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श्री जैन सिद्धान्त वोल सप्रह, चौथा भाग ४३१ लोहार्गल नगर में चली आई। पूर्वजन्म में किए गए सुकृत के कारण प्राप्त हुए सांसारिक भोग भोगते हुए उन्हें बहुत दिन बीत गए।
श्रीमती के पिता वजूसेन चक्रवर्ती तीर्थङ्कर-थे । समय होने पर लोकान्तिक देवों ने आकर उन्हें चेताया। सांवत्सरिक दान के बाद अपने बड़े पुत्र पुष्कलपाल को राज्य देकर उन्होंने दीक्षा ले ली। केवलज्ञान होजाने पर उन्होंने धर्मतीर्थ की स्थापना की।
कुछ दिनों के बाद वजूजंघ के घर आश्चर्यजनक गुणों को धारण करने वाला एक पुत्र उत्पन्न हुआ। इधर कुछ सामन्त पुष्कलपाल से विमुख हो गए। उसने श्रीमती के साथ वजूजंध को बुलाने के लिए दूत भेजा। वजूज़ंघ श्रीमती के साथ रवाना हुआ। पुण्डरीकिणी में पहुँचने के लिए शरवण नामक मार्ग से जाना आवश्यक था। उसके लिए गुण दोष जानने वाले कुछ लोगों ने वजूध को मना किया और कहा-इस मार्ग में दृष्टिविष सर्प रहते हैं । इस लिए इधर से न जाना चाहिए। उस मार्ग को छोड़ते हुए घूम कर जाने से चनजंघ पुण्डरीकिणी के पास पहुंच गया। उसका आगमन सुन कर भय से सभी सामन्त अपने आप झुक गए। पुष्कलपाल ने उन दोनों का उचित सत्कार किया। कुछ दिन वहॉ रह कर विदा दी । अपने नगर की ओर लौटते हुए वे शरवण मार्ग के समीप चाले प्रदेश में आए। लोगों ने कहा-अब इस मार्ग से जाने में भी कोई हानि नहीं है । इस मार्ग में किसी महामुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। उनके दर्शनों के लिए पाए हुए देवों की प्रभा से उन साँपों का दृष्टिविप नष्ट हो गया। यह सुन कर वजूजंघ उसी मार्ग से खाना हुआ। कुछ दूर जाने पर वहाँ विराजे हुए सागरसेन और मुनिसेन नाम के अनगारों के दर्शन किए। दोनों मुनि संसारावस्था में वजूजघ के भाई थे। उनके साथ बहुत से साधु थे। वे दोनों पूर्ण तपस्वी, ज्ञान के भण्डार और सौम्यता के निधि