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श्री सेठिया जैन प्रथमाला
थे। वजूर्जप ने परिवार के साथ उन्हें वन्दना की । मिक्षा के समय शुद्ध प्रासुक आहार पानी बहरा कर प्रतिलाभित किया। तीसरे पहर उन महातपस्वियों के गुणों का स्मरण करते हुए वह भावना भाने लगा-मेरे माई बड़े महात्मा तथा पुण्यात्मा हैं। वह दिन कर होगा जब मैं इस विस्तृत राज्य को छोड़ कर मुनि वृत्ति अङ्गीकार कलंगा। सांसारिक विषय भोगों से निःस्पृह होकर विचाँगा । इस प्रकार भावना भाते हुए उसके प्रस्थान का समय आ गया । वहाँ से रवाना होकर वजूजंघ अपने नगर में पहुंचा।
वजूज॑ध के पुत्र ने माता पिता के चले जाने पर नौकरों को दान सन्मान आदि से अपने वश में कर लिया। जव उनके आने का समय हुआ तो उनके वासगृह में विष की धूप कर दी। वजूजध को इस बात का बिल्कुल पता नहीं लगा। रात्रि के समय अपने परिजनों को छुट्टी देकर वह श्रीमती के साथ अपने महल में गया। साधु के गुणों का स्मरण करते हुए वह विश्राम करने लगा। विष की धूप के कारण उसका चित्त घवराने लगा और उसी समय मृत्यु हो गई । श्रीमती भी उसी समय समाप्त हो गई। दोनों मर कर उत्तरकुरु में तीन पल्योपम की आयु वाले युगलिए हुए । वहाँ
आयु पूरी करके सौधर्म देवलोक में देव देवी रूप से उत्पन्न हुए। वहाँ भी उन दोनों में बहुत अधिक प्रीति थी। वहाँ एक पल्योपम की आयु पूरी होने पर वप्रावती विजय की प्रभङ्करा नगरी में उत्पन्न हुए । वजूजघ का जीव सुविधि नाम के वैद्य का अभय घोष नामक पुत्र बना और श्रीमती का जीव किसी सेठ के घर केशव नामक पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ भी उन दोनों का परस्पर परम स्नेह हो गया। उस भव में उनके चार मित्र और हो गए-राजा, मन्त्री, सेठ
और सार्थवाह का पुत्र । एक बार उन्होंने कृमि और कुष्ठ रोग वाले • • त्रिषष्टि शलामा पुरुष चरित्र में अभयघोष के स्थान पर जीवानन्द नाम है।