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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ३७१ आकाश पर स्थित है। लोक के चारों ओर अनन्त आकाश है। लोक में नीचे से ज्यों ज्यों ऊपर आते हैं त्यो त्यों सुख बढ़ता जाता है। ऊपर से नीचे की ओर अधिकाधिक दुःख है । ऊर्ध्वलोक में सर्वासिद्ध के ऊपर सिद्ध शिला है । आत्मा का स्वभाव ऊपर की भोर जाना है परन्तु कर्म से भारी होने के कारण वह नीचे जाता है इस लिए कर्म से छुटकारा पाने के लिए धर्म का प्राचरण करना चाहिए।
इस प्रकार लोक भावना का चिन्तन करने से तत्त्व ज्ञान की विशुद्धि होती है और मन अन्य वाह्य विषयों से हट कर स्थिर हो जाता है। मानसिक स्थिरता द्वारा अनायास ही आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति होती है।
(११) बोधि दुर्लम भावना-पोधि का अर्थ है ज्ञान । इसका अर्थ सम्यक्त्व भी किया जाता है। कहीं वोधि शब्द का अर्थ रत्नत्रय मिलता है। धर्म सामग्री की प्राप्ति भी इसका अर्थ किया जाता है परन्तु ज्ञान आन्तर प्रकाश की ही यहाँ प्रधानता है। धर्म के साधनों का सत्य स्वरूप बतलाने की शक्ति भी इसी में है। बोधि को रत्न की उपमा दीजाती है । जैसे रल की विशेषता प्रकाश है इसी प्रकार बोधि में भी ज्ञान की प्रधानता है। वोधि की प्राप्ति होना अति दुर्लभ हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन में कहा है
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुइ सद्धा, संजमम्मि य वारियं ॥
अर्थात-इस संमार में प्राणी को चार अंगों को प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है-मनुष्य जन्म, शास्त्रश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम । इसी तरह दसवें अध्ययन में भी बताया है- -
लदधूण वि उत्तमं सुह, सहहणा पुणरावि दुल्लहा। मिच्छत निसेवए जणे, समयं गोयम !मा पमायए । अर्यात्- उत्तम श्रवण (सत्सङ्ग अथवा सद्धर्म) भी मिल जाना