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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
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से जलता हुआ अकेला ही यह जीव कर्म बाँधता है और सभी आवरणों के नाश होने पर वह ज्ञानी होकर ज्ञ न रूप राज्य का भोग भी अकेला ही करता है ।
परखी को पत्नी समझना जिस प्रकार भयावह है उसी प्रकार परभावों में ममत्व करना भी दुःखों को मामन्त्रण देना है। परभावों में स्वत्व और परत्व के भाव आने से ही जीव में राग द्वेष बढ़ते हैं जो कि संसार के मूल हैं । इस भावना के चिन्तन से परभावों में ममता नहीं रहती और राग द्वेष की मात्रा घटती है ।
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(५) अन्यत्व भावना - में कौन हॅू १ माता पिता आदि मेरे कौन हैं ? इनका सम्बन्ध मेरे साथ कैसे हुआ ? इसी तरह हाथी, घोड़े, महल, मकान, उद्यान, वाटिका तथा अन्य सुख ऐश्वर्य की सामग्री मुझे कैसे मिली ? इस प्रकार का चिन्तन इस भावना का विषय है। शरीर और आत्मा भिन्न हैं। शरीर विनश्वर है, आत्मा शाश्वत है। शरीर पौद्गलिक है, आत्मा ज्ञान रूप है। शरीर मूर्त है, आत्मा अमूर्त है। शरीर इन्द्रियों का विषय है, आत्मा इन्द्रियातीत है । शरीर सादि है, आत्मा अनादि है । इनका सम्बन्ध कर्म के वश हुआ है । इस लिये शरीर को आत्मा समझना आन्ति है। रोगादि से शरीर के कुश होने पर शोक न करते हुए यह विचार करना चाहिये कि शरीर के कश होने से यावत् नष्ट होने से मात्मा का कुछ नहीं बिगड़ता । मात्मा नित्य एवं ज्योति स्वरूप है । जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, भोग, हास और वृद्धि आत्मा के नहीं होते, ये तो कर्म के परिणाम हैं। इसी प्रकार माता, पिता, सास, ससुर, स्त्री, पुत्र आदि भी आत्मा के नहीं हैं, आत्मा भी इनका नहीं है । सन्ध्या समय बसेरे के लिये वृक्ष पर जिस प्रकार पक्षी या मिलते हैं और सुबह बिखर जाते हैं। इसी प्रकार स्वजनादि का संयोग भी अल्प काल के लिए होता है । प्रत्येक जन्म में इस आत्मा के साथ दूसरी
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