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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
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भोगता भी अकेला ही है । स्वजन मित्र आदि कोई भी व्याधि, जरा और मृत्यु से पैदा होने वाले दुःख दूर नहीं कर सकते । वस्तुतः स्वजन कोई भी नहीं है । मृत्यु के समय स्त्री विलाप करती हुई घर के कोने में बैठ जाती है, स्नेह और ममता की मूर्ति माता भी घर के दरवाजे तक शव को पहुंचा देती है । स्वजन और मित्र समुदाय श्मशान तक साथ आते हैं, शरीर भी चिता में आग लगने पर भस्म
जाता है परन्तु साथ कोई नहीं जाता । मानव अपने प्रियजनों के लिए बड़े बड़े पापकार्य करता है, उनके सुख और श्रानन्द के लिए दूसरों पर अन्याय और अत्याचार करते उसे संकोच नहीं होता । पापकर्म जनित धनादि सुख सामग्री को प्रियजन आनन्द पूर्वक भोगते हैं और उसमें अपना हक समझते हैं, किन्तु पापकर्मों के फल भोगने के समय उनमें से कोई भी साथ नहीं देता और पापकर्ता को अकेले ही उनका दुःखमय फल भोगना पड़ता है। जन्म और मृत्यु के समय आत्मा की एकता को प्रत्यक्ष करते हुए भी जीव परवस्तुओं को अपनी समझता है यह देख कर ज्ञानी पुरुषों को बड़ा श्रार्य होता है। सुख के साधन रूप पाँच इन्द्रियों के विषयों में ममत्व रखना, उनका संयोग होने पर हर्षित होना और वियोग होने पर दुखी होना मोह की विडम्बना मात्र है। एकत्व भावना का वर्णन करते हुए श्रीशुभचन्द्राचार्य कहते हैं
एक: स्वर्गी भवति विबुधः स्त्रीमुखाम्भोज भृंगः । एकः श्वात्रं पिवति कलिलं छिद्यमानैः कृपापैः ॥ एकः क्रोधाद्यनलकलितः कर्म बध्नाति विद्वान् । एकः सर्वावरणविगमे ज्ञानराज्यं भुनक्ति ॥ भावार्थ - यह जीव अकेला ही अप्सरात्रों के मुख रूपी कमल के लिये भ्रमर रूप स्वर्ग का देवता बनता है। अकेला ही तलवारों से छेदन किया गया नरक में खून पीता है। क्रोधादि रूप आग