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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग नन । १ समचतुरस्र संस्थान | ७ पराघातसप्तक-पराघात, उच्छवास, श्रातप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थकर, निर्माण।१ शुभदीर्घ तिर्यश्चायु । ४ वर्णादि (शुभ)। पञ्चेन्द्रिय जाति।
(१०) पाप प्रकृतियॉ-जिन के उदय से जीव को दुःख प्राप्त होता है वे पाप प्रकृतियाँ हैं । वे वयासो हैं-वज्रऋषभ को छोड़ कर ५ संहनन । सपचतुरस्र को छोड़ कर ५ संस्थान । १ अप्रशस्त विहायोगति । १तिर्यश्च गति । तिर्यश्चानुपूर्वी । असाता वेदनीय । नीच गोत्र । उपघात । पञ्चेन्द्रिय को छोड़ कर चार जातियों ।३ नरकत्रिक-नरक गति, नरकानुपूर्वी, नरकायु । १० स्थावरदशक । .४ वर्णचतुष्क (अशुभ)।२० देशघाती प्रकृतियाँ । २५ सर्वघाती प्रकृतियाँ। कुल मिला कर पाप प्रकृतियाँ ८२ हैं । वर्णादि चार प्रकृतियाँशुभ और अशुभ रूप होने से पुण्य तथा पाप दोनों प्रकतियों में गिनी जाती है।
(११) अपरावर्तमान प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ अपने वन्ध, उदय या दोनों के लिए दूसरी प्रकृतियों के चन्धादि को नहीं रोकती उन्हें अपरावर्तमान प्रकृतियों कहा जाता है । अपरावर्तमान प्रकृतियाँ २६ हैं- ४ वर्णादि । तैजस । कार्मण । अगुरुलघु । निर्माण । उपघात । ४ दर्शनावरणीय । ५ ज्ञानावरणीय । अन्तराय । पराघात । भय ।जुगुप्सा पिथ्यात्र। उच्छ्वास । तीर्थङ्करनाम । ये २६ प्रकृतियाँ अपनेवन्ध या उदय के समय दूसरी प्रकृतियों के वन्ध या उदय का विरोध नहीं करतीं। इसी लिए अपरावर्तमान कही जाती हैं।
(१२) परावर्तमान प्रकृतियाँ-जो प्रकृतियाँ अपने वन्ध, उदय या दोनों के लिए दूसरी प्रकृतियों के वन्ध आदि को रोक देती हैं उन्हें परावर्तमान प्रकृतियाँ कहा जाता है । वे इक्यानवे हैं-तीन
शरीर--औदारिक, वैक्रियक, आहारक । ३ उपांग । ६ संस्थान । ६ 'संहनन । जाति। ४ गति।२ विहायोगति। ४ भानुपूर्वी । ३ वेद ।