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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला जो हमने पहिले नहीं किया तो अब क्या कर सकेंगे ? ऐसा विचार कर पुरुषार्थ को न छोड़ देना चाहिए किन्तु सब कालों में और सब परिस्थितियों में पुरुषार्थ तो करते ही रहना चाहिये।
इस नवी गाथा का परम्परा के अनुसार दूसरा अर्थ भी होता है। वह इस प्रकार है
शाश्वतवादी (निश्चय से कह सकें ऐसे ज्ञानी जन) त्रिकाल. दर्शी होने से, अभी ऐसा ही होगा, अथवा अभी वह जीव संयम
आदि प्राप्त कर सकेगा बाद में नहीं आदि आदि बातें निश्चय पूर्वक जानते हैं वे तो पीछे भी पुरुषार्थ कर सकते हैं परन्तु यह उपमा तो उन्हीं महापुरुषों को लागूपड़ती है, औरों को नहीं । यदि साधारणभात्माएं भी उनकी तरह वैसा ही करने लगें तो अन्त समय में उनको पछताना ही पड़ेगा।
(१.) शीघ्र विवेक करने की शक्ति किसी में नहीं है। इस लिए मुमुक्षु श्रात्माओं को चाहिए कि काममोगों को छोड़ कर ससार स्वरूप को समभाव से समझे और आत्मरक्षक घन कर अप्रमत्त रूप से विचरें।
(११) पारम्बार मोह को जीवते हुए और संयम में विचरते हुए त्यागी को विषय भोग भनेक रूप में स्पर्श करते हैं किन्तु मिनु उनके विषय में अपने मन को कलुषित न करे।
(१२)चित्त को लुभाने वाला मन्द मन्द कोमल स्पर्श यद्यपि बहुत ही आकर्षक होता है किन्तु संयमी उसके प्रति अपने मन को आकृष्ट न होने दे, क्रोध को दबावे, अमिमान को दूर करे, कपट (मायाचार) का सेवन न करे और लोभ को छोड़ देवे।
(१३)नोअपनी वाणी (विद्वचा) से ही संस्कारी गिने जाने पर भी तुच्छ और परनिन्दक होते हैं तथा राग द्वेष से जकड़े रहते हैं वे परतन्त्र और अधर्मी हैं, ऐसा जान कर साधु उनसे अलग