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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग २८७ उपाश्रय के स्वामी की आज्ञा लेकर पडिमाधारी मुनि को तीन प्रकार के स्थानों में ठहरना चाहिये
(१) अधाश्रारामगृह-ऐसा स्थान जिसके चारों ओर वाग हो।
(२) अधोविकटगृह-ऐसा स्थान जो चारों ओर से खुला हो सिर्फ ऊपर से ढका हुआ हो।।
(३) अधः वृक्षमूलगृह- वृक्ष के नीचे बना हुअास्थान या वृक्ष का मूल।
उपरोक्त उपाश्रय में ठहर कर मुनि को तीन प्रकार के संस्तारक श्राज्ञा लेकर ग्रहण करने चाहिये । (१) पृथ्वी शिला (२) काष्ठ शिला (३) उपाश्रय में पहले से विछा हुआ संस्तारक ।
शुद्ध उपाश्रय देख कर मुनि के वहाँ ठहर जाने पर यदि कोई स्त्री या पुरुप आजाय तो उन्हें देख कर मुनि को उपाश्रय से बाहर जाना या अन्दर आना उचित नहीं अर्थात् मुनि यदि उपाश्रय के बाहर हो तो बाहर ही रहना चाहिए और यदि उपाश्रय के अन्दर हो तो अन्दर ही रहना चाहिए। आये हुए उन स्त्री पुरुषों की ओर ध्यान न देते हुए अपने स्वाध्याय ध्यान आदि में लीन रहना चाहिए। ऐसे समय में यदि कोई पुरुष उस उपाय को आग लगा दे तो अग्नि के कारण मुनि को उपाश्रय से बाहर नहीं निकलना चाहिए और यदि उपाश्रय के बाहर हो तो भीतर नहीं जाना चाहिए। उपाश्रय के चारों तरफ आग लगी हुई जान कर यदि कोई व्यक्ति मुनि की सुजा पकड़ कर वाहर खीचे तो मुनि को हठपूर्वक वहाँ ठहरना भी न चाहिए किन्तु उसका आलम्बन न लेते हुए ईर्यासमिति पूर्वक गमन करना चाहिए।
विहार करते हुए मार्ग में मुनि के पैर में यदि कंकर, पत्थर या कांटा आदि लग जाय तो भी उसे उन्हें न निकालना चाहिये। इसी प्रकार आँखों में कोई मच्छर प्रादि नीच, वीज या धूल पड़