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... श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना सम्भव है किन्तु सत्य पर यथार्थ श्रद्धा होना बहुत ही कठिन है क्योंकि संसार में मिथ्यात्व का सेवन करने वाले बहुत दिखाई देते हैं। इसलिए हे गौतम ! तु एक समय का भी प्रमाद मत कर ।
इस प्रकार शास्त्रों में स्थान स्थान पर बोधि की दुर्लभता बताई है। शान्तसुधारस में उपाध्याय श्री विनयविजयजी ने कहा है
अनादौ निगोदान्धकूपे स्थितानामजलं जनुत्युदुःखार्दितानाम् । परीणामशुद्धिः कुतस्तादृशी स्यात् । यया हन्त ! तस्माद्विनियान्ति जीवाः ।। ततो निर्गतानामपि स्थावरत्वं, नसत्वं पुनदुर्लभं देहभाजाम् । नसत्वेऽपि पञ्चाक्षपर्याप्तसंज्ञिस्थिरायुष्यबदुर्लभ मानुषत्वम् ।। तदेतन्मनुष्यत्वमाप्यापि मूढो, महामोहमिथ्यात्वमायोपगूढः।। भ्रम दूरमग्नो भवागाधगर्ने,
पुनः क्व प्रपद्यत तबोधिरत्नम् ॥ भावार्थ-अनादि निगोदान्ध रूप कूप में रहे हुए, निरन्तर जन्म मरण के दुख से पीड़ित प्राणियों की वैसी परिणाम शुद्धि कैसे हो कि वे वहाँ से निकल सकें।वहाँ से यदि किसी प्रकार वे प्राणी निकलते हैं तो स्थावरता प्राप्त करते हैं परन्तु प्रसावस्था का प्राप्त करना उनके लिए अत्यन्त कठिन है। यदि वे त्रस भी हो जाये तो पञ्चेन्द्रियता, पर्याप्तावस्था और संज्ञित्व का मिलना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। संज्ञी जीवों में भी मनुष्य जन्म पाना और उस में भी दीर्घायु पाना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य जन्म पाकर के भी यह मूढ आत्मा मिथ्यात्व और माया