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મુન્દ
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग
रहे और शरीर के अन्त तक (मृत्यु पर्यन्त) सद्गुणों की ही आकांक्षा
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( उत्तराध्ययन अध्ययन ४ )
८२० - भगवान् ऋषभदेव के तेरह भव
भगवान् ऋषभदेव के जीव ने धन्ना सार्थवाह के भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया था । उस भव से लेकर मोक्ष जाने तक तेरह भग किये थे । वे ये हैं
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धण मिहुए सुर महम्बल ललियंग य, वह जंघ मिहुणे य । सोहम्म विज श्रच्य चक्की, सव्वट्ट उसमे य ॥
अर्थात् - धन्ना सार्थवाह, युगलिया, देव ( सौधर्म देवलोक में), महाबल, ललिताङ्ग देव (दूसरे देवलोक में), वंजजंघ, युगलिया, देव ( सौधर्म देवलोक में ), जीवानन्द वैद्य, देव (अच्युत देवलोक में), वज्रनाभ चक्रवर्ती, देव (सर्वार्थसिद्ध विमान में ), प्रथम तीर्थदूर भगवान ऋषभ देव ।
( १ ) जम्बुद्वीप के भरतक्षेत्र में चितिप्रतिष्ठित नाम का एक नगर था । यह नगर तीच रमणीय और सुन्दर था। अपनी सुन्दरता के लिए उस समय में वह पूर्व था मानो इसी दृष्टि से उसका नाम क्षितिप्रतिष्ठित (पृथ्वी में सम्मानित ) रक्खा गया था। उस नगर में प्रसन्नचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था । प्रजी का पुत्रचत् पालन करने से तथा न्याय और मीति से राज्य करने से उस का यश पूर्णचन्द्र की चांदनी के समान सर्वत्र फैला हुआ था । चन्द्र की चाँदनी में जैसे कुमुदिनी हर्षित एवं विकसित होती है उसी तरह उसके राज्य में सब प्रजा सुखी और प्रसन्न थी । अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने के लिये ही मानो प्रजा ने अपने राजा का नाम प्रसन्नचन्द्र रक्खा थी ।
इसी नगर में धन्ना सार्थवाह नाम का एक सेठ रहता था । वह
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