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श्री जैन सिद्धान्त योन संग्रह, चौथा भाग १ को वहाँ होने वाली स्वाभाविक शीत उष्ण वेदना सहन करनी पड़ती है, परमाधामी द्वारा दिए गए दुःख सहता है और परस्पर लड़ कर भी कष्ट उठाता है। क्षुधा, प्यास, रोग, वध, बन्धन, ताड़न, मारारोपण चादि तिर्यश्च गति के दुःख प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विविध सुखों की सामग्री होते हुए भी देव शोक, भय, ईर्ष्या भादि दुःखों से दुखित है । मनुष्य गति के दुःख तो यह मानव स्वयं अनुभव कर रहा है। गर्म से लेकर जरा यावत् मृत्यु पर्यन्त मनुष्य दुखी है। कोई रोगपीड़ित है तो कोई धन जन के अभाव में चिन्तित है। कोई पुत्र स्त्री के विरह से संतप्त है तो दूसरा दारिद्रय दुःख से दवा हुआ है। संमार में एक जगह भीषण युद्ध चल रहा है तो दूसरी जगह रोग फैले हुए हैं। एक जगह वृष्टि न होने से जीव त्राहि त्राहि फरते हैं तो दूसरी जगह अतिवृष्टि से हाहाकार मचा हुभा है। घर घर कलह का अखाड़ा हो रहा है। स्वार्थवश भाई भाई का खून पीने के लिए तैयार है। माता पिता सन्तान को नहीं चाहते, पति पत्नी एक दूसरे के प्राणों के प्यासे हैं। इस तरह सारा संसार दुःख
और इंन्द्र से पूर्ण है, कहीं भी शान्ति दिखाई नहीं देती।। ___ यह संसार एक रंगमञ्च है और जीव नट है । कर्म से प्रेरित यह जीव नाना प्रकार के शरीर धारण करता है। यह जीप पिता होकर भाई , पुत्र और पौत्र हो जाता है। माता पन कर स्त्री और पुत्री हो जाता है। स्वामी दास बन जाता है और दास स्वामी बन जाता है। यह संसार की विचित्रता है। एक ही जन्म में राजा से रंक और रंक से राजा होते हुए भी कितने ही प्राणी देखे जाते हैं। जीव इस संसार के सभी क्षेत्रों में रहा है, सभी जाति और कुलों में इसने जन्म लिया और प्रत्येक जीव के साथ नाता जोड़ा है । अनन्त काल से परिभ्रमण करते हुए इसे कहीं विश्राम नहीं मिला ।
'संसार में कोई सुख नहीं है। इस आशय को बताते हुए स्वर्गीय