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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला बाय तो भी न निकालना चाहिए किन्तु किसी प्राणी की मृत्यु हो जाने का भय हो तो उसे निकाल देना चाहिए।
विहार करते हुए जहाँ सूर्य अस्त हो जाय वहीं पर ठहर जाना चाहिए। चाहे वहाँ जल हो (जल का किनारा हो या सूखा हुआ जलाशय हो), स्थल हो, दुर्गम स्थान हो, निम्न (नीचा) स्थान हो, पर्वत हो, विषम स्थान हो, खड्डा हो या गुफा हो, सारी रात वहीं व्यतीत करनी चाहिए। सूर्यास्त के बाद एक कदम भी आगे बढ़ना उचित नहीं। रात्रि समास होने पर सूर्योदय के पश्चात् अपनी इच्छानुसार किसी भी दिशा की ओर ईर्यासमिति पूर्वक विहार कर दे। सचित्त पृथ्वी पर निद्रा न लेनी चाहिए । सचित्त पृथ्वी का स्पर्श करने से हिंसा होगी जो कि कर्मबन्ध का कारण है। यदि रात्रि ' में लधुनीति या पडीनीति की शंका उत्पन्न हो जाय तो पहले से
देखी हुई भूमि में जाकर उनकी निचि करे और वापिस अपने स्थान पर पाकर कायोत्सर्ग आदि क्रिया करे।
किसी कारण से शरीर पर सचित्त रज लग जाय तो जब तक प्रस्वेद (पसीना) आदि से वह रज दूर न हो जाय तब तक मुनि को पानी प्रादि लाने के लिये गृहस्थ के घर न जाना चाहिए । इसी प्रकार प्रासुक जल से हाथ, पैर, दांत, आँख या मुख आदि नहीं धोने चाहिएं किन्तु यदि किसी अशुद्ध वस्तु से शरीर का कोई अलिप्त होगया हो तो उसको प्रामुक पानी से शुद्ध कर सकता है अर्थात् मलादि से शरीर लिप्त हो गया हो और स्वाध्यायादि में पाधा पड़ती हो तो पानी से अशुचि को दूर कर देना चाहिए।
विहार करते समय मुनि के सामने यदि कोई मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, चैत, महिष (मसा), सूअर, कुचा या सिंह आदि भाजाय बोउनसे डर कर मुनि को एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिए, . किन्तु यदि कोई हरिण श्रादि भद्र जीव सामने अजाय और वह