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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
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साध्वियों के लिए तीन अहितकर स्थान तथा तीन हितकर स्थान । तीन शल्य । तेजोलेश्या के संकोच और विस्तार के तीन कारण । तीन मास की मिक्खुपडिमावालों को आहार और पानी की तीन तीन दतियाँ कल्पती हैं। एक रात्रिकी मिथुप्रतिमा सम्यक्न पालने वाले अनगार को तीन प्रकार से हानि होती है तथा सम्यक् पालने वाले को तीन प्रकार से लाभ होता है। (सू० १८१-१८२)।
तीन कर्मभूमियाँ। तीन दर्शन | तीन रुचि। तीन प्रयोगातीन व्यवसाय (तीन अपेक्षाओं से)। इहलौकिक व्यवसाय के तीन मेद । लौकिक व्यवसाय के तीन भेद । वैदिक व्यवसाय के तीन भेद । सामयिक व्यवसाय के तीन भेद-ज्ञान, दर्शन, चारित्र । तीन अर्थयोनि-साम, दण्ड, भेद । तीन प्रकार के पुद्गल । पृथ्वी के नीन आधाररातीन मिथ्याला तीन प्रक्रियाएँ । तीन प्रयोगक्रियाएं। तीन समुदान क्रियाएँ । तीन अज्ञान क्रियाएँ। तीन अविनय । तीन अज्ञान । तीन धर्म । तीन उपक्रम (दो अपेक्षाओं से), इसी तरह वैयावच, अनुग्रह, अनुशिष्टि और उपालम्म के भी तीन तीन मेद हैं। तीन कथा। तीन विनिश्चय । साधु सेवा के फल । ५० (१८३-६०)
चतुर्थ उद्देश-पडिमाधारी साधु के लिए प्रतिलेखना योग्य तीन उपाश्रय तथा तीन संस्तारक (शय्या) । तीन काल । तीन समय । तीन पुद्गलपरावर्तन । तीन वचन (तीन अपेक्षाओं से)। तीन प्रज्ञापना । तीन सम्यक्-ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक्, चारित्र सम्यक् । तीन उपघात । तीन विशुद्धि । तीन आराधना । ज्ञाना
राधना के तीन मेद । इसी प्रकार दर्शनाराधना और चारित्रा, राधना के तीन तीन मेद । तीन संक्लेश । इसी तरह असंक्लेश,
अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के भी तीन तीन भेद हैं। तीन का अतिक्रमण आदि होने पर आलोचना आदि करना चाहिए ! तीन प्रकार का प्रायश्चित्र । मेरु के दक्षिण में तीन अकम