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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग १६ सतरहवें 'लेश्या पद' के पाँचवें 'गोई शक की भलामण ।
(३) उ०-चार पाँच पृथ्वीकायिक मिल कर प्रत्येक शरीर बाँधते हैं। इनमें लेश्या द्वार, दृष्टिद्वार, ज्ञान द्वार,योग,उपयोग,किमाहार, स्थिति, उत्पाद-द्वार, समुद्घात, उद्वतना द्वार आदि का वर्णन । इसी प्रकार अप्कायिक, अमिकायिक, वनस्पतिकायिक जीवों में भी कहना चाहिये। पृथ्वीकायिक आदि की अवगाहना का अल्पवहुत्व, पृथ्वीकायिक आदि की पारस्परिक सूक्ष्मता, वादपन, शरीर. प्रमाण अवगाहना आदि का कथन । पृथ्वीकायिक, अफायिक आदि को कैसी पीड़ा होती है ? इत्यादि विचार।
(४) उ०-महाआसव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा की अपेक्षा नैरयिकों में १६ माँगे । इसी प्रकार २४ दण्डकों में कथन करना चाहिये।
(५) उ०-नरयिकों में अल्पस्थिति और महास्थिति, अल्प वेदना, महावेदना आदि का कथन ।
(६) उ०-द्वीप समुद्रों के संस्थान आदि के विषय में प्रश्न । उत्तर के लिए श्री जीवाभिगम सूत्र की भलामण ।
(७) उ०-भवनवासियों से वैमानिक देवों तक विमानों की संख्या, उनकी बनावट आदि के विषय में प्रश्नोत्तर । वे सब रनों के बने हुए हैं। .
(८) उ०-जीव, कर्म, शरीर, सर्वेन्द्रिय, भाषा, मन, कपाय, वणे, संस्थान, पंज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग आदि नितियों का स्वरूप।
(8) उ०-शरीरकरण, इन्द्रियकरण, पुद्गलकरण, वणंकरण संस्थानकरण आदि का विवेचन ।
(१०) उ०-वाणव्यन्तर देवों के सम आहार का प्रश्न । सोलहवें शतक के द्वीपकुमारों के उद्देशे की भलामण ।