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श्री जैन सिद्धान्त चील संग्रह, चौथा भाग ' '
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(५) विषयमोग छोड़कर जनता से आहार आदि, प्राप्त करना। (६)उ०--संयम के लिए लोक को ध्यान रखते हुए भी ममता न रखना। .
तीसरा अध्ययन-शीतोष्णीय।
सरदी गरमी या सुख दुःख की अधिक परवाह न करके सब जगह समभाव रखना । इसमें चार उद्देशे हैं(१)उ०-वास्तव में सोया हुआ कौन है ? (२)०-पाप का फल तथा हित उपदेश । (३)उ०-लज्जा आदि के कारण पाप का परिहार तथा परिषह सहने मात्र से कोई मुनि नहीं बनता। उसके लिए हृदय में संयम चाहिए। (४)उ०-कषायों का त्याग । __चौथा अध्ययन-सम्यक्त्व । इसमें चार उद्देशे हैं(१)उ०-सत्यवाद । (२)उ०-दूसरे मतों का विचार पूर्वक खण्डन । (३/30-तप का अनुष्ठान । - (४)उ०-संयम में स्थिर रहना। . , . ,
पाँचवाँ अध्ययन-लोकसार । इसमें छ: उद्देशे हैं(उ०प्राणियों की हिंसा करने वाला, विषयों के लिए प्रारम्भ में प्रवृत्त होने वाला और विषयों में आसक्ति रखने वाला मुनि नहीं हो सकता। (२)उद्देश-हिंसा आदि पापों से निवृत्त होने वाला ही मुनि कहा जा सकता है। (३)उ०-मुनि किसी प्रकार का परिग्रह न रखे तथा काममोगों की इच्छा भी न करें। (2)उ०-अव्यक्त (आयु और विद्या की योग्यता से रहित),