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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ३१३ (८) मृग (हरिण)-जिस प्रकार सिंह को देख कर मृग भाग जाता है, एक क्षण भर भी वहाँ नहीं ठहरता, उसी प्रकार साधु को पाप कार्यों से सदा डरते रहना चाहिए । पापस्थानों पर उसे एक क्षण भर भी न ठहरना चाहिए।
(8) पृथ्वी-जिस प्रकार पृथ्वी शीत, ताप, छेदन, मेदन आदि सब कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करती है, उमी प्रकार साधु को सव परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए । जिस प्रकार पृथ्वी अपने अपकारी और उपकारी तथा मले और बुरे सभी को समान रूप से श्राश्रय देती है, इसी प्रकार साधु को चाहिए कि वह अपने उपकारी और अपकारी तथा अपनी निन्दा करने वाले और प्रशंसा करने वाले सभी को समान भाव से शान्ति मार्ग का उपदेश दे, किसी पर राग द्वेष न करे । शत्रु मित्र पर समभाव रखता हुआ सहिष्णु वने।
(१०) जलरुह (कमल)-कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है और जल से वृद्धि पाता है, किन्तु वह कीचड़ और जल से लिप्त न होता हुआ जल से ऊपर रहता है। इसी प्रकार साधु को चाहिए कि इस शरीर की उत्पत्ति और वृद्धि काम और भोगों से होने पर भी वह कामभोगों में लिप्तन होता हुआ सदा इनसे दूर रहे । कामभोगों को संसार वृद्धि का कारण जान कर साधु इनका सर्वथा त्याग कर दे।
(११) रवि (सूर्य)-जैसे सूर्य अपने प्रकाश से अन्धकार का नाश कर संसार के पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार साधु जीवाजीवादि नव तत्वों का स्वयं ज्ञाता बने और धर्मोपदेश द्वारा भव्य जीवों के अज्ञानान्धकार को दूर कर उन्हें नौ तत्वों का यथार्थ स्वरूप समझा कर मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त करे।
(१२) पवन (वायु)-वायु की गति प्रतिबद्ध होती है अर्थात्