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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
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का उद्धार कर सुगति की ओर प्रवृत्त करे उसे धर्म कहते हैं। अहिसा, संयम और तप ये तीन धर्म के मुख्य अङ्ग हैं। इनका श्राचरण करने वाला पुरुष मंगलमय बन जाता है और यहाँ तक कि वह देवों का वन्दनीय बन जाता है। ऐसे धर्म के लिये बारह विशेषण दिये गये हैं । वे इस प्रकार हैं
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(१) मंगल कमलाकेलि निकेतन - धर्मं मंगलरूप लक्ष्मी का क्रीड़ास्थान है अर्थात् धर्म सदा मंगलरूप है और जहाँ धर्म होता है वहाँ सदा आनन्द रहता है।
(२) करुणाकेतन - सब जीवों पर करुणा करना, मरते प्राणी को अभयदान देना यही धर्म का सार है। धर्म रूपी मन्दिर पर करुणा का सफेद झंडा सदा फहराता है। जो प्राणी धर्म रूपी मन्दिर में प्रविष्ट हो जाता है वह सदा के लिये निर्भय हो जाता है।
(३) धीर - अविचलित और अक्षुब्ध होने के कारण समुद्र को धीर की उपमा दी जाती है। इसी प्रकार अविचलित और अक्षुब्ध होने के कारण धर्म के लिये भी धीर विशेषण दिया जाता है। धर्म को धारण करने वाले पुरुष में परोपकारपरायणता, स्थिरचित्तता, विवेकशीलता और विचक्षणता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं ।
(४) शिवसुखसाधन - अनन्त, अक्षय और धन्याबाध सुख रूप मोक्ष का देने वाला धर्म ही है अर्थात् धर्म की यथावत् साधना करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
( ५ ) भवभय चाघन - जन्म जरा और मरण के भयों से मुक्त कराने वाला एक धर्म ही है। जो धर्म की शरण में चला जाता है उसे संयोग वियोग रूपी दुःखों से दुखी नहीं होना पड़ता । धर्म 1 में स्थिर पुरुष संसार के सब भयों से मुक्त होकर तथा संसार चक्र का अन्त कर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है ।
(६) जगदाधार - धर्म तीनों लोकों के प्राणियों के लिये