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________________ २३५ श्री जैन सिद्धान्त वोल संघह, चोथा माग पुत्र निपध कुमार ने भगवान् अरिष्ट नेमि के पास दीक्षा ली। नौ वर्ष तक शुद्ध संयम का पालन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। शेष ग्यारह अध्ययनों का वर्णन पहले अध्ययन के समान ही है। ७७८-सूत्र के बारह भेद अल्पाक्षरमसन्दिग्धं, सारवद्विश्वतो मुखं । अस्तोभमनवयं च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः॥ अर्थात्-जो थोड़े अक्षरों वाला, सन्देह रहित, सारयुक्त, सब अर्थों की अपेक्षा रखने वाला, बहुत विस्तार से रहित (निरर्थक पदों से रहित) और निर्दोष हो उसे सूत्र कहते हैं । सूत्र के वारह भेद निम्न प्रकार है। (१) संज्ञा स्त्र-- किसी के नाम आदि को संज्ञा कहते हैं । जैसे आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन पाँच के पहले उद्देशे में कहा गया है कि __ 'जे छेए से सागरियं न सेवे' ' अर्थाद-जो पण्डित पुरुष है वह मैथुन सेवन नहीं करे । अथवा दूसरा उदाहरण और दिया गया है 'प्रारं दुगुणेणं पारं एग गुणेण यं'। अर्थात् राग और द्वेष इन दो से संसार की वृद्धि होती है और राग द्वेप के त्याग से निर्वाण की प्राप्ति होती है। (२) स्वसमय सूत्र-अपने सिद्धान्त में प्रसिद्ध सूत्र स्वसमय सूत्र कहलाता है। जैसे 'करेमि भंते!सामाइयं (३) परसमय सूत्र-अपने सिद्वान्त के अतिरिक्त दूसरों के सिद्धान्त को परसमय सूत्र कहते हैं। जैसे
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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