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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला नगर में प्रतिष्ठित, समृद्ध एवं यशस्वी था। व्यापार में वह बहुत चतुर एवं कुशल था। एक समय व्यापार के लिये वह वसन्तपुर जाने को तय्यार हुआ। उसने नगर में यह घोषित करवाया कि मैं व्यापारार्थ वसन्तपुर जा रहा हूँ, जो मेरे साथ चलना चाहे चले । मैं उसे सभी प्रकार की सुविधा दूंगा । इस घोषणा से बहुत से लोग धमा सेठ के साथ वसन्तपुर को खाना होगये। चलते चलते मार्ग में ही वर्षा ऋतु का समय आगया । इस लिये धन्ना सेठ को मार्ग में ही पड़ाव डाल कर रह जाना पड़ा। अपनी शिष्य मण्डली सहित धर्मघोष आचार्य भी क्षितिप्रतिष्ठित नगर से विहार कर वसन्तपुर की
ओर पधार रहे थे। धन्ना सेठ की विनति से वे भी चतुर्मास व्यतीत करने के लिये पड़ाव के पास ही पर्वतों की गुफा में ठहर गये ।धना सेठ को मुनियों का स्मरण न रहा, इस कारण वह उनकी सेवा शुश्रषा एवं साल सम्हाल न कर सका। चतुर्मास की समाप्ति पर जब चलने की तय्यारी होने लगी तब सेठ को मुनियों का ध्यान आया। पश्चात्ताप करता हुआ वह मुनियों की सेवा में उपस्थित होकर दीनता एवं अनुनय विनय पूर्वक प्रार्थना करने लगा कि मैं मन्दभाग्य आप को भूल ही गया, इस कारण आपकी सेवा का लाभ न ले सका। . मेरा अपराध क्षमा करें और कृपा करके पारणा करें।
धर्मघोष आचार्य सेठ के पड़ाव पर भिक्षा करने के लिये पधारे । मिक्षार्थ पधारे हुए ऐसे उत्तम पात्र कोदान देने के लिये सेठ के परिणाम इतने उच्च हुए कि देवों को भी आश्चर्य होने लगा। सेठ के परिणामों की परीक्षा करने के लिये देवताओं ने मुनि की दृष्टि पोध दी । मुनि अपने पात्र को देख नहीं सकते थे, इस कारण सेठ का बहराया हुआ घी पात्र भर जाने से बाहर बहने लगा। फिर भी सेठ घी डालता ही रहा । परिणामों की उच्चता के कारण वह यही , समझता रहा कि मेरा बहराया हुआ पी वो पात्र में ही जाता है।