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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ३४६ आदि केवलदर्शनावरण के द्वारा अनावृत छोड़े हुए सामान्य ज्ञान के देश का घात करती हैं, इस लिए ये देशघाती हैं। संज्वलन और नोकपायों से चारित्रगुण के देश का घात होता है अर्थात् उन के रहने से मूलगुण और उत्तर गुणों में अतिचार लगते हैं, सर्वथा घात नहीं होता । श्रावश्यक नियुक्ति गाथा ११२ में लिखा है सव्वे वि य इयारा, संजलणाएं तु उदयत्र हुंति । मूलच्छिनं पुण होइ, बारसहं कसायाणं ॥ अर्थात् -संज्वलन प्रकृतियों के उदय से केवल अतिचार लगते हैं किन्तु अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायों के उदय से मूलगुणों का घात होता है । दानान्तराय आदि पाँच प्रकृतियाँ भी देशघाती हैं । दान, लाभ, भोग और उपभोग का विषय वे ही वस्तुएं हैं जिन्हें ग्रहण या धारण किया जा सकता है । ऐसी वस्तुएं पुद्गलास्तिकाय के अनन्तवें भाग रूप देश में रही हुई हैं । अन्तराय की प्रकृतियाँ उन्हीं वस्तुओं के दान आदि में बाधा डालती हैं, इस लिए देशघाती हैं। अगर जीव सारे लोक की वस्तुओं का दान, लाभ, भोग या उपभोग नहीं करता तो इस में अन्तराय कर्म कारण नहीं है किन्तु ग्रहण और धारण का विषय होने के कारण उन वस्तुओं के दान आदि हो ही नहीं सकते । अन्तराय कर्म का सर्वथा नाश हो जाने पर भी कोई जीव उन वस्तुओं को दान आदि के काम में नहीं ला सकता, क्योंकि दान आदि के लिए काम में आने की उनकी योग्यता ही नहीं है । अन्तराय कर्म सिर्फ उन्हीं वस्तुओं के दान आदि में बाधा डालता है जो ग्रहण या धारण के योग्य होने से दान यादि के काम आ सकती हैं । बीर्यान्तराय कर्म भी देशघाती है। वीर्य अर्थात् आत्मा की शक्ति का पूर्ण रूप से घात नहीं करता । सूक्ष्मनिगोद में वीर्यान्तराय का प्रबल उदय रहता है । वहाँ के जीवों में भी आहार पचाने, कर्म Į
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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