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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला इन्होंने सूर्य या चन्द्र की प्रभा को सर्वथा ढक लिया। उस समय मन्द प्रकाश होने पर भी सर्वथा ढक लेने का व्यवहार होता है। उसी प्रकार अनन्तवाँ भाग खुला रहने पर भी सर्वथा श्रावृत कर लेने का व्यवहार होता है। वह अनन्तवाँ भाग भी मतिज्ञानावरणीय श्रादि के द्वारा श्रावृत होता हुआ थोड़ा सा अनावृत बच जाता है। इसी प्रकार केवलदर्शनावरणीय सामान्य ज्ञान रूप दर्शन गुण को आवृत करता है। बचा हुआ अनन्तवाँ भाग चतुदर्शन आदि के द्वारा श्रावृत होता है, फिर भी थोड़ा सा अनावृत बच जाता है।
निद्रा आदि पाँच का उदय होने पर जीव को बिल्कुल भान नहीं . रहता । इस लिए ये भी सर्वघाती हैं। निद्रा में भी जो सूक्ष्म अनुभव रहता है। उसे बादलों से आच्छादित सूर्य चन्द्र की सूक्ष्म प्रभा के समान समझना चाहिए। अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानावरण की चौकड़ियाँ भी क्रमशः जीव के सम्यक्त्व, देशविरति चारित्र और सर्वविरति चारित्र का सर्वथा घात करती हैं । मिथ्यात्व प्रकृति तत्त्व श्रद्धान रूप सम्यक्त्व का सर्वथा घाव करती है। इन प्रकृतियों का प्रबल उदय होने पर भी जीव अयोग्य
आहार आदि का त्याग करता है और मनुष्य, पशु आदि वस्तुओं पर श्रद्धा भी करता है। इन बातों को पादल से निकलती हुई सूर्य की प्रभा के समान जानना चाहिए।
देशघाती प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ जीव के गुणों को एक देश से आवृत करती हैं वे देशघाती हैं। वे पच्चीस हैं-केवल ज्ञानावरणीय को छोड़ कर ज्ञानावरणीय चार, केवल दर्शनावरणीय को छोड़ कर दर्शनावरणीय नीन, संज्वलन कषाय चार, नोकषाय नौ और अन्तराय की पाँच।
मतिज्ञानावरण आदि चार केवलज्ञानावरण द्वारा अनावृत छोड़े हुए ज्ञान के देश का घात करती हैं। इसी प्रकार चक्षुदर्शनावरण