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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला दलिकों को ग्रहण करने और दूसरी गति में जाने की शक्ति रहती है। वीर्यान्तराय के चयोपशम से ही उन जीवों के वीर्य का वारवम्य होता है । वीर्यान्तराय के क्षय होने से केवलियों को प्रात्मा के पूर्ण वीर्य की प्राप्ति होती है। इसे सर्वघाती मान लेने पर मिथ्यात्व के उदय होने पर सम्यक्त्व के सर्वथा अभाव की तरह वीर्य का भी सर्वथा अभाव हो जायगा।
(८) अघाती प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ आत्मा के ज्ञान आदि गुणों का घात नहीं करतीं उन्हें अपाती कहा जाता है। जैसे स्वयं चोरन होने पर भी चोरों के साथ रहने वाला पुरुष चोर कहा जाता है उसी प्रकार, घाती प्रकृतियों के साथ वेदी जाने से ये भी बुरी कही जाती हैं । जैसे रस पड़ने के कारण घाती प्रकृतियाँ अवश्य वेदनी पड़ती हैं उसी प्रकार प्रघाती भी वेदनी पड़ती हैं।
अघाती प्रकृतियाँ पचहत्तर हैं-प्रत्येक प्रकृतियाँ पाठ-पराघात, उच्छवास, पातप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थङ्कर, निर्माण, उपघात । शरीर पाँच | अङ्गोपाङ्गवीन । छः संस्थान । छः संहनन । जातियाँ पाँच। गतियाँ चार। भानुपूर्वी चार। विहायोगति दो।आयुष्य चार। अस प्रकृतियाँ दस। स्थावर प्रकृतियाँ दस । गोत्र दो । वेदनीय दो। वर्णादि चार । ये पचहत्तर प्रकृतियाँ आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं, इसीलिए अघाती कही जाती हैं। घाती प्रकृतियों के साथ वेदी जाने पर ये घाती के समान फल देती हैं और देशघाती के साथ वेदी जाने पर देशघाती के समान। वे स्वयं अघाती हैं।
(8) पुण्य प्रकृतियाँ-जिन के उदय से जीव को सुख प्रास होता है वे पुण्य प्रकृतियाँ कही जाती हैं। पुण्य प्रकृतियाँ षयालीस हैं। ३ देवत्रिक, देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु । ३ मनुष्यत्रिकमनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु । १ उच्चगोत्र । १ सातावेदनीय १० त्रसदशक | ५ शरीर।३अंगोपाङ्ग।१ वजऋषभनाराच संह