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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
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न्त्रित कर रहे थे। कोई उन्हें भिक्षा में धन देना चाहता था, कोई कन्या । इस बात का किसी को ज्ञान न था कि भगवान् इन सब चीज को त्याग चुके हैं। ये वस्तुएं उन के लिए व्यर्थ हैं । उन्हें तो लम्बे उपवास का पारणा करने के लिए शुद्ध आहार की आवश्यकता है ।
श्रेयांसकुमार उन्हें देख कर विचार में पड़ गया। उसी समय उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। थोड़ी देर के लिए उसे मूर्च्छा आगई । कपूर और चन्दन वाले पानी के छींटे देने पर होश आया । ऊपर वाले महल से उतर कर वह नीचे श्रांगन में आगया । इतने में भगवान् भी उसके द्वार पर पधार गए। उसी समय कोई व्यक्ति कुमार को भेट देने के लिए इतुरस से भरे घड़े लाया । श्र ेयांसकुमार ने एक घड़ा हाथ में लिया और सोचने लगा- 'मैं धन्य हूँ जिसे इस प्रकार की समस्त सामग्री प्राप्त हुई है। सुपात्रों में श्र ेष्ठ भगवान् तीर्थकर स्वयं भिक्षुक बन कर मेरे घर पधारे हैं, निर्दोष इतुरस से भरे हुए घड़े तैयार हैं । इनके प्रति मेरी भक्ति भी उमड़ रही है । यह कैसा शुभ अवसर है' यह सोच कर भगवान् को प्रणाम करके उसने निवेदन किया - यह आहार सर्वथा निर्दोष है। अगर भाप के अनुकूल हो तो ग्रहण कीजिए । भगवान् ने मौन रह कर हाथ फैला दिए । यसकुमार भगवान् के हाथों में इक्षुरस डालने लगा । अतिशय के कारण रस की एक भी बूंद नीचे नहीं गिरी । भगवान् का कृश तथा उत्तप्त शरीर स्वस्थ तथा शान्त हो गया । इक्षुरस का पान करते हुए उन्हें किसी ने नहीं देखा क्योंकि नीचे लिखे श्रतिशय तीर्थङ्करों के जन्म से ही होते हैं
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देहः प्रस्वेदामयविवर्जितो नीरजा सुरभिगन्धः । गोक्षीरसमं रुधिरं, निर्विश्रसुधासितं मांसम् ॥
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आहारो नीहारो लक्ष्यो न च मांसचक्षुषाऽमुष्यः । निःश्वासः - फुल्लोत्पलसमानगन्धोऽतिरमणीयः ॥