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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग अनेक श्रात्माओं का सम्बन्ध होता रहा है और उनसे यह आत्मा अलग भी होता रहा है। संयोग के साथ वियोग है-यह विचार कर स्वजन सम्बन्धियों में ममता न रखनी चाहिये । उपाध्याय श्री विनयविजय जी अन्यत्व-भावना का वर्णन करते हुए कहते हैं
यस्मै त्वं यतसे विभेषि च यतो यत्रानिशं मोदसे । यद्यच्छोचसिययदिच्छसि हृदायत्प्राप्य पेप्रीयसे। स्निग्धो येषु निजस्वभावममलं निलोव्य लालप्यसे । तत्सर्व परकीयमेव भगवन्नात्मन्न किञ्चित्तव ॥
भावार्थ-जिसके लिए तू प्रयत्न करता है, जिससे तू डरता है, - जिसमें तू सदा प्रसन्न रहता है, जिसका तू शोक करता है, जिसे तू हृदय से चाहता है, जिसे पाकर तू खूब प्रसन्न हो जाता है, जिनमें पासक्ति वाला होकर तू अपने पवित्र स्वभाव को कुचल देता है और पागल की तरह पकने लगता है। हे आत्मन् ! यह सभी पराया है, तेरा कुछ भी नहीं है।
परकीय पदार्थों में ममत्व भाव धारण कर आत्मा उनके उत्थान और पतन में अपना उत्थान और पतन समझने लगता है एवं अपना कर्तव्य भूल जाता है। यह अवसरन आवे और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का चिन्तन कर उसे विकास की ओर अग्रसर करे यही इस भावना का उद्देश्य है।
(६) अशुचि भावना- यह शरीर रज और वीर्य जैसे घृणित पदार्थों के संयोग से बना है। माता के गर्भ में अशुचि पदार्थों के
आहार के द्वारा इसकी वृद्धि हुई है । उत्तम, स्वादिष्ट और रसीले पदार्थों का पाहार भी इस शरीर में जाकर अशुचि रूप से परिणत
होता है। नमक की खान में जो पदार्थ गिरता है जैसे वह नमक बन , नाता है। इसी तरह जो भी पदार्थ इस शरीर के संयोग में आते हैं
वे सब अशुचि (अपवित्र ) हो जाते हैं। ऑख, नाक, कान आदि