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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
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वाला जीव भी अन्तर्मुहूर्त के लिए ही मिथ्यात्व प्राप्त करता है । जो नरकायु बाँध कर वेदक सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थङ्कर गोत्र बाँधता है वह नरक में उत्पन्न होते समय सम्यक्त्व को छोड़ देता है । वहाँ पहुँच कर पर्याप्तियों पूरी होने के बाद फिर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है ।
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(७) सर्व देशघाती प्रकृतियाँ - (क) जो प्रकृतियाँ अपने विपय का पूर्ण रूप से घात अर्थात् आवरण करती हैं वे सर्वघाती हैं। (ख) जो अपने विषय का चात एक देश से करती हैं वे देशघाती हैं।
(क) सर्वघाती प्रकृतियों बीस हैं- केवल ज्ञानावरणीय, केवल दर्शनावरणीय, ५ निद्रादि, संज्वलन चौकड़ी को छोड़ कर १२ कपाय और मिथ्यात्व । ये प्रकृतियाँ अपने द्वारा श्रावृत होने वाले श्रात्मा के गुण का पूर्ण रूप से श्रावरण करती हैं।
यद्यपि सभी जीवों के केवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग सदा अनावृत रहता है फिर भी केवलज्ञानावरणीय को सर्वघाती इस लिए कहा जाता है कि जीव का केवलज्ञान गुण जितना श्रावृत किया जा सकता है उसे केवलज्ञानावरणीय प्रकृति श्रावृत कर लेती है । जिसे थावृत करना इस की शक्ति से बाहर है वह अनावृत ही रहता है । प्रतिज्ञानावरण वगैरह प्रकृतियों में तारतम्य रहता है अर्थात् मतिज्ञानावरणीय का उदय होने पर भी किसी जीव का मतिज्ञान अधिक प्रवृत होता है और किसी का कम । श्रावरण करने वाले कर्म के न्यूनाधिक क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान में न्यूनाधिकता हो जाती है । केवलज्ञानावरणीय में यह बात नहीं होती। उसके उदय में होने पर सभी जीवों का केवलज्ञान गुण समान रूप से आवृत होता है तथा उसके चय हो जाने पर समान रूप से प्रकट होता है। सर्वघाती और देशघाती प्रकृतियों में यही अन्तर है ।
आकाश में घने बादल छा जाने पर यह कहा जाता है कि श्राकाश