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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३११ साधु अपने तप रूपी तेज से दीस एवं शोमित होवे ।।
(४) सागर-समुद्र में अगाध जल होता है । समुद्र कभी भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता । उसी प्रकार साधु ज्ञान रूपी अगाध जल का धारक बने । कभी भी तीर्थकर की आज्ञा का उल्लंघन न करे । समुद्र के समान सदा गम्भीर बना रहे। छोटी छोटी बातों में कुपित न हो।
(५) नभस्तल (आकाश)-जिस प्रकार आकाश को ठहराने के लिए कोई स्तम्भ नहीं है किन्तु वह निराधार स्थित है, उसी प्रकार साधु को गृहस्थ आदि के आलम्बन रहित होना चाहिये। उसे किसी के श्राश्रय पर अवलम्बित न रहना चाहिए किन्तु निरालम्बन होकर ग्राम नगर आदि में यथेच्छ विहार करना चाहिए।
(६) तरु (वृक्ष)-जैसे वृक्ष शीत और तापादि दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है और उसके आश्रय में श्राने वाले मनुष्य, पशु, पक्षीश्रादिको शीतल छाया से सुख पहुंचाता है उसी प्रकार साधु समभाव पूर्वक कष्टों को सहन करे और धर्मोपदेश द्वारा संसार के प्राणियों को मुक्ति का मार्ग पतला कर उनका उद्धार करे। फल आने पर जैसे वृक्ष नम्र बन जाता है अर्थात् नीचे की ओर भुक जाता है, अपने मीठे फलों द्वारा लोगों को आराम पहुँचाता है, उसी प्रकार साधु को चाहिए कि ज्यों ज्यों वह ज्ञान रूपी फल से संयुक्त होता जाय त्यों त्यों विशेष विनयवान् और नम्र बनता जाय । विद्या पढ़ कर अमिमान करना तो ज्ञान गुण के विल्कुल विपरीत है क्योंकि ज्ञान तो विनय और नम्रता सिखलाता है। अपने ऊपर पत्थर फैंकने वाले पुरुष को भी वृक्ष मीठे और स्वादु फल देता है, उसी प्रकार साधु को चाहिए कि कोई उसकी प्रशंसा करे या निन्दा करे, सत्कार करे या तिरस्कार करे उस पर किसी प्रकार से राग द्वेष न करे । साधु को कोई अपशब्द भी कह दे तो