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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला उस पर कुपित न होवे किन्तु समभाव रखे। समभाव के कारण ही मुनि को 'चासीचन्दनकल्प' कहा गया है। यथा
जो चंदणेण बाहुं आलिंपड़, वासिणा वा तच्छेह । संथुणइ जोव निंदा, महरिसिणो तत्थ समभावा॥ अर्थात्- यदि कोई व्यक्ति मुनि के शरीर को चन्दन चर्चित करे अथवा बसोले से उनके शरीर को छील डाले। कोई उनकी स्तुति करेया निन्दा करेमहर्षि लोग सब जगह समभाव रखते हैं। , (७) भ्रमर-जिस प्रकार भ्रमर फूल से रस ग्रहण करता है किन्तु फूल को किसी प्रकार पीड़ा नही पहुँचाता, उसी प्रकार साधु-गृहस्थों के घर से थोड़ा थोड़ा श्राहार ग्रहण करे जिससे उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ न हो और फिर से नया भोजन बनाना न पड़े। दशकालिक सूत्र के पहले अध्ययन में भी साधु को भ्रमर की उमाप दी गई है। यथा
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो श्रावियह रसं। ए य पुष्फ किलामेह, सो य पीणेइ अप्पयं ।। एमे ए समणा मुत्ता, जे लोए सन्ति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेस, दाण भवेसणे रया।
अर्थात्-जिस प्रकार भ्रमर फूल को पीड़ा पहुँचाए बिना ही उससे रस पीकर अपनी तृप्ति कर लेता है, उसी प्रकार प्रारम्भ
और परिग्रह के त्यागी साधु भी दाता के दिए हुए प्रासुक आहार पानी में सन्तुष्ट रहते हैं। जिस प्रकार भ्रमर अनियतं वृत्ति वाला होता है अर्थात् प्रमर के लिए यह निश्चित नहीं होता कि वह अमुक फूल से ही रस ग्रहण करेगा, इसी तरह साधु भी अनियत वृत्ति वाला होवे अर्थात् साधु को प्रतिदिन नियत (निश्चित) घर से ही गोचरी न लेनी चाहिए किन्तु मधुकरी वृत्ति से अनियत घरों से गोचरी करनी चाहिए।