________________
३६६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला नव द्वारों से सदा इस शरीर से मल मरता रहता है । साबुन से धोने पर भी जैसे कोयला अपने रंग को नहीं छोड़ता, कपूर भादि सुगंधित पदार्थों से वासित भी ल्हशुन अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ता, इसी तरह इस शरीर को पवित्र और निर्मल बनाने के लिये कितने . ही साधनों का प्रयोग क्यों न किया जाय परन्तु वह अपने अशुचि स्वभाव का त्याग नहीं करेगा बल्कि निर्मल पनाने वाले साधनों को भी मलिन बना देगा। यदि शान्त और स्थिर बुद्धि से विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि शरीर का प्रत्येक अवयव घृणाजनक है । यह रोगों का घर है । सुन्दर, हृष्ट पुष्ट युवक शरीर बुढ़ापे में कैसा जर्जरित हो जाता है यह भी विचारणीय है। अशुचि भावना का वर्णन करते हुए ज्ञानापाव में श्री शुभचन्द्राचार्य कहते हैं
अजिन पटल गूढं पञ्जरं कीकसानाम् । कुथित कुणप गन्धैः पूरितं मूढ ! गाढम् ॥ यम वदन निषण्णं रोग भोगीन्द्र गेहम् । कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम् ॥
भावार्थ-हे मूर्ख ! यह मानव शरीर चर्म पटल से आच्छादित हड्डियों का पिंजर है। सड़ी हुई लाश की दुर्गन्धि से भरा हुमा है। यह मौत के मुंह में रहा हुआ है और रोग रूपी सो का घर
है। ऐसा यह शरीर मनुष्यों के प्रीति योग्य कैसे हो सकता है ? इस • प्रकार शरीर को अशुचि मान कर इससे मोह घटाना चाहिये । मानव शरीर को सुन्दर, निर्मल और बलवान् समझना भ्रान्ति मात्र है। आत्ममाव की ओर उपेक्षा कर निसर्ग मलिन इस शरीर के पोषण में सर्व शक्तियों को लगा देना मनुष्य की सब से बड़ी अज्ञानता कही जा सकती है। अखिल विश्व में धर्म ही सत्य है, पवित्र है, दोषों को दूर कर वास्तविक सुख का देने वाला है। इस प्रकार की भावना से शरीर के प्रति निर्वेद होता है और. जीव प्रात्म