भ्रमर रूप स्वर्ग का देवता बनता है। अकेला ही तलवारों से छेदन किया गया नरक में खून पीता है। क्रोधादि रूप आग
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
३६४
से जलता हुआ अकेला ही यह जीव कर्म बाँधता है और सभी आवरणों के नाश होने पर वह ज्ञानी होकर ज्ञ न रूप राज्य का भोग भी अकेला ही करता है ।
परखी को पत्नी समझना जिस प्रकार भयावह है उसी प्रकार परभावों में ममत्व करना भी दुःखों को मामन्त्रण देना है। परभावों में स्वत्व और परत्व के भाव आने से ही जीव में राग द्वेष बढ़ते हैं जो कि संसार के मूल हैं । इस भावना के चिन्तन से परभावों में ममता नहीं रहती और राग द्वेष की मात्रा घटती है ।
I
(५) अन्यत्व भावना - में कौन हॅू १ माता पिता आदि मेरे कौन हैं ? इनका सम्बन्ध मेरे साथ कैसे हुआ ? इसी तरह हाथी, घोड़े, महल, मकान, उद्यान, वाटिका तथा अन्य सुख ऐश्वर्य की सामग्री मुझे कैसे मिली ? इस प्रकार का चिन्तन इस भावना का विषय है। शरीर और आत्मा भिन्न हैं। शरीर विनश्वर है, आत्मा शाश्वत है। शरीर पौद्गलिक है, आत्मा ज्ञान रूप है। शरीर मूर्त है, आत्मा अमूर्त है। शरीर इन्द्रियों का विषय है, आत्मा इन्द्रियातीत है । शरीर सादि है, आत्मा अनादि है । इनका सम्बन्ध कर्म के वश हुआ है । इस लिये शरीर को आत्मा समझना आन्ति है। रोगादि से शरीर के कुश होने पर शोक न करते हुए यह विचार करना चाहिये कि शरीर के कश होने से यावत् नष्ट होने से मात्मा का कुछ नहीं बिगड़ता । मात्मा नित्य एवं ज्योति स्वरूप है । जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, भोग, हास और वृद्धि आत्मा के नहीं होते, ये तो कर्म के परिणाम हैं। इसी प्रकार माता, पिता, सास, ससुर, स्त्री, पुत्र आदि भी आत्मा के नहीं हैं, आत्मा भी इनका नहीं है । सन्ध्या समय बसेरे के लिये वृक्ष पर जिस प्रकार पक्षी या मिलते हैं और सुबह बिखर जाते हैं। इसी प्रकार स्वजनादि का संयोग भी अल्प काल के लिए होता है । प्रत्येक जन्म में इस आत्मा के साथ दूसरी
1
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग अनेक श्रात्माओं का सम्बन्ध होता रहा है और उनसे यह आत्मा अलग भी होता रहा है। संयोग के साथ वियोग है-यह विचार कर स्वजन सम्बन्धियों में ममता न रखनी चाहिये । उपाध्याय श्री विनयविजय जी अन्यत्व-भावना का वर्णन करते हुए कहते हैं
यस्मै त्वं यतसे विभेषि च यतो यत्रानिशं मोदसे । यद्यच्छोचसिययदिच्छसि हृदायत्प्राप्य पेप्रीयसे। स्निग्धो येषु निजस्वभावममलं निलोव्य लालप्यसे । तत्सर्व परकीयमेव भगवन्नात्मन्न किञ्चित्तव ॥
भावार्थ-जिसके लिए तू प्रयत्न करता है, जिससे तू डरता है, - जिसमें तू सदा प्रसन्न रहता है, जिसका तू शोक करता है, जिसे तू हृदय से चाहता है, जिसे पाकर तू खूब प्रसन्न हो जाता है, जिनमें पासक्ति वाला होकर तू अपने पवित्र स्वभाव को कुचल देता है और पागल की तरह पकने लगता है। हे आत्मन् ! यह सभी पराया है, तेरा कुछ भी नहीं है।
परकीय पदार्थों में ममत्व भाव धारण कर आत्मा उनके उत्थान और पतन में अपना उत्थान और पतन समझने लगता है एवं अपना कर्तव्य भूल जाता है। यह अवसरन आवे और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का चिन्तन कर उसे विकास की ओर अग्रसर करे यही इस भावना का उद्देश्य है।
(६) अशुचि भावना- यह शरीर रज और वीर्य जैसे घृणित पदार्थों के संयोग से बना है। माता के गर्भ में अशुचि पदार्थों के
आहार के द्वारा इसकी वृद्धि हुई है । उत्तम, स्वादिष्ट और रसीले पदार्थों का पाहार भी इस शरीर में जाकर अशुचि रूप से परिणत
होता है। नमक की खान में जो पदार्थ गिरता है जैसे वह नमक बन , नाता है। इसी तरह जो भी पदार्थ इस शरीर के संयोग में आते हैं
वे सब अशुचि (अपवित्र ) हो जाते हैं। ऑख, नाक, कान आदि
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला नव द्वारों से सदा इस शरीर से मल मरता रहता है । साबुन से धोने पर भी जैसे कोयला अपने रंग को नहीं छोड़ता, कपूर भादि सुगंधित पदार्थों से वासित भी ल्हशुन अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ता, इसी तरह इस शरीर को पवित्र और निर्मल बनाने के लिये कितने . ही साधनों का प्रयोग क्यों न किया जाय परन्तु वह अपने अशुचि स्वभाव का त्याग नहीं करेगा बल्कि निर्मल पनाने वाले साधनों को भी मलिन बना देगा। यदि शान्त और स्थिर बुद्धि से विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि शरीर का प्रत्येक अवयव घृणाजनक है । यह रोगों का घर है । सुन्दर, हृष्ट पुष्ट युवक शरीर बुढ़ापे में कैसा जर्जरित हो जाता है यह भी विचारणीय है। अशुचि भावना का वर्णन करते हुए ज्ञानापाव में श्री शुभचन्द्राचार्य कहते हैं
अजिन पटल गूढं पञ्जरं कीकसानाम् । कुथित कुणप गन्धैः पूरितं मूढ ! गाढम् ॥ यम वदन निषण्णं रोग भोगीन्द्र गेहम् । कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम् ॥
भावार्थ-हे मूर्ख ! यह मानव शरीर चर्म पटल से आच्छादित हड्डियों का पिंजर है। सड़ी हुई लाश की दुर्गन्धि से भरा हुमा है। यह मौत के मुंह में रहा हुआ है और रोग रूपी सो का घर
है। ऐसा यह शरीर मनुष्यों के प्रीति योग्य कैसे हो सकता है ? इस • प्रकार शरीर को अशुचि मान कर इससे मोह घटाना चाहिये । मानव शरीर को सुन्दर, निर्मल और बलवान् समझना भ्रान्ति मात्र है। आत्ममाव की ओर उपेक्षा कर निसर्ग मलिन इस शरीर के पोषण में सर्व शक्तियों को लगा देना मनुष्य की सब से बड़ी अज्ञानता कही जा सकती है। अखिल विश्व में धर्म ही सत्य है, पवित्र है, दोषों को दूर कर वास्तविक सुख का देने वाला है। इस प्रकार की भावना से शरीर के प्रति निर्वेद होता है और. जीव प्रात्म
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ३७१ आकाश पर स्थित है। लोक के चारों ओर अनन्त आकाश है। लोक में नीचे से ज्यों ज्यों ऊपर आते हैं त्यो त्यों सुख बढ़ता जाता है। ऊपर से नीचे की ओर अधिकाधिक दुःख है । ऊर्ध्वलोक में सर्वासिद्ध के ऊपर सिद्ध शिला है । आत्मा का स्वभाव ऊपर की भोर जाना है परन्तु कर्म से भारी होने के कारण वह नीचे जाता है इस लिए कर्म से छुटकारा पाने के लिए धर्म का प्राचरण करना चाहिए।
इस प्रकार लोक भावना का चिन्तन करने से तत्त्व ज्ञान की विशुद्धि होती है और मन अन्य वाह्य विषयों से हट कर स्थिर हो जाता है। मानसिक स्थिरता द्वारा अनायास ही आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति होती है।
(११) बोधि दुर्लम भावना-पोधि का अर्थ है ज्ञान । इसका अर्थ सम्यक्त्व भी किया जाता है। कहीं वोधि शब्द का अर्थ रत्नत्रय मिलता है। धर्म सामग्री की प्राप्ति भी इसका अर्थ किया जाता है परन्तु ज्ञान आन्तर प्रकाश की ही यहाँ प्रधानता है। धर्म के साधनों का सत्य स्वरूप बतलाने की शक्ति भी इसी में है। बोधि को रत्न की उपमा दीजाती है । जैसे रल की विशेषता प्रकाश है इसी प्रकार बोधि में भी ज्ञान की प्रधानता है। वोधि की प्राप्ति होना अति दुर्लभ हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन में कहा है
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुइ सद्धा, संजमम्मि य वारियं ॥
अर्थात-इस संमार में प्राणी को चार अंगों को प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है-मनुष्य जन्म, शास्त्रश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम । इसी तरह दसवें अध्ययन में भी बताया है- -
लदधूण वि उत्तमं सुह, सहहणा पुणरावि दुल्लहा। मिच्छत निसेवए जणे, समयं गोयम !मा पमायए । अर्यात्- उत्तम श्रवण (सत्सङ्ग अथवा सद्धर्म) भी मिल जाना
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
... श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना सम्भव है किन्तु सत्य पर यथार्थ श्रद्धा होना बहुत ही कठिन है क्योंकि संसार में मिथ्यात्व का सेवन करने वाले बहुत दिखाई देते हैं। इसलिए हे गौतम ! तु एक समय का भी प्रमाद मत कर ।
इस प्रकार शास्त्रों में स्थान स्थान पर बोधि की दुर्लभता बताई है। शान्तसुधारस में उपाध्याय श्री विनयविजयजी ने कहा है
अनादौ निगोदान्धकूपे स्थितानामजलं जनुत्युदुःखार्दितानाम् । परीणामशुद्धिः कुतस्तादृशी स्यात् । यया हन्त ! तस्माद्विनियान्ति जीवाः ।। ततो निर्गतानामपि स्थावरत्वं, नसत्वं पुनदुर्लभं देहभाजाम् । नसत्वेऽपि पञ्चाक्षपर्याप्तसंज्ञिस्थिरायुष्यबदुर्लभ मानुषत्वम् ।। तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो, महामोहमिथ्यात्वमायोपगूढः।। भ्रम दूरमग्नो भवागाधगर्ने,
पुनः क्व प्रपद्यत तबोधिरत्नम् ॥ भावार्थ-अनादि निगोदान्ध रूप कूप में रहे हुए, निरन्तर जन्म मरण के दुख से पीड़ित प्राणियों की वैसी परिणाम शुद्धि कैसे हो कि वे वहाँ से निकल सकें।वहाँ से यदि किसी प्रकार वे प्राणी निकलते हैं तो स्थावरता प्राप्त करते हैं परन्तु प्रसावस्था का प्राप्त करना उनके लिए अत्यन्त कठिन है। यदि वे त्रस भी हो जाये तो पञ्चेन्द्रियता, पर्याप्तावस्था और संज्ञित्व का मिलना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। संज्ञी जीवों में भी मनुष्य जन्म पाना और उस में भी दीर्घायु पाना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य जन्म पाकर के भी यह मूढ आत्मा मिथ्यात्व और माया
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ३७३ में फंसा हुआ संसार रूप अथाह कूप में गहरा उतर कर इधर उधर भटकता फिरता है। वोधिरत्न की प्राप्ति इसे कैसे हो सकती है ?
इतना ऊपर उठ कर भी भात्मा चोधि से वश्चित रह जाता है। इस से इसकी दुर्लभता जानी जा सकती है। बोधि को प्राप्त करने का मनुष्य जन्म ही एक उपयुक्त अवसर है और यही कारण है कि देवता भी इसे पाने के लिये लालायित रहते हैं। इस लिए इस जन्म में आर्य देश, उत्तम कुल, पूर्ण पाँचों इन्द्रियों आदि दस वोल पाकर योधि को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये । अनेक जन्म के बाद महान् पुण्य के योग से ऐसा सुअवसर मिलता है और दुवारा इसको जन्दी मिलना सहज नहीं है। धर्म प्राप्ति में और भी अनेक विघ्न हैं इस लिए जब तक शरीर नीरोग है, बुढ़ापे से शरीर जीर्ण नहीं होता, इन्द्रियों अपने अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हैं तव तक इसके लिये प्रयत्न कर मनुष्य जन्म को सार्थक करना चाहिये । मनुष्य जन्म और बोधि की दुर्लभता बताने का यही आशय है कि यह अवसर अमूल्य है। धर्म प्राप्ति योग्य अवस्था पाकर प्रमाद करना ठीक वैसा ही है जैसे बड़ी भारी वरात लेकर विवाह के लिये गये हुए पुरुष का ठीक विवाह का मुहूर्त पाने पर नींद में सो जाना। श्रीचिदानन्दजी महाराज कहते हैं
'बार अनन्ती चून्यो चेतन!, इण अवसरमत चूक' इस प्रकार की भावना करने से जीव रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग में अप्रमादी वन कर धीरेधीरे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जाता है।
(१२) धर्म भावना• वत्थुसहावो धम्मो, खतिपमुहो दसविहो धम्मो।
जीवाणं रक्खणं धम्मो, रयणतयं च धम्मो॥
अर्थात्-वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि दस भेद रूप धर्म है । जीवों की रक्षा करना धर्म है और सम्यरज्ञान, सम्यग्दर्शन,
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
३७४
सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म है ।
1
इसी तरह दान, शील, तप और भाव रूप धर्म भी कहा गया है। जिन भगवान् से कहा हुआ उक्त स्वरूप वाला धर्म सत्य है एवं प्राणियों के लिये परम हितकारी है। राग और द्वेष से रहित, स्वार्थ और ममता से दूर, पूर्णज्ञानी, लोकत्रय का हित चाहने वाले जिन भगवान् से उपदिष्ट धर्म के अन्यथा होने का कोई कारण नहीं है । धर्म चार पुरुषार्थ में प्रधान है और सब का मूल कारण है। इस धर्म की महिमा अपार है । चिन्तामणि, कामधेनु और कल्प वृक्ष इसके सेवक हैं। यह धर्म अपने भक्त को क्या नहीं देता ! उसके लिये १ विश्व में सभी सुलभ हैं । धर्मात्मा पुरुष को देवता भी नमस्कार I करते हैं । दशवेकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन में कहा हैधम्मो मंगल मुक्क, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नर्मसंति, जस्स धम्मे सया मणो भावार्थ - अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है | जिस का चित्त धर्म में लगा हुआ है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ! संसार के बड़े बड़े साम्राज्य और ऐश आराम की मनोहर सामग्री इसी धर्म के फल हैं। पूर्णिमा के चन्द्र जैसे उज्ज्वल सद्गुणों की प्राप्ति भी इसी के प्रभाव से होती है। समुद्र पृथ्वी को नहीं बहाता, मेघ सारी पृथ्वी को जलमय नहीं करते, पर्वत पृथ्वी को धारण "करना नहीं छोड़ते, सूर्य और चन्द्र अपने नियम से विचलित नहीं होते, यह सभी मर्यादा धर्म से ही बनी हुई है ।
11
यह धर्म बान्धव रहित का बन्धु है, बिना मित्र वाले का मित्र है, रोगियों के लिये औषध है, धनाभाव से दुःखी पुरुषों के लिये धन है, अनाथों का नाथ है और अशरण का शरण है ।
धर्म की स्तुति करते हुए उपाध्याय श्री. विनयविजयजी कहते
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ३७५ त्रैलोक्यं सचराचरं विजयते यस्य॑ प्रसादादिदं । योऽत्रामुत्र हितावहस्तनुभृतां सर्वार्थसिद्धिप्रदः ।। येनानर्थकदर्थना निजमहः सामर्थ्यतो व्यर्थिता । तस्मै कारुणिकाय धर्मविभवे भक्तिपणामोऽस्तु मे॥
भावार्थ-जिस धर्म के प्रभाव से स्थावर और जंगम वस्तुओं वाले ये तीनों लोक विजयवन्त हैं । जो इस लोक और परलोक में प्राणियों का हित करने वाला है और सभी कार्यों में सिद्धि देने चाला है। जिसने अपने तेज के सामर्थ्य से अनर्थ जनित पीड़ाओं को निष्फल कर दिया है। उस करुणामय धर्म विभु को मेरा भक्ति पूर्वक नमस्कार हो।
इस प्रकार की धर्म भावना से यह आत्मा धर्म से च्युत नहीं होता और धर्मानुष्ठान में तत्पर रहता है।
इन वारह भावनाओं का फल बताते हुए स्वर्गीय शतावधानी पण्डित मुनि श्री रत्नचन्द्रजी स्वामी ने कहा है
एतद्वादशभावनाभिरसुमानेकान्ततो योऽसकृत् । स्वात्मनं परिभावयेत्निकरणैः शुद्धैः सदा सावरम्॥ शाम्यन्त्युप्रकषायंदोषनिचया नश्यन्त्युपाध्याधयो। दुःख तस्य विलीयते स्फुरति च ज्ञानप्रदीपोधुवम् ॥
भावार्थ-जो प्राणी एकान्त में बैठ कर मन, वचन और काया की शुद्धि पूर्वक तथा आदर भक्ति के साथ सदा वार चार इन भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है उसके उग्र कषाय दोषों का समूह नष्ट हो जाता है, प्राधि और उपाधि शान्त हो जाती हैं उसका दु:ख विलीन हो जाता है और शाश्वत ज्ञान प्रदीप प्रकाश करता रहता है।
भावना जोग सुद्धप्पा, जले नावा' वाहिया। नावा व तीर संपन्ना, सव्वदुक्खा तिउद्दई ।
मियाटाग मत्र ययन १५ गाथा"
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्थमाता भावार्थ-पच्चीस प्रकार की अथवा चारह प्रकार की भावनाओं से जिसका भात्मा शुद्ध हो गया है वह पुरुष जल में नाव के समान कहा गया है। जैसे तीर भूमि को पाकर नाव विश्राम करती है इसी तरह वह पुरुष सब दुःखों से छूट जाता है।
उत्तम भावना करने वाले पुरुष की जो गति होती है उसे बताने के लिए शाखकार कहते हैं-उचम भावना के योग से जिसका अन्तःकरण शुद्ध होगया है वह पुरुष संसार के स्वरूप को छोड़कर जल में नाव की तरह संसार सागर के ऊपर रहता है। जैसे नाव जल में नहीं इवती है इसी तरह बह पुरुष भी संसार सागर में नहीं डूबता है। जैसे उत्तम कर्णधार से युक्त और अनुकूल पवन से प्रेरित नाव सब द्वन्द्वों से मुक्त होकर तीर पर प्राप्त होती है। इसी तरह उत्तम चारित्रवान जीव रूपी नाव उत्तम भागम रूप कर्णधार से युक्त तथा तप रूपी पवन से प्रेरित होकर दु:खात्मक संसार से छूटकर समस्त दुःखों के प्रभाव रूप मोक्ष को प्राप्त करती है।
(श्री शान्त सुधारस ) (भावना शतक) (शानार्णव दूसरा प्रकरण) (प्रवचन सारोद्धार द्वार ६७) (तत्त्वाधिगम भाष्य अध्याय १) भूधरदासकृत बारह भावना के दोहे
(१) अनित्य भावना राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सब को एक दिन, अपनी अपनी बार ॥
(२) अशरण भावना दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार । मरती विरियाँ जीव को, कोई न राखन हार ॥
(३) संसार भावना दाम विना निर्धन दुखी, तृष्णा. वश ,धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
(४) एकत्व भावना
आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय । यों कहूँ या जीव को, साथी सगा न कोय ॥
() ( ५ ) अन्यत्व भावना जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर संपति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय || (६) अशुचि भावना
दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह । भीतर या सम जगत में, और नही घिन गेह ॥ (७) याश्रव भावना
जगवासी घूमें सदा, मोह नींद के जोर । सब लूटे नहीं दीसता, कर्मचोर चहुँ ओर ॥ (८) संवर भावना
मोह नींद जब उपशमै, सतगुरु देय जगाय । कर्म चोर श्राचत रुकें, तब कुछ बने उपाय ॥ (६) निर्जरा भावना
ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर । या विधिविन निकसे नहीं, पैठे पूरव चोर ॥ पंच महाव्रत संचरण, समिती पंच प्रकार | प्रबल पञ्च इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार ॥
(१०) लोक भावना
|
चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें नीत्र अनादि तें, भरमत है विन ज्ञान || (११) घोधिदुर्लभ भावना
३७७
धन जन कंचन राज सुख, सबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ॥
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७८
1
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
(१२) धर्म भावना
जाये सुरतरु देय सुख, चिन्तित चिन्तारैन । बिन नाचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख देन ॥
(८१२) (क) — बारह भावना ( मङ्गलराय कृत ) इस पुस्तक के परिशिष्ट पृष्ठ ५१७ में हैं ।
1
बारह भावना भाने वाले महा पुरुषों के नाम और संक्षिप्त परिचय
(१) अनित्य भावना - भगवान् ऋषभ देव के ज्येष्ठ पुत्र श्री भरत चक्रवर्ती ने भाई थी । एक दिन स्नानादि कर वस्त्राभूषणों से अलकृत होकर भरत महाराज आदर्श भवन (सीस महल) मे गये । महल में जाकर दर्पण के अन्दर अपना रूप देखने लगे । अचानक एक हाथ की अती में से अनूठी नीचे गिर पड़ी। दूसरी अङ्गलियों की अपेक्षा वह असुन्दर मालूम होने लगी। भरत महाराज को विचार आया कि क्या इन बाहरी व्याभूषणों से ही मेरी शोभा है ? उन्होंने दूसरी अङ्गलियों की अङ्गठियों को भी उतार डाला और यहाँ तक कि मस्तक का मुकुट आदि सब आभूषण उतार दिये । पत्र रहित वृक्ष जिस प्रकार शोभा हीन हो जाता है उसी प्रकार की छावस्था अपने शरीर की देख कर भरत महाराज विचारने लगे-वह शरीर स्वयं असुन्दर है । जिस प्रकार चित्रादि क्रिया से भीत को शोभित किया जाता है उसी प्रकार आभूषणों से ही इस शरीर की शोभा है। यह इसकी कृत्रिम शोभा है । इसका असली स्वरूप तो कुछ और ही है । यह अनित्य एव नश्वर है । मल मूत्रादि अशुचि पदार्थों का भण्डार है । जिस प्रकार अपने ऊपर पड़ी हुई जल की बूँदों को ऊसर भूमि क्षार बना देती है उसी प्रकार विलेपन किये गये कपूर, केशर, कस्तूरी और चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों को भी यह शरीर दूषित कर देता है। इस शरीर की कितनी ही रक्षा क्यों न की जाय परन्तु एक दिन यह अवश्य नष्ट हो जायगा । वे तपस्वी मुनीश्वर धन्य हैं जो इस शरीर की अनित्यता को जान कर मोक्ष फलदायक तप द्वारा स्वयमेव इसे कृश कर डालते हैं। इस प्रकार
* चिन्तारै नचिन्तारयण -- चिन्तामणि रत्न |
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ३७६ प्रपल वेग से अनित्य भावना का विचार करते हुए भरत महाराज क्षपक श्रेणी में प्रारूढ हुए । चढ़ते हुए परिणामों की प्रबलता से घाती कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन उपार्जन कर लिये और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त कर लिया।
भरत चक्रवर्ती का अधिकार त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के प्रथम पर्व, सर्ग ६ में है।
(२) अशरण भावना-अनाथी मुनि ने भाई थी। आँखों में उत्पन्न हुई अत्यन्त वेदना के ममय अनाथी विचारने लगे कि माता, पिता, भाई, पहिन, पत्नी आदि तथा धन सम्पचि आदि सारे सांसारिक साधन मेरी इम वेदना को शान्त करने में समर्थ नहीं हो रहे हैं। यदि कदाचिन ये साधन मेरी बाहरी वेदना को शान्त करने में समर्थ हो मी जाये तो भी आत्मवेदना को दूर करने की
औषधि तो बाहर कहीं भी मिल नहीं सकती। आत्मा की अनाथता (अशरणा) को दूर करने में कोई भी वाह्य शक्ति काम नहीं श्रामकती । आत्माको सनाथ पनाने के लिए तो आत्मा ही समर्थ है। इस प्रकार अशरण भावना के प्रबल वेग से उन्हें संसार से
वैराग्य हो गया। राज्य के समान ऋद्धि, भोग विलास, रमणियों के आकर्षण तथा माता पिता के अपार अपत्य स्नेह को त्याग कर वेसंयमी बन गये। एक समय वे मुनि एक उद्यान में ध्यानस्थ बैठे थे। महाराज श्रोणिक उधर आ निकले । अनाथी मुनि के अनुपम रूप और कान्ति को देख कर श्रोणिक राजा को अति विस्मय हुमा। वे विचारने लगे-इन आर्य की कैसी अपूर्व सौम्यता, क्षमा, निर्लोभता तथा भोगों से निवृत्ति है ? मुनि के चरणवन्दन कर राजा श्रेणिक पूछने लगाहे आय ! इस तरुणावस्था में भोगविलास के समय आपने दीक्षा क्यों ली है ? इस उग्र चारित्र को धारण करने में आपको ऐसी क्या प्रेरणा मिली है जिससे आपने इस युवावस्था
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
१
में संयम अङ्गीकार किया है ? अनाथी मुनि फरमाने लगेहोम महाराय ! पाह। मज्झ न विज्जई । saणुकंप सुहिं वा वि, कंचि नाभिसमेमहं ॥ अर्थात् - हे महाराज ! मैं अनाथ हूँ, मेरा रक्षक कोई नहीं है और अभी तक ऐसा कोई कृपालु मित्र भी मुझे नहीं मिल सका है। इसी नाथ भावना से प्रेरित होकर मैंने संयम स्वीकार किया है ।
महाराज श्रेणिक के पूछने पर अनाथी मुनि ने अनाथता और सनाथता का विस्तृत विवेचन कर उसे समझाया । इसका अधिकर उत्तराध्ययन सूत्र के महानिर्ग्रन्थीय नामक बीसवें अध्ययन में है । इसी अध्ययन की अनाथता को बतलाने वाली गाथाओं का अर्थ पन्द्रहवें बोल संग्रह में दिया जायगा ।
(३) संसार भावना - भगवान् मल्लिनाथ के मित्र राजा प्रतिबुद्ध, चन्द्रछाय, रुक्मी, शंख, अदीनशत्रु और जितशत्रु नामक छः राजाओं'
भाई थी । ये पूर्वभव में सातों मित्र थे । सातों ने एक साथ दीक्षा ली थी। इस भव में मल्लिनाथ स्त्री रूप में पैदा हुए और ये छहों अलग अलग देश के राजा हुए | मल्लिकुंबरी के रूप लावण्य की प्रशंसा सुन कर ये छहों उसके साथ विवाह करने के लिए आए । मल्लिकुंवरी ने उन्हें शरीर का अशुचिपन और संसार की असारता बतलाते हुए मार्मिक उपदेश दिया जिससे उन्हें जातिस्मृति ज्ञान पैदा होगया । वे अपने पूर्वभा को देखने लगे और विचारने लगे कि पूर्वभव में हम सब ने एक साथ दीक्षा ली थी। हम सब ने एक सरीखा तप करने का निश्चय किया या किन्तु माया सहित अधिक तपस्या करने से इनको स्त्रीवेद का बन्ध हो गया था, साथ ही दीस वोलों की उत्कृष्ट आराधना करने से तीर्थङ्कर नाम कर्म भी उपार्जन किया
था । इस भत्र में ये स्त्री रूप में उन्नीसवें तीर्थङ्कर हुए हैं । संसार की कैसी विचित्रता है कि आज हम उन्हीं त्रिलोकपूज्य तीर्थङ्कर
1
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल साह, चौथा भाग देव को तथा अपने पूर्वभव के मित्र को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा से यहाँ आये हैं। इस प्रकार संसार की विचित्रता और असारता का विचार करते हुए उन्हें विषय भोगों से घणा एवं संसार से वैराग्य हो गया । राज पाट छोड़ कर दीक्षा अंगीकार कर ली। केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन कर अन्त में सिद्धपद प्राप्त किया। इनकी विस्तृत कथा ज्ञाता धर्म कथाङ्ग सूत्र के आठवें अध्ययन में है।
(४) एकत्व भावना- नमिराजर्षि ने भाई थी। मिथिला के महाराजा नमिराज दाह ज्वर की दारुण चेदना से पीड़ित हो रहे थे। उस के लिए महारानियाँ पावनगोशीर्ष चन्दन घिम रही थीं। हाथ में पहनी हुई चूड़ियों की परस्पर रगड़ से उत्पन्न होने वाला शब्द महाराज की वेदना में वृद्धि करता था। वह शब्द उनसे सहन नहीं हो सका इम लिए प्रधान मन्त्री को बुला कर उन्होंने कहा- यह शब्द मेरे से सहन नहीं होता, इसे बन्द कराओ । चन्दन घिसने वाली रानियों ने सौभाग्य चिन्ह स्वरूप हाथ में सिर्फ एक एक चूड़ी रख कर पानी की सब उतार डालीं। चूड़ियों के उतरते ही तत्काल शोर बन्द हो गया।
थोड़ी देर बाद नमिराज ने पूछा-क्या कार्य पूरा हो गया ? मन्त्री ने जवाब दिया-नहीं महाराज ! कार्य भी हो रहा है। . नमिराज ने पूछा-शोर चन्द कैसे हो गया १ मन्त्री ने ऊपर की हकीमत कह सुनाई । इस बात को सुनते ही नमिराज के हृदय में यह भाव उठा कि जहाँ पर दो हैं वहीं पर शोर होता है। जहाँ पर एक होता है वहाँ पर शान्ति रहती है । इस गूढ चिन्तन के परिणाम स्वरूप नमिराज को जातिस्मृति ज्ञान पैदा हो गण । शान्ति प्राप्ति के लिये समस्त बाह्य बन्धनों का त्याग कर एकाकी विचरने की उन्हें तीव्र इच्छा जागृत हुई। व्याधि शान्त होते ही वे योगिराज राजपाट और रानियों के भोग विलासों को बोड़ कर मुनि मन
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
भी सेठिया जै-प्रथमाला . कर एकाकी विचरने लगे। उस अपूर्व त्यागी के त्याग की कसौटी करने के लिए इन्द्र पाया। इन्द्र द्वारा किए गए प्रश्नों का उत्तर नमिराजर्षि ने बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण दिया है। इनके प्रश्नोत्तरों का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के नवे अध्ययन में बड़े ही रोचक शब्दों में दिया गया है।
(५) अन्यत्व भावना-मृगापुत्र ने भाई थी। पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण मृगापुत्र योगमार्ग पर जाने के लिए तत्पर होता है।माता पिता अपने पुत्र को योगमार्ग से रोकने के लिए मोह और ममताभरी बातें कहते हैं । तब मृगापुत्र उन्हें कहता है कि हे माता पितामो! कौन किसका सगा सम्बन्धी और रिश्तेदार है ? ये सभी संयोग क्षणमङ्ग र हैं। यहाँ तक कि यह शरीर भी अपना नहीं है। फिर दूसरे पदार्थ तो अपने हो ही रे सकते हैं ? कामभोग किंपाक फल के सदृश हैं। यदि जीव इन्हें नहीं छोड़ता तो ये कामभोग स्वयं इसे छोड़ देंगे। जब छोड़ना निश्चित है तो फिर इन्हें स्वेच्छापूर्वक क्यों न छोड़ दिया जाय। स्वेच्छा से छोड़े हुए कामभोग दुःखप्रद नहीं होते । यही भाव निम्नलिखित गाथाओं में बताया गया है
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि थे। श्रहो दुक्खोहु संसारो जत्थ कीसंति जंतुणो॥ खितं वत्थु हिरणं च, पुत्त दारं च षंधवा । चइत्ता एं इमं देहं, गंतव्वमवसस्स मे॥ जह किंपागफलाएं, परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो।
अर्थात्-यह सारा संसार अत्यन्त दुःखमय है। इसमें रहने वाले प्राणी जन्म, जरा, रोग तथा मरण के दुखों से पीड़ित हो रहे हैं। ___ ये सब क्षेत्र, घर, सुवर्ण, पुत्र, स्त्री, माता, पिता, भाई, बान्धव तथा यह शरीर भी अपना नहीं है। आगे या पीछे कभी न कमी
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, गैथा भाग ३८३ इन सव को छोड़ कर अवश्य जाना ही पड़ेगा।
जैसे किंपाक फल का परिणाम अच्छा नहीं होता अर्थात् किंपाक वृक्ष'का फल देखने में मनोहर तथा खाने में मधुर होता है परन्तु खाने के बाद थोड़ी ही देर में उससे मृत्यु हो जाती है, वैसे ही भोगे हुए भोगों का फल भी सुन्दर नहीं होता।
नव मृगापुत्र की उपरोक्त वातों का उसके माता पिता कुछ भी जवाब न दे सके तव वे संयम मार्ग में आने वाले कष्टों को बतलाने लगे और कहने लगे
तं पिंत अम्मापियरो, छंदेणं पुत्त पव्वया। एवरं पुण सामरणे, दुक्ख पिप्पडिकम्मया ॥ अर्थात्-हे पुत्र! यदि तेरी यही इच्छा है तो भले ही खुशी से दीक्षा ग्रहण कर किन्तु संयम मार्ग में विचरण करते हुए दुःख पड़ने पर प्रतिक्रिया अर्थात् रोगादि उत्पन्न होने पर उसकी चिकित्सा आदि नहीं होती । क्या यह भी तुझे खबर है ? मृगापुत्र ने जवाब दिया
सो विंत अम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं।
परिकम्मं को कुणा, अरगणे मिगपक्खीणं ॥ अर्थात्- हे माता पिताओ १ श्राप जो कहते हैं वह सत्य है परन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि जंगल में मृग तथा पक्षी आदि विचरते हैं। उनके ऊपर कट पढ़ने पर अथवा रोगादि उत्पन्न होने पर उनकी प्रतिक्रिया (चिकित्सा) कौन करता है ? अर्थात कोई नहीं करता किन्तु वह स्वतः नीरोग होकर जंगल में घास आदि खा कर स्वेच्छ भ्रमण करता है। इसी तरह उद्यमवन्त साधुः एकाकी मृगचर्या करके अपनी आत्मा को उन्नत बनाते हैं । मैं भी इसी तरह विचरूंगा।
इस प्रकार माता पिता और मृगापुत्र के बीच में जो प्रश्नोत्तर
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना
हुए उनका विस्तृत वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के मृगापुत्रीय नामक उन्नीसवें अध्ययन में है ।
अन्त में माता पिता की आज्ञा लेकर मृगापुत्र प्रत्रजित होगये । यथावत् संयम का पालन कर मोच को प्राप्त हुए ।
(६) अशुचि भावना - सनत्कुमार चक्रवर्ती ने भाई थी । सनत्कुमार चक्रवर्ती बहुत रूपवान् था । उसके रूप की प्रशंसा बहुत दूर दूर तक फैल चुकी थी। एक दिन प्रातःकाल ही स्वर्ग से चल कर दो देव ब्राह्मण का रूप चना कर उसके रूप को देखने के लिए आए । सनत्कुमार चक्री उस समय स्नानार्थ स्नान घर में जा रहा था। उसे देख कर ब्राह्मणों ने उसके रूप की बहुत प्रशंसा की। अपने रूप की प्रशंसा सुन कर सनत्कुमार को बड़ा अभिमान हुआ । उसने ब्राह्मणों से कहा -तुम लोग अभी मेरे रूप को क्या देख रहे हो ? जब मैं स्नानादि कर वस्त्राभूषणों से १ सुसज्जित होकर राजसभा में सिहासन पर बैठूं तब तुम मेरे रूप को देखना | स्नानादि से निवृत्त होकर जब सनत्कुमार सिंहासन पर जाकर बैठा तब उन ब्राह्मणों को राजसभा में उपस्थित किया गया । ब्राह्मणों ने कहा- राजन् ! तुम्हारा रूप पहले जैसा नहीं रहा । राजा ने कहा- यह कैसे १ ब्राह्मणों ने कहा- आप अपने मुँह को देखें, उसके अन्दर क्या हो रही है १ राजा ने थूक कर देखा तो उसके अन्दर एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों कीड़े किलविलाहट कर रहे थे और उससे महान् दुर्गन्ध उठ रही थी । चक्रवर्ती का रूप सम्बन्धी अभिमान चूर हो गया । उन्हें शरीर की अशुचि का भान हो गया। वे विचारने लगे 'यह शरीर घृणित एवं अशुचिमय पदार्थों से उत्पन्न हुआ है और स्वयं भी अशुचि को भण्डार है' । इस प्रकार उनके हृदय में अशुचि भावना प्रबल हो उठी । संसार - से उन्हें वैराग्य हो गया । छः खण्ड पृथ्वी का राजपाट छोड़ कर
1
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
मो जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
उन्होंने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। उत्कृष्ट तप का अराधना कर इस अशुचिमय शरीर को छोड़ कर सिद्धपद प्राप्त किया।
यह कथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र द्वितीय माग में बहुत विस्तार के साथ दी गई है।
(७) श्राव भावना-समुद्रपाल मुनि ने भाई थी। चम्पा नगरी के पालित श्रावक के पुत्र का नाम समुद्रपाल था। उसके पिता ने अप्सरा जैसी एक महा रूपवती कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया था। उसके साथ समुद्रपाल रमणीय महल में दोगुन्दक देव के समान भोग भोगने लगा । एक दिन वह अपने महल की खिड़की में से नगरचर्या देख रहा था कि इतने में ही मृत्युदण्ड के चिन्ह सहित वध्यभूमि की ओर ले जाए जाते हुए एक चोर पर उसकी दृष्टि पड़ी।
तं पासिऊण संविग्गो, समुद्दपालो इणमव्यवी। अहो असुहाण कम्माएं, णिज्जाणं पावगं इमं ॥ अर्थात्-उस चोर को देख कर उसके हृदय में तरह तरह के विचार उत्पन्न होने लगे। वैराग्य भाव से प्रेरित होकर वह स्वयं कहने लगा-अशुभ कर्मों के (अशुभ आश्रवों के) कैसे कडुए फल होते हैं। यह मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। इस प्रकार पावभावना के गहरे चिन्तन के परिणाम स्वरूप समुद्रपाल को जातिस्मृति ज्ञान पैदा हो गया। उन्होंने संसार त्याग कर संयम ले लिया और पुण्य
और पाप रूप शुभ और अशुम दोनों प्रकार के कर्मों का नाश कर मोक्षपद प्राप्त किया।
यह कथा उत्तगध्ययन सूत्र के समुद्रपालीय नामक इक्कीसवें अध्ययन में विस्तार के साथ आई है। इस अध्ययन की जैन साधु के लिए मार्गप्रदर्शक चारह गाथाओं का अर्थ इसी भागके बोल नं० ७८१ में दिया गया है।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला (८) संवर भावना- हरिकेशी मुनि ने भाई थी। पूर्व जन्म में किये गए जाति मद और रूप मद के कारण हरिकेशी मुनि चाण्डाल कुल के अन्दर उत्पन्न हुए थे और बहुत कुरूप थे। कुरूप होने के कारण उनका जगह जगह तिरस्कार होता थे। उनके हृदय में विचार उत्पन हुआ कि पूर्व जन्म के अशुभ कर्मों (पाश्रवों) के द्वारा मुझे इस भव में यह कटु फल भोगना पड़ रहा है। अब ऐसा . प्रयत्न क्यों न किया जाय जिससे इन आश्रवों का पाना ही रुक जाय । संसार सम्बन्धी क्रिया का त्याग रूप संवर भावना उनके हृदय में प्रवल हो उठी। संसार का त्याग कर वे संयम मार्ग में प्रबजित हो गए । पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस विध यतिधर्म और परीपह सहन से आते हुए कर्मों को रोकने लगे। उत्कृष्ट तप से सब कर्मों का चय कर मोक्षपद प्राप्त किया।
महामुनि हरिकेशी का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के बारहवें अध्ययन में है।
(8) निर्जरा भावना-अर्जुन माली ने भाई थी । अर्जुन राजगृही नगरी में रहने वाला एक माली था । यक्षावेश के कारण उसने बहुत से पुरुषों को मार डाला था। श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करने के लिये जाते हुए सुदर्शन श्रावक के निमित्त से उसका यक्षावेश दूर होगया । सुदर्शन श्रावक के साथ ही वह भी भगवान् को वन्दना करने के लिये गया। धर्मोपदेश सुन कर उसे वैराग्य उत्पन होगया। भगवान् के पास दीक्षा लेकर उसी दिन से बेले बेले पारणा करता हुआ विचरने लगा । गोचरी के लिये जव राजगृही में जाता था तब उसे देख कर कोई कहता-इसने मेरे पिता को मारा, भाई को मारा, बहिन को मारा, पुत्र को मारा, माता को मारा इत्यादि कह कर कोई निन्दा करता, कोई हल्के शब्दों का प्रयोग। करवा, कोई चपेटा मारता और कोई चूंसा मारता । भर्जुनमाली
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ७ अनगार इन सब को समभाव से सहन करते थे और विचार करते थे कि मैंने तो इनके सगे सम्बन्धियों को जान से मार डाला था, ये लोग तो मुझे थोड़े में ही छुटकारा देते हैं। ये लोग मेरा कुछ भी नहीं विगाड़ते प्रत्युत ये तो कर्मों की निर्जरा करने में मुझे सहायता देते हैं। इस प्रकार अर्जुन माली अनगार ने निर्जरा की भावना से उन कष्टों को समभाव पूर्वक सहम करते हुए छः महीनों 'के अन्दर ही सव कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन करके मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। ___ यह कथा अन्तगड सूत्र के छठे वर्ग के तीसरे अध्ययन में विस्तार के साथ पाई है। यहाँ तो केवल संचित सार दिया गया है।
(१०)लोक भावना-शिवराज ऋषि ने भाई थी। गङ्गा नदी के किनारे अज्ञान तप करते हुए शिवराज ऋषि को विभङ्गज्ञान पैदा होगया था जिससे वह सात द्वीप और सात समुद्रों तक देखने लगा। अपने ज्ञान को पूर्णज्ञान समझ कर वह यह प्ररूपणा करने लगा कि 'संसार में सात द्वीप और सात ही समुद्र हैं इसके आगे कुछ नहीं है' । 'स्वयम्भूरमण समुद्र तक असंख्य द्वीप और समुद्र है भगवान महावीर स्वामी की इस प्ररूपणा को सुन कर शिवराज ऋषि के हृदय में शंका कांक्षा श्रादि कलुषित भाव उत्पन्न हुए जिससे उसका विभङ्ग ज्ञान नष्ट होगया। वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया। धर्मोपदेश सुन कर उसने तापसोचित भएडोपकरणों को त्याग कर भगवान के पास दीक्षा अङ्गीकार कर ली। 'द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं। भगवान् की इस प्ररूपणा पर उसे दृढ़ श्रद्धा और विश्वास हो गया । इसका निरन्तर ध्यान, मनन
और चिन्तन करने से तथा उत्कृष्ट तप का आराधन करने से शिवराजर्षि को केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन हो गए और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त किया। यह अधिकार भगवती सूत्र, ग्यारहवें
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८९
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला शतक के नवें उद्देशे में है।
(११) बोधि दुर्लभ भावना-भंगवान् ऋषभदेव के 8८ पुत्रों ने भाई थी।जव भरत चक्रवर्ती कुछ प्रदेश के अतिरिक्त छःखएड पृथ्वी का विजय कर वापिस अयोध्या में लौटा तब अपनी आज्ञा मनवाने के लिये एक एक दूत अपने 8८ भाइयों के पास भेजा । दुतों ने जाकर उनसे कहा कि यदि आप अपने राज्य की रक्षा चाहते हैं तो भरत महाराज की आज्ञा शिरोधार्य कर उनकी अधीनता स्वीकार करें । दूतों की बात सुन नर अष्ठाणु ही भाई एक जगह इकट्ठे हुए
और परस्पर विचार करने लगे कि अपने पिता भगवान् ऋषभदेव ने अपने अपने हिस्से का राज्य अलग अलग बांट दिया है । इसमें भरत का कुछ भी अधिकार नहीं है। फिर वह हम से अपनी अधीनता स्वीकारने को क्यों कहता है ? प्रतीत होता है उसकी राज्य तृष्णा बहुत बढ़ी हुई है। बहुत से दूसरे राजाओं का राज्य ले लेने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ । उसकी तृष्णा प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। अब वह हमारा राज्य भी छीनना चाहता है। क्या हमें भाई भरत की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिये या अपने राज्य की रक्षा के लिये उससे युद्ध करना चाहिये १ इस विषय में हमें भगवान् . ऋषभदेव की सम्मति लेकर ही कार्य करना चाहिये । उनसे पूछे बिना हमें किसी ओर भी कदम न उठाना चाहिये।' इस प्रकार विचार कर वे सभी भगवान ऋषभदेव के पास आये चन्दना नमस्कार कर उन्होंने उपरोक्त हकीकत प्रभु से निवेदन की । भगवान् ने फरमाया कि हे आर्यों ! तुम इस बाहरी राज्य लक्ष्मी के लिये - इतने चिन्तित क्यों हो रहे हो ? यदि कदाचित् तुम भरत से अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ भी हो जाओगे तब भी अन्त में भागे यापीछे इस राज्यलक्ष्मी को तुम्हें छोड़ना पड़ेगा। तुम धर्म की शरण । में चले प्रायोजिससे तुम्हें ऐसी मोच रूप राज्यलक्ष्मी प्राप्त होगी
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, गैथा भाग
३८६ जिसे कोई नहीं छीन सकता । वह नित्य, स्थायी और अविनाशी है। भगवान् फरमाने लगे
संबुझह किं नवुझह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। पोहुवणमंतिराइओ, पोसुलभ पुणरावि जीविय।। डहरा वुड्डाय पासह, गम्भत्था विचयंति माणवा। सेणे जह बट्टयं हरे, एवं उखयम्मि तुद्दई ।।
अर्थात्- हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो। तुम क्यों नहीं बोध प्राप्त करते ? जो रात्रि (समय) व्यतीत होगई है वह फिर लौट कर नहीं आती और संयम जीवन फिर सुलभ नहीं है।
हे भव्यो ! तुम विचार करो-बालक,बद्ध और गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को छोड़ देते हैं । जैसे श्येन (बाज)पक्षी तीवर पर किसी भी समय झपट कर उसके प्राण हरण कर लेता है, इसी प्रकार मृत्यु भी किसी समय अचानक प्राणियों के प्राण हरण कर लेती है।
मनुष्य जन्म, आर्यदेश, उत्तम कुल, पूर्ण पांचा इन्द्रियों आदि चातों का वारवार मिलना बड़ा ही दुर्लभ है। अत एव तुम सब समय रहते शीघ्र ही चोधि (सच्चा ज्ञान) प्राप्त करने का प्रयत्न करो।
(यगडाग सून प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन २ उद्देशा १) भगवान् का उपदेश सुन कर उन्हें वैराग्य उत्पन्न होगया ।राजपाट छोड़ कर भगवान के पास दीक्षा अङ्गीकार कर ली । अन्त में केवलज्ञान, केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष पद प्राप्त किया।
इनका अधिकार सूयगडांग सूत्र के दूसरे अध्ययन के पहले उद्देशे में (शीलाङ्काचार्य कृत टीक्षा में ) तथा त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के प्रथम पर्व में है।
(१२) धर्म भावना-धर्मरुचि मुनि ने भाई थी । अपने शिष्य परिवार सहित ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धर्मघोष प्राचार्य
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
श्री सेठिया जैन्प्रथमाला
चम्पा नगरी के बाहर सुभूमिभाग नामक उद्यान में पधारे। धर्मरुचि मुनि मास पास खमया का पारणा करते थे । मासखमण के पार के दिन गुरु की आज्ञा लेकर वे गोचरी के लिए चम्पानगरी में गये । नागश्री ब्राह्मणी ने जहर के समान कड़वे तुम्बे का शाक मुनि को बहरा दिया | पर्याप्त आहार समझ कर वे वापिस लौट आये । गुरु ने उस आहार को चख कर विष के समान कड़वा और अखादथ समझ कर उन्हें परिठवने की आज्ञा दी । निखद्य स्थान पर जाकर मुनि ने शाक की एक बूंद जमीन पर डाली । घृत आदि सुगन्धित अनेक पदार्थों से सुवासित होने के कारण शाक की उस बूंद पर हजारों चींटियाँ जमा होगई और उसका श्रास्वादन करते ही प्राण रहित हो गईं । सुनि विचारने लगे कि एक बूंद मात्र आहार से इतनी चींटियों की घात हो गई । यदि यह सारा चाहार परठ दिया जायगा तो न मालूम कितने द्वीन्द्रियादि जीवों की घात हो जायगी । यदि मेरे शरीर से इनकी रक्षा हो सकती है तो मुझे यह कार्य करना श्रेयस्कर है । इस प्रकार चींटियों की अनुकम्पा से प्रेरित होकर धर्मरुचि मुनि ने वह सारा शाक खा लिया। मुनि के शरीर में तत्काल कड़वे तुम्बे का विष व्याप्त हो गया 'और वेदना बढ़ने लगी | मुनि ने उसी समय संथारा कर लिया और धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्याने लगे । परिणामों की विशुद्धता के कारण शरीर त्याग कर सर्वार्थसिद्ध विमान में तेवीस सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए ।
इसका अधिकार ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के १६ वें अध्ययन में है। यहाँ पर उन उन कथाओं का इन भावनाओं से सम्बन्ध रखने वाला कुछ अंश संक्षिप्त रूप से दिया गया है। विशेष विस्तार जानने की इच्छा वालों को उन उन स्थलों में देखना चाहिए ।
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
तेरहवां बोल संग्रह
३६१
८१३ - विनय के तेरह भेद
सम्पूर्ण दुःखों के कारणभूत आठ प्रकार के कर्मों का विनयन (नाश) जिसके द्वारा होता है उसे विनय कहते हैं, अथवा अपने से बड़े और गुरुजनों को देश काल के अनुसार सत्कार, सन्मान देना विनय कहलाता है, अथवा
कर्मणां द्राग् विनयनाद्विनयो विदुषां मतः । अपवर्ग फलाढ्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् ॥
अर्थात् - ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने से यह विनय कहा जाता है। मोक्ष रूपी फल को देने वाले धर्म रूपी वृक्ष का यह मूल है। पुरुष भेद से विनय के भी तेरह भेद हैं। वेये हैं—
( १ ) तीर्थङ्कर - साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना करने वाले त्रिलोकपूज्य, देवाधिदेव तीर्थकर कहलाते हैं। (२) सिद्ध-आठ कर्मों से रहित, सिद्धगति में विराजमान, अक्षय और अनन्त सुख सम्पन्न सिद्ध कहलाते हैं ।
(३) कुल - एक आचार्य की सन्तति कुल कहलाती है । (४) गण- समान आचार वाले साधुओं का समूह गए है। (५) संघ - साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चार तीथ का समुदाय संघ कहलाता है ।
(६) क्रिया - शास्त्रोक्त धर्मानुष्ठान क्रिया कहलाती है । (७) धर्म- जो दुर्गति में पड़ते हुए प्राणियों को धारण कर सुगति की ओर प्रेरित करे वह धर्म कहलाता है ।
(८) ज्ञान - वस्तु का निश्चायक ज्ञान कहलाता है । इसके मति, श्रुत आदि पाँच भेद हैं ।
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
(६) ज्ञानी-ज्ञान को धारण करने वाला ज्ञानी कहलाता है। (१०) आचार्य-गण का नायक श्राचार्य कहलाता है।
(११) स्थविर--संयम से गिरते हुए साधुओं को जो धर्म में स्थिर करे वह स्थविर कहलाता है।
(१२) उपाध्याय- साधुओं को स्त्रार्थ पढ़ाने वाला मुनि उपाध्याय कहलाता है।
(१३) गणी-कुछ साधुओं के समुदाय का स्वामी गयी है।
इन तेरह पुरुषों का विनय करना चाहिए । इनके भेद से विनय के भी तेरह भेद कहे जाते हैं।'
उपरोक तेरह की अनाशातना, भक्ति, बहुमान और वर्णसंज्वलनता अर्थात् गुणग्राम करना, इन चार भेदों के कारण विनय के पावन मेद भी हो जाते हैं। (दशवकालिक अध्ययन ६ उमेशा १नियुक्ति गाथा ३२५-३२६)(प्रवचन द्वार द्वार ६५ गाथा ५५०५१)(उववाईसूत्र २० ८१४--क्रियास्थान तेरह कर्मबन्ध के कारणों को क्रियास्थान कहते हैं। इनके तेरह मेद हैं
(१) अर्थदण्ड प्रत्ययिक-कुछ अर्थ अर्थात् प्रयोजन से होने वाले पापको अर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रिया स्थान कहते हैं । जैसे- कोई
अपने या अपने सम्बन्धियों के लिए त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा करे, करावे या अनुमति दे।
(२) अनर्थदण्ड प्रत्ययिक-बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला पाप । जैसे- कोई अविवेकी मूर्ख जीव विना किसी प्रयोजन प्रस, स्थावर जीवों की हिंसा करे, करावे या अनुमति दे।
(३)हिंसादण्ड प्रत्यायिक-प्राणियों की हिसा रूप पाप । जैसे'अमुक प्राणी ने मुझे, मेरे सम्बन्धियों को या अन्य किसी इष्ट, मित्र को कष्ट दिया है, देता है था देगा' यह सोच कर कोई मनुष्य स्थावर या प्रस जीपों की हिंसा करता है।
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ३६३ (४) अकस्माद्दण्ड प्रत्ययिक-विना जाने होने वाला पाप । जैसे-मृग आदिका शिकार करके भाजीविका चलाने वाला व्यक्ति मृग के भ्रम से किसी दूसरे प्राणी को मार डाले, अथवा खेत में घास काटता हुआ कोई व्यक्ति अनजान में अनाज के पौधे को काट डाले।
(५) दृष्टिविपर्यामदण्ड प्रत्ययिक-नजर चूक जाने के कारण होने वाला पाप । जैसे-गाँव में चोर आने पर भ्रमवश साधारण पुरुष को चोर समझ कर मार डालना।
(६) मृपावाद प्रत्यायिक- झूठ बोलने से लगने वाला पाप । जैसे-कोई पुरुष अपने लिए या अपने किसी इष्ट व्यक्ति के लिए झूठ बोले, चोलावे, चोलने वाले का अनुमोदन करे ।
(७) अदचादान प्रत्ययिक-चोरी करने से होने वाला पाप । जैसे-कोई मनुष्य अपने लिए या अपने इष्ट व्यक्ति के लिए चोरी करे, करावे या करते हुए को भला जाने।
(0) अध्यात्म प्रत्ययिक-क्रोधादि कपायों के कारण होने वाला पाप । जैसे-कोई पुरुष क्रोध, मान, माया या लोम के वशीभूत होकर किसी द्वारा कष्ट न दिए जाने पर भी दीन, हीन, खिन्न और अस्वस्थ होकर शोक तथा दुःखसागर में डूबा रहता है।
(8) मान प्रत्ययिक-मान या अहङ्कार के कारण होने वाला पाप । जैसे-कोई पुरुष अपनी जाति, कुल, वल, रूप, तप, ज्ञान, लाम, ऐश्वर्य या प्रज्ञा आदि से मदमत्त होकर दूसरों की अब. हेलना या तिरस्कार करता है। अपनी प्रशंसा करता है। ऐसा मनुष्य क्रूर, घमण्डी, चपल और अभिमानी होता है। मरने के बाद एक योनि से दूसरी योनि तथा नरकों में भटकता है।
(१०) मित्रदोप प्रत्ययिक-अपने कुटुम्बियों के प्रति विना कारण क्रूरता दिखाने से लगने वाला पाप | जैसे- कोई मनुष्य अपने माता, पिता, भाई, घहिन, स्त्री, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधू आदि
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला को छोटे छोटे अपराधों के लिए बहुत अधिक दण्ड देवे, उन्हें ठण्डे पानी में डुबोये, उन पर गरम पानी डाले, आग से डाँव दे या रस्सी
आदि से मार कर चमड़ी उधेड़ दे या लकड़ी प्रादि से पीटे । ऐसा मनुष्य जब तक घर में रहता है, सब लोग बड़े दुखी रहते हैं । उस के बाहर रहने पर प्रसन्न होते हैं । वह बात बात में नाराज होने लगता है। ऐसे कटु वचन बोलता है जिससे सुनने वाले जल उठे। ऐसा व्यक्ति स्वयं तथा दूसरों को प्रशान्त तथा दुखी करता है।
(११) माया प्रत्ययिक-माया अर्थात् छल कपट के कारण लगने वाला पाप । जो मनुष्य मायावी और कपटी होता है उसका कोई काम पूरा नहीं होता। उसकी नीयत हमेशा दूसरे को धोखा देने की रहती है। उसकी प्रवृत्ति कभी स्पष्ट नहीं होती । अन्दर द्वेष रखने पर भी वह बाहर से मित्र होने का ढोंग रचता है। आर्य होने पर भी अनार्य भाषा में बोलता है जिससे कोई दूसरा न समझ सके। पूछी हुई बात का उत्तर न देकर और कुछ कहने लगता है । उसका कपटी मन कभी निर्मल नहीं होता । वह कभी अपना दोष स्वीकार नहीं करता । उसे अपने पाप पर कभी पश्चात्ताप नहीं होता । न वह उसके लिए दुःख प्रकट करता है न प्रायश्चित्त लेता है। ऐसे मनुष्यों का इस लोक में कोई विश्वास नहीं करता । परलोक में वे नरकादि नीच गतियों में बार बार जाते हैं।
(१२) लोम प्रत्ययिक-कामभोग आदि विषयों में प्रासक्ति के कारण होने वाला पाप । बहुत से तापस अथवा साधु भरण्य में, आश्रम में अथवा गांव के बाहर रहते हैं, अनेक गुप्त साधनाएं करते हैं परन्तु वे पूर्ण संयमी नहीं होते । सांसारिक कामनाओं तथा प्राणियों की हिंसा से सर्वथा विरक्त नहीं होते। वे काममोगों में पास और मूञ्छित रहते हैं। अपना प्रभाव जमाने के लिए वे सभी झूठी बातें दूसरों को कहते फिरते हैं । ने पाहते हैं
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग
३६५
दूसरे मारे जावें, स्वयं नहीं, दूसरों पर हुक्म चले, उन पर नहीं । दूसरों को दण्ड मिले, उन्हें नहीं । कुछ समय कामभोग भोग कर मरने के बाद वे असुर आदि नीच गतियों में जन्म लेते हैं। वहां से छूटने पर बार बार जन्म से अन्धे, लुले, लंगड़े, पहरे, गूंगे आदि होते हैं । मोक्ष चाहने वाला जीव इन बारह स्थानों को समझ बूझ कर छोड़ दे। ये सब पाप के स्थान हैं ।
(१३) ईर्यापथिकी-- निर्दोष संयम धारी, कषाय रहित सुनि को यतनापूर्वक गमनागमनादि में जो क्रिया लगती है उस क्रिया कोई पथिकी क्रियास्थान कहते हैं। आत्मभाव में लीन रहते हुए मन, वचन और काया की यतना पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए, इन्द्रियों को वश में रखते हुए, सब दोषों से बच कर चलने वाले संयमी के मी हिलना, डुलना, चलना, फिरना आदि क्रियाएं होती रहती हैं। उन क्रियाओं से साधारण कर्मबन्ध होता है । ऐसे कर्म पहले समय में बँधते हैं, दूसरे समय में भोगे जाते हैं और तीसरे समय में छूट जाते हैं । फिर भिक्षु अपने आप निर्मल हो जाता है । प्रवृत्ति मात्र से कर्मबन्ध होता है। ये ही प्रवृत्तियों कपाय सहित होने पर कर्मों के गाढ़ बन्ध का कारण हो जाती हैं । कषायों द्वारा कर्म श्रात्मा से चिपक जाते हैं । चिना कपायों के वे अपने थाप झड़ जाते हैं । यह क्रियास्थान संसार बन्धन का कारण नहीं होता, इस लिए शुभ माना गया है। (सूयगडाग श्रुतस्कन्ध २ अध्ययन २)
|
I
८१५ - प्रतिसंलीनता के तेरह भेद
योग, इन्द्रिय और कपायों को अशुभ प्रवृत्ति से रोकना प्रति-संलीनता है। मुख्य रूप से इसके चार भेद हैं- इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कपाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता और विविक्त शय्यासनता । इन्द्रिय प्रतिसंलीता के पाँच भेद, कषाय के चार, योग के तीन और विविक्त शय्यासनता ये कुल मिला कर तेरह भेद हो जाते
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला हैं। उनका स्वरूप नीचे लिखे अनुसार है
(१)श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीनता-श्रोत्रेन्द्रिय को विषयों की ओर जाने से रोकना तथा श्रोत्र द्वारा गृहीत विषयों में रागद्वषन करना।
(२)चक्षुरिन्द्रय प्रतिसंलीनता-चक्षु को विषयों की ओर प्रवृत्त होने से रोकना तथा चनु द्वारा गृहीत विषयों में रागादि ने करना
(३)घ्राणेन्द्रिय प्रतिसंलीनता। (४) रसनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता ।
(५) स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता। इनका स्वरूप भी ऊपर लिखे अनुसार जान लेना चाहिए।
(६)क्रोध प्रतिसंलीनता--क्रोध का उदय न होने देना तथा उदय में आए हुए क्रोध को निष्फल बना देना।
(७) मान प्रतिसंलीनता। (८)माया प्रतिसंलीनता।
(8) लोम प्रतिसंलीनता। इनका स्वरूप क्रोध प्रतिसंलीनता के समान है।
(१०) मन प्रतिसंलीनता--मन की अकुशल प्रवृत्ति को रोकना, कुशल प्रवृत्ति करना तथा चित को एकाग्र स्थिर करना।
(११) वचन प्रतिसलीनता- अकुशल वचन को रोकना, कुशल वचन बोलना तथा वचन को स्थिर करना।
(१२) काय प्रतिसंलीनता-अच्छी तरह समाधिपूर्वक शान्त होकर, हाथ पैर संकुचित करके कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय होकर
आलीन प्रलीन अर्थात् स्थिर होना कायप्रतिसंलीनता है। ' (१३) विविक्त शय्यासनता-स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित स्थान में निर्दोष शयन आदि उपकरणों को स्वीकार करके रहना। आराम, उद्यानादि में संथारा अङ्गीकार करना भी विविक्तशय्या- . सनता है। (उववाई, स्त्र २०) (भगवती शतक २५ उद्दशा ७)
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
३१७
८१६-- कायाक्लेश क तेरह भेद
शास्त्रसम्मत रीति के अनुसार आसन विशेष से बैठना कायाक्लेश नाम का तप है । इसके तेरह मेद हैं -
(१) ठाणट्टिइए (स्थानस्थितिक)-कायोत्सर्ग करके निश्चल वैठना ठाणटिइए कहलाता है।
(२) ठाणाइए (स्थानातिग)-एक स्थान पर निश्चल बैठ कर कायोत्सर्ग करना।
(३) उपकुड्ड आसहिए-उत्कुटुक भासन से पैठना। (४) पडिमट्ठाई (प्रतिमास्थायी )-- एकमासिकी, द्विमासिकी आदि प्रतिमा (पडिमा) अङ्गीकार करके कायोत्सर्ग करना।
(५) वीरासहिए (वीरासनिक)-कुर्सी पर बैठ कर दोनों पैरों को नीचे लटका कर बैठे हुए पुरुष के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जो अवस्था बनती है उस आसन से बैठ कर कायोत्सर्ग करना बीरासनिक कायाक्लेश है। (६) नेसज्जिए (नेपटिक)-दोनों कूल्हों के बल भूमि पर बैठना।
(७) दंडायए (दण्डायतिक)-- दण्ड की तरह लम्बा लेट कर कायोत्सर्ग करना।
(८) लगण्डशायी-टेढ़ी लकड़ी की तरह लेट कर कायोत्सर्ग करना । इस आसन में दोनों एड़ियाँ और सिर ही भूमि को छूने चाहिएं बाकी सारा शरीर धनुषाकार भूमि से उठा हुआ रहना चाहिए अथवा सिर्फ पीठ ही भूमि पर लगी रहनी चाहिए शेष सारा शरीर भूमि से उठा रहना चाहिए।
(8) पायावए (आतापक)-शीत आदि की आतापना लेने चाला । निष्पन्न, अनिष्पन्न और ऊस्थित के मेद से आतापना के तीन भेद हैं । निष्पन्न भातापना के भी तीन भेद हैं-अधोमुख
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४०१ तीन भांग पाये जाते हैं। लोम कपाय वाले नारकियों में छः और शेष जीवों में तीन मांगे होते हैं। अकपायी जीवों की वक्तव्यता नोसंझी और नोअसंज्ञी की तरह है।
(८)ज्ञान द्वार-ज्ञान की वक्तव्यता सम्यग्दृष्टि की तरह है।ाभिनिवोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रियों में छ: मांगे होते हैं, बाकी में तीन मांगे होते हैं। अवधिज्ञानी तिर्यच पञ्चेन्द्रिय आहारक ही होते हैं। शेष अवधिज्ञानी जीवों में तीन मांगे होते हैं। मनःपर्ययज्ञानी जीव श्राहारक ही होते हैं। केवलज्ञानी जीवों की वक्रव्यता नोसंज्ञी नोभसंज्ञी जीवों की तरह है।
अज्ञान की अपेक्षा-मति अज्ञानी और अत अज्ञानी जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भांगे पाये जाते हैं। विभंगज्ञानी तिर्यच पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं। (8)योग द्वार-सयोगी जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन मांगे होते हैं। मनयोगी और वचनयोगी जीवों की वक्तव्यता सम्यगमिथ्याटि जीवों की तरह है। वचनयोग में विकलेन्द्रियों का ग्रहण होता है। काययोगी जीवों में एकेन्द्रिय के सिवाय तीन मांगे होते है। अयोगी जीव और सिद्ध भगवान् अनाहारक होते हैं।
(१०) उपयोग द्वार-साकार और अनाकार दोनों प्रकार के उपयोग वाले जीव में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन मांगे पाये जाते हैं।
(११) वेद द्वार-स्त्रीवेद और पुरुष वेद वाले जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर नपुंसक वेद वालों में तीन भांगे पाये जाते हैं। अवेदी आहारक और अनाहारक दोनों तरह के होते हैं। सिद्ध भनाहारक होते हैं।
(१२)शरीर द्वार-सामान्य रूप से सशरीरी जीवों में आहारक अनाहारक के तीन मांगे पाये जाते हैं। जिन जीवों के औदारिक शरीर होता है वे माहारक ही होते हैं अनाहारक नहीं। जिन जीवों के क्रिय
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
४.२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला शरीर और भाहारक शरीर होता है, वे भी आहारक ही हैं अनाहारक नहीं। एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष तैजस और कार्मण शरीर बाले जीवों में तीन भांगे पाये जाते हैं । अशरीरी अर्थात् सिद्ध मगचान अनाहारक ही होते हैं।
(१३) पर्याप्ति द्वार-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मन:पर्याप्ति, इन पर्यातियों से युक्त जीवों में तीन मांगे पाये जाते हैं । आहार पर्याप्ति से रहित जीवों में केवल एक भंग पाया जाता है अर्थात् वे अनाहारक ही होते हैं,माहारक नहीं। शरीर पर्याप्ति से रहित जीव किसी समय पाहारक और किसी समय अनाहारक होते हैं, शेष चार पर्याप्तियों से रहित अवस्था में नारकी, देव और मनुष्यों में छः मांगे पाये जाते हैं, पाकी में ए केन्द्रियों को छोड़ कर तीन मांगे होते हैं। भाषा और मनापर्याप्ति से युक्त जीवों में और तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय में तीन भागे पाये जाते हैं।
(पन्नवणा माहारपद २८ उद्देशा २) (८१७)(क) वेरह कर्म काठिया-श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवें भाग के पृष्ट १२६ बोल नं. ९८३ प्रश्नोत्तर छत्तीस के अन्तर्गत प्रश्न नं ३२ में इन का वर्णन है। ८१८- क्रोध आदि की शान्ति के तेरह उपाय
नीचे लिखी तेरह वातों का विचार करने से क्रोध आदि पर विजय प्राप्त होती है । वे ये हैं
(१)क्रोध-चमा से क्रोध की शान्ति होती है। क्रोध के वश होकर जीव किसी की बात को सहन नहीं करता । क्रोध में अन्धा हुआ पुरुष हिताहित के विवेक को खो बैठता है। दूसरे का अहित करते हुए वह अपने ही हाथों से स्वयं अपना भी अनिष्ट कर बैठता है। क्षमा धारण करने से सहनशीलता गुण की वृद्धि होती है। इससे क्रोध का उदय ही नहीं होता और उदय में आया हुआ क्रोध विफल . हो जाता है । क्षमा वीर का भूषण है।
(२)मान-अहङ्कार रूप प्रात्मपरिणाम मान कहलाता है।
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चीथा माग ४.३ मानवश जीव में छोटे पड़े के प्रति उचित बर्ताव नहीं रहता। मानी जीव अपने को बड़ा समझता है और दूसरों को अपने से तुच्छ समझता हुआ उनकी अवहेलना करता है। मृदुता अर्थात् सुकोमल वृत्ति से मान पर विजय होती है। कोई भी पदार्थ सदा एक सा नहीं रहता, उसकी पर्याय बदलती रहती हैं। ऐसी दशा में मान करना व्यर्थ है। इस प्रकार विचार करने से मान नष्ट हो जाता है।
(३)माया-मन, वचन और कायाकी कुटिलता माया कहलाती है। इसे परवञ्चना भी कहते हैं ।माया द्वारा मनुष्य दूसरों को ठगना चाहता है। परवश्चना करते समय जीव कभी कभी आत्मवञ्चना मी कर बैठता है।भार्जव (सरलता) से माया पर विजय प्राप्त होती है।
(१)लोम-द्रव्यादि को ग्रहण करने की इच्छा लोम है । मूर्धा, गृद्धिभाव, ममत्वभाव, तृष्णा और असन्तोष लोम के ही पर्यायवाची नाम हैं। लोम के राजीव नही करने योग्य नीच कार्य भी कर बैठता है। संतोष वृत्ति धारण करने से लोम का नाश होता है। इससे इच्छाएं सीमित हो जाती हैं और जीव को सच्चे सुख का अनुभव होने लगता है।
क्रोध, मान आदि का दुष्फल बताते हुए दशवकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन में कहा है
कोहो पाई पणासेइ, माणो विषय णासो।' माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सव्व विणासपो॥
अर्थात-क्रोध से प्रीति का नाश होता है क्योंकि क्रोधान्ध मनुष्य ऐसे दुर्वचन बोलता है कि प्रीति का सर्वथा उच्छेद हो जाता है। मान विनय का नाश करने वाला है क्योंकि मानी पुरुष अपने से किसी को बड़ा नहीं समझता और इसी लिए वह गुणी पुरुषों की 'सेवा कर विनय प्राप्त नहीं कर सकता । माया मैत्रीभाव का नाश करने वाली है क्योंकि जब मनुष्य का छल प्रकट हो जाता है तब
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
फिर मित्र भी उसका विश्वास नहीं करते । वे भी उसे मायाचारी और धोखेबाज जान कर छोड़ देते हैं। लोभ प्रीत्ति, विनय और मैत्रीभाव आदि सब सद्गुणों का जड़मूल से नाश करने वाला है I उवसमेण इणे कोहं, माणं मद्दवया जिये । मायं चज्जब भाषेण, लोभ संतोसो जिये ॥
अर्थात् - शान्ति से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को और संतोष से लोभ को जीतना चाहिए ।
( ५ ) राग - राग भाव से संसार की वृद्धि होती है । वैराग्य से राग पर विजय प्राप्त होती है।
(६) द्वेष - मैत्रीभाव का नाश करता है। सब जीवों को श्रात्मतुल्य समझने से मैत्रीभाव प्रकट होता है और द्व ेष का नाश होता है ।
(७) मोह जैसे शराबी मदिरा पीकर भले बुरे का विवेक खो देता है और परवश हो जाता है उसी प्रकार मोह के प्रभाव से जीव सत् असत् के विवेक से रहित हो कर परवश हो जाता है । विवेक से मोह पर विजय होती है । ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों में मोह सब का राजा कहा गया है। चिवेक ही इसको जीतने का अमोघ उपाय है।
4
(८) काम-काम शब्द से यहाँ शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श का ग्रहण होता है । ये सब मोहनीय कर्म के उत्तेजक हैं। काम राग में अन्धा बना हुआ पुरुष निज पर का विवेक खो बैठता है । स्त्री के शरीर के अशुचिपन का विचार करने से काम पर विजय प्राप्त होती' है। शरीर महान् गंदा और अशुचि का भण्डार है। स्त्री के शरीर के बारह द्वारों से सदा अशुचि बहती रहती है। केशर, कस्तूरी, चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों को, बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को तथा स्वादिष्ट और रसीले भोजन आदि सभी को अपनी अशुचि के कारण यह शरीर बिगाड़ देता है । सारा शरीर अशुचि से ही बना
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग ४०५ है, फिर ऐसे शरीर में काम राग करना पुद्धिमान पुरुषों को कैसे शोभा देता है। ऐसा विवेक पूर्वक विचार करने से काम राग पर विजय प्राप्त होती है।
(6) मत्सर-इसरों की सम्पत्ति और उन्नति को देख कर हृदय में जलते रहना मत्सर कहलाता है। इसी को डाह और ईपी भी कहते हैं। चित्त में दमरों के प्रति किमी प्रकार बुरे विचार न करने से मत्सर पर विजय प्राप्त होती है।
(१०) विषय-पॉच इन्द्रियों के विषय भृत शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शमादि में श्रासनि भाव रखना विषय कहलाता है। पाँच इन्द्रियों के निग्रह रूप संयम से विषय जीते जाते हैं।
(११) अशुभ योग-मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति को अशुभ योग कहते हैं । गुमित्रय (मन, वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति) से अशुभ योगों पर विजय प्राप्त होती है।
(१२) प्राद--धर्म कार्यों में ढील करना प्रमाद कहलाता है। धर्म कार्यों में समय मात्र की मी ढील न करने से प्रमाद पर विजय प्राप्त होती है । भगवान ने गौतम स्वामी को लक्ष्य करके उचराध्ययन सूत्र में फरमाया है--
'समयगोयम मोपमायए' भर्यान्- हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। शाबों में जगह जगह भगवान ने फरमाया है.. 'ग्रहासुई देवाणुप्पिया! मा पडियन्, करेह । हे देवानुप्रिय! धर्म कार्य में किञ्चिन्मात्र विलम्ब मत करो।
(१३) अविरति-हिसा, झूठ आदि का त्याग न करना अविगति भाव कहलाता है । हिंसा यादि के त्याग रूप विरति से इस पर विजय प्राप्त होती है।
उपरोक्त तेरह पातों का विचार करने से चित्त में शान्ति रहती है और चित्त ग्वस्थ रहता है।
(भादषिधि प्रश्रय)
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन प्रन्धमाला
८१६-असंस्कृत अध्ययनकी तेरह गाथाएं
जीवन चञ्चल है। पूर्व संचित कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। इन दोनों बातों का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के चौथे असंस्कृत नाम के अध्ययन में बड़ी सुन्दरता के साथ किया गया है । इस अध्ययन में कुल तेरह गाथाएं हैं। इनका भावार्थ नीचे दिया जाता है(१) गौतम स्वामी को लक्ष्य करके भगवान् फरमाते हैं
हे गौतम ! टूटा हुआ जीवन फिर जुड़ नहीं सकता इसलिये एक समय का भी प्रमाद मत कर । वृद्धावस्था से ग्रसित पुरुष का कोई शरणभूत नहीं होता, ऐसा तू विचार कर । प्रमादी और हिंसक घने हुए विवेक शून्य जीव किस की शरण में जायेंगे ?
(२) कुबुद्धि ( अज्ञान) के वश होकर जो मनुष्य पाप कर्मों द्वारा धन प्राप्त करते हैं, वे कर्मबन्ध में बंधे हुए और वैर भाव की शृङ्खला में जकड़े हुए मृत्यु के समय धन आदि को यहीं छोड़ कर नरक आदि गतियों में चले जाते हैं।
(३) संघलगाते हुए पकड़ा गया चोर जिस तरह अपने कर्म से पीड़ित होता है उसी तरह पाप कर्म करने वाले जीव इहलोक
और परलोक में अपने अपने कर्मों द्वारा पीड़ित होते हैं क्योंकि संचित कर्मों को भोगे विना छुटकारा नहीं होता।
जो कर्मों का कर्ता है वही उनका भोका है। कर्ता एक हो और मोक्का कोई दूसरा हो ऐसा नहीं हो सकता। इसी न्याय से इस लोक में जिन कर्मों का फल भोगना बाकी रहता है उनको दूसरे भव में मोगने के लिये उस आत्मा को पुनर्जन्म धारण करना ही पड़ेगा।
(४) संसारी जीव दूसरों के लिये अर्थात् अपने कुटुम्बी जनों के लिये जो पाप कर्म करता है, जब वे पाप कर्म उदय में आते हैं तब उसे अकेले को ही वे भोगने पड़ते हैं। उसके धन में भागीदार होने वाले भाई चन्धु, पुत्र, स्त्री आदि उन कर्मों के भागीदार नहीं होते
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग
४०७
(५) प्रमादी जीव धन से इस लोक और परलोक में शरण प्राप्त नहीं कर सकतें। जिस तरह अन्धेरी रात में दीपक के बुझ जाने पर गाढ़ अन्धकार फैल जाता है, उसी तरह प्रमादी पुरुष न्याय मार्ग ( वीतराग मार्ग) को देख कर भी मानो देखता ही न हो इस तरह व्यामोह में जा फंसता है ।
(६) जागृत, निरासक्त, बुद्धिमान और विवेकी पुरुष जीवन का विश्वास न करे, क्योंकि जीवन चञ्चल है और शरीर निर्बल है इसलिये भारएड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विचरे ।
( ७ ) थोड़ी सी भी आसक्ति जाल के समान है ऐसा मान कर सदा सावधान होकर चले । जहाँ तक इस शरीर से लाभ होता हो वह तक संयमी जीवन का निर्वाह करने के लिये शरीर की साल सम्भाल करे किन्तु अपना अन्तकाले समीप आया जान कर इस अशुचिमय मलिन शरीर का समाधिमरण पूर्वक त्याग करे ।
(८) जैसे सधा हुआ और कवचधारी योद्धा युद्ध में विजय प्राप्त करता है उसी तरह साधक मुनि अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति और वासनाओं को रोकने से मुक्ति प्राप्त करता है । पूर्वकाल (श्रसंख्य वर्षो का लम्बा काल प्रमाण ) तक भी जो मुनि श्रप्रमत रह कर विचरता है वह उसी भव से शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है।
पतन के दो कारण हैं- (१) स्वच्छन्द प्रवृत्ति और प्रमाद । मुमुक्षु (मोक्ष की अभिलापा रखने वाले) को चाहिए कि इन्हें सर्वथा दूर कर दे तथा श्रर्पयता ( गुरु की आज्ञानुसार प्रवृचि करना ) और सावधानता को प्राप्त करे ।
(६) शाश्वत (नियत) वादियों की यह मान्यता है कि जो वस्तु पहले न मिली हो पीछे से भी वह नहीं मिल सकती। इस विषय में विवेक करना उचित है अन्यथा उस मनुष्य को शरीर का विरह होते समय अथवा आयुष्य के शिथिल होने पर खेद करना पड़ता है ।
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला जो हमने पहिले नहीं किया तो अब क्या कर सकेंगे ? ऐसा विचार कर पुरुषार्थ को न छोड़ देना चाहिए किन्तु सब कालों में और सब परिस्थितियों में पुरुषार्थ तो करते ही रहना चाहिये।
इस नवी गाथा का परम्परा के अनुसार दूसरा अर्थ भी होता है। वह इस प्रकार है
शाश्वतवादी (निश्चय से कह सकें ऐसे ज्ञानी जन) त्रिकाल. दर्शी होने से, अभी ऐसा ही होगा, अथवा अभी वह जीव संयम
आदि प्राप्त कर सकेगा बाद में नहीं आदि आदि बातें निश्चय पूर्वक जानते हैं वे तो पीछे भी पुरुषार्थ कर सकते हैं परन्तु यह उपमा तो उन्हीं महापुरुषों को लागूपड़ती है, औरों को नहीं । यदि साधारणभात्माएं भी उनकी तरह वैसा ही करने लगें तो अन्त समय में उनको पछताना ही पड़ेगा।
(१.) शीघ्र विवेक करने की शक्ति किसी में नहीं है। इस लिए मुमुक्षु श्रात्माओं को चाहिए कि काममोगों को छोड़ कर ससार स्वरूप को समभाव से समझे और आत्मरक्षक घन कर अप्रमत्त रूप से विचरें।
(११) पारम्बार मोह को जीवते हुए और संयम में विचरते हुए त्यागी को विषय भोग भनेक रूप में स्पर्श करते हैं किन्तु मिनु उनके विषय में अपने मन को कलुषित न करे।
(१२)चित्त को लुभाने वाला मन्द मन्द कोमल स्पर्श यद्यपि बहुत ही आकर्षक होता है किन्तु संयमी उसके प्रति अपने मन को आकृष्ट न होने दे, क्रोध को दबावे, अमिमान को दूर करे, कपट (मायाचार) का सेवन न करे और लोभ को छोड़ देवे।
(१३)नोअपनी वाणी (विद्वचा) से ही संस्कारी गिने जाने पर भी तुच्छ और परनिन्दक होते हैं तथा राग द्वेष से जकड़े रहते हैं वे परतन्त्र और अधर्मी हैं, ऐसा जान कर साधु उनसे अलग
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
મુન્દ
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग
रहे और शरीर के अन्त तक (मृत्यु पर्यन्त) सद्गुणों की ही आकांक्षा
"
करे |
·
( उत्तराध्ययन अध्ययन ४ )
८२० - भगवान् ऋषभदेव के तेरह भव
भगवान् ऋषभदेव के जीव ने धन्ना सार्थवाह के भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया था । उस भव से लेकर मोक्ष जाने तक तेरह भग किये थे । वे ये हैं
|
धण मिहुए सुर महम्बल ललियंग य, वह जंघ मिहुणे य । सोहम्म विज श्रच्य चक्की, सव्वट्ट उसमे य ॥
अर्थात् - धन्ना सार्थवाह, युगलिया, देव ( सौधर्म देवलोक में), महाबल, ललिताङ्ग देव (दूसरे देवलोक में), वंजजंघ, युगलिया, देव ( सौधर्म देवलोक में ), जीवानन्द वैद्य, देव (अच्युत देवलोक में), वज्रनाभ चक्रवर्ती, देव (सर्वार्थसिद्ध विमान में ), प्रथम तीर्थदूर भगवान ऋषभ देव ।
( १ ) जम्बुद्वीप के भरतक्षेत्र में चितिप्रतिष्ठित नाम का एक नगर था । यह नगर तीच रमणीय और सुन्दर था। अपनी सुन्दरता के लिए उस समय में वह पूर्व था मानो इसी दृष्टि से उसका नाम क्षितिप्रतिष्ठित (पृथ्वी में सम्मानित ) रक्खा गया था। उस नगर में प्रसन्नचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था । प्रजी का पुत्रचत् पालन करने से तथा न्याय और मीति से राज्य करने से उस का यश पूर्णचन्द्र की चांदनी के समान सर्वत्र फैला हुआ था । चन्द्र की चाँदनी में जैसे कुमुदिनी हर्षित एवं विकसित होती है उसी तरह उसके राज्य में सब प्रजा सुखी और प्रसन्न थी । अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने के लिये ही मानो प्रजा ने अपने राजा का नाम प्रसन्नचन्द्र रक्खा थी ।
इसी नगर में धन्ना सार्थवाह नाम का एक सेठ रहता था । वह
1
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला नगर में प्रतिष्ठित, समृद्ध एवं यशस्वी था। व्यापार में वह बहुत चतुर एवं कुशल था। एक समय व्यापार के लिये वह वसन्तपुर जाने को तय्यार हुआ। उसने नगर में यह घोषित करवाया कि मैं व्यापारार्थ वसन्तपुर जा रहा हूँ, जो मेरे साथ चलना चाहे चले । मैं उसे सभी प्रकार की सुविधा दूंगा । इस घोषणा से बहुत से लोग धमा सेठ के साथ वसन्तपुर को खाना होगये। चलते चलते मार्ग में ही वर्षा ऋतु का समय आगया । इस लिये धन्ना सेठ को मार्ग में ही पड़ाव डाल कर रह जाना पड़ा। अपनी शिष्य मण्डली सहित धर्मघोष आचार्य भी क्षितिप्रतिष्ठित नगर से विहार कर वसन्तपुर की
ओर पधार रहे थे। धन्ना सेठ की विनति से वे भी चतुर्मास व्यतीत करने के लिये पड़ाव के पास ही पर्वतों की गुफा में ठहर गये ।धना सेठ को मुनियों का स्मरण न रहा, इस कारण वह उनकी सेवा शुश्रषा एवं साल सम्हाल न कर सका। चतुर्मास की समाप्ति पर जब चलने की तय्यारी होने लगी तब सेठ को मुनियों का ध्यान आया। पश्चात्ताप करता हुआ वह मुनियों की सेवा में उपस्थित होकर दीनता एवं अनुनय विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगा कि मैं मन्दभाग्य आप को भूल ही गया, इस कारण आपकी सेवा का लाभ न ले सका। . मेरा अपराध क्षमा करें और कृपा करके पारणा करें।
धर्मघोष आचार्य सेठ के पड़ाव पर भिक्षा करने के लिये पधारे । मिक्षार्थ पधारे हुए ऐसे उत्तम पात्र कोदान देने के लिये सेठ के परिणाम इतने उच्च हुए कि देवों को भी आश्चर्य होने लगा। सेठ के परिणामों की परीक्षा करने के लिये देवताओं ने मुनि की दृष्टि पोध दी । मुनि अपने पात्र को देख नहीं सकते थे, इस कारण सेठ का बहराया हुआ घी पात्र भर जाने से बाहर बहने लगा। फिर भी सेठ घी डालता ही रहा । परिणामों की उच्चता के कारण वह यही , समझता रहा कि मेरा बहराया हुआ पी वो पात्र में ही जाता है।
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
४११
सेठ के दृढ़ परिणामों को देख कर देवों ने अपनी माया समेट ली और दान का माहात्म्य बताने के लिये वसुधारा आदि पाँच द्रव्य प्रकट किये । उत्तम दान के प्रभाव से धन्ना सेठ ने मोक्षवृक्ष का बीम रूप चोधिरत्न (सम्यक्त्व रत्न) प्राप्त किया।
(२) सुखपूर्वक आयु पूर्ण करके वह उत्तर कुरुक्षेत्र में तीन पन्योपम की आयु वाला युगलिया हुआ।
(३) युगलिये का आयुष्य पूर्ण कर धन्ना सेठ का जीव सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ।
(४) देवभवधारी धन्ना सेठ का जीव देवतासम्बन्धी दिन्य सुखों का उपभोग कर आयुष्य पूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र में गान्धार देश के स्वामीराजाशतवल कीरानी चन्द्रकान्ता की कृति से उत्पन्न हुआ । यहॉ उसका नाम महावल रखा गया। योग्य वय होने पर राजा शतवल ने उसका विवाह अनेक राजकन्याओं के साथ कर दिया और राज्यभार सौंप कर स्वयं संयम अङ्गीकार कर विचरने लगा। बहुत काल तक संयम की आराधना कर शतचल स्वर्गवासी हुश्रा।
राजा महायल न्याय नीति पूर्वक राज्य करने लगा। उसके चार मन्त्री थे-स्त्रयंबुद्ध, संमिनमति, शतमति और महामति । इन चारों में स्वयंबुद्ध सम्यक्त्वधारी एवं धर्मपरायण था। शेष तीन मन्त्री मिथ्यात्री थे। वे महावल राजा को संसार में फंसाये रखने की चेष्टा करते थे किन्तु स्वयंयुद्ध मन्त्री समय समय पर धर्मोपदेश द्वारा संसार से निकलने के लिये प्रेरणा किया करता था। बहुत काल तक राज्य करने के पश्चात् राजा महावल ने राज्य का त्याग कर संयम अङ्गीकार कर लिया । अपनी आयु के दिन थोड़े जान कर दीक्षा लेने के दिन से ही अनशन कर लिया। उसका अनशन पाईस दिन तक चलता रहा।
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाता
एक दिन महाराज वजनाम के सामने उपस्थित होकर शस्त्रागार रक्षक ने श्रायुधशाला में चक्ररत उत्पन्न होने की बधाई दी। उसी समय दूसरी ओर से 'वनसेन तीर्थङ्कर को केवलज्ञान हुआ है। यह बधाई आई । इसी समय वजूनाम को अपने यहाँ सुत्र जन्म की बधाई भी मिली । चक्रवर्ती वजनाम ने सब से पहले वजूसेन तीर्थकर के केवलज्ञान की महिमा की अर्थात् वन्दन और वाणी श्रवण आदि का लाभ लिया । इसके पश्चात् चक्ररत और पुत्र उत्पन्न होने के महोत्सव किये।
छः खण्ड पृथ्वी का विजय करके वजूनाम बहुत वर्षों तक चक्रवर्ती पद का उपभोग करता रहा । कुछ समय पश्चात् चक्रवर्ती वजनाम को संसार से वैराग्य होगया। भगवान् वजूसेन के पास दीक्षा अङ्गीकार कर अनेक प्रकार के कठिन तप करते हुए विचरने लगे। अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर भादि का गुण कीर्तन, सेवा, भक्ति, आदि तीर्थङ्कर पद के योग्य बीस बोलों की धाराधना करके उत्कृष्ट भावों द्वारा तीर्थङ्कर नाम उपार्जन किया। .
(१२) आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर त्याग कर वजूनाम मुनि सर्वार्थ सिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वोत्कृष्ट देव हुए।
(१३) वतमान अवसर्पिणी काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का है। इसमें छारे हैं - सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा, दुषमसुषमा, दुषमा और दुषमदुषमा । जब पहला और दूसरा पारा बीत चुका था और तीसरे आरे का बहुत सा माग भी बीत चुका था केवल चौरासी लाख पूर्व से कुछ अधिक काल बाकी था उस समय भी कुछ कुछ युगलिया धर्म प्रचलित था। उस समय नामि नाम के कुलकर थे, वे ही युगलियों के राजा थे। उनकी रानी का नाम मरुदेवी था।
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग वजनाभ का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान का श्रायुष्य पूर्ण करके मरुदेवी के गर्भ में आया। उसी रात्रि में मरुदेवी ने चौदह महास्वप्न देखे। यथा-धुपम (बैल), हाथी, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, महायज, कलश, पद्मसरोवर, क्षीर समुद्र, देवविमान, रत्नराशि और निर्धूम अग्नि । इन स्वमों को देख कर मरुदेवी तत्काल जाग उठी। अपने देखे हुए स्वप्नों का चिन्तन कर हर्षित होती हुई रानी मरुदेवी अपने पति महाराजा नामि के पास गई और उन्हें अपने देखे हुए महास्वप्न सुनाए । स्वप्नों को सुन कर नामि राजा को बहुत प्रसन्नता हुई । उन्होंने कहा-हे भद्रे! इन महास्वप्नों के प्रभाव से तुम एक महाभाग्यवान पुत्र को जन्म दोगी। इस पात को सुन कर महारानी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। यत्नपूर्वक वह अपने गर्म का पालन करने लगी। नौमास और साढे सात रात्रि व्यतीत होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि में उत्तरापाढा नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर महारानी मरुदेवी ने त्रिलोक पूज्य पुत्र को जन्म दिया। तोङ्कर का जन्म हुआ जान कर छप्पन दिककुमारियाँ और दक्षिणार्द्ध लोक के स्वामी सौधर्मपति शक्रन्द्र माता मरुदेवी की सेवा में उपस्थित हुए। मेरु पर्वत परले जाकर चौंसठ इन्द्रों ने भगवान का जन्म कल्याण किया।
भगवान् ऋषभदेव द्वितीया के चन्द्र की तरह बढ़ने लगे, यौवन वय होने पर उस समय की पद्धति के अनुसार सुमंगला नामक कन्या के साथ ऋषभ कुमार का सांसारिक सम्बन्ध हुा । समय की विषमता के कारण एक युगल (पुत्र कन्या के जोड़े) में से पुरुष की अल्पवय में ही मृत्यु होगई । उस असहाय कुंवारी कन्या का विवाह ऋपमकुमार के साथ कर दिया गया। यहीं से विवाह पद्धति प्रारम्भ हुई । दोनों पनियों के साथ ऋषमकुमार श्रानन्द
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना पूर्वक समय विताने लगे। देवी सुमंगला के उदर से क्रमशः एक पुत्र
और एक पुत्री हुई । पुत्र का नाम भरत और पुत्री का नाम ब्राही रक्खा । इसके अतिरिक्त ४६ युगल पुत्र उत्पन्न हुए। देवी सुनन्दा के उदर से एक चाहुवल नामक पुत्र और सुन्दरी नाम की कन्या उत्पन्न हुई । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव के एक सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई।
समय की विषमता के कारण अब कल्पवृक्ष फल रहित होने लग गये। लोग भूखों मरने लगे और हाहाकार मच गया। इस समय ऋषभदेव की बायु बीस लाख पूर्व की हो चुकी थी। इन्द्रादि देवों ने
आकर ऋषभदेव का राज्याभिषेक महोत्सव किया। राज सिंहासन पर बैठते ही ऋषभदेव ने भूख से पीड़ित लोगों का दुःख दूर करने का निश्चय किया। उन्होंने लोगों को विद्या और कला सिखला कर परावलम्बी से स्वावलम्बी बनाया और लोकनीति का प्रादुर्भाव कर अकर्म भूमि को कर्म भूमि के रूप में परिणत कर दिया। इससे लोगों का दुख दूर होगया, वे सुखपूर्वक रहने लगे। वेसठ लाख पूर्व तक ऋषभदेव राज्य करते रहे । एक दिन उनको विचार आया कि मैंने लौकिक नीति का प्रचार तो किया किन्तु इसके साथ यदि धर्म नीति का प्रचार न किया गया तो लोग संसार में ही फंसे रह कर दुर्गति के अधिकारी बनेंगे, इस लिए अब लोगों को धर्म से परिचित करना चाहिये । इसी समय ऋषभदेव के भोगावली कर्मों का क्षय हुआ जान कर लोकान्तिक देवों ने आकर उनसे धर्म तीर्थ प्रवताने की प्रार्थना की । अपने विचार तथा देवों की प्रार्थना के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने वार्षिक दान देना प्रारम्भ किया। प्रति दिन एक पहर दिन चढ़ने तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्रा दान देने लगे। इस प्रकार एक वर्ष तक दान देते रहे। इसके पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को विनीता नगरी का और
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
४१६
निन्यान्वे पुत्रों को अलग अलग नगरों का राज्य दे दिया । माता मरुदेवी की आज्ञा लेकर वे विनीता नगरी के बाहर सिद्धार्थ वाग में पधारे। अपने हाथों से ही अपने कोमल केशों का लुञ्चन किया किन्तु इन्द्र की प्रार्थना से शिखा रहने दी । भगवान् ने स्वयमेव दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवों ने भगवान् का दीक्षा कल्याण मनाया | दीक्षा लेते ही भगवान् को मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होगया । भगवान् के साथ चार हजार पुरुषों ने दीक्षा धारण की।
दीक्षा लेकर भगवान् वन की ओर पधारने लगे, तब मरुदेवी माता उन्हें वापिस महल चलने के लिये कहने लगी । जब भगवान् वापिस न मुड़े तब वह बड़ी चिन्ता में पड़ गई । अन्त में इन्द्र ने माता मरुदेवी को समझा बुझा कर घर भेजा और भगवान् वन की ओर विहार कर गये ।
1
इस अवसर्पिणी काल में भगवान् सर्व प्रथम मुनि थे । इससे पहले किसी ने भी संयम नहीं लिया था। इस कारण जनता मुनियों के आचार विचार, दान आदि की विधि से बिल्कुल अनभिज्ञ थी । जब भगवान् भिक्षा के लिये जाते तो लोग हर्षित होकर वस्त्र, आभूपण, हाथी, घोड़े आदि लेने के लिये आमंत्रित करते किन्तु शुद्ध और पीक आहार पानी कहीं से भी नहीं मिलता । भूख और प्यास से व्याकुल होकर भगवान् के साथ दीक्षा लेने वाले चार हजार मुनि तो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने लग गये ।
एक वर्ष बीत गया किन्तु भगवान् को कहीं भी शुद्ध श्राहार नहीं मिला । विचरते विचरते भगवान् हस्तिनापुर पधारे। वहाँ के राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांस कुमार के हाथों से इक्षु रस द्वारा भगवान् का पारणा हुआ । देवों ने पाँच दिव्य प्रकट करके दान का माहात्म्य बताया । भगवान् का पारणा हुआ जान कर सभी लोगों को बड़ा हर्प हुआ। लोग तभी से मुनिदान की विधि समझने लगे ।
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२०
भी सेठिया जैन प्रन्थमाला
छमस्थावस्था में विचरते हुए भगवान् को एक हजार वर्ष व्यतीत होगये। एक समय वे पुरिमताल नगर के शकटमुख उधान में पधारे। फान्गुन कृष्णा एकादशी के दिन भगवान् तेले का तप करके वट घृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में स्थित हुए। उत्तरोत्तर परिणामों की शुद्धता के कारण घाती कर्मों का क्षय करके भगवान ने केवलज्ञान केवल दर्शन प्राप्त किये । देवों ने केवलज्ञान महोत्सव करके समयसरण की रचना की। देव, देवी, मनुष्य, स्त्रो आदि चारह प्रकार की परिषद् प्रभु का उपदेश सुनने के लिए एकत्रित हुई।
दीक्षा लेकर जब से भगवान् विनीता नगरी से बिहार कर गये थे तभी से माता मरुदेवी उनके कुशल समाचार प्राप्त न होने के कारण बहुत चिन्तातुर हो रही थी। इसी समय भरत महाराज उनके चरण वन्दन के लिये गये । वह उनसे भगवान् के विषय में पूछ ही रही थी कि इतने मैं एक पुरुष ने आकर भरत महाराज को भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। यह बधाई दी। उसी समय दूसरे पुरुष ने आयुधशाला में चक्ररन उत्पन्न होने की और तीसरे पुरुष ने पुत्र जन्म की बधाई दी। सब से पहले केवलज्ञान महोत्सव मनाने का निश्चय करके भरत महाराज भगवान् को वन्दन करने के लिये रवाना हुए, हाथी पर सवार होकर मरुदेवी माता भी साथ में पधारी।
समवसरण के नजदीक पहुँचने पर देवों का आगमन, केवलज्ञान के साथ प्रकट होने वाले अष्ट महाप्रतिहार्यादि विभूति को देख कर माता मरुदेवी को बहुत हर्ष हुथा। वह मन ही मन विचार करने लगी कि मैं तो समझती थी कि मेरा ऋषभकुमार जंगल में गया है, इससे उसको तकलीफ होगी परन्तु मैं देख रही हूँ कि ऋषभकुमार तो बड़े भानन्द में है और उसके पास तो बहुत ठाठ लगा हुधा है। मैं पृथा मोह कर रही थी। इस प्रकार अध्यवसायों की शुद्धि के
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२१.
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग कारण माता मरुदेवी ने घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान, केवल दर्शन उपार्जन कर लिये। उसी समय आयु कर्म का भी अन्त श्रा चुका था । सव कर्मों का नाश करमातामरुदेवी मोक्ष पधार गई ।
भरत महाराज भगवान् को वन्दना नमस्कार कर समवसरण में बैठ गये। भगवान ने धर्मोपदेश फरमाया जिससे श्रोताओं को अपूर्व शान्ति मिली । भगवान् के उपदेश से चोध पाकर भरत महाराज के पुत्र अपमसेन ने पांच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रों के साथ भगवान् के पास दीक्षा अङ्गीकार की। भरत महाराज की बहिन सती ब्राह्मी ने भी अनेक स्त्रियों के साथ संयम स्वीकार किया। समवसरण में बैठे हुए बहुत से श्रोताओं ने श्रावकवत लिये और बहुतों ने समकित धारण किया। उसी समय साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की। भगवान ने ऋषभसेन आदि चौरासी पुरुषों को 'उप्परणेइ वा विगमेह वा धुवेइ वा' इस त्रिपदी का उपदेश दिया। जिस प्रकार जल पर तैल की बूंद फैल जाती है और एक चीज के बोने से सैकड़ों, हजारों वीजों की प्राप्ति होती है उसी प्रकार त्रिपदी के उपदेश मात्र से उनका ज्ञान बहुत विस्तृत हो गया। उन्होंने अनुक्रम से चौदह पूर्व भौर द्वादशाङ्गी की रचना की।
केवलज्ञान होने के पश्चात् भगवान् एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक जनपद में विचरते रहे और धर्मोपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवों का उद्धार करते रहे । भगवान ऋषभदेव के ऋषभसेन आदि ८४ गणधर,८४००० मुनि, ३००००० साध्वी, ३०५.०० श्रावक, ५५४००० श्राविकाएं, ४७५० चौदह पूर्वधर, १००० अवधिज्ञानी, २०००० केवलज्ञानी, ६०० वैक्रिय लब्धिधारी, १२६५० मनापर्यय ज्ञानी और १२६५० वादी थे।
अपना निर्वाण काल समीप जान कर भगवान् दस हजार मुनियों के साथ अष्टापद पर्वत पर पधारे । वहाँ सब ने अनशन
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
किया ।छ: दिन तक उनका अनशन चलता रहा। माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन अभिजित नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर शेष ! चार अघाती कर्मों का नाश करके भगवान् मोक्ष में पधार गये । उस समय इस अवसर्पिणी काल का तीसरा आरा समाप्त होने में तीन वर्ष साढे आठ महीने बाकी थे। जिस समय भगवान् मोक्ष पधारे उसी समय में दूसरे १०७ पुरुष और भी सिद्ध हुए । भगवान के साथ अनशन करने वाले दस हजार मुनि भी उसी नक्षत्र में सिद्ध हुए जिसमें भगवान् मोक्ष पधारे थे। इन्द्र तथा देवों ने सभी का अन्तिम संस्कार किया। फिर नन्दीश्वर द्वीप में जाकर सभी देवी देवताओं ने भगवान् का निर्वाण कल्याण मनाया।
(त्रिषष्टि शनाका पुरुषचरित्र, प्रथम पर्व) ८२१-सम्यक्त्व के लिए तेरह दृष्टान्त
काऊण गंठिभेय सहसम्मुइयाए पाणिणो केई । परवागरणा अराणे लहंति सम्मत्तवररयणं ॥ अर्थात्-अनन्त संसार में भटकता हुआ भव्य जीव जब ग्रन्थि भेद करता है अर्थात् कर्मों की स्थिति को घटा कर मिथ्यात्व की गांठ को खोल डालता है, उस समय उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। संसार में सम्यक्त्व सभी रत्नों में श्रेष्ठ है । शास्त्रों में कहा है
सम्यक्त्वरत्नान्न परं हिरत्नं, सम्यक्त्वबन्धोर्न परोस्ति बन्धुः। सम्यक्त्वमित्रान परं हि मित्रं,
सम्यक्त्वलाभान परोस्ति लाभः ॥ अर्थात्-सम्यक्त्व रूप रत्न से श्रेष्ठकोई रत्न नहीं है । सम्यक्व रूपी वन्धु से बड़ा कोई बन्धु नहीं है । सम्यक्त्व रूपी मित्र से पढ़ कर कोई मित्र नहीं है और सम्यक्त्व रूपी लाम से उत्तम कोई लाम नहीं है।
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४२३ इस प्रकार के सम्यक्त्व रूपी रत्न की प्राप्ति दो कारणों से होती है-दूसरे के उपदेश की सहायता के विना जातिस्मरण से अथवा दूसरे के उपदेश से।
(१) जातिस्मरण से सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए श्रेयांसकुमार का उदाहरण
भारतवर्ष के गजपुर नगर में सोमप्रभ नाम का राजा राज्य करता था। वह भगवान् ऋषभदेव का पौत्र और तक्षशिला के राजा वाहुवलि का पुत्र था । सोमप्रम के श्रेयांस नाम का युवराज था । वह बहुत सुन्दर, बुद्धिमान् और गुणी था । एक दिन रात को उसने स्वप्न देखा-काले पड़ते हुए सुमेरु पर्वत को मैंने अमृत के पड़ों से सींचा और वह अधिक चमकने लगा। उसी रात को सुबुद्धि नाम के सेठ ने भी स्वप्न देखा कि अपनी हजारों किरणों से रहित होते हुए सूर्य को श्रेयांसकुमार ने किरण सहित कर दिया और वह पहले से भी अधिक प्रकाशित होने लगा। राजा सोमप्रम ने भी स्वप्न देखा कि एक दिव्य पुरुष शत्रुसेना द्वारा हराया जा रहा है, उसने श्रेयांसकुमार की सहायता द्वारा विजय प्राप्त कर ली।
दूसरे दिन तीनों ने राजसभा में अपने अपने स्वप्न का वृत्तान्त कहा । स्वप्न के वास्तविक फल को विना जाने सभी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ कहने लगे। इस बात में सभी का एक मत था कि श्रेयांसकुमार को कोई महान् लाभ होगा।
राजा, सेठ तथा सभी दरवारी अपने अपने स्थान पर चले गए। श्रेयांसकुमार अपने सतमंजले महल की खिड़की में पाकर बैठ गया। जैसे ही उसने वाहर दृष्टि डाली, भगवान ऋषभदेव को पधारते हुए देखा। वे एक वर्ष की कठोर तपस्या का पारणा करने के लिए मिक्षार्थ घूम रहे थे। शरीर एकदम सूख गया था। उस समय के भोले लोग भगवान् को अपना राजा समझ कर अपने घर निम
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
४२४
न्त्रित कर रहे थे। कोई उन्हें भिक्षा में धन देना चाहता था, कोई कन्या । इस बात का किसी को ज्ञान न था कि भगवान् इन सब चीज को त्याग चुके हैं। ये वस्तुएं उन के लिए व्यर्थ हैं । उन्हें तो लम्बे उपवास का पारणा करने के लिए शुद्ध आहार की आवश्यकता है ।
श्रेयांसकुमार उन्हें देख कर विचार में पड़ गया। उसी समय उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। थोड़ी देर के लिए उसे मूर्च्छा आगई । कपूर और चन्दन वाले पानी के छींटे देने पर होश आया । ऊपर वाले महल से उतर कर वह नीचे श्रांगन में आगया । इतने में भगवान् भी उसके द्वार पर पधार गए। उसी समय कोई व्यक्ति कुमार को भेट देने के लिए इतुरस से भरे घड़े लाया । श्र ेयांसकुमार ने एक घड़ा हाथ में लिया और सोचने लगा- 'मैं धन्य हूँ जिसे इस प्रकार की समस्त सामग्री प्राप्त हुई है। सुपात्रों में श्र ेष्ठ भगवान् तीर्थकर स्वयं भिक्षुक बन कर मेरे घर पधारे हैं, निर्दोष इतुरस से भरे हुए घड़े तैयार हैं । इनके प्रति मेरी भक्ति भी उमड़ रही है । यह कैसा शुभ अवसर है' यह सोच कर भगवान् को प्रणाम करके उसने निवेदन किया - यह आहार सर्वथा निर्दोष है। अगर भाप के अनुकूल हो तो ग्रहण कीजिए । भगवान् ने मौन रह कर हाथ फैला दिए । यसकुमार भगवान् के हाथों में इक्षुरस डालने लगा । अतिशय के कारण रस की एक भी बूंद नीचे नहीं गिरी । भगवान् का कृश तथा उत्तप्त शरीर स्वस्थ तथा शान्त हो गया । इक्षुरस का पान करते हुए उन्हें किसी ने नहीं देखा क्योंकि नीचे लिखे श्रतिशय तीर्थङ्करों के जन्म से ही होते हैं
I
देहः प्रस्वेदामयविवर्जितो नीरजा सुरभिगन्धः । गोक्षीरसमं रुधिरं, निर्विश्रसुधासितं मांसम् ॥
;
आहारो नीहारो लक्ष्यो न च मांसचक्षुषाऽमुष्यः । निःश्वासः - फुल्लोत्पलसमानगन्धोऽतिरमणीयः ॥
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सप्रह, चौथा भाग ४३१ लोहार्गल नगर में चली आई। पूर्वजन्म में किए गए सुकृत के कारण प्राप्त हुए सांसारिक भोग भोगते हुए उन्हें बहुत दिन बीत गए।
श्रीमती के पिता वजूसेन चक्रवर्ती तीर्थङ्कर-थे । समय होने पर लोकान्तिक देवों ने आकर उन्हें चेताया। सांवत्सरिक दान के बाद अपने बड़े पुत्र पुष्कलपाल को राज्य देकर उन्होंने दीक्षा ले ली। केवलज्ञान होजाने पर उन्होंने धर्मतीर्थ की स्थापना की।
कुछ दिनों के बाद वजूजंघ के घर आश्चर्यजनक गुणों को धारण करने वाला एक पुत्र उत्पन्न हुआ। इधर कुछ सामन्त पुष्कलपाल से विमुख हो गए। उसने श्रीमती के साथ वजूजंध को बुलाने के लिए दूत भेजा। वजूज़ंघ श्रीमती के साथ रवाना हुआ। पुण्डरीकिणी में पहुँचने के लिए शरवण नामक मार्ग से जाना आवश्यक था। उसके लिए गुण दोष जानने वाले कुछ लोगों ने वजूध को मना किया और कहा-इस मार्ग में दृष्टिविष सर्प रहते हैं । इस लिए इधर से न जाना चाहिए। उस मार्ग को छोड़ते हुए घूम कर जाने से चनजंघ पुण्डरीकिणी के पास पहुंच गया। उसका आगमन सुन कर भय से सभी सामन्त अपने आप झुक गए। पुष्कलपाल ने उन दोनों का उचित सत्कार किया। कुछ दिन वहॉ रह कर विदा दी । अपने नगर की ओर लौटते हुए वे शरवण मार्ग के समीप चाले प्रदेश में आए। लोगों ने कहा-अब इस मार्ग से जाने में भी कोई हानि नहीं है । इस मार्ग में किसी महामुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। उनके दर्शनों के लिए पाए हुए देवों की प्रभा से उन साँपों का दृष्टिविप नष्ट हो गया। यह सुन कर वजूजंघ उसी मार्ग से खाना हुआ। कुछ दूर जाने पर वहाँ विराजे हुए सागरसेन और मुनिसेन नाम के अनगारों के दर्शन किए। दोनों मुनि संसारावस्था में वजूजघ के भाई थे। उनके साथ बहुत से साधु थे। वे दोनों पूर्ण तपस्वी, ज्ञान के भण्डार और सौम्यता के निधि
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रथमाला
थे। वजूर्जप ने परिवार के साथ उन्हें वन्दना की । मिक्षा के समय शुद्ध प्रासुक आहार पानी बहरा कर प्रतिलाभित किया। तीसरे पहर उन महातपस्वियों के गुणों का स्मरण करते हुए वह भावना भाने लगा-मेरे माई बड़े महात्मा तथा पुण्यात्मा हैं। वह दिन कर होगा जब मैं इस विस्तृत राज्य को छोड़ कर मुनि वृत्ति अङ्गीकार कलंगा। सांसारिक विषय भोगों से निःस्पृह होकर विचाँगा । इस प्रकार भावना भाते हुए उसके प्रस्थान का समय आ गया । वहाँ से रवाना होकर वजूजंघ अपने नगर में पहुंचा।
वजूज॑ध के पुत्र ने माता पिता के चले जाने पर नौकरों को दान सन्मान आदि से अपने वश में कर लिया। जव उनके आने का समय हुआ तो उनके वासगृह में विष की धूप कर दी। वजूजध को इस बात का बिल्कुल पता नहीं लगा। रात्रि के समय अपने परिजनों को छुट्टी देकर वह श्रीमती के साथ अपने महल में गया। साधु के गुणों का स्मरण करते हुए वह विश्राम करने लगा। विष की धूप के कारण उसका चित्त घवराने लगा और उसी समय मृत्यु हो गई । श्रीमती भी उसी समय समाप्त हो गई। दोनों मर कर उत्तरकुरु में तीन पल्योपम की आयु वाले युगलिए हुए । वहाँ
आयु पूरी करके सौधर्म देवलोक में देव देवी रूप से उत्पन्न हुए। वहाँ भी उन दोनों में बहुत अधिक प्रीति थी। वहाँ एक पल्योपम की आयु पूरी होने पर वप्रावती विजय की प्रभङ्करा नगरी में उत्पन्न हुए । वजूजघ का जीव सुविधि नाम के वैद्य का अभय घोष नामक पुत्र बना और श्रीमती का जीव किसी सेठ के घर केशव नामक पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ भी उन दोनों का परस्पर परम स्नेह हो गया। उस भव में उनके चार मित्र और हो गए-राजा, मन्त्री, सेठ
और सार्थवाह का पुत्र । एक बार उन्होंने कृमि और कुष्ठ रोग वाले • • त्रिषष्टि शलामा पुरुष चरित्र में अभयघोष के स्थान पर जीवानन्द नाम है।
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ४३३ किसी मुनि का उपचार करके पुण्य का उपार्जन किया । अन्तिम अवस्था में दीक्षा अङ्गीकार करके श्रमण पर्याय में उन्होंने देवलोक का आयुष्य वॉधा । काल करके सभी सामानिक देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से चच कर अभयघोष का जीव जम्बूद्वीप के पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी में वहाँ के राजा वजूसेन की रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। केशव को छोड़ कर दूसरे भी वाहु, सुवाहु, पीठ और महापीठ के नाम से वजूसेन के पुत्र रूप से उत्पन्न होकर माण्डलिक राजा बने । वजूसेन ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली । जिस समय वजूनाम को चक्ररत्न की प्राप्ति हुई उसी समय उन्होंने केवलज्ञानी होकर धर्मतीर्थ को प्रवर्ताया। केशव का जीव वजूनाम चक्रवर्ती का सारथि वना । काल क्रम से वजूनाम चक्रवर्ती ने अपने चारों भाइओं और सारथि के साथ अपने पिता भगवान् वज्रसेन तीर्थक्कर के पास दीक्षा ले ली। उन में से वजनाम चौदह पूर्वघर और दूसरे साथी ग्यारह पूर्वधारी हुए । लम्बे समय तक दीक्षा पाल कर समाधिमरण द्वारा वे सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । वहाँ तेतीस सागरोपम की स्थिति प्राप्त की। स्थिति पूरी होने पर पहले वजूनाम का जीव नामि कुलकर के पुत्र रूप से उत्पन हुआ । बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ के जीव क्रमशः भरत, बाहुबलि, ब्राह्मी और सुन्दरी रूप से उत्पन्न हुए । सारथि का जीव मैं श्रेयांसकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ हूँ। मैंने पूर्वभव में भगवान् वजूसेन नामक तीर्थङ्कर को देखा है। उन के पास सुना भी था कि वजूनाम का जीव भरत क्षेत्र में तीर्थपुर होगा। उनके पास दीक्षित होने के कारण मैं दान आदि की विधि को जानता हूँ। केवल इतने दिन मुझे-पूर्वभव का स्मरण नहीं था। आज भगवान् को देखने से जातिस्मरण हो गया। पूर्वभव की सारी बातें प्रकट हो गई। इसी लिए आज भगवान् का पारणा विधि
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पूर्व हो गया । मेरु पर्वत आदि के स्वप्न जो मैंने, पिताजी ने और सेठजी ने देखे थे तथा जिन के लिए सभा में विचार किया गया था उनका भी. वास्तविक फल यही है कि एक वर्ष के अनशन के कारण भगवान् का शरीर सूख रहा था। उनका पारणा कराकर कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सहायता की गई है। यह सुन कर श्रेयांसकुमार की प्रशंसा करते हुए सभी अपने अपने स्थान पर चले गए ।
पूर्वभव स्मरण के कारण श्रेयांसकुमार में श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व प्रकट हुई। इसी लिए उसने भगवान् को भक्ति पूर्वक दान दिया । तवों में श्रद्धा रखता हुआ वह चिर काल तक संसार के सुख भोगता रहा । भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर उसने दीक्षा अङ्गीकार कर ली । निरतिचार संयम पालते हुए घनघाती कर्मों का क्षय करके निर्मल केवलज्ञान को प्राप्त किया। आयुष्य पूरी होने पर सभी कर्मों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त किया ।
I
( नवपद बृहद्वृत्ति गाथा १२८ ) (२) उपदेश से सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए चिलाती पुत्र की कथाचितिप्रतिष्ठित नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उस के सारी रानियों में प्रधान धारिणी नाम की पटरानी थी। उसने राज्य का भार मन्त्री को सौंप दिया। स्वयं दोगुन्दक देवों के समान विषय सुखों में लीन रहने लगा। उसी नगर में यज्ञदेव नाम का एक द्विजपुत्र रहता था। वह चौदह विद्याओं में पारंगत था । अपने को बड़ा भारी पण्डित मानता था । बड़ा घमण्डी, श्रुतियों का पाठ करने वाला और जातिगर्वित था। नगर में साधुओं को देख कर उन की हंसी तथा विविध प्रकार से जिनशासन का अवर्णवाद किया करता था । लोगों के सामने कहता कि ये लोग गन्दे होते हैं । इन मैं शुचिपना बिल्कुल नहीं होता ।
1
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४३५ एक बार उसी नगर के वाहर उधान में सुस्थित नाम के प्राचार्य पधारे। उनका सुव्रत नामक शिष्य गोचरी के लिए नगर में गया। वहॉ द्विजपुत्र की अपमान भरी बातें सुनीं । गुरु के पास आकर सुव्रत ने सारी बातें कहीं और पूछा-यदि आप आज्ञादें तो मैं राजसभा में जाकर सब लोगों के सामने इसका पाण्डित्यगर्वदूर करूं। गुरु ने कहा-हमारे लिए यह उचित नहीं है। हमारा धर्म क्षमाप्रधान है। विवाद करने से उसमें बाधा पड़ती है। उसकी बातों को अपमान न मानते हुए आक्रोश परीपह को सहन करना चाहिए। चाद विवाद से कभी सत्य वस्तु की सिद्धि नहीं होती। कहा भी है
वादांश्च प्रतिवादांश्च, वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति,तिलपीलकवद्गती॥ जैसे कोल्हू का बैल चलते रहने पर भी किसी दूसरे स्थान पर नहीं पहुंचता । घूम घाम कर वहीं आजाता है। उसी प्रकार विना निश्चय वाले वाद विवादों को करने वाले व्यक्ति भी किसी निश्चित सिद्धान्त पर नहीं पहुंचते। • गुरु के इस प्रकार मना करने पर सुत्रत मुनि चुप रह गए। शाख में उन्होंने पढ़ा कि सामर्थ्य होने परतीर्थ की प्रभावना अवश्य करनी चाहिए । कहा भी है
पावयणी धम्मकही, वाई णेमित्तिओ तवस्सीय। विजासिद्धोय कई, अष्टेवय पभावगा भणिया॥
अर्थात्- प्रावचनी, धर्मकथा करने वाला, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्वान् सिद्ध (लब्धि सम्पन्न मुनि) और कवि ये आठ प्रभावक कहे गए हैं , यह पढ़ कर मन में निश्चय करके वह गुरु के पास गया और वन्दना करके पूछा । दुबारा पूछने से उसका विशेष आग्रह जान कर गुरु ने मना नहीं किया। सुव्रत मुनि ने यज्ञदेव के पास जाकर कहा- भद्र । तुम भोले
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३६
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला लोगों के सामने जिनशासन की निन्दा करते हो । ऐसा तुम अज्ञान से करते हो या तुम्हें अपने ज्ञान का बहुत घमण्ड है ? यदि प्रज्ञान से ऐसा करते हो तो अब छोड़ दो, क्योंकि जो जीव अज्ञान के कारण जिनशासन की निन्दा करते हैं वे भव भव में दुःख प्राप्त करते हैं तथा ज्ञान गुण से हीन होते हैं। कहा भी है
ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निन्दापद्वेषमत्सरै। उपघातैश्च विघ्नैश्च, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥ अर्थात्-ज्ञान या ज्ञानी की निन्दा, द्वेष, ईर्ष्या, उपघात और विनों से ज्ञान का नाश करने वाला कर्म बाँधता है। __यदि तुम जान कर ऐसा करते हो तो राजा की सभा में बहुत से सम्यों के सामने मेरे साथ वाद कर लो। मूर्ख तथा प्रज्ञान जनता को क्यों ठगते हो ? मैं यो तुम जो भी हारे वह दूसरे का शिष्य बन जाय यह प्रतिज्ञा कर लो। ऐसा कहने पर वह द्विजपुत्र कुपित होकर कहने लगा-श्रमणाधम ! तुम्हें बहुत घमण्ड है। अगर शास्त्रार्थ करने की मन में है तो सुबह पा जाना । राजसभा में तुम्हारा घमण्ड उतर जायगा । सुव्रत मुनि ने उसकी बात को स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन सूर्योदय होते ही वे राजा की सभा में पहुँच गये। थोड़ी देर में यज्ञदेव भी वहाँ आ गया। सुव्रत मुनि ने उससे कहातुम्हारे कहने के अनुसार मैं राजसभा में आ गया हूँ। राजा स्वयं इसके सभापति हैं। नगर के विशिष्ट लोग सभ्य हैं। ये सभी मध्यस्थ हैं। ये जो फैसला देंगे वह हम दोनों को मान्य होगा। भव तुम्हें जो कुछ कहना हो कहो।
यज्ञदेव ने पूर्वपन किया- तुम लोग अधम हो, क्योंकि वेद के अनुसार अनुष्ठान नहीं करते हो, जैसे चाण्डाल । यहाँ हेतु प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि वैदिक क्रियाएं शौचविधि के बाद होती हैं। तुम लोग शरीर तथा पत्र दोनों से मलिन हो, इस लिए अशुचि
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सप्रह, चौथा भाग ४३७ हो । अशुचि होने के कारण किसी प्रकार की दिक क्रिया नहीं कर सकते । इम लिए अधम हो।
सुव्रत मुनि ने उत्तर दिया-तुम्हारा कहना लोक और भागम से बाधित अर्थात् विरुद्ध है, क्योंकि साधुओं को लौकिक शास्त्रों में प्रशस्त अर्थात उत्तम और पवित्र माना है। कहा भी है- ।
साधुनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ।।
अर्थात-साधुओं का दर्शन कल्याण देने वाला है, क्योंकि साधु तीर्थरूप होते हैं। तीर्थ तो देर से पवित्र करता है किन्तु साधुओं का समागम शीघ्र पवित्र करता है। वेद के अनुयायी भी मानते हैं कि
शुचिर्भूमिगतं तोयं, शुचिनारी पतिव्रता। शुचिर्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः॥ अर्थात- भूमि के अन्दर रहा हुआ पानी, पतिव्रता स्त्री और धर्मपरायण राजा पवित्र हैं । ब्रह्मचारी सदा पवित्र है।
आपने कहा-जैन साधु वेदविहित अनुष्ठान नहीं करते, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेदों में हिंसा का निषेध किया गया है और जैन साधु हिंसा के पूर्ण त्यागी होते हैं
जैन साधु अहवित्र रहते हैं। इस लिए वेद विहित कर्मानुष्ठान के अधिकारी नहीं हैं, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शौचं अनेक प्रकार का है । वेदवादी भी मानते हैं
सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौज, जलशौचं च पञ्चमम् ॥ अर्थात-सत्य, तप, इन्द्रिय निग्रह और प्राणियों की दया सभी शोच है, अर्थात् आत्मा को पवित्र करने वाले हैं। पाँचवॉ जलशौध है।
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
हम लोग सत्य आदि मुख्य शौच का सेवन करते हैं फिर पवित्र कैसे हैं? वस्त्र और शरीर मैला होने से हमें अशुचि कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जीव पापकर्मों से ही मैला होता है, शरीर और वस्त्रों से नहीं। कहा भी है
1
मलमहल पंकसइला, धूलीमइला ए ते परा महला । जे पावकम्ममइला, ते मइला जावलोयम्मि ॥ अर्थात्- मैल, कीचड़ या धूलि के कारण जो लोग मैले कहे जाते हैं वे वास्तव में मैले नहीं हैं। जो पाप कर्मों के कारण मैले हैं वे ही वास्तव में मैले हैं । इत्यादि वचनों के द्वारा यज्ञदेव निरुत्तर हो गया । भाव न होने पर भी शास्त्रार्थ की प्रतिज्ञा के अनुसार वह उनका शिष्य हो गया । शास्त्रार्थ को समाप्त करके सुव्रत मुनि अपने स्थान पर चले आए। आचार्य को बन्दना करके यज्ञदेव को दीक्षा दिला दी। स्वीकार की हुई बात का पालन करना वीर पुरुषों का धर्म है, यह सोच कर उसने भी द्रव्य दीक्षा अंगीकार कर ली । कहा भी है
छिज्जउ सीसं अह होउ बघणं वयउ सव्वहा लच्छी पडिवण्ण पालणेसुं पुरिसाए जं होइ तं होउ ॥ अर्थात्-सिर कट जाय, बन्धन में फंसमा पड़े, सारा धन चला जाय, स्वीकार की हुई बात के पालन करने में महापुरुषों को बड़े से बड़ा कष्ट उठाना पड़े तब भी वे उसे नहीं छोड़ते ।
कुछ दिनों बाद शङ्का समाधान करता हुआ यज्ञदेव भाव से भी साधु हो गया किन्तु उसके मन से दुर्गुछा दूर न हुई। धीरे धीरे श्रावक भी उसे काफी मानने लगे।
एक दिन उसकी स्त्री ने मोहवश किसी वस्तु को वशीकरण द्वारा मन्त्रित करके भोजन के समय उसे बहरा दिया। अज्ञानवश उसने उसे खा लिया और फिर विचार में पड़ गया । व्रतलोप के
1
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग ४३६ भय से उसने अनशन ले लिया। समाधिपूर्वक काल करके वह देवलोक में गया । वहाँ पहुँचने पर भी जुगुप्सा दूर नहीं हुई। ___ उसके देहान्त से स्त्री को भी वैराग्य हो गया। लज्जा के कारण अपने मन्त्र प्रयोग की बात किसी से विना कहे ही उसने दीक्षा ले: ली। बहुत दिनों तक दीक्षा पाल कर वह काल कर गई। पूर्वकृत सुकृत के कारण वह भी देवलोक में उत्पन्न हुई । देवलोक में दोनों चिर काल तक वहाँ के भोग भोगते रहे। ___ भरत क्षेत्र में मगध नाम का रमणीय देश है। उसमें ऊँचे ऊँचे प्रासादों, विशाल दुकानों और दूसरी सब बातों से रमणीय तथा समृद्ध राजगृह नाम का नगर है वहाँ वाहन, धन, धान्य और सब प्रकार की सम्पत्ति वाला धन्ना सार्थवाह रहता था। उसकी भार्या का नाम भद्राथा । उसके चिलाती नाम की दासी थी । यज्ञदेव काजीव देव भव से चब कर जुगुप्सा दोष के कारण चिलाती दासी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उसका नाम चिलातीपुत्र रक्खा गया । वह धीरे धीरे बढने लगा।
कुछ दिनों बाद उसकी स्त्री देव भत्र से चत्र र भद्रा सेअनी के गर्भ से पुत्री रूप में उत्पन्न हुई । सेठ के पाँच पुत्र पहले से थे। पुत्री का नाम सुपुमा रक्खा गया। सेठ ने चिलातीपुत्र को उसे खिलाने का काम सौंप दिया। सुपुमा को खिलाते समय वह बुरी चेष्टाएं करने लगा। एक दिन ऐसा करते हुए उसे सेठ ने देख लिया और उसे दुःशील समझ कर घर से निकाल दिया। ___ अवारागर्द घूमता हुआ चिज्ञानीपुत्र उसीनगर के पास सिंहागुहा. पल्ली नामक चोरों की वस्ती में जा पहुंचा। वहाँ जाकर वह चोरों के साथ लूट, मार, चोरी आदि करने लगा। इन कामों में वह बहुत 'तेज था । दूसरे को लूटते समय उसे कभी दया न आती। वह बहुत कर तथा दृढ़प्रहारी बन गया। इन विशेषताओं के कारण चोरों
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४०
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
का मुखिया उसे बहुत मानने लगा।
कुछ दिनों बाद चोरों का मुखिया मर गया। अपने पराक्रम के कारण चिलातीपुत्र चोरों का सेनापति बन गया। • धन्ना सार्थवाह की पुत्री सुषुमा अब जवान हो गई थी। उसने स्त्री की सभी कलाएं सीख ली । रूप और गुणों के कारण वह प्रसिद्ध हो गई । राजगृह से.प्राए हुए किसी पुरुष ने उसका हाल चोर सेनापति चिलातीपुत्र से कहा। उसने अपने साथी डाकुओं को बुला कर कहा-अाज हम लोग राजगृह में जाएंगे। वहाँ धना सार्थवाह नाम का प्रसिद्ध सेठ रहता है। उसके सुषुमा नाम की लड़की है। मैं उसके साथ विवाह करूगा । उसके घर से जितना धन लूट कर लाओगे वह सब तुम्हारा होगा। इस प्रकार लालच देने से सभी साथियों ने सहर्ष उसकी बात मान ली । वे राजगृह की ओर रवाना हुए। रात को धन्ना सार्थवाह के घर में घुसे । अवस्वापिनी (दूसरे को सुला देने की विद्या) द्वारा घर के सभी लोगों को सुला कर वे घर का सारा धन लेकर निकले। चोरसेनापति चिलातीपुत्र ने सुपुमा को पकड़ लिया।
धन्ना सेठ को सारा हाल मालूम पड़ा। उसने रक्षकों को कहा, चोरों ने मेरा जो धन चुराया है वह सारा तुम्हारा है। मुझे केवल मेरी पुत्री सुषुमा लौटा देना। __रक्षक यह सुन कर चोरों की खोज में चल पड़े। धना सेठ भी पुत्रों के साथ उनके पीछे होलिया।धन्ना सार्थवाह को अपनी पुत्री के वियोग में बहुत दुःख हो रहा था। इतने में सूर्योदय होगया । • रक्षकों ने बहुत दूर धन को ले जाते हुए चोरों को देखा।उसके आगे सुषुमा को लेकर चिलातीपुत्र भी जा रहा था। लड़ने के लिए अच्छी तरह तैयार होकर वे चोर सेना के पास जा पहुंचे और उन्हें घायल करके सारा धन छीन लिया। यह हाल चिलातीपुत्र ने भी
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ४४१ देस। वह सुपुमा को आगे करके तलवार घुपाता हुआ जल्दी २ चला।
इतने में रक्षकों ने धन्ना सेठ से कहा-हमें भूख और प्यास लगी है। अपना नगर बहुत दूर छूट गया है। यह अटवी बहुत विकट है। भयकर तलवार को घुपाता हुमा चोर सेनापति भी खतरनाक मालूम पड़ रहा है। एक सुपुमा को छुड़ाने के लिए सभी का जीवन मन्दह में डालना ठीक नहीं है। नीति में भी कहा है
त्यजेदेकं अलरयाथै, ग्रामस्याथै कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्थार्थ, यात्मायें पृथिवीं त्यजेत् ॥
अर्थात्-कुल की रक्षा के लिए एक को छोड देना चाहिए । ग्राम की रना के लिए कुल को छोड़ देना चाहिए । देश की रक्ष के लिए ग्राम को छोड़ देना चाहिए और आत्मा की रक्षा अर्थात् श्रान्मा को पतन से बचाने के लिये पृथ्वी को छोड़ देना चाहिए।
सेठ ने उत्तर दिया-तुम लोग अपने घर पर चले जाओ। मैं अपनी पुत्री को लेकर पाऊंगा। यह कह कर धना सेठ अपने पुत्रों के साथ आगे वहा । मरे लोग भी लज्जित होकर सारा धन लेकर उसके साथ हो लिये ।वरितगति से चलते हुए वे शीघ्र चिलातीपुत्र के ममीप पहुँच गये।
चिलातीपुत्र ने सोचा- गे मेरे पास पहुंच गए हैं। इस लिए सामा को जल छीन लेंगे। अगर यह मेरे पास नहीं रहती तो इनके पाम भी न रहनी चाहिए । यह सोच कर उमने मुपुमा का सिर काट लिया। घड़ को वहीं छोड़ कर वह आगे चला गया। इतने में सेठ और उमके लड़के वहाँ भा पहुँचे । विना सिर के धड़ को देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ। शव को लेकर भूख और प्यास से व्याकुल होते हुए वे एक वृक्ष की छाया में बैठ गए । सेठ ने अपने पुत्रों से कहा--तुम लोगों को बहुत जोर से भूख लगी है। ऐसी दशा में एक पैर भी आगे बढ़ना कठिन है । मैं बूढ़ा हो गया
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
४४२
हूँ और पुत्री के मरने के कारण बहुत दुखी भी हॅू। इस लिए तुम तुझे मार कर अपनी भूख मिटा लो और घर चले जाओ ।
-
पुत्रों ने कहा- हाय पिताजी ! आप यह क्या कह रहे हैं ? आप हमें लज्जित कर रहे हैं। ऐसा घृणित कार्य करके हम संसार में किसी को मुंह दिखाने लायक न रहेंगे ।
सब लड़कों ने भी क्रमशः अपने अपने शरीर द्वारा भूख मिटाने के लिए कहा किन्तु उसे स्वीकार कहीं किया गया । यह देख कर पिता ने कहा- अगर यही बात है तो इस मरे हुए कलेवर से अपने
प्राणों की रक्षा करो। प्राणों की रक्षा के लिए मोह छोड़ कर भूख के घाव को भर लो । उससे भूख मिटा कर वे लोग अपने घर चले गए । भागते हुए चिलातीपुत्र ने एक ध्यानस्थ मुनि को देखा । पास जाकर कहने लगा- महाराज ! मुझे संक्षेप से बताइए, धर्म क्या है ? नहीं तो तुम्हारा भी सिर काट डालूंगा ! मुनि ने उपयोग लगा कर देखा कि यह सुलभबोधि जीव है, इस लिए अवश्य प्रतिबोध प्राप्त करेगा | यह सोच कर उन्होंने उपशम, विवेक और संवर इन तीन पदों में धर्म का उपदेश दिया । चिलातीपुत्र एकान्त में जाकर बैठ गया और सोचने लगा- इन पदों का क्या अर्थ है १
उसने विचार किया - क्रोध का त्याग करना उपशम है। उदय में आए हुए क्रोध को निष्फल बनाना चाहिए और उदय में नहीं ser हुए को रोकना चाहिए। शास्त्रों में कहा है - दुग्गगमणे सउणो, सिवसग्गपहेसु किएहसप्पोच्व । अत्तपरोभयसंतावदायगो, दारुणो कोहो ॥
1
अर्थात- क्रोध जीवों को दारुण अर्थात् कठोर दुःख देने वाला होता है । दुर्गति में जाने का शकुन है । मोच और स्वर्ग के मार्ग में कृष्ण सर्प है । अपनी आत्मा तथा दूसरे सभी को दुःख देने वाला है । "मैं इस क्रोध से यावज्जीवन निवृत्त होना चाहता हूँ ।" यह
1
•
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
सोच कर उसने अपने दक्षिण हाथ से तलवार फेंक दी। साधु जी ने दूसरा शब्द विवेक कहा है। उसका अर्थ है द्रव्य, शयन और वस्त्र आदि को छोड़ना । कहा भी है
जन्तियमेते जीवो संजोगे चितवल्लहे कुण्ड | तत्तियमेत्ते सो सोयकीलए पियमणे पिहई ॥ अर्थात - चित्त को अच्छे लगने वाले विषयों से जीव जितना सम्बन्ध रखता है उतना ही उसे अधिक शोक करना पड़ता हूँ ।
४४३
धन, धान्य आदि परिग्रह को भी मैं यावज्जीवन छोड़ता हूँ । यह सोच कर उसने मोहरहित होकर हिसा को छोड़ दिया ।
साधुजी ने तीसरा पद 'संवर' कहा था । संवर का अर्थ है इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के व्यापार को रोकना । शरीर को त्याग कर मैं संवर को भी प्राप्त करता हॅू। यह सोचकर वह कायोत्सर्ग करके खड़ा हो गया । मुनि के उपदेश से उसे प्राणियों के लिए हितकर तथा संसार में सर्वश्रेष्ठ सम्यक्त्व रूपी रत्न की प्राप्ति हो गई ।
खून की गन्ध से वज्र सरीखी चोंच वाली चींटियाँ आकर उसके शरीर को खाने लगीं। पैरों से खाना शुरू करके वे सिर तक पहुँच गईं फिर भी चिल्लातीपुत्र ध्यान से विचलित नहीं हुआ । उसका शरीर चलनी के समान बिन्ध गया । अढाई दिन के बाद काल करके वह देवलोक में पहुँचा ।
जो तिहि परहिं धम्मं समभिगो संजमं समारूढो । उवसमविवेग संवर चिलाईपुत्तं एमंसामि ॥
थर्थात--जो उपदेश, विवेक और संवर रूप तीन पदों से धर्म को प्राप्त कर संयम पर श्रारूढ़ हुआ, ऐसे चिलातीपुत्र को नमस्कार हो । सिरिया पाएहिं सोणियगंधेणं जस्स कीडीओ खायंति उत्तमंगं, तं दुक्करकारगं वंदे ॥ अर्थात्--रक्त के गन्ध से चींटियों श्राकर पैरों से ऊपर चढ़ती
1
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
४४४
हुई जिसके सिर को खाने लगीं ऐसे दुष्कर कार्य को करने वाले चिलातीपुत्र को नमस्कार हो
I
धीरो चिलाई पुतो जो मुइंग लियाहि चालपिच्च कथा | सो तहवि खज्जमा, पडिवो उत्शमं अत्थं ॥
अर्थात् -चिलातीपुत्र बड़े धीर हैं। चींटियों ने उनके शरीर को चलनी बना दिया फिर भी वे विचलित नहीं हुए। चींटियों द्वारा खाए जाते हुए भी उन्होंने उत्तम अर्थ को सिद्ध किया । अड्डाहज्जेहिं राईदिएहिं पत्तं चिलाई पुनेणं । देविंदामरभवणं अच्छरगुण संकुलं रम्मं ॥
अर्थात् अढ़ाई दिन रात के संयम से चिलातीपुत्र ने विविध प्रकार के सुखों से भरे स्वर्ग को प्राप्त किया ।
-
इस प्रकार संक्षेप से चिलातीपुत्र का चरित्र कहा गया । विस्तार से इसका विवरण उपदेशमाला से जानना जाहिए ।
I
नोट - चिलावीपुत्र की कथा ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र, प्रथम श्रु तस्कन्ध के १८ वें अध्ययन में विस्तार से दी गई है। यहाँ नवपद प्रकरण के अनुसार लिखी गई है।
( ३ ) सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने वाले नन्द मणिकार की कथाराजगृह नगर में नन्द नाम का मणिकार रहता था। भगवान् महावीर का उपदेश सुन कर उसने श्रावक व्रत अङ्गीकार कर लिए। इसके बाद चिर काल तक उसे साधु का समागम नहीं हुआ और न कभी सत्य धर्म का उपदेश सुनने को मिला । मिथ्यात्वी कुसाधुओं के परिचय से सम्यक्त्व में शिथिल होते हुए उसने मिथ्यात्व को प्राप्त कर लिया ।
1
एक बार ग्रीष्म ऋतु में उसने चौविहार अट्टम तप किया। तीसरे दिन रात को जोर से प्यास लगी। उसी समय वह मन में सोचके लगा-- वे लोग धन्य हैं जो नगर से बाहर कूए, बावड़ी, तालाब
·
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग
४४५
|
यदि जल स्थानों को बनवाते हैं । जहाँ श्राकर हजारों प्राणी नहाते हैं, पानी पीते हैं और विविध प्रकार से शान्ति प्राप्त करते हैं। कल सुबह मैं भी राजा से पूछ कर जलाशय बनवाऊँगा ।
दूसरे दिन नन्द मणियार ने नहा धो कर राजदरवार में जाने योग्य वस्त्र पहिने | विशिष्ट उपहार ले जाकर राजा को भेंट किया और चावड़ी बनाने के लिए जगह मांगी । राजा श्र ेणिक ने उसकी बात मान ली।
यथा समय चावड़ी बन कर तैयार हो गई। उसके चारों तरफ बगीचा लगवाया गया। चित्रशाला, भोजन शाला, अतिथि शाला, दानशाला तथा सभागृह आदि बनाए गए। नगर तथा बाहर के सभी लोग उस बावड़ी का उपयोग करने लगे । नन्द की कीर्ति चारों ओर फैल गई । सर्वत्र उसकी प्रशंसा होने लगी । उसे सुन कर नन्द को बड़ा दर्द हुआ । उसका मन दिन रात बावड़ी में रहने लगा | वह उसी में आगक्त हो गया ।
एक चार नन्द पथियार के शरीर में सोलह भयङ्कर रोग उत्पन्न हो गए । वैद्यों ने बहुत इलाज किया किन्तु रोग शान्त न हुए। आर्चध्यान करते हुए उसने तिर्यञ्च गति का आयुष्य वाँधा तथा पर कर मूर्च्छा के कारण उसी बावड़ी में मेंढक रूप से उत्पन्न हुआ ।
एक दिन वह चावड़ी के तट पर बैठा था । इतने में कुछ लोग पानी का उपयोग करने के लिए उसी किनारे पर आए । पानी पीकर हाथ मुंह धोते हुए वे नन्द मणियार की प्रशंसा करने लगे। मेंढक को वे शब्द परिचित से जान पड़े। सोचने पर उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । सम्यक्त्व को छोड़ कर मिथ्यात्व ग्रहण करने के कारण उसे पश्चात्ताप हुआ । अपने आप श्रावक के व्रतों को धारण कर वह विधिपूर्वक उन्हें पालने लगा । ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रमण भगवान् महावीर फिर राजगृह में पधारे। पानी भरने वाली स्त्रियों
|
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४६ . श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला की बातों से उस मेंढक ने भी यह समाचर जाना । भगवान् के दर्शन करने के लिए वह बावड़ी से बाहर निकला। उसी समय भगवान के दर्शनार्थ जाते हुए राजा श्रोणिक के घोड़े के पैर नीचे दब कर वह कुचला गया। शुभ भाव पूर्वक मृत्यु प्राप्त करके दर्दुराक नामक देव हुआ।
वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करेगा। (ज्ञाताधर्मकयांग सूत्र १३ वॉ अध्ययन)
(४) सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति के लिए घमासार्थवाह की कथासम्मत्तस्स गुणोऽयं चिंतचिंतामणिस्स ज लहइ । सिवसग्गमणुयमुहसंगयाणि धणसत्थवाहोव्य ॥
अर्थात्-सम्यक्त्व रूपी चिन्तामणि रत्न का माहात्म्य अचिन्त्य है। इसकी प्राप्ति से मोक्ष, स्वर्ग और मनुष्य लोक के सभी सुख प्राप्त होते हैं, जैसे धना सार्थवाह को प्राप्त हुए।
जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में अमरावती के समान ऐश्वर्य वाला तितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। वहाँ प्रसन्नचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था। उसी नगर में कुबेर से भी अधिक ऋद्धि वाला धन्ना सार्थवाह रहता था।
एक वार धन्ना सार्थवाह ने सव साधनों से सुसज्जित होकर वसन्तपुरनाने का विचार किया। प्रस्थान से पहले लोगों को सूचित करने के लिए पटह द्वारा घोषणा कराई-धन्ना सार्थवाह वसन्तपुर के लिए प्रस्थान कर रहा है। जिस किसी को वहाँ जाने की इच्छा हो वह उसके साथ चले। मार्ग में जिस के पास भोजन, वस्त्र, पात्र, आदि किसी भी वस्तु की कमी होगी उसे वही दी जायगी। किसी प्रकार कर प्रभाव न रहने दिया जाएगा। __इस घोषणा को सुन कर विविध प्रकार का धन्धा करने की इच्छा से बहुत से सेवक, कृपण तथा वाणिज्य करने वाले लोग
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ४४७ धना सार्थवाह के साथ चलने को तैयार हो गए।
धर्मघोप प्राचार्य ने भी यह घोषणा सुनी । धन्ना सार्थवाह के सभी कार्यों को सोच कर कार्यरूप में परिणत करने वाला मणिभद्र नाम का प्रधान मुनीम था । धर्मघोष प्राचार्य ने उसके पास दो साधुओं को मेजा। अपने घर में आए हुए मुनियों को देख कर मणिभद्र ने विधि पूर्वक वन्दना की और विनय पूर्वक आने का कारण पूछा । साधुनों ने कहा-धन्ना सार्थवाह का वसन्तपुर गमन सुन कर प्राचार्य महाराज ने हमें आपके पास भेजा है। । यदि उसे स्वीकार हो तो वे भी साथ में जाना चाहते हैं। मणिभद्र ने उत्तर दिया-सार्थवाह का अहोभाग्य है अगर प्राचार्य महाराज साथ में पधारें, किन्तु जाने के समय प्राचार्य महाराज स्वयं
आकर सार्थवाह को कह दें। यह कह कर नमस्कार पूर्वक उसने मुनियों को विदा किया । साघुओं ने जाकर सारी वात प्राचार्य को कही। उसे स्वीकार करके वे धर्माचरण में अपने दिन विताने लगे।
एक दिन अच्छे मूहुर्त तथा शुम तिथि, करण, योग और नक्षत्र में धन्ना सार्थवाह प्रस्थान करके नगर से बाहर कुछ दूर जाकर ठहर गया।
उसी समय धर्मघोष आचार्य भी बहुत से मुनियों के साथ सार्थवाह को दर्शन देने के लिए वहाँ आए । वन्दना नमस्कार तथा उचित सत्कार करके सार्थवाह ने उनसे पूछा-क्या आप लोग भी मेरे साथ चलेंगे ? आचार्य ने उत्तर दिया-यदि आप की अनुमति हो तो हमारी इच्छा है। उसी समय सार्थवाह ने रसोइए को बुलाया और कहा प्रशन पान आदि जैसा आहार इन मुनिवरों को अभीष्ट हो तथा कल्पता हो उस समय विना संकोच इन्हें वैसा ही आहार देना।
यह सुन कर प्राचार्य ने कहा-सार्थपते । इस प्रकार हमारे निमित्त , तैयार किया हुआ आहार हमें नहीं कल्पता। साधुओं के लिए
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४८
श्री सेठया जेन प्रथमाला वही आहार कन्पनीय होता है जिसे वे न स्वयं बनाते हैं, न दूसरे के द्वारा बनवाते हैं और जो न उनके निमित से बना होता है। गृहस्थ जिस आहार को अपने लिए बनाता है उसी को मधुकरी वृत्ति से दोष टाल कर लेना साधु को कल्पता है। ___ उसी समय किसी ने पके हुए सुगन्धित आन फलों से भरा हुआ थाल सार्थपति को उपहार स्वरूप दिया । उसे देख कर प्रसन्न होते हुए सार्थपति ने आचार्य से कहा- भगवान ! इन फलों को ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह कीजिए । आचार्य ने कहाअभी मैंने कहा था कि जिस आहार को गृहस्थ अपने लिए बनाता है वही हमें कल्पता है। कन्द, मूल, फल आदि जब तक शस्त्र प्रयोग द्वारा अचित्त नहीं होते तब तक हमारे लिए उन्हें छूना भी नहीं कल्पता । खाना तो कैसे कल्प सकता है ?
यह सुन कर सार्थवाह ने कहा-आप लोगों का व्रत बहुत दुष्कर है अथवा मोक्ष का शाश्वत सुख चिना कट के प्राप्त नहीं हो सकता। यद्यपि आपका हमारे से बहुत थोड़ा प्रयोजन है फिर भी मार्ग में यदि कोई बात हो तो अवश्य आज्ञा दीजिएगा। ऐसा कह कर सार्थवाह ने प्रणाम करके, उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए धर्मघोपप्राचार्य को विदा किया। प्राचार्य अपने स्थान पर चले आए। स्वाध्याय और अध्ययन में लीन रहते हुए एक रात वहाँ ठहर कर प्रातः काल होते ही सार्थवाह के साथ रवाना हुए।
उसी समय ग्रीष्म ऋतु आ गई । गरमी बढ़ने लगी । भूमि तपने लगी। तालाब सूख गए । प्यास अधिक लगने लगी। प्रकृति की सरसता नष्ट हो गई। इस प्रकार की गरमी में भी सतत प्रयाण करता हुआ सार्थ(काफिला) विविध प्रकार के भयङ्कर जंगली पशुओ से भरी भयानक अटवी में पहुँच गया। ताल, तमाल, हिन्ताल आदि विविध प्रकार के वृक्ष वहाँ इतने घने थे कि सूर्य भी दिखाई न देता था।
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ४४६ गरमी के बाद संसार को शान्ति देने के लिए वर्षा समय आ • गया। बादल आकाश में छा गए। विजलियाँ चमकने लगी। भयं
कर गर्जना होने लगी। मानो बादल गरमी को तर्जना दे रहे हों। - ऐसे समय में रास्ते चलना बड़ा कठिन था। सभी मार्ग पानी
और कीचड़ से भर गए थे। यह सोच कर धन्ना सार्थवाह ने दूसरे लोगों से पूछ कर वहीं पड़ाव डाल दिया। सामान का बचाव करने के लिए रस्सियों से मच बना कर काफिले के सभी लोग वर्षाकाल बिताने के लिए वहीं ठहर गए । धन्ना सार्थवाह के साथ चलने वाले बहुत थे। मार्ग लम्बा होने से भी बहुत दिन लग गए तथा दान भी बहुत दिया जाता था। इन सब कारणों से रास्ते में खाने पीने की सामग्री कम हो गई। सभी लोग पश्चात्ताप करने लगे। भूख से पीड़ित होकर वे कन्द, मूल तथा फल खाने लगे।
रात को सार्थवाह जव आराम कर रहा था तो मणिभद्र ने कहा- स्वामिन् ! खाद्य सामग्री के कम हो जाने से सभी काफिले वाले कन्द, मूल और फल खाने लगे हैं। लजा, पुरुषार्थ और मर्यादा को छोड़ कर सभी तापसों की तरह रहने लगे हैं । कहा भी है
मानं मुञ्चति गौरवं परिहरत्यायाति दैन्यात्मताम् । लजामुत्सृजति अयत्यकरुणां नीचत्वमालम्बते॥ भार्यावन्धुसुहृत्सुतेष्वपकृतीनानाविधाश्चेष्टते। :. किं किंयन्न करोति निन्दितमपिप्राणीनुधापीडितः।।
ऐसा कौनसा निन्दित कार्य है जिसे तुधापीडित प्राणी नहीं करता । वह अपने मान को छोड़ देता है, गौरव का त्याग कर देता है, दीनता को धार लेता है, लजा को तिलाञ्जलि दे देता है, करता और नीचता को अपना लेता है। स्त्री, बन्धु, मित्र और . पुत्र आदि के साथ भी विविध प्रकार के बुरे व्यवहार करता है ।
यह सुन कर धन्ना सार्थवाह चिन्ता करने लगा। इतने में उसे
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५०
श्री सेठया जैम प्रन्थमाला नींद आ गई। रात्रि के अन्तिम पहर में अश्वशाला रक्षक ने सार्थवाह को लक्ष्य करके एक आर्या श्लोक पढ़ापालयति प्रतिपन्नान् विषमदशामागतोऽपि सन्नाथः ।
खण्डीभूतोऽपि शशी कुमुदानि विकाशयत्यथवा ॥ अर्थात-सजन मालिक स्वयं बुरी दशा में होने पर भी अपने श्राश्रित व्यक्तियों का पालन करता है । चन्द्रमा खण्डित होने पर भी कुमुदों को अवश्य विकसित करता है।
इस श्लोक को सुन कर सार्थपति जग गया। वह सोचने लगाइस श्लोक में स्तुति के बहाने से मुझे उलाहना दिया गया है। इस काफिले में सब से अधिक दुखी कौन है ? यह सोचते हुए उस . के मन में धर्मघोष आचार्य का ध्यान आया। उसने अपने आप कहा-इतने दिन तक मैंने उन महाव्रतधारियों का नाम भी नहीं लिया, सेवा करना तो दूर रहा । कन्द, मूल, फल वगैरह वस्तुएं उन के लिए अभक्ष्य हैं। इस लिए मेरे ख्याल में उन्हीं को सब से अधिक दुःख होगा। प्रमाद रूपी नशा कितना भयंकर है। यह -पुरुष को सदा बुरी चिन्ताओं की ओर प्रवृत करता है। अच्छे विषयों की ओर से बुद्धि को हटाता है । इस लिए अभी जाकर मैं साधुजी की उपासना करता हूँ। वह इस प्रकार का विचार कर रहा था, इतने में पहरेदार के मुह से एक दूसरा श्लोक सुनासंसारेऽत्र मनुष्यो घटनं केनापि तेन सह लभते। देवस्यानभिलषतोऽपि यदशात् पतति सुखराशौ ।। __ अर्थात्-संसार में मनुष्य अचानक ऐसी वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है जिन के कारण वह प्रकृति के प्रतिकूल होने पर भी सुखों को प्राप्त कर लेता है।
इस श्लोक को सुन कर धना सार्थवाह को सन्तोष हुआ, क्योंकि इस' में सूचित किया गया था कि बुरा समय होने पर भी मुनियों
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग
को किसी प्रकार का कष्ट नहीं है ! इतने में कालनिवेदक ने आकर कहाभूषितभुवनाभोगो दोषान्तकरः समुत्थितो भानुः । - दर्शयितुमिव नवायं समगुणभावेन मित्रत्वम् ॥ अर्थात्-संसार को अलंकृत करने वाला, रात्रि का अन्त करने वाला सूर्य उदित हो गया है । मानो समान गुणों वाला होने के कारण ET आप के साथ मित्रता करना चाहता 1
,
इसके बाद सार्थवाह शय्या से उठा । प्रातःकृत्य से निबट कर चहुत से लोगों के साथ आचार्य के समीप गया । वहाँ पहुँच कर मुनियों से घिरे हुए धर्मघोष आचार्य के दर्शन किए। आचार्य करुणा के निवास, धैर्य के निधान, नीति के घर, चारों प्रकार की बुद्धि के उत्पत्तिस्थान, साधु धर्म के आधार, सन्तोष रूपी अमृत के समुद्र तथा क्रोध रूपी प्रचण्ड अग्नि के लिए जल से भरे बादल के समान थे।
४५१
अपने को कृतार्थ समझते हुए सार्थवाह ने प्रसन्नचित्त होकर भक्तिपूर्वक आचार्य तथा सभी मुनियों को वन्दना की । संसार के मूल कारण कर्मरूपी पर्वतों का दमन करने में वज्रानल के समान गुरु महाराज ने उस का अभिनन्दन किया । पास बैठ कर धन्ना सार्थवाह कहने लगा- भगवान् ! पुण्यहीन के घर में कल्प वृक्ष नहीं उगता, न कभी वहाँ धन की वृष्टि होती है। आप संसार समुद्र से पार होने के लिए जहाज के समान हैं। तृण, मणि, पत्थर, सोना, शत्रु और मित्र सभी आपके लिए समान हैं । आप सच्चे धर्म का उपदेश देने वाले सद्गुरु हैं। ऐसे आप को प्राप्त करके भी मैने कभी आपका अमृत समान वचन नहीं सुना। संसार में प्रशंसनीय थाप के चरणकमलों की सेवा भी कभी नहीं की। कभी आप का ध्यान भी नहीं किया । प्रभो ! मेरे इस प्रमाद को क्षमा कीजिए । उसका वचन सुन कर श्रवम को जानने वाले आचार्य ने
I
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५२
श्री सेठया जैन ग्रन्थमाला
उत्तर दिया- सार्थपते ! आपको दुखी न होना चाहिए । जंगल में क्रूर प्राणियों से हमारी रक्षा करके आपने सब कुछ कर लिया । काफिले के लोगों से हमें इस देश तथा हमारे कल्प के अनुसार आहार आदि मिल जाते हैं ।
सार्थवाह ने फिर कहा - प्रभो ! यह आपकी महानता है कि आप मेरी प्रशंसा करते हैं तथा प्रत्येक परिस्थति में संतुष्ट रहते हैं । किसी दिन मुझे भी दान का लाभ देने की कृपा कीजिए ।
श्राचार्य ने उत्तर दिया -कल्पानुसार देखा जायगा । इसके बाद सार्थवाह वन्दना करके चला गया ।
उस दिन के बाद सार्थवाह प्रतिदिन भोजन के समय भावना भाने लगा । एक दिन गोचरी के लिए फिरते हुए दो मुनि उस के निवासस्थान में पधारे। सार्थवाह को बड़ी खुशी हुई। वह सोचने लगा - इन्हें क्या बहराया जाय ! पास में ताजा घी पड़ा था । सार्थवाह ने उसे हाथ में लेकर मुनियों से प्रार्थना की-यदि कल्पनीय हो तो इसे लेकर मुझ पर कृपा कीजिए। 'कल्पनीय है' यह कह कर मुनियों ने पात्र बढ़ा दिया । सार्थवाह बहुत प्रसन्न होकर अपने जन्म को कृतार्थ समझता हुआ घी बहराने लगा । इतने में पात्र भर गया। मुनियों ने उसे ढक लिया। भावपूर्वक बन्दना करके सार्थवाह ने मुनियों को विदा किया।
सार्थवाह ने भाव पूर्वक दान देकर बोधिबीज को प्राप्त किया । भव्यत्व का परिपाक होने से वह अपार संसार समुद्र के किनारे पहुँच गया। देव और मनुष्यों के भवों से उसने विविध प्रकार के सुख प्राप्त किए। संसार समुद्र को पार करके मोक्ष रूपी तट के समीप पहुँच गया। इसके बाद उसने तीर्थंकर गोत्र बाँधा । धन्ना सार्थवाह का जीव तेरहवें भाव में वर्तमान चौवीसी के प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव के भव में उत्पन्न होकर नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४५३
1
हुथा| तेरह मत्रों का वृत्तान्त वोल नं. ८२० में दिया गया है जिस सम्यक्त्व के बीज मात्र से ऐसा फल प्राप्त होता है उस की साक्षात् प्राप्ति होने पर तो कहना ही क्या ? कहा भी हैअसम सुखनिधानं धाम संविग्नतायाः । भवसुखविमुखत्वाद्दीपने सद्विवेकः ॥ नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणाम् । शिवसुखतरुमूलं शुद्धसम्यक्त्वलाभ. ॥
-
1
अर्थात् शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति सुख का अनुपप निधान है संवेग का घर है । सांसारिक सुखों से विरक्ति बढ़ाने के लिए सच्चा विवेक है | मनुष्य, तिर्यञ्च और नरकगति को काटने वाला है तथा मोक्ष का मूल कारण है । सम्यक्त्वमेकं मनुजस्य यस्य, हृदिस्थितं मेरुरिवाप्रकम्पम् । शङ्कादिदोषापहृतं विशुद्धं, न तस्य तिर्यड़नरके भयं स्यात् ॥
अर्थात्- जिम व्यक्ति के हृदय में मेरु के समान निष्प्रकम्प, शङ्का आदि दोपों से रहित तथा शुद्ध सम्यक्त्व जम जाता है उसे तिर्यञ्च और नरक गति का भय नहीं रहता ।
( ५ ) सम्यक्त्व में शङ्का दोप के लिए मयूराएड और सार्थवाहपुत्र का उदाहरण -
-->
चम्पा नगरी से उत्तर पूर्व में सुभूमिभाग नाम का उद्यान था । उसमें तालाब के मालुका कच्छ नामक किनारे पर एक मयूरी रहती थी । समय पाकर उसने दो अण्डे दिये । नगर में जिनदत्त और सागरदत्त नामक सार्थवाहों के दो पुत्र वालमित्र थे । एक दिन वे दोनों सैर सपाटा करने के लिए उसी उद्यान में आए। वहाँ घूमते हुए वे मालुकाकच्छ किनारे पर पहुॅचे। उन्हें देख कर मयूरी डर गई । वृक्ष पर बैठ कर भयभीत दृष्टि से मालुका कच्छ और उन दोनों की ओर देखने लगी ।
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
;
सार्थवाह के पुत्र मयूरी की चेष्टाओं से समझ गए कि इन कच्छ में कोई ऐसी वस्तु है जिसकी रक्षा के लिए मयूरी चिन्तित है । लताओं के अन्दर ध्यान पूर्वक देखने पर उन्हें दो अण्डे दिखाई दिए । उन्हें लेकर वे अपने घर चले आए। अण्डे नौकरों को दे कर कहा कि इनकी पूरी साल सम्भाल रखना । इनसे निकले हुए मोरों से हम खेला करेंगे ।
४५४
उनमें से सागरदत्त का पुत्र सदा शङ्कित रहता था कि उसके अण्डे से मोर बनेगा या नहीं । शङ्काशील होने के कारण वह रोज अपने अण्डे के पास आकर उसे घुमा फिरा कर देखता । अन्दर कुछ है या नहीं, यह जानने के लिए उसे कान से लगा कर हिलाता तथा ऐसी चेष्टाएं करता जिनसे उसे बाधा पहुँचती ।
इस प्रकार हिलने डुलने से अण्डा सूखने लगा । यह देख कर सागरदत्त के पुत्र को बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वह सोचने लगाशङ्कित होने के कारण मैंने स्वयं उसे खराब कर दिया ।
जिनदत्त का पुत्र निःशङ्क होकर उसे विधिपूर्वक पालने लगा । समय पूरा होने पर उसमें से मयूर का बच्चा निकला । उसे देख कर जिमदत्त का पुत्र बहुत प्रसन्न हुआ । एक मोर पालने वाले को बुला कर उसे नाचना सिखाने के लिए सौंप दिया। थोड़े दिनों बाद वह सभी प्रकार के नृत्य सीख कर तैयार हो गया। नगर के सभी लोग उसे देख कर प्रसन्न होते। जिनदच के पुत्र ने शङ्का रहित होने के कारण अपने मनोरथ को पूरा कर लिया और सागरदत्त के पुत्र ने शङ्कित होने के कारण उसे बिगाड़ लिया ।
इसी प्रकार जो जीव शङ्कारहित होकर सम्यक्त्व का पालन करता है, वह मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों में कहा हैजिणवर भासिय भाषेसु, भावसच्चेस भावो मइमं । यो कुज्जा संदेहं संदेहोऽणत्थ हेउत्ति ॥
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग अर्थात्-राग द्वेष को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कही । हुई बातें सर्वथा सत्य हैं । बुद्धिमान व्यक्ति उनमें सन्देह न करे क्योंकि सन्देह अनर्थ का मूल है।
नोट उपर लिखी कथा ज्ञाताधर्म कथाङ्ग सूत्र,प्रथम श्रुतस्कन्ध के तीसरे अध्ययन में भी आई है।
(६) सम्यक्त्व में कांक्षादोष के लिए कुशध्वज राजा का दृष्टान्त
कुशस्थल नामक नगर में कुशध्वज राजा राज्य करता था। उसका कुशाग्रबुद्धि नामक मंत्री था । एक बार कोई व्यक्ति राजा के पास उन्टी शिक्षा वाले घोड़े उपहार रूप में लाया। घोड़ों की शिक्षा का हाल किसी को कहे बिना ही उसने घोड़े भेंट कर दिये।
कुतूहलवश राजा और मत्री उन पर सवार होकर मैदान में गए । गजा और मत्री घोड़ों को रोकने के लिए लगाम खींचते थे किन्तु घोड़े इससे तेज होते जाते थे। मैदान से निकल कर वे. जंगल की ओर दौड़ने लगे । अन्त में गेमों ने थक कर लगाम ढीली कर दी। घोड़े खड़े हो गए । पर्याण (साज सामान) के उतारते ही वे नीचे गिर पड़े।
राजा और मन्त्री भूख तथा प्यास से व्याकुल हो रहे थे। पानी की खोज में फिरते हुए उन्होंने एक पक्षियों की पंक्ति को देखा। उससे पानी का अनुमान करके वे उसी ओर चले। कुछ दूर जाने पर उन्हें निर्मल पाना से भरा हुआ जलाशय दिखाई दिया । वहाँ पहुँच कर उन्होंने स्नान किया । थोड़ी देर विश्राम करकेपास वाले वृक्षों के फल खाकर उन्होंने अपनी भूख मिटाई तथा पत्तों की शय्या बना कर सो गए।
दूसरे दिन उठ कर अपने नगर की भोर चले । रास्ते में उनके खोजने के लिए सामने आते हुए सैनिक मिले।
नगर में पहुंचते ही राजा ने खाने के लिए विविध प्रकार के
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
थोड़ा थोड़ा भोज
गया और सभी को ठीक किया
स्वादिष्ट तथा गरिष्ट भोजन बनवाए । उन्हें बहुत ज्यादह खाजाने से वह बीमार पड़ गया। उसी से उसका देहान्त हो गया।
मन्त्री ने वैद्य की सलाह के अनुसार थोड़ा थोड़ा भोजन करके अपनी पाचन शक्ति को ठीक किया। धीरे धीरे वह पूर्ण स्वस्थ हो गया और सभी सुख भोगने लगा। . इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म के विषय में दूसरे दर्शनों की आकांक्षा करता है वह स्वर्ग मोक्ष प्रादि सुखों को प्राप्त कर नहीं सकता। मिथ्यात्व को प्राप्त करके नरक आदि गतियों में भ्रमण करने लगता है। इस लिए मुमुच को आकांचा दोष से रहित रहना चाहिए।
(७) विचिकित्सा दोष के लिए विद्या देने वाले पणिक का उदाहरण
श्रावस्ती नगरी में जिनदत्त नाम का श्रावक रहता था। वह नव तत्वों का जानकार, बारह व्रतो काधारक तथा आकाशगामी विद्या काज्ञाता था। वहीं पर उनका मित्र महेश्वरदत्त रहता था । किसी बात से उसे मालूम हो गया कि जिनदत आकाशगामी विद्या को जानता है। एक दिन उसके पास आकर कहने लगा--कृपा करके मुझे भी यह विद्या दे दीजिए जिससे मैं भी आकाश में चलने लग नाऊँ। जिनदत्त ने दुःसाध्य कहते हुए उसे सारी विधि बता दी।
महेश्वरदत्त सारी विधि तथा मन्त्र को सीख कर उसके अनुसार सिद्ध करने के लिए कृष्ण चतुर्दशी को श्मशान में गया। एक वृक्ष की शाखा से चार पैरों वाला छींका वाँधा। नीचे खाई खोद कर उसमें खदिर की लकड़ियाँ इकट्ठी करके भाग जलाई । छींक में बैठ कर १०८ चार मन्त्र को पढ़ा। इसके बाद वह मन में सोचने लगा-अब मुझे छींके का एक पैर काट देना चाहिए । इसी प्रकार मन्त्र को जपते हुए चारों पैरों को काटना है। मालूम नहीं विधासिद्ध होगी या नहीं। अगर तब तक विद्या सिद्ध न हुई तो मैं भाग
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोज साह, चौथा भाग १६१ हुई सारी बात कह दी। यह सुन कर उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। राजा की आज्ञा लेकर उसने दीवाले ली।
जुगुप्सा का कटु फल जान कर उसे त्यागना चाहिए। (६) परपापण्डप्रशंसा के लिए सयडाल की कथा
पाटलीपुत्र में नन्द वंश और कल्पक वंश का सम्बन्ध बहुत पुराना चला रहा था । जिस समय नवॉनन्दराज्य कर रहा था, कल्पक वश का सयडाल नामक मन्त्री था। उसका असली नाम श्रीवत्स था । सौ पुत्र उत्पन्न होने के कारण राजा उसे सयडाल कहने लगा था, क्योंकि उसके वंश की सौ शाखाएं हो गई थी। उसके त्याग, भोग, दाक्षिण्य, लावण्य मादि गुणों के कारण सभी पुत्रों में प्रधान स्थूलभद्र नाम का एक पुत्र था। सब से छोटे का नाम श्रियक था।
उसी नगर में वररुचि नामका बाहरण रहता था। वह प्रतिदिन नए नए एक सौ पाठ श्लोक बनाकर राना की प्रशंसा किया करता था। राजा सन्तुष्ट होने पर भी कुछ नहीं देता था। केवल सयडाल के मुंह की ओर देखने लगता । वररुचि मिथ्यावी था, इस लिए सयडाल उसकी प्रशंसा नहीं करता था। वररुचि इस बात को समझ गया । उसने सयडाल की स्त्री के पास जाकर उसी की प्रशंसा करना शुरू किया । स्त्री द्वारा पूछा जाने पर वररुचि ने सारी बात कह दी।
एक दिन स्त्री ने पूछा-माप वररुचि की प्रशंसा क्यों नहीं करते १ सयडाल ने उत्तर दिया-वह मिथ्यात्वी है। ।
स्त्री ने कहा-महापुरुष नियम पाले होते हैं। भावदोष को टालना चाहिए । उसकी प्रशंसा करने में तुम्हारा तो कोई स्वार्थ नहीं है। • फिर क्या दोष है ? स्त्री ने उसे रोज इसी प्रकार कहना शुरू किया।
स्त्री द्वारा बार बार कहा जाने पर एक दिन सयडाल ने उस
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
કર
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
की प्रशंसा करते हुए कहा -सुभाषित है । राजा ने एक सौ आठ दोनारे पारितोषिक में दे दीं। प्रतिदिन वह इसी प्रकार देने लगा ।
सडाल ने सोचा- इस प्रकार तो खजाना खाली हो जाएगा। इस लिए कोई उपाय करना चाहिए। एक दिन उसने राजा से कहा- महाराज ! आप इस प्रकार क्यों देते हैं ! राजा ने उत्तर दिया- तुम प्रशंसा करते हो, इस लिए मैं देता हूँ ।
स्यडाल ने कहा - लोक में प्रचलित काव्यों को वह अच्छी तरह पढ़ता है, मैंने तो यही कहा था ।
राजा ने पूछा- यह कैसे कहते हो कि लोक में प्रचलित काव्यों को पढ़ता है ? यह तो अपने बनाये हुए काव्यों को सुनाता है । सयडाल ने उत्तर दिया- मेरी लड़कियाँ भी इन्हें सुना सकती हैं, फिर दूसरों का तो कहना ही क्या ?
सयडाल के सात कन्याएं थीं- यक्षिणी, यक्षदत्ता, भूतिनी, भूतदत्ता, सेना, रेखा और वेणा । उसमें पहली को सौ श्लोक एक ही बार सुनने पर याद हो जाते थे। दूसरी ́ को दो बार सुनने पर, तीसरी को तीन बार सुनने पर, इसी प्रकार सातवीं को सात बार सुनने पर याद हो जाते थे !
राजा को विश्वास दिलाने के लिए सथडाल ने उन्हें समझा कर परदे के पीछे छिपा कर बैठा दिया ।
वररुचि ने चाकर एक सौ आठ श्लोक पढ़े । कन्याओं ने उन्हें सुन लिया । वररुचि ने कहा- महाराज ! यदि आपकी आज्ञा हो तो अपनी पुत्रियों को बुलाऊँ । वे भी इन श्लोकों को सुना सकती हैं।
राजा की आज्ञा से मन्त्री ने पहिले यक्षिणी को बुलवाया और कहा बेटी ! वररुचि ने इस प्रकार के एक सौ आठ श्लोक राजा को सुनाए हैं। क्या तुम भी उनको जानती हो ? यदि जानती हो तो
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग रानानी को सुनायो । यक्षिणी ने अपने मधुर कण्ठ से सभी श्लोक विना कहीं चूके सुना दिए। यक्षदत्ता ने उन श्लोकों को दो बार सुन लिया था। इस लिए वे उसको याद होगए। मन्त्री के बुलाने पर उस ने भी सभी सुना दिए । तीन बार सुनने पर तीसरी लड़की को याद होगए । इसी प्रकार सभी लड़कियों ने उन श्लोकों को सुना दिया।
राजा ने रुट होकर वररुचि का दान बन्द कर दिया। इस के बाद वररुचि ने एक दूसरी चाल चली। रात को जाकर वह गङ्गा में एक-मोहर डाल देता और सुवह सभी लोगों के सामने उसे निकाल कर कहता-यह मोहर मुझे गङ्गा ने दी है। इसी प्रकार वह रोज करने लगा । लोग उसके प्रभाव से चमत्कृत हो गए। धीरे धीरे यह खबर राजा को लगी। उसने सयडाल को कहाअगर वररुचि लोफ में प्रचलित काव्यों को सुनाता है वो गङ्गा सन्तुष्ट होकर दीनारें क्यों देती है ? मन्त्री ने उत्तर दिया
आडम्बरस्स पाओ, पाओ डंभस्स विज्जया पाओ। गलगजिअस्स प्राओ, हिंडइ.धुत्तो चउप्पाओ॥
अर्थात्- धूत पुरुष चार पैरों पर घूमते हैं-आडम्बर, दम्म अर्थात् कपटाई, विधा और गलगर्जित अर्थात् बहुत बातें बनाना।
राजा ने फिर पूछा-यदि यही बात है तो सभी लोग उसके गुणों की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं ?
मन्त्री ने कहा-महाराज ! दुनियाँ वास्तविक बात को नहीं पहिचानती। हमें स्वयं वहाँ जाकर देखना चाहिए कि क्या बात है?
दोनों ने प्रातः काल वहाँ जाने का निश्चय कर लिया । मन्त्री ने सन्ध्या समय एक विश्वस्त पुरुष को गङ्गा के किनारे भेजा और कहा-तुम वहाँ छिप कर बैठ जाना । वररुचि पानी में जो कुछ डाले उसे यहाँ ले भाना । उस पुरुष ने वैसा ही किया।
सुवह राजा और मन्त्री गङ्गा के किनारे गए । वररुचि गङ्गा
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
की स्तुति कर रहा था। इसके बाद वह दीनार खोजने के लिए हाथ पैर मारने लगा । कुछ न मिलने पर वह लज्जित हो गया। इसके बाद सयडाल ने कहा-अगर गङ्गा नहीं देती तो मैं देता हूँ। यह कह कर उसने दीनार वाला कपड़ा निकाला । राजा को दिखा कर उसे दे दियो । वररुचि को अपना मुंह दिखाना भी कठिन हो गया। वह वहाँ से भाग गया।
वररुचि मन्त्री पर बहुत क्रुद्ध हो गया था, इस लिए उसके छिद्र हूंढने लगा। मन्त्री की एक दासी को अपने साथ मिला लिया । उससे नित्य प्रति वह मन्त्री के घर का हाल जानने लगा। वह मूर्ख दासी सब कुछ कह देती थी।
कुछ दिनों बाद श्रियक के विवाह की तैयारी होने लगी। किसी राजा के यहाँ दुकना था, इस लिए फौज, हथियार वगैरह पूग सरनाम इकट्ठा किया जाने लगा। दासी ने यह बात वररुचि को कह दी। उसे छिद्र मिल गया। छोटे मोटे नौकर चाकरों में उसने यह बात फैलानी शुरू कर दी
एहु लोउ गावि जाणह, जं सयडालु करेसह। राय नंदु मारेविउ, सिरियउ रज्जि ठवेसह॥
भावार्थ-लोक इस बात को नहीं जानते कि सयडाल क्या करना चाहता है, राजा नंद को मार कर अपने पुत्र श्रियक को गद्दी पर बैठाना चाहता है।
परम्परा से यह बात राजा के पास पहुँच गई । उसने विश्वस्त पुरुषों को जाँच के लिए मेजा। उन्होंने मन्त्री के घर जाकर सारी तैयारियाँ देखीं। राजा कुपित हो गया। सयडाल ने राजा के पैरों में गिर कर बहुत समझाने की कोशिश की किन्तु वह अधिकाधिक विमुख होता गया । उसने घर जाकर भियक को बुला कर कहा-वत्स ! उस दुष्ट ब्रामण ने राजा को हम पर कुपित कर दिया
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग है। कुल नाश से बचने के लिए यही उपाय है कि मैं जाकर राजा के पैरों में पड़ता हूँ, उस समय तुम मुझे मार डालना। श्रियक ने अनिच्छा प्रकट की।
सयडाल ने कहा-अच्छा पैरों में गिरने के समय मैं तालकूट विप खा लूगा। इससे मेरी मृत्यु स्वतः हो जायगी। ऊपर से तुम प्रहार करना। इससे राजा को तुम पर विश्वास हो जायगा और कुल का नाश वच जायगा । श्रियक ने वैसा ही किया।
सयडाल ने अपने प्राण छोड़ दिये किन्तु अन्यतीर्षिक की प्रशंसा नहीं की। इसी प्रकार सम्यक्त्व में दृढ़ पुरुषों को परतीर्थी की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।
(१०) उपवृन्हणा के लिए श्रेणिक का उदाहरण
ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र आदि गुणों के धारण करने वालों की प्रशंसा करना, गुणों की वृद्धि के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना उपवृहणा कहलाती है । इसके लिए श्रेणिक का उदाहरण है____ मगध देश के राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करताथा। वह बहुत प्रतापी, बुद्धिमान् और धार्मिक था। एक बार वह घोड़े पर सवार होकर मण्डिकुक्षि नाम के उद्यान में गया। उद्यान विविध प्रकार के खिले हुए पुष्पों से आच्छादित, वृक्ष और लताओं से सुशो भित था। विविध प्रकार के पक्षी क्रीडाएं कर रहे थे। घूमते हुए राजा ने वृक्ष के नीचे बैठे हुए समाधि में लीन, ध्यानस्थ तथा तपस्वी एक मुनि को देखा।
उसे देख कर राजा मन में सोचने लगा-अहो! यह मुनि कितना रूपवान् है । शरीर की शोमा चारों तरफ फैल रही है। मुख से सौम्यतां और क्षमा आदि गुण टपक रहे हैं। इस प्रकार की शरीरसम्पति और गुणों के होने पर भी इसने संसार छोड़ दिया। इस के वैराग्य और अनासक्ति भी अपूर्व हैं।
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
आश्चर्य चकित होकर राजा मुनि के पास आया । वन्दना नमस्कार के बाद विनय से हाथ जोड़ कर उसने पूछा- भगवान् ! भी आप की युवावस्था है। अपूर्व शारीरिक सम्पत्ति प्राप्त हुई है । यह अवस्था सांसारिक सुख भोगने की है। ऐसे समय में भी आपने समस्त सांसारिक भोगों को छोड़ कर कठोर मुनिव्रत क्यों अङ्गीकार किया ! इस बात को जानने के लिए मेरा मन बहुत उत्कण्ठित है। यदि किसी प्रकार की बाधा न हो तो बताने की कृपा कीजिए ।
४६६
मुनि ने उत्तर दिया- महाराज ! मैं अनाथ हूँ । विविध प्रकार के शत्रु कष्ट देने लगे, उस समय मुझे अभय दान देने वाला कोई न मिला | इस प्रकार अत्यन्त दुखी होकर मैंने व्रतों की शरण ली।
यह सुन कर राजा हँसते हुए बोला-भगवन् ! जहाँ आकृति होती है, वहाँ गुण भी अवश्य रहते हैं। इस आकृति से आप में ऐसे गुण दिखाई दे रहे हैं, जिससे संसार की सारी सम्पत्तियाँ वशमें की जा सकती हैं। कहा भी है
शूरे त्यागिनी विदुषि व वसति जन, स च जनाद्गुणी भवति । गुणषति घनं घनाच्छी, श्रीमत्याज्ञा ततो राज्यम् ॥ अर्थात् - शूरवीर, त्यागी और विद्वान् को लोग मानते हैं । उसी से वह गुणी कहा जाता है । गुणवान् को धन की प्राप्ति होती है।. धन से प्रभाव होता है । प्रभाव से आज्ञा चलती है और उससे राज्य की प्राप्ति होती है ।
आपके समान व्यक्ति तो दूसरों का नाथ बन सकता है। यदि अनाथ होने मात्र से आपने दीक्षा ली है तो मैं आपका नाथ होता हूँ । मेरे रहते हुए आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आप निश्चिन्त होकर सांसारिक सुखों को भोगिए ।
1
सुनि ने उत्तर दिया- राजन् ! शूरता, उदारता आदि गुणों
2
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४६७ को सूचित करने वाली प्राकृति से ही कोई नाथ नहीं बनता। आप स्वयं अनाथ है, फिर मेरे नाथ कैसे बन सकते हैं? आपकी शरण लेने पर भी शत्रु मेरा पीछा न छोड़ेंगे। फिर निश्चिन्त होकर सुखों को कैसे भोग सकता हूँ?
राजा ने फिर पूछा-मुनिवर में विशाल साम्राज्य का अधिपति हूँ। मेरी चतुरङ्गिनी सेना शत्रु के हृदय में भय उत्पन्न करती है। मेरे प्रताप के कारण बड़े बड़े वीर सामन्त मुझे सिर नमाते हैं। सभी शत्रुओं को मैने नष्ट कर डाला है। मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने की किसी में भी शक्ति नहीं है। मन चाहे सुखों का स्वामी हूँ। संसार के सभी भोग मेरे पास मौजूद हैं। फिर मैं अनाथ कैसे हूँ?
मुनि ने उत्तर दिया-राजन् ! आप इस बात को नहीं जानते, वास्तव में अनाथ कौन है। मेरा वृत्तान्त सुनने पर आपको मालूम हो जायगा कि वास्तव में अनाथ कौन है और मैं अपने को अनाथ क्यों मानता हूँ। यह कह कर मुनि ने अपनी कहानी शुरू की
मेरे पिता कौशाम्बी के बहुत बड़े सेठ थे। उनके पास अपार धन था। मुझे प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। उस समय मेरा नाम संजय था। एक बार मेरे शरीर में भयङ्कर रोग उत्पन्न हुआ। सभी अंगों में जलन होने लगी। आँखों में, कमर में और पसवाड़ों में मयङ्कर शूल उठने लगी। रोग को शान्त करने के लिए मेरे पिता ने अनेक वैद्य तथा मन्त्र तन्त्र आदि जानने वालों को बुलाया। जिसने जो कहा वही उपचार किया गया किन्तु रोग शान्त न हुआ । पिताजी ने यहाँ तक कह दिया कि जो संजय को स्वस्थ कर देगा उसे सारा धन दे दूंगा।
माता मेरे दुःख से दुखी होकर दिन रात रोया करती थी। छोटे बड़े भाई मेरी सेवा के लिए खड़े रहते थे। दुःख से आखों में आँसू भर कर मुझे निहारते रहते थे। स्त्री मेरे पैरों में गिर कर
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला कहतीथी-नाथ! आपको क्या होगया वह इस प्रकारसतत विलाप करती रहती थी। दूसरे सम्बन्धी, मित्र, दास, दासी आदि सभी मेरे दुख से परम दुखी थे। दिन रात मेरे पास खड़े रहते। क्षण भर भी इधर उधर न होते किन्तु कोई मेरी वेदना को कम न कर सका। उस समय मुझे ज्ञान हुआ कि सांसारिक प्राणी अनाथ है। दुःख आने पर धन, मित्र श्रादि कोई काम नहीं आता। उसे भोगना ही पड़ता है। - मैंने फिर सोचा-इस समय मुझे तीव्र वेदना हो रही है। इस से भी बढ कर कई प्रकार की वेदनाएं नरक आदि गतियों में मैंने भोगी हैं। इन दुःखों से छुड़ाने की शक्ति किसी में नहीं है। इन कष्टों का मूल कारण कषाय रूपी शत्रु हैं। ये सभी संसारी जीवों के पीछे लगे हुए हैं। यदि मैं किसी प्रकार इस रोग से छूट गयातो कषायों का नाश करने के लिये मुनिवत अंगीकार कर लगा। चारित्र ही ऐसा नाथ है जो सभी जीवों की दुःख से रक्षा कर सकता है। इस प्रकार सोचने पर उसी रात को मेरी वंदना शान्त हो गई।प्रातः काल होते ही मैंने माता पिता आदि सभी सम्बन्धियों को पूछ कर विधि पूर्वक दीक्षा ले ली। अठारह पापों का त्याग करके मैं अनगार बन गया।
राजन् ! संसारी जीव चारों गतियों में चक्कर काटते रहते हैं । अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाते हैं। धर्म को छोड़ कर उन की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। इस लिए मैंने धर्म की शरण ली है।
यह सुन कर श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुआ और मुनि की प्रशंसा करने लगा- भगवन्! आपने मुझे अनाथता का वास्तविक स्वरूप समझा दिया। आपका जन्म सफल है । आपने सकल संसार को अनाथ समझ कर सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का सर्वथा नाश करने वाले, कषाय रूपी शत्रु का दमन करने
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
वाले तथा सभी के नाथ धर्म की शरण ली है।
इम प्रकार मुनि की स्तुति करता हुआ श्रेणिक अपने निवास स्थान पर चला गया | गुणों की स्तुति करने से उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती है। इस से सम्यक्त्व दृढ होता है तथा श्रात्मा को उन गुणों की प्राप्ति होती है । इस लिए मुमुक्षु को श्रात्मा के गुणों की स्तुति रूप उपवृन्हा करनी चाहिए ।
( ११ ) स्थिरीकरण के लिए श्रार्यापाढ आचार्य का दृष्टान्तवत्सदेश में बहुश्रुत, विश्ववत्सल तथा बहुत बड़े शिष्य परिवार वाले आर्याषाढ़ नाम के आचार्य रहते थे । उनके गच्छ में जब कोई साधु अन्तिम समय आया जान कर संथारा करता तो आचार्य उसे धर्मध्यान का उपदेश देते तथा ऐसा प्रयत्न करते जिस से अन्त तक उमके भाव शुद्ध रहें । अन्त में आचार्य उसे कहते कि देवगति में उत्पन्न हो कर तुम मुझे अवश्य दर्शन देना । इस प्रकार श्राचार्य ने बहुत शिष्यों को कहा किन्तु कोई स्वर्ग से नहीं आया ।
एक वार आचार्य के किसी प्रिय शिष्य ने संधारा किया | श्राचार्य ने बड़ी सावधानी के साथ उसका संथारा पूरा कराया और अन्त में उसे प्रतिज्ञा करवा कर गद्गद् वाणी से कहा- वत्स ! मेरा तुम पर बहुत स्नेह है। तुम भी मुझे बहुत मानते हो । स्वर्ग में जानें पर तुम मुझे एक बार अवश्य दर्शन देना । यही मेरी बार बार प्रार्थना है । मैंने इस प्रकार बहुत से साधुओं को कहा था किन्तु एक भी नहीं आया । वत्स ! मेरे स्नेह का स्मरण करके तुम तो अवश्य आना ।
I
शिष्य ने उसे स्वीकार कर लिया । काल करके वह देवलोक • मैं उत्पन्न हुआ । देवलोक के कार्यों में व्यग्र रहने के कारण उसे आचार्य को दर्शन देने के लिए आने में विलम्ब हो गया ।
उसे शीघ्र न आते देख आचार्य के चित्त में विपरीत विचार
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
उठने लगे। उन्होंने सोचा निश्चय से परलोक नहीं है। मेरे जिन शिष्यों का देहान्त हुआ है वे सभी ज्ञान, दर्शन और चारित्र की धाराधना करने वाले तथा शान्तस्वभावी थे । अन्तिम समय में आहार आदि का त्याग करके उन्होंने संथारा किया था । मैंने स्वयं उसे पूरा कराया था। उनके परिणाम यथा सम्भव शुद्ध थे । सभी मेरी आज्ञा को मानने वाले तथा स्नेहशील थे, किन्तु उनमें से एक भी मेरे पास नहीं आया। देवलोक होता तो वे वहाँ उत्पन्न होकर अवश्य मेरे पास भाते ।
मनोहर तथा सुखद भोगों को छोड़ कर मैंने आज तक कठोर तों का व्यर्थ पालन किया। मैं व्यर्थ ही ठंगा गया । अब सभी भोगों को भोग कर जन्म सफल करूँगा । जब परलोक ही नहीं है तो उसके लिए व्यर्थ कष्ट क्यों उठाया जाय। यह सोच कर वे सम्यक्त्व से गिर गए । साधु के ही वेश में उन्होंने मिथ्यात्व प्राप्त कर लिया। दीक्षा छोड़ने की इच्छा से वे गच्छ से बाहर निकल गए। इतने में स्वर्ग में गए हुए श्राचार्य के शिष्य ने अवधिज्ञान लगा कर देखा । अपने गुरु का यह हाल जान कर उसे बहुत दुःख हुआ । वह सोचने लगा-भागम रूपी नेत्र वाले होने पर भी मेरे गुरु मोह रूपी अन्धकार में पड़ कर मोच के मार्ग को छोड़ रहे हैं।
1
अहो मोहस्य महिमा, जगज्जैत्रो विजृम्भते । जात्यन्धा इव चेष्टन्ते, पश्यन्तोऽप्यखिला जनाः ॥ अर्थात्- मोह की महिमा अपार है । इसने अपनी विडम्बना से सारे संसार को जीत रक्खा है। इसके वश होकर देखते हुए भी लोग जन्मान्ध बन जाते हैं।
कुलवानपि धीरोऽपि, गभीरोऽपि सुधीरपि । मोहाज्जहाति, मर्यादां, कल्पान्तादिव वारिधिः ॥ अर्थात् - जिस प्रकार, समुद्र कल्पान्त के कारण मर्यादा को
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४७१ छोड़ देता है उसी प्रकार कुलवान, धीर, गम्भीर तथा पण्डित भी मोह के कारण मर्यादा को छोड़ देता है। __ मोह से प्रेरित हो कर जब तक ये कोई दुष्कर्म नहीं करते तप तक इन्हें समझा कर सन्मार्ग पर लाना चाहिए । यह सोच कर वह देव नीचे भाया और अपने गुरु के मार्ग में एक ग्राम की विक्रिया की । उसके एक ओर विविध प्रकार के नाटक रचा दिए । प्राचार्य उस मनोहर नाटक को खेिं ऊपर किए कामास तक
आनन्दपूर्वक देखते रहे । देव प्रभाव के कारण उन्हें नाटक देखते समय सरदी, गरमी, भूख,प्यात तथा थकावट कुछ नहीं मालूम पड़ी।
इतने में देव ने उस नाटक का संहार कर लिया। प्राचार्य भागे चले । वे सोचने लगे-भाग्य से क्षण भर शुम नाटक देखने को मिला।
देव ने उनके भावों की परिक्षा के लिए वन में छः कायों के नाम वाले छः चालकों की विकुर्वणा की। पालक सभी प्रकार के
आभूषणों से सजे हुए थे । प्राचार्य ने बहुत जेवरों से लदे हुए पहले पृथ्वीकाय नाम के बालक को देखा और मन में सोचाइस पालक के आभूषणों को मैं छीन लेता हूँ, इनसे प्राप्त हुए धन से मेरी मोगेच्छा पूरी हो बायगी। धन के विना भोगेच्छा मृगाणा फा पानी पीने के समान है। यह सोच कर भाचार्य ने उस सुन्दर पालक को उत्कण्ठा से कहा-अरे । इन आभूषणों को उतार दे। पालक ने नहीं उतारे। इस पर क्रोधित होकर उन्होंने चालकको गर्दन से पकड़ लिया । भयभीत होकर बालक ने रोते हुए कहामेरा नाम पृथ्वीकायिक है । इस भयङ्कर भटवी में चोरों के उपद्रव से डर कर भापकी शरण में आया हूँ। .
अशाश्वताबमाप्राणा, विश्वकीर्तिश्च शाश्वती। यशोऽर्थी प्राणनाशेऽपि, सद्रक्षेच्छरणागतम् ॥ अर्थात- ये प्राण प्रशाश्वत है। संसार में कीति शामत है।
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला यश को चाहने वाला व्यक्ति अपने प्राण देकर भी शरण में आए हुए की रक्षा करे।
मैं गरीव चालक हूँ। आपकी शरण में आया हूँ। मेरी रक्षा कीजिए । शरणागत की रक्षा करने वाले अपने कार्य द्वारा स्वयं - भूषित होते हैं। क्योंकिविहलं जो अवलम्बइ, आवइपडियच जो समुद्धरइ । सरणागयं च रक्खइ, तिसु तेसु अलंकिया पुहवी।। अर्थात्-दुःख से घबराए हुए प्राणी को जो सहारा देता है, जो आपत्ति में पड़े हुर का उद्धार करता है तथा जो शरणागत की रक्षा करता है, उन्हीं तीन व्यक्तियों से पृथ्वी सुशोभित है ।
इस प्रकार कहने पर भी लोभी प्राचार्य न माने । वे चालक की गर्दन मरोड़ने के लिए तैयार हो गए । बालक ने फिर प्रार्थना कीभगवन् ! एक कथा सुन लीजिए । फिर जैसी आपकी इच्छा हो कीजिएगा। प्राचार्य के कहने पर बालक सुनाने लगा- .
किसी गांव में एक कुम्हार रहता था। खोदते हुए उस पर किनारे की मिट्टी गिर पड़ी । वह कहने लगा-जिस की करा से मैं देवों को उपहार और याचकों को मिक्षा देता हूँ तथा परिवार का पोपण करता हूँ वही भूमी मुझ पर आक्रमण कर रही है । शरण देने वाला ही मेरे लिए भयजनक हो रहा है।
भगवन ! मैं भी डरा हुआ आपकी शरण में आया हूँ। आप मुझे लूट रहे हैं, इस लिए मुझे भी शरण से भय हो गया है। 'बालक! तुम बड़े चतुर हो यह कहते हुए प्राचार्य ने उसे मार कर आभूषण छीन लिए और उन्हें अपने पात्र में डाल लिया ।व्रत से भ्रष्ट होने पर चतुर व्यक्ति भी अति कर और निर्लज्ज हो जाता है।
आचार्य भागे बढ़े। वन में कुछ दूर चलने पर उन्हें अकाय नाम का दूसरा पालक दिखाई दिया। वह भी पहले के समान
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७३
श्री जैन सिद्धान्त पोत संग्रह, चौथा भाग आभूषण पहिने हुए था। प्राचार्य उसके भी प्राभूषण छीनने के लिए तैयार हो गए। बालक ने अपना नाम बता कर नीचे लिखी कथा सुनाई
किसी जगह पाटल नाम का चारण रहता था। वह मनोहर कहानियों मुनाने में बहुत चतुर था । अच्छी अच्छी उक्तियों का समुद्र था। एक वार गङ्गा को पार करते हुए वह पूर में वह गया। तीर पर खड़े हुए लोगों ने उसे देखा और विस्मित होते हुए कहाचित्र विचित्र कथाएं सुनाने वाले और बहुश्रुत पाटल को गङ्गा बहा कर ले जा रही है । ओ पहने वाले ! तुम्हारा कल्याण हो। कोई सुभापित सुनायो।
दोनों किनारों से लोगों की बात सुन कर पाटल पोला-जिस से वीज उगते हैं, जिसके आधार पर किसान जीते हैं, उस में पड़ कर मैं मर रहा हूँ। शरण देने वाले से ही मुझे भय हो गया है। ___कहानी कह कर पालक ने बहुत प्रार्थना की किन्तु निर्दय हो कर आचार्य ने उसके भी आभूपण छीन लिए।
आगे बढ़ कर प्राचार्य ने तेजस्कायिक नाम के तीसरे बालक को देखा और भाभूपण छीनने की तैयारी की। चालक ने अपना नाम बता कर नीचे लिखी कथा सुनाई
किसी आश्रम में सदा अनि की पूजा करने वाला एक तापस रहता था। एक दिन भाग से उस की झोंपड़ोजल गई। वह बोलाजिसे मधु और घी से दिन रात तृप्त करता रहता हूँ, उसी ने मेरी झोपड़ी जला डाली । शरण देने वाला ही मेरे लिए मयकारक बन गया है। मैंने व्याघ्र से डर कर अग्नि की शरण ली थी।
उसने मेरे शरीर को जला डाला । शरण हो भय देने वाली बन - गई। यह कह कर बालक ने रक्षा के लिए प्रार्थना की किन्तु भाचार्य
ने आभूषण छीन लिए।
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७४
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला आगे बढ़ने पर वायुकायिक नाम के चौथे बालक को देख कर प्राचार्य श्राभूषण छीनने को तैयार हो गए। बालक ने अपना . नाम बता कर कहानी शुरू की
एक युवा पुरुष बहुत बलवान था। उसके अङ्ग बहुत मोटे हो गए तथा वातरोग से पीड़ित रहने लगे। उसे देख कर किसी ने पूछा-- आप पहले लांघना, कूदना आदि विविध प्रकार के व्यायाम करते थे। आज किस रोग के कारण लकड़ी को लेकर चल रहे हैं ?
युवा ने कहा- जो हवा जेठ और आषाढ़ में सुख देती है, वही मेरे शरीर को पीड़ा दे रही है। शरण से ही मुझे भय हो रहा है। यह कथानक कह कर बालक ने रक्षा की प्रार्थना की किन्तु श्राचार्य ने उसके भी आभूषण छीन लिए।
आगे बढ़ने पर प्राचार्य ने प्राभूषण पहिने हुए वनस्पतिकाय नाम के पाँचवे बालक को देखा । उसने भी प्राचार्य को श्राभूषण खोसने के लिए उद्यत देख कर नीचे लिखी कहानी कही
फूल और फलों से लदे हुए किसी वृक्ष पर बहुत से पनीरहते थे। घृत को अपनी शरण मान कर वे निश्चिन्त हो रहे थे। वहाँ बिना किसी बाधा के निवास करते हुए उन पक्षियों के बच्चे हो गए।
और घोंसलों में क्रीड़ाएं करने लगे। - कुछ दिनों बाद वृक्ष के पास एक बेल उग गई। उस वृक्ष को लपेटती हुई वह ऊपर चढ़ गई। एक दिन उस लता के सहारे से एक साँप वृत पर चढ़ गया और पक्षियों के बच्चों को खा गया। सन्तान के नाश से दुखी हुर पक्षी विलाप करते हुए कहने लगेभाज तक उपद्रव रहित इस वृक्ष पर हम लोग सुख से रहे। शरणभूत यही वृक्ष लता युक्त होने पर हमारे लिए भयप्रद हो गया है।
कहानी कह कर बालक ने अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की। किन्तु धाचार्य ने उसके भी आभूषण छीन लिए।
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री नैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग ४७५ आगे बढ़ने पर प्राचार्य को त्रसकाय नाम का छठा वालक मिला । आभूपण छीनने के लिए उत्सुक आचार्य को देख कर उसने चार कहानियॉ सुनाई । वे इस प्रकार हैं
(क) किसी नगर को शत्रुओं ने घेर लिया। बाहर वसे हुए चाण्डाल वगैरह डर कर नगर में घुस गए । नगर के अन्दर रहने वालों ने अन्न आदि समाप्त हो जाने के भय से उन्हें फिर बाहर निकाल दिया। नगर हमारे लिए शरण भूत होगा, इस श्राशा से नगर में घुसते हुए उन चाण्डालों की दुर्दशा देख कर कोई कहने लगा-डरे हुए नागरिक तुम्हें बाहर निकालते हैं। वाहर शत्र मार रहे हैं । इस लिए हे चाण्डालों ! तुम कहीं नामो, शरण ही तुम्हारे लिए भय है।
कहानी सुनाने पर भी प्राचार्य ने उसे नही छोड़ा। वालकने दूसरी कहानी शुरू की
(ख) एक राजा बड़ा दुष्ट था । वह सदा अपने नगर में निजी पुरुषों द्वारा चोरी करवाता था । उसका पुरोहित सभी को बहुत पीटा करता था। लोग दुखी हो पर आपस में वहने लगे- यहाँ राजा स्वयं चोर है तथा पुरोहित कष्ट देने वाला है। ऐसे नगर से चले जाना चाहिए। यहॉशरण ही भय देने वाला है। इस पर
भी आचार्य ने उसे नहीं छोड़ा। __ (ग) बालक ने तीसरी कामुक ब्राह्मण की कहानी सुनाई। फिर भी आचार्य ने चालक कोन छोड़ा। उसने चौथी कथा शुरू की
(घ) किसी गांव में एक ब्राह्मण रहता था। उसके पास बहुत घन था । उसने धर्म समझ कर एक तालाव खुदवाया । उसके
किनारे पर मन्दिर और वगीचा वनवा कर उसने बकरे का यज्ञ : किया। यज्ञ में बकरे का होम करना धर्म समझ कर परलोक में
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला मुख की प्राशा से उसने बहुत से बकरे मरवा डाले।आयुष्य पूरी होने पर वह ब्राह्मण भी मर कर बकरा बना। धीरे धीरे बढ़ता हुआ वह बहुत मोटा और हृष्ट पुष्ट हो गया । बामण के पुत्रों ने यज्ञ में मारने के लिए उसे खरीद लिया और तालाब के किनारे ले गए। पूर्व जन्म में अपने बनवाए हुए तालाब वगैरह को देख कर बकरे को जातिस्मरण हो गया । मैंने ही ये सब बनवाए थे किन्तु अब मेरी विपत्ति के कारण बन गए हैं। यह सोच कर वह अपने कार्यों की निन्दा करता हुआ बुधु शब्द करने लगा। उसे इस प्रकार दुखी होते हुए किसी महामुनि ने देखा। ज्ञान द्वारा पूर्व भव का वृत्तत्ति जान कर उन्हों ने कहा- ओ बकरे ! तुम्ही ने वालाव सुदाया, वृक्ष लगाए और यज्ञ शुरू किए । उन कों के उदय आने पर अब घुबु क्यों कर रहा है ?
साधु की बात सुन कर बकरा चुप हो गया। वह विचारने लगा अपने कर्म उदय में आने पर रोने से क्या होता है। साधु की वाणी से चुप हुए बकरे को देख कर ब्राह्मण आश्चर्य में पड़ गए और मुनि से पूछने लगे-भगवन् ! जैसे सांप मन्त्र के अधीन होकर, शान्त हो जाता है, उसी प्रकार आप की वात से यह बकरा चुप हों गया। आप ने ऐसा क्या किया ?
मुनि ने उत्तर दिया-आप लोगों का पिता मर कर यह चकरा बना है। तालाब आदि देख कर इसे पूर्व जन्म की बातें याद या गई । जब वह बुबु करके दुःख प्रकट कर रहा था तो मैंने कहातुम अपने कर्मों का फल भोग रहे हो। उसके लिए दुखी क्यों होते हो ? यह सुनते ही बकरा चुप हो गया। ..बामण के लड़कों ने पूछा-भगवन् ! इस बात पर कैसे विश्वास किया जाय १ कोई प्रमाण बताइये।
मुनि ने उचर दिया-पूर्व भव में स्वयं गाड़े हुए धन को यह
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७७
श्री जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग तुम्हारे सामने बता देगा। इससे तुम्हें विश्वास हो जायगा । इस के बाद साधु ने वकर से धन बताने को कहा । चकरा धन वाले स्थान पर जाकर उसे पैर से खोदने लगा। वहीं पर धन निकल
आया । साधु की बात पर विश्वास करके लड़कों ने बकरे को छोड़ दिया तथा जैन धर्म को स्वीकार कर लिया । बकरे ने भी मुनि से धर्म का श्रवण कर उसी समय अनशन कर लिया । मर कर वह स्वर्ग में गया। __ मरने के बाद वे ही उसके शरण होंगे, ब्रामण ने इस आशा से तालाव खुदवा कर यज्ञ आदि शुरू किए थे किन्तु वे ही उसके लिए अशरण हो गए । इसी प्रकार मैंने भी डर कर आपकी शरण ली थी । यदि आप ही मुझे लूट रहे हैं तो मेरे लिए रक्षक ही भक्षक पन गया।
इस प्रकार चार कथाएं सुनने पर भी प्राचार्य की दुर्भावना नहीं बदली, जिस प्रकार असाध्य रोग औषधियों से शान्त नहीं होता। प्राचार्य ने पहले की तरह उसके भी अलङ्कार खोस लिए। जिस प्रकार समुद्र पानी से तृप्त नहीं होता इसी प्रकार लोभी धन से सन्तुष्ट नहीं होता । इस प्रकार छः बालकों के आभूषण खोस कर उसने पात्र भर लिया और अपनी आत्मा को बुरे विचारों से मलिन बना लिया । बालकों के सम्बन्धी कहीं देख न लें, इस विचार से वह नन्दी जल्दी आगे बढ़ने लगा।
देव ने इस प्रकार परीक्षा करके जान लिया कि आचार्य व्रतों से सर्वथा गिर गया है। उसके सम्यक्त्व की परिक्षा के लिए देव ने एक साध्वी की विक्रिया की । साध्वी बहुत से जेवरों से लदी थी उसे देख कर आचार्य ने रोप करते हुए कहा- आँखों में मुरमा लगाए, विविध प्रकार का शृङ्गार किए, तिलक से मण्डित जिन शासन की हँसी कराने वाली दुष्ट साध्वी! तुम कहाँसे आई हो?
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
आचार्य का वचन सुन कर साध्वी कुपित हो गई। बिना हिचकिचाहट के शीघ्रता पूर्वक उसने उत्तर दिया- आचार्य ! दूसरे का राई जितना छिद्र भी तुम्हें ढीख जाता है । अपना पहाड़ जितना नहीं दीखता । स्वयं निर्दोष व्यक्ति ही दूसरे को उपदेश देना अच्छा लगता है। स्वयं दोप वाला दूसरे को उपदेश देने का अधिकारी नहीं होता । यदि तुम अपने को सच्चा श्रमण, त्रह्मचारी, पत्थर और सुवर्ण को समान समझने वाला, सदाचारी और उग्रविहारी समझते हो तो यहाँ आओ। दूर क्यों भागते हो। मुझे तुम्हारा पात्र देखने दो ।
४७
साध्वी से इस प्रकार फटकार सुन कर वह चुप चाप आगे बढ़ा | उसी देव द्वारा विक्रिया की हुई सेना को देखा । भयभीत हो कर आचार्य सेना के मार्ग को छोड़ कर दूसरी तरफ जाने लगा । दुर्भाग्य से वह राजा के सामने पहुँच गया ।
श्राचार्य को देख कर राजा ने हाथी से उतर कर चन्दना की और कहा - मेरा अहोभाग्य है कि आपके दर्शन हुए। भगवन् ! मेरे पास मोदक आदि प्रासुक और सर्वथा एपणीय आहार है। इसे ग्रहण करने की कृपा कीजिए । पात्र में रक्खे हुए आभूषण को छिपाने के उद्द ेश्य से आचार्य ने कहा- आज मैं हार नहीं करूँगा । भयभीत हो कर, छोड़ दो, छोड़ दो, कहने पर भी श्राचार्य को राजा ने नहीं छोड़ा। उनका पात्र पकड़ कर खींचना शुरू किया । श्राचार्य के नहीं छोड़ने पर राजा ने बलपूर्वक पात्र को छीन लिया और लड्डू डालने के लिए उसे खोला ।
1
पात्र में आभूषणों को देख कर राजा बहुत कुपित हुआ । क्रोध से भौंहे चढ़ा कर भयंकर मुँह बनाते हुए उसने कहा- अरे पापी ! तूने मेरे पुत्रों को मार डाला । अन्यथा उनके आभूषण तुम्हारे पास कहाँ से याते ? अरे ! साधु का ढोंग रचनें वाले दुष्ट ! नीच !
१
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४७ मेरे पुत्रों को मारकर तू जीवित कैसे जा सकता है। __राजा की तर्जना सुन कर आचार्य भय से कांपने लगा। लजा से मुह नीचा किए वह सोचने लगा-इसके पुत्रों के आभूषणों को लेकर मैंने बहुत बुरा कार्य किया । मोह के कारण मेने विवेक खो दिया । मेरे पाप का सारा हाल इस राजा ने जान लिया है। अब यह मुझे बुरी मौत से मरवाएगा। मेरे पाप का फल सामने आ गया है। अब कौन बचा सकता है । मैंने प्रारम्भ से ही विना विचार किया जो भोगों की इच्छा से संयम के सुख को छोड़ दिया। जिस समय प्राचार्य इस प्रकार सोच रहा था उसी समय वह देव माया का संहार करके, अपने शरीर की कान्ति से दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ उसके सामने निजी रूप में प्रकट हुआ और कहने लगा-भगवन् ! मै आपका वही प्रिय शिष्य हूँ जिसे संथारा स्वयं पूरा करा के आपने देवलोक से आने को कहा था । बत के माहात्म्य से मैं विशाल ऋद्धि वाला देव हुआ हूं। आप के वाक्य का स्मरण करके वचनवद्ध होने से यहाँ आया हूँ।।
मार्ग में आपने जो नाटक देखा था, संयम से भ्रष्ट चित्त वाले आप को वोध कराने के लिए वह मैने ही रचा था। आपके भावों की परीक्षा के लिए मैंने ही छ. कायों के नाम वाले चालक और साध्वी की विक्रिया की थी। आप के बढ़ते हुए महामोहको देख कर उसे नष्ट करने के लिए मैंने ही सेना आदि का भय दिखाया था। इस लिए शङ्का आदि दोपों को निकाल दीजिए। उन्मार्ग में जाते हुए मन को सन्मार्ग में लगाइए । शास्त्रों में आया है
संकंत दिव्यपेम्मा, विसयपसत्तासमत्त कत्तव्वा । अपहीण मणुकज्जा, नरभवमसुइन इंति सुरा।। चत्तारिपंच जोअण सयाई, गंधो उमणुभ लोगस्स। उदं वचई जेणं, न हु देवा तेण आवति ॥
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________ 480 - श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला अर्थात-दिव्य भोगों से प्रेम होने के कारण, विषय भोग में प्रसक्त होने से, देवलोक का कार्य समाप्त न होने से तथा मनुष्यों के अधीन न होने से देवता अशुचि मनुष्य लोक में नहीं आते / मनुष्य लोक की दुर्गन्ध पाँच सौ योजन ऊपर तक चारों तरफ फैलती है इस लिए भी देव यहाँ नहीं आते। इस प्रकार शास्त्रीय बातों को आप जानते हैं फिर भी मेरे न आने पर आपने कैसा काम कर डाला 1 दिव्य नाटक आदि देखने की उत्सुकता में बीतने वाले लम्बे समय का भी देवों को ज्ञान नहीं रहता / आपने भी उस नाटक को देखने में लीन हो कर ऊपर देखते हुए एक मुहूर्त के समान छ: मास विता दिए / क्या प्रलय आने पर भी क्षीर सागर कभी अपनी मर्यादा को छोड़ता है ? आप सरीखे आचार्य भी अगर इस प्रकार के अनुचित कार्य को करने लगेंगेतो संसार में दृढ़धर्मा कौन होगा।महामुने! अपने दुराचरण की आलोयणा करके कर्मों का नाश करने वाले चारित्र का पालन कीजिए / देवता की वाणी सुन कर मुनि को प्रति बोध हो गया। उसने अपने दुराचार की चार बार निन्दाकी / प्राचार्य आय पाढ ने पार वार देव से कहा- वत्स ! तुमने बहुत अच्छा किया तुम बड़े बुद्धिमान हो जो इस प्रकार मुझे बोध दे दिया / मैं अपने अशुभ कर्मों के उदय से नरक के मार्ग की ओर जा रहा था / तुमने मोक्ष मार्ग में डाल दिया / इस लिए तुम मेरे भाव बन्धु हो / मैं धर्म से गिर गया था। फिर धर्म दे कर तुमने मुझ पर जो उपकार किया है उससे कभी उऋण नहीं हो सकूँगा। देव की इस प्रकार प्रशंसा करके आचार्य अपने स्थान पर चले गए। पापों के लिए आलोयणा, प्रतिक्रमण करके उग्रतप करने लगे / देव ने भी आचार्य को नमस्कार किया, अपने अपराध के
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग 41 लिए क्षमा मांगी और स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया। जिस प्रकार देव ने प्राचार्य को सम्यक्त्व में स्थिर किया, उसी प्रकार सम्यक्त्व से गिरते हुए को स्थिर करना चाहिए। (उत्तराधयनसूत्र, कथा वाला, दूसरा परिषहाभ्ययन) (12) वात्सल्य के लिए वजस्वामी का दृष्टान्त भ्रातृभाव से प्रेरित हो कर समान धर्म वालों का भोजन पानी श्रादि द्वारा उचित सत्कार करना वात्सल्य है। इसके लिए वजूस्वामी का दृष्टान्त है अवन्ती देश के तुम्बवन सन्निवेश में धनगिरि नाम का भावक श्रेष्ठिपुत्र रहता था। वह दीक्षा लेना चाहता था। माता पिता उस के लिए योग्य कन्या को चुनते थे किन्तु वह अपनी दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट करके उसे टाल देता था। इसी लिये कोई कन्या भी उसके साथ विवाह करने को तैयार न होती थी। फरने को तैयार हो गई। दोनों का विवाह हो गया। सुनन्दा का भाई पार्यशमी सिहगिरि के पास पहले ही दीक्षा ले कुका था। कुछ दिनों बाद वह गर्भवती हो गई / धनगिरि ने उसे कहा-यह गर्भ तुम्हारा सहायक होगा, मुझे अव दीक्षा लेने दो / सुनन्दा की अनुमति मिलने पर वह सिंहगिरि के पास जाकर दीक्षित हो गया / कुछ अधिक नौ मास बीतने पर सुनन्दा के पुत्र उत्पन्न हुआ। उसे देखने के लिए आई हुई स्त्रियों कहने लगीं- अगर इसका पिता दीक्षा न लेता तो अच्छा होता / पालक पैदा होते स्मरण हो गया। यह सोच कर वह दिन रात रोने लगा कि इससे वंग पा कर मावा छोड़ देगी और मैं सुख पूर्वक दीक्षा ले लंगा।
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________ ४पर - श्री सेठिया जैम प्रन्थमाला इसी प्रकार छः मास बीत गए। एक बार वहाँ प्राचार्य पधारे / आर्यशमी और धनगिरि ने आचार्य को पूछा-अगर आप आज्ञा दें तो हम अपने गृहस्थावास के सम्बन्धियों के घर भिक्षार्थ होने वाला है। सचित या अचित जो कुछ मिले उसे लेते आना। गुरू की आज्ञा लेकर वे सम्बन्धियों के घरों में गए और घूमने लगे इतने में स्त्रियों ने आकर सुनन्दा से कहा-इस वालक को तुम उन्हें दे दो। फिर वे अवश्य स्नेह करने लगेंगे। सुनन्दाने धन कीजिए ।धनगिरि ने उत्तर दिया-तुम पश्चाताप मत करो / यह ने यह जान कर रोना बन्द कर दिया।। धनगिरि उसे लेकर आचार्य के पास चले आए। आचार्य ने पात्र को भरा जान कर हाथ फैलाया / छूते ही आचार्य जान गए कि यह कोई बालक है / इसके बाद देवकुमार के सदृश बालक को देखा और कहा-इस को भली प्रकार पालना चाहिए। यह प्रवचन का आहार अर्थात् पोषक होगा / उसी दिन से उसका नाम वजू रख दिया। आचार्य ने उसे साध्वियों को सौंप दिया। साच्चियों ने शय्यातर को दे दिया। वालक शय्यातर के अपने बच्चों के साथ बढ़ने लगा। साधु वहाँ से विहार कर गए। सुनन्दा ने बालक को वापिस मांगा किन्तु शय्यातर ने उसे निक्षप अर्थात दूसरे की . धरोहर बता कर नहीं दिया। सुनन्दा रोन आकर उसे दूध पिला जाती थी। इसी प्रकार वह तीन वर्ष का हो गया। कुछ दिनों बाद साधु फिर वहीं पा गए / सुनन्दा ने उनसे पुत्र को मांगा। साधुओं ने, नहीं दिया। सुनन्दा ने राजद्वार में जा कर पुकार की / राजा ने निर्णय दिया-आगे बैठा हुआ यह चालक बुलाने पर जिस के
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह, चौथा भाग पास चला जाएगा, यह उसी का होगा। संघ के साथ गुरु एक तरफ थे तथा सुनन्दा और सभी नागरिक दूसरी तरफ। वे राजा के दोनों तरफ चैठ गए और वालक सामने वैठ गया। स्त्री पक्ष वालों द्वारा दया की प्रार्थना करने पर राजा ने पहले सुनन्दा से वुलाने के लिये कहा / वह कई प्रकार के खिलौने तथा खाद्य वस्तुएं लेकर आई थी। उन्हें दिखाती हुई सुनन्दा प्यार से बुलाने लगी। पालक माता को देख कर भी दूर बैठा रहा। अपने स्थान से नहीं हिला / वह मन में सोचने लगा-पालने में पड़े हुए भी मैंने सुनने मात्र से ग्यारह अंग पढ़ लिए।क्या अब माता के मोह में पड़कर संघ को छोड़ दें? अगर में व्रत में रहातो माता भीत्रत अङ्गीकार कर लेगी, जिससे दोनों का कल्याण होगा। राजा की आज्ञा से पिता ने उस से कहा-हे वजू ! यदि तुम ने निश्चित कर लिया है तो धर्माचरण के चिन्हमृत तथा कर्मरज को पूजने वाले इस रजोहरण को स्वीकार करो। यह सुनते ही के सामने उसी समय दीक्षा दे दी। दीक्षा ले ली। अब मुझे किसी से क्या मतलब है ? यह सोचकर उसने भी दीक्षा ले ली। ___ कुछ साधुओं के साथ वाशक को वहीं छोड़ कर आचार्य दूसरी जगह विहार कर गए। धमुनि आठ वर्ष के होने पर प्राचार्य के साथ दिहार करने लगे। एक-वार गुरु अवन्ती की ओर जा रहे थे रास्ते में वर्षा होने लगी। उसी समय उसके पूर्वभव के मित्र जम्भक देव जा रहे थे। वजूमुनि को देख कर परीक्षा करने के लिए ठहर गए। उन्होंने कूष्माण्ड (कोहले) को पकाया और वर्षा बंध हो जाने पर वजमुनि
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________ 484 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला को निमन्त्रित किया / उन्होंने जाकर उपयोग लगाया-द्रव्य से पका हुआ कूष्माण्ड है, क्षेत्र से उज्जैनी है, काल से वर्षा समय है, भाव से देने वाले पृथ्वी को नहीं छू रहे हैं और निनिमेष हैं अर्थात् उनकी पलकें स्थिर हैं / यह देख कर वजूमुनि ने समझ लिया कि वे देव हैं / इस लिए आहार को ग्रहण नहीं किया / देव इस बात से सन्तुष्ट हुए और अपने स्वरूप को प्रकट करके उन्होंने वजूमुनि को वैक्रिय शक्ति दे दी। कुछ दिनों बाद ज्येष्ठ मास में जब वजूमुनि अवन्ती नगरी में थे उस समय देवों ने फिर उनकी परीक्षा की / जब वे शौच निवृत्ति के लिए चारह गए तब घेवर और शाक आदि बना कर उन्हें श्रामन्त्रित किया। द्रव्यादि का उपयोग लगा कर वहाँ पर भी वजमुनि ने सचाई जान ली और आहार को ग्रहण नही किया / उस समय देवों ने उन्हें आकाशगामिनी विद्या दे दी। दूसरे शिष्यों को पढ़ते हुए सुन कर वजमुनि को ग्यारह अंगों का ज्ञान स्थिर हो गया। इसी प्रकार सुन कर ही उन्होंने पूर्वो का मी बहुतसा ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक बार आचार्य शौच निवृत्ति के लिए गए हुए थे और दूसरे स्थविर साधु गोचरी के लिए उपाश्रय से बाहर थे। उस समय वजूस्वामी कुछ छोटे छोटे साधुओं की मण्डली में बैठ कर वाचना देने लगे। इतने में आचार्य श्रा गए / वजमुनि को वाचनी देते हुए देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ / कुछ दिनों बाद आचार्य ने दूसरी जगह विहार करने का निश्चय किया। साधुओं को याचना देने का कार्य बजमुनि को दे दिया। सभी साधु भक्ति पूर्वक वजमुनि से वाचना लेने लगे। वजमुनि इस प्रकार समझाने लगे जिससे मोटी बुद्धि वाले भी समझ जायें। पढ़े हुए अ तज्ञान में से भी साधुओं ने बहुत सी
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________ - श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग 45 शकाएं की। वज्रमुनि ने अच्छी तरह खुलासा कर दिया। साधु श्रु तस्कन्ध पूरा हो जाय / साधु वषमुनि को बहुत मानने लगे। धीरे धीरे वज्रमुनि दस पूर्वधारी हो गए। प्राचार्य का स्वर्गवास होने पर वे ही प्राचार्य बने / अनेक साधु साध्वियों ने उनके पास , दीक्षा ली। सुन्दर रूप, शास्त्रों का ज्ञान तथा विविध लब्धियों के कारण उनका प्रभाव दूर दूर तक फैल गया / देवता उनकी सेवा में उपस्थित रहने लगे। एक बार महा दुर्मिक्ष पड़ गया / सारा संघ एकत्रित होकर ववस्वामी के पास गया। अपनी लब्धि के बल से वे सारे संघको दुर्भिक्ष रहित स्थान में ले गए। वहाँ सभी प्रानन्द पूर्वक रहने लगे। समान धर्म वाले के कष्ट को दूर करना साधर्मिक वत्सलता है। यह भी सम्यक्त्व का लक्षण है। (13) प्रभावना के लिए विष्णुकुमार का दृष्टान्त तीर्थ या धर्म का पराभव उपस्थित होने पर उसकी उमति के * लिए चेष्टा करना प्रभावना है। इसके लिए विष्णुकुमार का दृष्टान्त___ कुरुदेश में हस्तिनापुर नाम का नगर था। वहाँपनोचर राजा रात के अन्तिम माग में उसने अपनी गोद में आते हुए सिंह का स्वम देखा / प्रतापी पुत्र की उत्पत्ति रूप स्वप्न के फल को जान कर उसे बहुत हप हुवा। समय पूरा होने पर उसने देवकुमार के सदृश पुत्र को जन्म दिया। बड़े धूम धाम से पुत्र जन्मोत्सव मनाया गया। शुभ मुहूर्त में पालक कानाम विष्णुकुमार रक्खा गया। धीरे धीरे वृद्धि पाता हुभा चह युवावस्था को प्राप्त हो गया। महारानी ज्वाला ने रात्रि के अन्तिम पहर में चौदह स्वप्न देखे।
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________ 456 श्री सेठिया जैन प्रन्यमाना उचित समय पर महापद्म नाम का चक्रवर्ती पुत्र उत्पन हुआ। धीरे धीरे वह भी युवावस्था को प्राप्त हुआ। चक्रवर्ती के लक्षण उसी समय उज्जैनी नगरी में श्रीधर्म नामक राजा राज्य करता था / उसके नमुचि नाम का मन्त्री था / एक बार मुनिसुव्रत स्वामी के शिष्य सुत्रताचार्य अनेक मुनियों के साथ विचरते हुए वहाँ पधारे। नगरी के लोग सज धज कर दर्शनार्थ जाने लगे। राजा और मन्त्री अपने महल पर चढ़ कर उन्हें देखने लगे / राजा ने पूछा-क्या लोग अकाल यात्रा के लिए जा रहे हैं 1 नमुचि ने उत्तर दिया- महाराज ! आज सुबह मैंने सुना था कि उद्यान में कुछ श्रपण पाए हैं / राजा ने कहा चलो, हम भी चलें। मन्त्री ने उत्तर दिया-वहाँ श्राप किस लिए जाना चाहते हैं ? धर्म सुनने की इच्छा से तो वहाँ जाना ठीक नहीं है, क्योंकि वेदविहित सर्व सम्मत धर्म का उपदेश तो हम ही देते हैं। राजा ने कहा-यह ठीक है कि आप धर्म का उपदेश देते हैं किन्तु महात्माओं के दर्शन करने चाहिए और यह जानना चाहिए कि वे कैसे धर्म का उपदेश देते हैं ? मन्त्री ने जाना मंजूर करके कहा-आप वहाँ मध्यस्थ होकर पैठियेगा। मैं उन्हें शास्त्रार्थ में जीत कर निरुत्तर कर दूंगा। राजा और मन्त्री सामन्तों के साथ उनके पास गए। वहाँ धर्मदेशना देते हुए प्राचार्य सुव्रत को देखा / प्रणाम करके वे उचित स्थान पर बैठ गए / अकस्मात् नमुचि मन्त्री ने प्राचार्य को पराजित करने के उद्देश्य से अवहेलना भरे शब्दों में प्रश्न पूछने शुरू किए। आचार्य के एक शिष्य ने उन सब का उत्तर देकर मन्त्री को चुप कर दिया / समा के अन्दर इस प्रकार निरुचर होने पर नमुचि को बहुत बुरा लगा। साधुओं पर द्वेष करता हुआ वह रात को तलवार
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________ भी जैन सिद्धान्त मोल संग्रह, चौथा भाग 41 इस पर विष्णुकुमार को क्रोध श्रागया। उन्होंने कहा- अच्छा। केवल तीन पैर स्थान दे दो। नमुचि ने उत्तर दिया- अगर इतने स्थान से बाहर किसी को देखा तो सिर काट डालूंगा। विष्णुकुमार ने वैक्रियलब्धि के द्वारा अपने शरीर को बढ़ाना शुरू किया। उनके विराट् रूप को देख कर सभी डर गए / नमुचि उनके पैरों में गिर कर क्षमा मांगने लगा। संकट दूर होने पर शान्त चित्त होकर विष्णुकुमार फिर तपस्या करने लगे। कुछ दिनों बाद पाती कर्मों का नाश हो जाने से वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होगए / महापा ने भी चक्रवर्ती पद को छोड़ कर दीक्षा ग्रहण कर ली। पाठ कर्मों का क्षय करके वे मोक्ष पधार गए / विष्णुकुमार भी श्रायुष्य पूरी "होने पर सिद्ध होगए। जिस प्रकार विष्णुकुमार ने धर्म पर आए हुए संकट को दर किया था उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को शक्त्यनुसार करना चाहिए। (नवपदप्रकरण बृहद्वृत्ति 7 वा सम्परत्व दार) अन्तिम मंगल वीतरागपवद्वन्द्वं, भवद्वन्द्वविनाशकम् / / वन्दे वृन्दारकेन्द्राणां, वृन्दैः सततवन्दितम् // 1 // प्रोन्मथ्य ये श्रुताम्भोधि, सारमाप्त्वा तदीयकम् / ददन्ते भव्यवृन्दाय, लोककल्याणकांक्षया // 2 // येषां कृपां विना लोके, सफलश्रेयसांनिधे। वर्द्धमानविभोः वाचो, रहस्यं न प्रकाशते // 3 // तपस्त्यागतितिक्षाधीन, तान् महाव्रतमण्डितान् / त्यतमोहान् मुनीनौमि, मोक्षमार्गस्य लब्धये // 4 // भाति श्रीजैनसिद्धान्त घोलसंग्रहसज्ञितः। ग्रन्थः प्रमाणसंधा, धर्ममर्मप्रकाशकः॥ 5 // /
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________ જર श्री सेठिय जैन प्रन्यमाला सस्य भागश्चतुर्योऽयं, संसाराभयदायिनः। श्रीमद्वीरजिनेन्द्रस्य, जयन्यांपूर्णतामगात्।। 6 // - निधिनक्षत्रसंख्येन्दी, वत्सरे वैक्रमे वरे। चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां, चन्द्रवारे शुभे दिने // 7 // अर्थात्-जन्म मरण के झगड़े का अन्त करने वाले तथा देवता और इन्द्रों के समूह द्वारा सदा वन्दित वीवराग भगवान् के चरण युगल को नमस्कार हो॥१॥ . जो मुनि लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होते हुए शाख रूपी समुद्र को मथ कर उसका सार भव्य प्राणियों को देते हैं, जिनकी कृपा के बिना सभी सुखों को देने वाली वर्तमान भगवान की वाणी का रहस्य मालूम नहीं पड़ सकता, ऐसे तप, त्याग और सहनशीलताआदिगुणों के समुद्र,महावतों से मण्डित तथा मोह का त्याग करने वाले मुनियों को मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ।२-३-४॥ धर्म के मर्म को स्पष्ट रूप से प्रकाशित करने वाले , प्रमाणों से सहित 'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह' का चौथा भाग संसार को अमय देने वाले जिनेश्वर भगवान् श्रीमहावीर स्वामी की जयन्ती के दिन विक्रम संवत् 1664 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार को समाप्त
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा माग __ श्रावक के बारह व्रतों की . संक्षिप्त टीप सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यक्त्व धर्म रूपी प्रसाद का द्वार है, इसलिए सर्व प्रथम सम्यक्त्व का स्वरूप जानना आवश्यक है: तत्त्व (वस्तु) का जैसा स्वरूप है, उसको उसी प्रकार जानकर श्रद्धा करना सम्यक्त्व है। मुख्य तत्त्व तीन है-देव, गुरु 'और धर्म। देव तत्व-कर्मशत्रु को हनन करने वाले,अठारह दोषरहित, सर्वज्ञ,वीतराग,हितोपदेशक अरिहन्तातीर्थकर भगवान् और आढ़ कर्मों का चय करके मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध भगवान् देव हैं। गुरु तत्व-पंच महावत (सम्पूर्ण अहिमा, सत्य, अदत्त, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) के धारक, छ. काय जीवों के रक्षक, सवाईम गुणों से भूपित, वीतराग को आज्ञानुमार चलने वाले निर्ग्रन्थ मुनिराज 'गुरु हैं। 'धर्म तत्व-सर्वज्ञमापित,दयामय, विनय मूलक, जीव तल
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________ 464 श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना और अजीव तत्त्व तथा आत्मा और कर्म का भेदज्ञान कराने वाला, मोक्ष तत्व का प्ररूपक शास्त्र धर्म तत्व है। प्रतिज्ञा जिण पएणत्तं तवं, इत्र सम्मत्तं मए गहियं // भावार्थ-जीवन पर्यन्त अरिहंत भगवान् मेरे देव हैं, पंच धर्म है। इस प्रकार मैंने सम्यक्त्व धारण किया है। ऊपर लिखे अनुसार मैं देव, गुरु और धर्म की श्रद्धा प्रतीति 1 मोच का साधक नहीं मानूंगा। , आगार कदाचित् राजा के आग्रह से, जाति के कारण, बलात्कार से, देवता के प्रकोप से, माता पिता आदि कुटुम्ब की तथा गुरु की आज्ञा पालन निमित्त, आजीविका की कठिनता पड़ने पर निर्वाह निमित्त कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को वन्दन नमस्कार. करना पड़े तो आगार है। इनके सिवाय.किसी विशेष अवसर परदुःखी जीवों की रक्षा निमित्त, सघ का कष्ट दूर करने निमित, धर्म की प्रभावना के लिए और लोक व्यवहार से कुदेव भादि का आदर सम्मान करना पड़े तो इनका भी मेरे आगार है / . नियम देव आराधना-सुख शान्ति में नित्यप्रति णमोकार मन्त्र की ,
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह चौथा भाग . माला .....)या आनुपूर्वी गिनना अथवा पांच पदों की वन्दना करना अर्थात् प्रा (देव) स्तुति करना / / गुरु आराधना-अपने नगर या ग्राम में विराजमान साधु साध्वी का शरीर में सुख समाधि रहते हुए प्रति दिन दर्शन करना है। ___ धर्म आराधना केवली भाषित, अहिंसा स्वरूप,जीवरक्षारूप दयामय धर्म को धर्म मानना। . सम्यक्त के पांच अतिचार 1 शंका, 2 कांक्षा, 3 विचिकित्सा, 4 परपाखंडी प्रशंसा और 5 परपाखंडी संस्तव। १शंका:- वीतराग द्वारा कथित गहन गंभीर वचन सुन कर " यह सत्य हैया असत्य" इस प्रकार सन्देह कानामशंका है। २कांचा-वीतराग द्वारा कथित धर्म के सिवायं दूसरे मिथ्या मार्ग का आडम्बर-चमत्कार देख कर उस परललचाना(वांच्या करना) कांक्षा है। 3 विचिकित्सा-धर्म की क्रिया के फल में सन्देह करना तथा त्यागी महात्माओं की त्याग वृत्ति के कारण उनके वस्त्र, पात्र, शरीरादि मलिन हों उन्हें देख कर घृणाकरना तथा उनकी जाति आदि से हीलना करना विचिकित्सा है। 4 परपाखंडी प्रशंसा-मिथ्या दृष्टि का पाढम्बर देख कर . 5 परपाखंडी संस्तव-मिथ्यादृष्टि से परिचय करने का नाम परपाखंडी संस्तव है। ये सम्यक्त्व के पांच अतिचार जानने योग्य है, किन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं। अपनी इच्छा और शक्ति के अनुसार नियम महण करे।
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________ 456 श्री सेठिया जन प्रन्थमाना / . -इस प्रकार मैं अरिहंत, सिद्ध और गुरु महाराज की सादी से मिथ्यात्व का त्याग करता हूं और शुद्ध समकित को ग्रहण करता - अब जिन शासनपति महावीर प्रभु के शासनस्थित मुनि श्री श्री................. ................. ..... के पास मैं अपनी शक्ति अनुसार श्रावक के श्वत ग्रहण करता / श्रावक के बारह व्रत 1 पहला व्रत स्थूल प्राणातिपात का त्याग गृहस्थाश्रम में रहता हुआ श्रावक स्थावर जीवों की हिंमा का त्याग नहीं कर सकता है किन्तु उसमें उसको विवेक रखने की आवश्यकता है। यदि विवेक से कार्य करे तो स्थावर जीवों की हिंसा का बहुत बचाव कर सकता है और आश्रव में संवर निपजा पूर्ति कर सकता है। अतः विवेक रखने की पूर्ण आवश्यकता है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इनत्रस जीवों को जान कर, देख कर संकल्पपूर्वक दुष्ट बुद्धि से निरपराधी जीवों की हिंसा करने का त्याग किया जाता है। इसमें भी विवेकशील श्रावक बहुत हिंसा टाल सकता है / प्रतिज्ञा .. मैं किसी भी निरपराधी त्रस जीव की द्वेष बुद्धि से संकल्प --- ---- __* जिसकी शक्कि पूरे बारह बन ग्रहण करने की न हो वह अपनी शक्ति अनुसार एक, दो, तीन, चार, पांच यावत् बारह जैसी इच्छा हो उतने ही व्रत ग्रहण कर सकता है और करण योग भी अपनी शक्ति अनुसार जैसा निमे वैसा रख सकता है।
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग करता। पूर्वक हिंसा करने का यावज्जीवनदो करण तीन योग से त्याग पहले व्रत के 5 अतिचार(१) बन्धे- किसी जीव को निरपेच निर्दयता से ऐसे गाडे बन्धन से बांधना कि जो समय पर जल्दी नहीं खुल सके। (2) बहे--निर्दयता से किसीप्राणी पर कोड़े,चाबुक,लकड़ी मादि का ऐमा प्रहार करना जिससे उसके अंगोपाङ्ग में गहरी चोट भावे। ___ (3) छविच्छेए-निर्दय बुद्धि से किसी जीव की चमड़ी या अंगोपाल का छेदन करना। -दो करण तीन योग से हिसा के त्याग का खुलासा इस प्रकार समझना चाहिए। (1) मारू नहीं मन से अर्थात् मन में मारणादि मंत्र गिनना(जीव की घात विचारना) जिससे जीव की हिंसा हो जाय / (मारू नहीं वचन से अर्थात् शाप आदि देना जिससे उसजीष की हिंसा हो जाय। (3) मारू नहीं काया से अर्थात् स्वय अपनी काया सेकिसी जीव को मार देना (4) मराऊ नहीं मन से अर्थात अपने मन में ऐसा मंत्रादि गिनना जिससे दुसरे व्यक्ति के मन पर असर करके उसके द्वारा जीव की हिंसा कराई जाय। (5) मराऊ नहीं वचन से अर्थात् वचन से कहकर दूसरे से किसी जीव को मरवाना। ..(6) मराऊ नहीं काया से अर्थात् हाथ आदि का इशारा करके दूसरे से किसी जीव को मरवाना। किसी जीव को मारू नहीं, मराऊनहीं ये दो करण और मन, वचन, काया से ये वीन योग / इस प्रकार यावजीवन त्रस जीव की हिंसान करने का प्रावक के छः कोटि पचखाण होता है।
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________ _ , श्री मेठिश जैन ग्रन्थमाना / Sane अइमारे-किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार लादना। (5) भत्तपाणवुच्छेए- अपने आश्रित जीवों के अन्न पानी में देश धुद्धि से अन्तराय देना। . इन अतिचारों (दोषों) को जान कर त्यागना चाहिए / / इस प्रकार सब व्रतों के अतिचार जानने योग्य हैं किन्तु आवरण करने योग्य नहीं हैं यह समझ लेना चाहिए। (2) दूसरा व्रत-स्थूल मृषावाद का त्याग: प्रतिज्ञा . - मैं कन्या, वर एवं समस्त मनुष्य सम्बन्धी तथा गाय, भैंस आदि समस्त पशु और पक्षी सम्बन्धी तथा भूमि और भूमि से उत्पन्न पदार्थोसम्बन्धी हानिकारक झूठ बोलने का,दूसरे की धरोहर दबाने का और झूठी साक्षी देने का यावज्जीवन दो करण तीन योग से त्याग करता हूं। दूसरे व्रत के पांच अतिचार " (1) सहसम्मक्खाणे- बिना विचारे किसी पर झूठा आरोप लगाना। " (2)* रहसब्भक्खाणे- एकान्त में किसी विषय पर सलाह * करते हुए व्यक्तियों पर राजद्रोह आदि का आरोप लगाना। (उपासकदशाह. अध्य. 1 सूत्र 7 टीका) . (हरिभनीयावश्यक मभ्ययन 6 पृष्ठ 820) (3) सदारमतमेए- एकान्त में अपनी- स्त्री द्वारा कही हुई गुप्त(छिपाने योग्य)बात को दूसरों के सामने प्रकट कर देना। के रहसब्भक्थाणे-'किसी की गुप्त बात प्रकट की हो' पुरानी धारणा के अनुसार ऐसा अर्थ किया जाता है। - -
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग -. TIPAT त्याग (4) मोसोवएसे-किसी को भूठा उपदेश देना खाटी सलाह देना। . (5) कूड़लेहकरणे-मुठा लेख लिखना, भूला दस्तावेज प्रादिक बनाना। (३)तीसरा व्रत स्थूल अदत्तादान कात्यांग / प्रतिज्ञा ___ खात खन कर, गांठ खोलकर, ताले पर कुंजी लगा कर, मार्ग में चलते हुए को लूट कर, किमी दूसरे की चीज को उसके स्वामी की आज्ञा के बिना लेकर चोरी करने का मैं यावज्जीवने" दो करण तीन योग से त्याग करता हूं। ' तीसरे व्रत के पांच अतिचार. तेनाहडे-चोर की चुराई वस्तु को लोभ वेश अल्पमन्य से खरीदना। (२)तक्करप्पोगे-चोर को चोरी करने में सहायता देनी। (3) विरुद्धरजाइक्कमे- शत्रु राजाओं के राज्य में उनकी आज्ञा के बिना आना जाना। (4) कूड तुन्ल कूडमाणे- तोलने के बांट और नापने के गज वगैरह हीनाधिक रखना। (5) तप्पडिस्वगववहारे-बहुमूल्य बढ़िया "वस्त में" मूल्य वाली घटिया वस्तु मिला कर बेचना अथवी असली वस्त... दिखा कर नकली देना या नकली को ही असली-नाम-सेवेचना। ".SIL. 'भलप
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________ 500 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला - (8)चौथा स्वदारसंतोषपरदारविरमण व्रत * अपनी विवाहित स्त्री में संतोष रखते हुए परस्त्रीगमन का त्याग करना स्वदार सन्तोष परदार विरमण व्रत है। प्रतिज्ञाः-मैं अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय परस्त्री(देव सम्बन्धी दो करण तीन योग से और मनुष्य तिर्यश्च सम्बन्धी एक करण एक योगसे सेमैथुन सेवन कायावज्जीवन त्याग करता हूं और स्वस्त्री के साथ भी एक मास में..."रात्रि के उपरान्त त्याग करता हूं। चौथे व्रत के पांच अतिचार, / (1) इत्तरिय परिग्गहियागमणे-अल्प समय के लिए अपने अधीन की हुई इत्वर परिगृहीता कहलाती है। उसके साथ गमन करने के लिए पालाप संलापादि करना अथवा अल्प वय गली अर्थात् भोग के लिए अपरिपक्व उम्र वाली अपनी विवाहिता स्त्री से गमन करना। / (2) अपरिग्गहिया गमणे-वेश्या,अनाथ, कन्या, विधवा, कुलवधू आदि अपरिगृहीता कहलाती हैं। इनके साथ क्रीड़ा करने के लिए पालाप संलापादि करना अथवा जिस कन्या के साथ सगाई हो चुकी है किन्तु विवाह नहीं हुआ है उसके साथ गमन करने के लिए आलाप संलापादि करना अतिचार है क्योंकि वह अपनी होते हुए भी अभी अपरिगृहीता है।। (३)अनंग कीडा-कामसेवन के प्राकृतिक अङ्ग के सिवाय अन्य अङ्गअनङ्ग कहलाते हैं, उनसे क्रीड़ा करना अथवा हस्तकर्म करना / (४)परविवाह करणे-अपना और अपनी सन्तान के सिवाय दूसरों का विवाह कराने के लिए उद्यत होना। . यदि स्त्री व्रत धारण करे तो स्वपतिसंतोषपरपुरुषसंसर्ग का त्य
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौण भाग (1) काम भोग तिन्वामिलासे-काम भोगों की तीव्र भमिलाषा करना। (5) पांचवा इच्छा परिमाण व्रत गार, मैंस,हाथी,घोड़ा आदि सवेतन और रत्न,सोना, चांदीतथा वस्त्र आदि अचेतन इन दोनों को मिलाकर 8 प्रकार के परिग्रह व्रत कहलाता है। प्रतिज्ञाः- मैं जंगम और स्थावर (सचेतन और अचेतन। नौ प्रकार के परिग्रह को मिलाकर कुल रूपये ...... से अधिक अथवा......संख्या से अधिक परिग्रह रखने का यावज्जीवन एक करण तीन योग से त्याग करता हूं। / / ____ यदि किसी को अलग अलगमर्यादा रखनी होतो इसप्रकार से रखे : (1 क्षेत्र (खेत ...... चीचे ...... जमीन या खुली (2) वास्तु-घर, गोदाम, दुकान आदि की संख्या .... / (3) हिरण्य-...... तोले चांदी और चांदी की घड़ी हुई वस्तुए। * (4) सुवर्ण-...... तोला सोना और सोने की घड़ी हुई वस्तुएं। (5) द्विपद-दास दासी आदि ......... (संख्या नियत करना)।
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन पन्थ माला . " (6) चतुष्पद(चौपाये) बैल, गाय, भैंस,हाथी,घोड़ा आदि ......(संख्या नियत करना)। (7) धन-नकदी(चलन के नोट,सिक्के शादि)रूपया,मोहर, गिनी तथा जवाहरात कुल रूपये ....... / ___(E) धान्य-धान्य 24 प्रकार का है / एक वर्ष के लिए ....... मन धान्य। . (6) कुप्य- तांबा, पीतल, कांसी, लोहा, एल्युमिनियम यादि धातु तथा इनसे बनी हुई वस्तुए ....... मन या ...... रूपये की। ___पांचवें व्रत के पांच अतिचार (1) खेत्तवत्थु प्यमाणाइक्कमे-खेत और घर आदि के परिमाण (मर्यादा) का उन्लंघन करना। (२)हिरएण सुवएणप्पमाणाइक्कमे-चांदी सोने के परिमाण का उल्लंघन करना। 3) दुप्पय चउप्पयप्पमाणाइक्कमे-दास, दासी तथा गाय, मैंस आदि के परिमाण का उन्लंघन करना। (4 घणधरणाप्पमाणाइक्कमे-धन और धान्य के परिमाण काउन्लंघन करना। आदि धातु का तथा इनसे बनी हुई वस्तुओं के परिमाण का उल्लंघन करना। पहले से पांचवें व्रत तक श्रावक के अणुव्रत कहलाते हैं। (६)छठा दिशा परिमाण व्रतमैं अपने निवास स्थान से पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त पोल सग्रह, चौथा भाग 503 चारों दिशाओं तथा विदिशाओं में ... कोस के उपरान्त,ऊँची दिशामें..... कोस के उपरान्त,नीची दिशा में.....कोस केउपरान्त, इस से आगे स्वयं अपनी इच्छा से जाकर पांच आश्रय सेवन करने का यावज्जीवन एक करण तीन योग से त्याग करता हूं। छठे व्रत के पांच अतिचार(१) उड्ढदिसिप्पमाणाइक्कमे-ऊँची दिशा के परिमाण का उन्लघन करना। (2) अहो दिसिप्पमाणाइक्कमे- नीची दिशा के परिमाण का उल्लंघन करना। (3) तिरिय दिसिप्पमाणाइक्कमे- तिर्थी दिशा अर्थात पूर्व, पश्चिम आदि चारों दिशाओं और विदिशाओं के परिमाण का उल्लंघन करना। (4) खितवुढी-एक दिशा के परिमाण को घटाकर दूसरी दिशा का परिमाण बढा देना। (5 सइ अंतरद्धा-क्षेत्र के परिमाण में सन्देह होने पर आगे चलना। (७)सातवाँ उपभोग परिभाग परिमाण व्रत एक बार भोग करने योग्य पदार्थ उपभोग कहलाते हैं और वार वार भोगे जाने वाले पदार्थ * परिभोग कहलाते हैं। * उपभोग और परिभोग शब्दों का उपरोक अर्थ भगवती शतक . उदशा मे तथा हरिभद्रीयावश्यक अध्ययन 6 सत्र में क्या है। उपासकदशाग अध्ययन 1 सूत्र की टीका में उपरोक अर्थ भी किया है और यह निम्नलिखित अर्थ भी किया:-बार बार भोगे जाने वाले पदार्यउपभोग और एक ही बार भोगे जाने वाले पदार्थ परिभोग कहलाते हैं।
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________ 04... श्री सेठिया जैन प्रन्थ माला यह व्रत दो प्रकार का है, एक भोजन सम्बन्धी, दसरा कर्म सम्बन्धी / उपभोगपरिभोग योग्य पदार्थों की मर्यादा नियत करना भोजन सम्बन्धी उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत कहलाता है। इसका परिमाण इस प्रकार किया जाता है : (1) उन्लणियाविहि- शरीर पोंछने के अंगोछे आदि वस्त्रों की मर्यादा करना (......) , (2) दंतणविहि- दांतों को साफ करने के लिए दतौन आदि पदार्थों की मर्यादा करना (... ) ' (3) फलविहि-बाल आदि धोने के लिए भावला भादि फलों की मर्यादा करना (......) . (4 / अभंगणविहि-- शरीर पर मालिश करने के लिए तेल आदि द्रव्यों की मर्यादा करना (... ) . (5) उवट्टणविहि- शरीर पर लगाये हुए तेल को सुखाने के लिए उबटन (पीठी) आदि की मर्यादा करना (.....) / (6 मजणविहि-स्नान के लिए जल का अथवास्नान की संख्या का परिमाण करना ( . ....) __ - (7) वत्थविहि- पहनने, ओढने योग्य वस्त्रों की मर्यादा करना (.....) . . (E) विलेवण विहि-चन्दन, केशर भादि सुगन्धित द्रव्यों की मर्यादा करना (......). __(8)पुष्फविहि-फूल तथा फूल माला आदि का परिमाण निश्चित करना (.......) (10) प्राभरणविहि-गहने, जेवर भाभषण आदि का परिमाण करना (..........)
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________ प्रोजेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग 55 / (11) धूवविहि - धूप देने योग्य अगर चन्दन आदि पदार्थों की मर्यादा करना (......) भोजन पानी की मर्यादा निम्न लिखित है: (१२)पेज्जविहि-पीने योग्य पदार्थों की मर्यादाकरना( .. .. (13) भक्खणविहि- खाने के लिए पक्वान्न की मर्यादा करना(.. ...) (14) अोदण विहि- राधे हुए चावल, थूली, खीचड़ी आदि की मर्यादा करना ( .....) (15) सूपविहि-- मॅग, चना आदि की दाल की मर्यादा करना( ......) (16) घयविहि-- (विगयविहि) बी, तेल, दूध, दही आदि विगयों की मर्यादा करना (......) (17) सागविहि-शाक, सब्जी आदि शाक की जाति का. परिमाण करना (.....) (18) माहुरयविहि - पके हुए मधुर फलों की एवं पक्के फलों की जाति की मर्यादा करना (.....) की मर्यादा करना (......) (20) पाणिय विहि-पीने के लिए पानी की मर्यादा करना (....... __ (21) मुखवास विहि-भोजन के पश्चात् मुख को साफ करने '. के लिए, पान, सुपारी चूर्ण आदि पदार्थों की मर्यादा करना(.....) (उपासकादशाह अध्ययन सूत्र 1) (22) वाहण विहि-सवारी की मर्यादा करना (...)
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन प्राधमाला (२३)उवाणह विहि-जूते मौजे आदि की मर्यादा करना। ... (24) सयण विहि-सोने, बैठने के काम आने वाले पलङ्ग शय्या आदि की मर्यादा करना / (...). (25) सचित्त विहि- खाने की सचित्त वस्तुओं की मर्यादा करना / ......... (26) दव्व विहि--खाने पीने के काम में आने वाले सचित्त या अचित्त पदार्थों की मर्यादा करना / जो वस्तु स्वाद की मित्रता के लिए अलग अलग खाई जाती है अथवा एक ही बरतु स्वाद की भिन्नता के लिए दूसरी दूसरी वस्तु के संयोग के साथ खाई जाती है उसकी गिनती भिन्न भिन्न द्रव्यों में होती है / .... (भावक प्रतिक्रमण) (धर्म संग्रह अधिकार 2 श्लोक 34 4 80 टका ) उपरोक्त छब्बीस नियमों में से जो मर्यादा की है उसके उपरान्त कसी भी पदार्थ को भोग निमित्त से भोगने का एक करण तीन योग से त्याग करता हूं। सातवें व्रत के भोजन सम्बन्धो पांच अतिचार (1) सचित्ताहारे-मर्यादा से अधिक सचित्त वस्तु का आहार करना। * ,(२)सचित्तपडिबद्धाहारे--सचित्त च आदि के साथ लगे हुए 'गद, पक्के फल आदि खाना (3) अप्पंउलिओसहिमक्खणया- अधूरी पकी हुई वस्तु का आहार करना। (4) दुप्पउलिनोसहिमक्खणया- दुईपक्व अर्थात् अविधि से पकाई हुई वस्तु का आहार करना / खाने योग्य भाग थोड़ाहो और फेंकने योग्य भाग अधिक हो ऐसी .
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिदान्त दोन समा, भौथा भाग 500 - वस्तु का आहार करना।जैसे सीताफल, गधा (गंडेरी),बोर, मूंग आदि की कच्ची फली। उपभोग और परिमोग में आने वाले पदार्थों को उपार्जन करने के लिए किये जाने वाले व्यापार कन्धों में से अधिक हिंसा चाले धन्धों का एवं जिन कार्यों से अधिक कर्मबन्ध हों उन कर्मादानों कात्यागकरना कर्मसम्बन्धीउपमोगपरिभोगपरिमाण व्रत है। श्रावक के लिए कर्मादान जानने योग्य हैं किन्तु आचरण " करने योग्य नहीं हैं। वे कर्मादान पन्द्रह हैं: (1) इंगालकम्मे- कोयले बना कर वेचना यानी कोयले के धन्धे से आजीविका कमाना। (2. वणकम्मे- जंगल का ठेका लेकर वृक्ष काट कर उन्हें बेचना और इस प्रकार आजीविका चलाना। (३.साडीकम्मे- गाड़ी, मोटर, इक्का, बग्घी आदि वाहन बनाने और बेचने का धन्धा कर आजीविका चलाना / (४)माडीकम्मे - भाड़ा कमाने के लिए गाड़ी आदि से दूसरे केसामान को ढोना / ऊँट, बैल, घोड़े आदि पशुओं को किराये पर देकर आजीविका चलाना। (5) फोड़ीकम्मे-खानों को खुदाना, कुदाली, हल वगैरह से भूमि को फोड़ना और उसमें से निकले हुए पत्थर, मिट्टी, धातु आदि पदार्थों को बेच कर आजीविका चलाना। (६)दतवारिन्जे- हाथी दांत, शंख, नख ,चर्म आदि का धन्धा करना अयोत् हाथी दांत आदि निकालने वालों से इन चीजों को खरोदना, पेशगी रकम या ऑर्डर देकर उन्हें उस जीवों से निकलवाना और उन्हें वेच कर आजीविका चलाना।
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________ gas मोठया जैन ग्रन्थमाना (7) लक्खवाणिज्जे-- लाख, चपड़ा आदि ऐसी चीजें जिन को तैयार करने में उस जीवों की विशेष हिंसा होती है या जो त्रस जीवों से ही बनती है उनका व्यापार करना। , (8) रसवाणिज्जे - मदिरा वगैरह का व्यापार अथोत् कलाल का धन्धा करना। व्यापार करना। (10) केसपाणिज्जे- केश वाले प्राणी अर्थात् दास, दासी, कैश वाले पशु आदि को बेचने का धन्धा करना। (11) जंतपीलणपाफम्मे--तिल और ईख आदि को पानी या कोल्हू में पील कर तेल या रस निकालने का धन्धा करना। महारम्भी यंत्र कलाओं से आजीविका चलाना। (12) निन्छ ण कम्मे- पशुओं को खसी करने ( नपुंसक बनाने ) का धन्धा करना। (13) दवग्गिदावणया- खेत या भूमि साफ करने के लिए जंगलों में आग लगाना। (14) सरदह तलाय सोसण्या-खेती आदि करने के लिए झील, नदी, तालाब आदि को सुखाना | (15) असईजणपोसणया - आजीविका कमाने के लिए दुश्चरित्र स्त्रियों को तथा हिंसक प्राणियों को पालना / भोजन सम्बन्धी पांच अतिचार हैं और कर्म सम्बन्धी पन्द्रह अतिचार (कर्मादान) हैं। इस प्रकार इस सातवें व्रत के कुल बीस अतिचार हैं / श्रावक को चाहिए कि इन्हें जानकर इन का त्याग करे।
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त पोल संमह, चौथा भाग (6) आठवां अनर्थदण्ड त्याग व्रत... बिना प्रयोजन पापारम्भ करना अनथे.दण्ड.है, अनर्थ दगई के चार भेद है। 1) अपभ्यानाचरित - आध्यान और रौद्र ध्यान के वश होकर इष्ट संयोग, अनिष्ट वियोग की चिन्ता करना तथा / किसी प्राणी को हानि पहुँचाने आदि पापकर्म का विचार करना। (2) प्रमादाचरित - विकयां करनी 'एवं असावधानी से काम करना तथा घी, तेल आदि के वर्तनों को उघाड़े रखना। 3) हिंस्र प्रदान- तलवार, बन्दूक,पिस्तोल, तमंचा आदि हिंसाकारी शस्त्र दूसरों को देना। (4) पाप कर्मोपदेश-पापकर्म का उपदेश देना एवं पापकर्म करने की प्रेरणा करना। प्रतिज्ञा... इस प्रकार,मैं यावज्जीवन दोकरण तीन योग से अनर्थदण्ड का त्याग करता हूँ। आठवें व्रतं. के पांच अतिवार - (1) कंदप्पे-काम को उत्पन करने वाली कथाएं करना तथा राग के आवेश में हास्य मिश्रित मोहोद्दीपक मजाक करना। (2. कुक्कुइए- माड़ों की तरह आंख, नाक, मुख आदि अपने अङ्गो को विकृत करके दूसरों को हंसाने वाली चेष्टा करना। . (3) मोहरिए - ढिठाई के साथ पाचालता से असत्य और उटपटाङ्ग वचन बोलना / / (4) सं चाहिगरणे -- ऊखल और मूसल, शिला और लोढा, वसूला और कुन्हाड़ी, चक्की आदि हिंसाकारी औजारों को एक साथ रखना एवं प्रयोजन से अधिक संग्रह करके रखना।
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________ 599 .... भी बेठिया जैन प्रन्थमाला; . (5) उबमोगपरिमोग्राइरिचे-उपभोग और परिमोग्र में पाने वाली खाने, पीने, पहनने आदि की वस्तुओं"का परिमाण से अधिक संग्रह करना।' * छठा,सातवां और पाठवाँ ये तीन गुण प्रत कहलाते हैं। चार शिक्षावतो का स्वरूप श्रावक-प्रतिक्रमण के अनुसार यहाँ दिया जाता है: ...() नवा सामायिक व्रतः... सम्पूर्ण सावध क्रियाओं का त्याग कर आध्यान, रौद्र ध्यान दूर करके तथा मन वचन कायाकी दुष्ट प्रवृति को रोक कर मात्मा को धर्मध्यान में लगाना और मनोवृत्ति-को समभाव में रखना सामायिक व्रत है। एक-सामायिक का काल दो पड़ी अर्थात् एक मुहूर्त (48 मिनिट है। ... .. :. प्रतिज्ञा:-मैं ऐसी सामायिक एक साल में ......) या एक महीने में (......) अथवा प्रतिदिन ......) करूंगा। नववें सामायिक व्रत के पांच अतिचार- 1) मणदुप्पणिहाणे- मन का, दुष्ट प्रयोग करना, अर्थात् मन को बुरे विचारों में लगाना। ... (2) यदुप्पणिहाणे- वचन का दुष्ट प्रयोग करना अर्थात् कठोर और सावध वचन बोलना। * उपासकदशाह के प्रथम अध्ययन में मानन्द भावक के अधिकार में उपरोक आठ अवों का निरूपण किया गया है। आगे के नवां, दसवां, ग्यारहवां और बारहवां ये चार शिक्षाबत है। शिक्षा रूप होने से इनका पश्चाखाण नहीं किया जाता है किन्तु शिखामण (शिक्षा) रूप से धारण किये जाते हैं। / / / (उपसिकदा मात्रा लीवराम घेडामाई दोशी प्रफमाइति संपत,१९७८).
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री बेन-विद्वान्त-बोब-संमहा था भाग 19 . (3) कायदुप्पणिहाणे-सामायिक के समय बिना देखी और बिना पूँजी जमीन पर उठना,बैठना, शरीर से अशुभ प्रवृत्ति करनाने सामाइयस्स सइ अकरणयाए-सामायिक की स्मृति में रहना अर्थात मैंने सामायिक कर ली है इस प्रकारं समय काशान न रहना। (1) सामाइयस्स प्रणवठियस्स करणयाए-सामायिक का समय पूरा होने से पहिले ही सामायिक पार लेना। (10) दसवां देशावकाशिक व्रत छठे दिशा परिमाण व्रत में दिशाओं का जो परिमाण किया है उसका तथा जिनमें यावज्जीवन की मर्यादा की है उन सब व्रतों का प्रति दिन के लिए संकोच करना देशावकाशिक व्रत है। प्रतिज्ञा- मैं अपने शरीर में सुख समाधि रहते हुए एक वर्ष में देशावकाशिक अर्थात् चार-पहर का पौषध (.........) या संवर (..:...) अथवा दया (...... कसँगा। देशावकाशिक व्रत में दिशाओं का संकोच कर लेने पर मर्यादा के बाहर की दिशाओं में पाश्रव सेवन करने का एक करके तीन योग से त्याग करता हूँ।। ___ श्रावक के लिए प्रतिदिन चौदह नियम चिन्तन करने.की. जो प्रथा है, वह प्रथा इस देशावकाशिक व्रत का ही रूप है।जो श्रावक इन चौदह नियमों का प्रतिदिन विवेकपूर्वक चिन्तन करता है तथा मर्यादा का पालन करता है, वह सहनही महालाम प्राप्त कर लेता है। वे चौदह नियम ये हैं:- सचित्तव्व विग्गई, पापी तांबुल वत्य कुसुमेह। / वाइण सयण विलेवण, भदिसि पाइप.मत्तेसु //
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________ / श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना : (1) सचित्त- नमक, पानी, वनस्पति, फल फूल, धान्य, बीज आदि की गिनती तथा बेजन की मर्यादा अपनी इच्छानुसार करके बाकी का त्याग करे। .. ." (2 द्रव्य-खान पान सम्बन्धी द्रव्यों की गिनती...... के उपरान्त त्याग करे। - " (3. विगय-धी,तेल, दूध, दही, गुड़ (मीठी) और पक्वान इनकी गिनती तथा वजन की मर्यादा करके बांकी का त्याग करे। करे। मर्यादा करके बांकी का त्याग करें। . (5) ताम्बूल-पान, सुपारी, इलायची, चूर्ण, खटाई, पापड़ आदि का गिनती या वजन की मर्यादाकरके बाकी का त्याग करे। (6) वस्त्र- सब जाति के वस्त्रों की गिनती की मर्यादा करके वाफी का त्याग करे। : " (7) कुसुम-फूल, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की मर्यादा करके शेष का त्याग करे। (E) वाहण- गाड़ी, मोटर, तांगा, हवाई जहाज, नाव आदि सवारी की मर्यादा करके बाकी का त्याग करे। ; (6) शयन- शय्या, पाट, पाटला, पलङ्ग, मकान आदि के विषय में मर्यादा करे। / : / (10) विलेपन- लेप और मालिश किये जाने वाले द्रव्य जैसे केशर, चन्दन, तेल आदि के सम्बन्ध में मर्यादा करे। (11) अबम - (अब्रह्मचर्य)- स्वदार संतोष व्रत में जो मर्यादा की है उसमें संकोच करें।
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री वैन पिशान्त पोखर, चौथा भाग 2 (12) दिशि-दिशा परिमाण व्रत में जीवन भर के लिए जितना क्षेत्र रखा है उस क्षेत्र का संकोच करे अर्थात् चारों क्षेत्र की मर्यादा रख कर शेष का स्वेच्छा से जाने का त्याग करे। (13) स्नान-स्नान की गिनती तथा स्नान के लिए जन, के वजन का परिमाण करे। . . . (14) मते- अशनादि चार आहार का परिमाण करके ये चौदह नियम देशापकाशिक व्रत के ही अन्तर्गत हैं। पहले के व्रतों में जो मर्यादा रखी गई है, उसका इन चौदह' नियमों के चिन्तन से संकोच होता है और श्रावकपना भी सुशोमित होता है। एग मुहुत्तं दिवस, राई पंचाहमेव पक्खे वा। वयमिह धारेइ दर्द, जावइयं उच्च कोलं / / अर्थ:--- एक मुहर्च का या सुबह से लेकर शाम तक चार का या इससे कम ज्यादाअपनी इच्छानुसार नियम धारण करे। ., (धर्मसंग्रह प्रधिकार 2 पृष्ठ 1) दसवें व्रत के पांच अतिचार (1) प्राणवणप्पओगे-दूसरे को बुला कर अपने मर्यादित क्षेत्र से बाहर के पदार्थों को मंगाना / . . / (2) पेसवणाप्पयोगे नौकर, चाकर आदि माहाकारी पुल को अपने मर्यादित क्षेत्र से बाहर भेज कर कार्य करवाना।
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त पोख संग्रह, चौथा भाग मत्र आदि परिठवने की जगह को देखा न हो या अच्छी जरह से न देखा हो। (4) अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमी-मल मत्र आदि परिठवने की जगह की पडिलेहणा न की हो या अच्छी तरह से न की हो। . (5 पोसहस्स समं अणणुपालणया-पौषध' का सम्यक् प्रकार से पालन न किया हो। (12) बारहवां अतिथिसविभाग व्रत: निर्दोष आहार, पानी,खादिम, स्वादम, वस्त्र,पात्र, कम्बल, पादपोंछन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और मेषन यह चौदह प्रकार की वस्तुएं केवल भात्म कल्याण की भावना से भक्ति भावपूर्वक पञ्च महाव्रतधारी साधु साध्वियों को उनके कल्प के अनुसार देना अतिथि संविभाग व्रत है / साधु माध्ची का सयोग न मिलने पर उन्हें दान देने की भावना रखनी चाहिए / बारहवे प्रत के पांच अतिचार / (1) सचित्तनिक्खेवणया-साधु को नहीं देने की बुद्धि से अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु पर रखना / (2) सचित्तपिहणया-साधु को नही देने की बुद्धि से अवित वस्तु को सक्ति फलादि वस्तु से ढकना। (3) कालाइकम्मे साधुओं के मिक्षा के समय का उन्लंघन करना। (4) परववएसे- साधु को न देने की बुद्धि से अपनी वस्त दूसरे की कहना।
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला - - - - - - - (5) मछरियाए-मत्सर भाव (स) से दान देना। (बारह ब्रतों का स्वरूप निर्देश तथा प्रतिचार हरिभवीयावश्यक अध्ययन के माधर से) - अन्तिम मंगल सर्व मङ्गल माङ्गल्यं, सर्व कल्याण कारणं / प्रधानं सर्व धर्माणां, जैन जयतु शासनम् / / // इति शुभं भूयात् // पुस्तक मिलने का पता श्री अगरचन्द भेरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था मोहल्ला-मरोठी सेठियों का बीकानेर
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________ 517 .(परिशिष्ट) बारह भावना मंगलराय कृत पोल नं० 612 (क) दोहा छंद वर्दू श्री अरिहंतपद, वीतराग विज्ञान / चरण वारह भावना, जगजीवनहित जान // 1 // विश्नुपद छंद . कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरतखंड-सारा। कहाँ गये वे राम रुलछमन, जिन रावण मारा / / कहाँ कृष्ण रुक्मिणी सतमामा, अरु सपति सगरी। कहाँ गये वे रगमहल अरु, सुवरण की नगरी // 2 // . नहीं रहे वे लोभी कौरव, जूम मरे रण में / गये राज तज पांडव वन को, अगिन लगी तन में। मोह नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। हो दयाल उपदेश कर गुरु, बारह-भावन को // 3 // 1 अस्थिर (अनित्य) भावना सूरज चांद छिपे निकले ऋतु फिर फिर कर आवे / प्यारी घायु ऐसी बीते, पता नहीं पावे / / पर्वतपतित नदी सरिता जल वह कर नहिं हटता, स्वास चलत यों घटे काठ ज्यों, आरेसों कटता // 4 // ओसद न्यौ गले धूप मे, पा अंजुलिं पानी। छिन छिन यौवन धीण होत है क्या समझे पानी / / इन्द्रजाल आकाश नगर सम जगसपति सारी / अथिर रूप संसार विचारो सव नर अरु नारी // 2 अशरण भावना भालसिंह ने मृगचेतन को, घेरा भव वन में। नहीं बचावन हारा कोई, यो समझो मन में मत्र यत्र सेना धन सपति, राज पाट छूटे। पश नहिं चलता काल लुटेरा, काया नगरतूटे। चक्र रतन हलघरसा माई, काम नहीं आया। एक तीर के लगन कृष्ण का, विनश गई काया / / - धर्म गुरुशरणजगत मे, और ना कोई।
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________ (58) भ्रम से फिरे भटकता चेतन, यूँही उमर खोई / / . 3 ससार भावना जनममरण अरु जरारोग से, सदा दुखी रहता। द्रव्य क्षेत्र अरु कारा भाव भव, परिवर्तन सहता।। छेदन भेदन नरक पशुगनि, वध बधन सहना / राग उदय से दुख सुरगति में, कहां सुखी रहना / / भोगि पुण्यफल हो इसइन्द्री, क्या इसमें काली! जुतबाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली / / मानुषजन्म अनेक विपत्तिमय, कहीं न सुख देखा। पंचमगति सुख मिले शुभाशुभ, को मेटो लेखा। 4 एकत्व भावना जन्मे मरे अकेला चेतन, सुख दुख का भोगी। और किसी का क्या इक दिन यहा देह जुदो होगी। कमला चलत न पिँड, जाय मर. घट तक परिवारा। अपने अपने सुख को रोवे, पिता पुत्र दारा॥१०॥ ज्यौ मेले में पथीजन मिति नेह फिरे धरते / ज्यों तरवर रन बसेरा पछी था करते / / कोस.कोई दा कोस कोई एड फिर थक थक हारे / जाय अकेला इस संग मे कोई न पर मगरे // 11 // 5 मिन (परपक्ष, अन्यत्व) भावना भोहरूप मृगतृष्णां जग में, मिथ्या जल चमके। भृग चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौड़े थक थकके। जल नहिं पावे प्राण गमावे, भटक भटक मरता। पशु पराई माने अपनी, भेद नहीं करता / / 12 // तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी। मिले अनादि यतनः विछुड़े, ज्यौ पय अरु पानी / / रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जो लों पौरुष थके न तौलों, उद्यमसों धरना / / ६.अशुचि भावना सूनित पोखे यह.सूखे ज्यौं घोरे त्यो मैती। . निश दिन करे उपाय देह का, रोग दशा फेली। पैंड-एक पैर, एक कदम
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
_