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________________ ३६२ श्री सेठिया जैन प्रस्थानाला शतावधानी पण्डित मुनि श्री रनचन्द्रजी स्वामी ने भावनाशतक में कहा है तनोर्दुःख भुक्ते विविधगदर्ज कश्चन, जनः। तदन्यः पुत्र स्त्री विरह जनितं मानसमिदम् । परो दारिद्रयोत्थं विषसमविपत्तिं च सहते। नसंसारे कश्चित्सकलसुख भोक्तास्ति मनुजः॥ क्वचिद्राज्ञां युद्धं प्रचलति जनोच्छेद जनकं । क्वचित् क्रूरा मारी बहुजन विनाशं विदधती। क्वचिद् दुर्भिक्षण तुधित.पशुमादिमरणं । विपद्वह्निज्वालाज्वलितजगति क्वास्ति शमनम् ॥ भावार्थ- कोई पुरुष विविध रोगों से पैदा होने वाले शारीरिक कष्ट को भोगता है तो दूसरा पुत्र, स्त्री आदि के विरह जनित मानसिक दुःख से दुखी है। कोई दरिद्रता के दुःख और विष जैसी विपत्ति को सहता है । संसार में ऐसा कोई मनुष्य दिखाई नहीं देता जो समी सुखों का भोगने वाला हो। कहीं पर जनसंहारक राजाओं का युद्ध चल रहा है और कहीं पर अनेक मनुष्यों का नाश करती हुई क्रूर मारी फैली हुई है। कहीं पर दुष्काल पड़ा हुआ है और भूख के मारे पशु और मनुष्य मर रहे हैं। विपत्ति रूप भमि की ज्वाला से जलते हुऐ इस संसार में शान्ति कहाँ है ? अर्थात् कहीं भी शान्ति नहीं है।। इस प्रकार संसार भावना का चिन्तन करने से आत्मा को संसार में मोह नहीं होता । संसार को दुःख द्वन्द्व मय समझ कर वह निर्वेद प्राप्त करता है एवं संसार के भय का नाश करने वाले और वास्तविक सुख देने वाले जिन वचनों की ओर उन्मुख होता है। (४) एकत्व भावना- यह आत्मा अकेला उत्पन्न होता है और अकेला मरता है । कर्मों का सञ्चय भी यह अकेला करता है और उन्हें
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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