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श्री जैन सिद्धान्त बोल संमह, चौथा भाग १ है। पोलासपुर नगर में विजय नाम का राजा राज्य करता था। उनकी रानी का नाम श्रीदेवी था। श्रीदेवी रानी का भात्मज अतिमुक्त (एवन्ता ) कुमार था । एक समय वह खेल रहा था। उसी समय गौतम स्वामी उधर से निकले । उन्हें देख कर अतिमुक्त कुमार उनके पास आया । वन्दना नमस्कार कर उनसे पूछने लगा, हे भगवन् ! आप किस लिए फिर रहे हैं ? गौतम स्वामी ने कहा मैं मिक्षा के लिए फिर रहा हूँ। तब अविमुक्त कुमार ने गौतम स्वामी की अङ्गुली पकड़ कर कहा पधारिये आप मेरे घर पधारें, मैं आपको मिक्षा दिलाऊँगा । घर आते हुए गौतम स्वामी को देख कर अतिमुक्त कुमार की मावा अपने श्रासन से उठ कर सात आठ कदम सामने आई । बन्दना नमस्कार कर गौतम स्वामी को आहार पानी बहराया। जव गौतम स्वामी वापिस लौटने लगे तो अतिमुक्त कुमार मी भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार करने के लिये उनके साथ आया । भगवान् ने धर्मकथा सुनाई। वापिस घर आकर अतिमुक कुमार अपने माता पिता से दीक्षा की आज्ञा मांगने लगा। माता पिता ने कहा हे पुत्र ! अभी त अवोध है । अभी तू धर्म में और साधुपने में क्या समझता है तब अतिमुक्त कुमार ने कहा कि हे मात पिताओ! मैं जो जानता हूँ उसे नहीं जानता और जिसे नहीं जानता है उसे जानता हूँ। माता पिता के पूछने पर अविमुक्त कुमार ने उपरोक्त वाक्य का स्पष्टीकरण किया कि मैं जानता हूँ कि जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा, किन्तु यह नहीं जानता हूँ कि कप और कैसे मरेगा ? मावपिताओ। मैं यह नहीं जानता हूँ कि कौन जीप किस कर्मवन्ध से नरक तिर्यञ्चादि गायों में उत्पन्न होता है, किन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि कर्मासक्त जीव ही नरकादि गतियों में उत्पन्न होता है । इस प्रकार जिसे मैं जानता हूँ उसे नहीं जानता और