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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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बाकी जीवों के रहती है । यह मान्यता कर्मग्रन्थों के अनुसार है कर्मप्रकृति में नीचे लिखे अनुसार बताया गया है- अनन्तानुबन्धी कषाय प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में नियम से सचारूप में रहती है । तीसरे से लेकर श्रप्रमत्त संयत अर्थात् सातवें गुणस्थान तक भजना है। उनका क्षय कर देने पर नहीं होती, नहीं तो होती है। इससे ऊपर अनन्तानुबन्धी की सत्ता बिल्कुल नहीं होती, क्योंकि अनन्तानुवन्धी को अलग किए बिना जीव आठवें गुणस्थान में उपशम श्रेणी को भी प्राप्त नहीं कर सकता ।
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श्राहारकसप्तक - आहारक शरीर, आहारक अंगोपाङ्ग, आहारक संघातन, श्राहारकाहारक बन्धन, आहारक तैजस बन्धन, आहारक कार्मण बन्धन, आहारक तैजस कार्मण बन्धन, इन सात प्रकृतियों की सत्ता सभी गुणस्थानों में विकल्प अर्थात् भजना से है। श्रप्रमत्त संयत यदि गुणस्थानों में जो जीव इन सात प्रकृतियों को बाँध लेता है उसके ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ने पर अथवा नीचे गिरने पर इनकी सत्ता रहती है। 'जिस जीव ने इन प्रकृतियों को नहीं बाँधा उसके नहीं रहतीं । तीर्थङ्कर नामकर्म द्वितीय और तृतीय को छोड़ कर बाकी सभी गुणस्थानों में सत्ता में रहता है। चौथे अविरत सम्यग्दष्टि गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक जो जीव तीर्थङ्कर नाम को बाँन लेता है वह ऊपर के गुणस्थानों में भी चढ़ सकता है और अविशुद्धि के कारण मिथ्यात्व को भी प्राप्त कर सकता है किन्तु दूसरे और तीसरे गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता । इसी अपेक्षा से तीर्थङ्कर नाम की सत्ता दूसरे और तीसरे को छोड़ कर - सभी गुणस्थानों में होती है। जो जीव तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध नहीं करता उसके किसी गुणस्थान में तीर्थङ्कर नाम की सत्ता नहीं होती।
जिस जीव के आहारक सप्तक और तीर्थङ्कर नाम इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता हो वह मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता । तीर्थङ्कर नाम